समकालीन जनमत
ये चिराग जल रहे हैं

हाँ, गिर्दा, तुम्हारा होना एक दिन अवश्य सार्थक होगा

( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की  श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की दूसरी क़िस्त में  प्रस्तुत हैअनेक जन आंदोलनों के हिरावल दस्ते में शामिल जनकवि गिरीश तिवाड़ी  ‘गिर्दा ‘ की स्मृति-सं.)

बीस अगस्त, 2010 की अपराह्न मोबाइल की घण्टी बजी. स्क्रीन पर गिर्दा का नाम उभरा तो प्रफुल्लित मन से फोन उठाया. उससे बात करना हमेशा भीतर से खिल उठना और ऊर्जा से भर जाना होता था.
-‘गिर्दा!’ मैंने पुलक कर कहा.

-‘नब्बू, मैं ठीक हूँ हां, चिंता मत करना. हल्द्वानी अस्पताल को जा रहा. एम्बुलेंस में हूँ. बाकी सब ठीक. मेरे हाथों से अपने गाल मलास लेना, पलाश लेना. फिर बात होगी. ओक्कै.’

एक सांस में इतना बोल कर उसने फोन काट दिया था. मैं चिंतित हो उठा- अस्पताल ले जाने की नौबत क्यों आई? उसकी तबीयत काफी समय से ठीक नहीं चल रही थी लेकिन अचानक एम्बुलेंस में ?

मैंने फौरन एक-एक कर मित्रों को फोन मिलाया. पता चला गिर्दा के पेट का अल्सर फट गया है. नैनीताल के उसके डॉक्टरों ने जल्दी से जल्दी सुशीला तिवारी अस्पताल, हल्द्वानी ले जाने की सलाह दी है. एम्बुलेंस में शेखरदा भी साथ है. दिक्कत यह है कि नैनीताल-हल्द्वानी सड़क बंद है. कालाढूंगी के रास्ते ले जाना पड़ेगा.
चिंता गहन हो गयी थी. मन ने कहा- नहीं, गिर्दा को कुछ नहीं होगा. अपने शरीर पर कई हमले वह झेल चुका है. इस बार भी उसकी अदम्य जीजिविषा उसे सकुशल निकल लाएगी.

बीमार गिर्दा की मुस्कान

अगले दिन यानी 21 अगस्त को उसका ऑपरेशन हुआ. फोन आया कि ऑपरेशन ठीक-ठाक हो गया. देर शाम उसे होश भी आने लगा था. रात खबर मिली कि गिर्दा अर्द्ध  बेहोशी में कुछ बड़बड़ाने भी लगे हैं.

22 अगस्त की सुबह फोन आया कि गिर्दा कोमा में हैं. दोपहर तक वे इस दुनिया-ए-फानी से कूच  कर गये. गहरा खालीपन, सन्नाटा, स्तब्धता और निरुपायता. फोन पर फोन. किसी से कुछ कहते न बना.

जैसे तैसे अखबार के लिए श्रद्धांजलि लिखी और घर भागा. रात की गाड़ी से नैनीताल जाना ही होगा.
बार-बार मोबाइल में गिर्दा का नंबर देखता. इस नंबर से अब उसकी आवाज कभी सुनाई नहीं देगी. अब वह कभी नहीं बोलेगा- “ओक्के नब्बू, ओक्कै !”

गिर्दा, तुम तो कहते थे कि जरा खुद को समेट लूं तो चलूं. आज अचानक बिना खुद को समेटे सटक लिये!
क्य कहें. सृष्टि के नियम से परे तो वह भी नहीं था न!. ओक्के गिर्दा, ओक्कै!
……….

सन 1971 या 72 में गिर्दा से जब लखनऊ में मुलाकात हुई तब मेरी किशोरावस्था थी. वे बहुत अजीब से रोमानी दिन थे. पहाड़ की नराई बेतरह सताती थी. गिर्दा की जो पहली रचना मैंने उनके मुख से सुनी वह थी- ‘चिट्ठी’ जो भावुकता और नराई से भरपूर है. आकाशवाणी, लखनऊ के स्टूडियो में जिस तरह गिर्दा ने उस दिन अपनी ‘चिट्ठी’ बांची थी, वह मेरे मन में आज भी ताजा है-‘पै के करूं, यो पापी पेटैल, छोड़ै दे म्योर मुलक मैं थैं, नन्तरी क्वे काटि ले दिनो मैं कैं तां, नि छोड़न्यू मैं. ’

गिर्दा को सुनना तब अपनी नराई फेड़ना जैसा था. वह सुनाता तो जैसे अपने भीतर बैठी पहाड़ की याद हुड़क उठती. ‘बसंत’ तथा ‘हुलैरी ऐगे ब्याल’ जैसी कविताओं ने भी उस दिन इसीलिए सम्मोहित किया.

कुमाऊंनी-गढ़वाली बोली के ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम की उन लोक भाषा कवि गोष्ठियों में तब कुमाऊँनी-गढ़वाली (कभी जौनसारी, वगैरह भी) के कई कवि अपनी रचनाएं पढ़ने आते और हँसाते-रुलाते थे. उनमें से कई के नाम भी बाद में याद नहीं रहे जबकि गिर्दा परस्पर निकटता के कारण ही नहीं, अपनी निरन्तर प्रखर होती रचनाधर्मिता और सामाजिकता में भी बड़ा होता और हमारे समय और दिल-दिमाग पर छाता चला गया.
…………………

अगस्त 1943 में अल्मो‌ड़ा के निकट ज्योली गांव के ब्राह्मण परिवार में जन्मा गिरीश चंद्र तिवाड़ी नाम का बालक बचपन से ही बगावती प्रवृत्ति का था. उसे स्कूली पढ़ाई से ज्यादा ग्वालों, गिदारों, हुड़का-ढोल बजाने वालों, आदि की संगत पसंद आती थी. उसकी गिनती आवारा लड़कों में होती थी. अपने चाचा की सोहबत में उसने गांव के स्कूल में शुरुआती दर्जे किसी तरह पढ़े. फिर घर वालों के कहने पर आगे की पढ़ाई के लिए अपने दीदी-जीजा के पास अल्मोड़ा नगर भेजा गया. वहां भी उसकी आवारागर्दी’  जारी रही. उसने गीत-संगीत, कविता-किस्से, वगैरह ज्यादा सीखे. किसी तरह हाईस्कूल पास किया. फिर गांव लौट कर एक-दो बरस गाय-बकरियां चराते हुए गीत लिखे और गाये. इस बीच अपनी पहली मुहब्बत में चोट खाई और घर छोड़ कर भाग निकला.

पूरनपुर (पीलीभीत) पहुंचा गिरीश तिवाड़ी नाम्ना यह युवक दिन में पी डब्ल्यू डी में दिहाड़ी की नौकरी करता है और रातों को नौटंकी देखता है. नौटंकी मंडलियों में शामिल होने की उसकी कोशिश सफल नहीं होती. गीत लिखना, गाना-बजाना और पढ़ना बढ़ाता जाता है. प्रकाश पण्डित के सम्पादन में उर्दू के शायरों की शृंखला वाली किताबें उसे बहुत पसंद आती हैं. पीलीभीत में दोस्त बने ओवरसियर दुर्गेश पंत से वह चर्चा करता है कि क्या इसी तरह कुमाऊंनी, गढ़वाली, जौनसारी, नेपाली, आदि बोलियों के कवियों की किताबें नहीं छापी जा सकतीं.

कल्पना को जमीन पर उतारना आसान नहीं होता तो भी गिरीश तिवाड़ी इस योजना पर जुट जाता है. विभिन्न कुमाऊंनी कवियों के संकलन की पाण्डुलिपि तैयार तो हो जाती है लेकिन कोई चार-पांच वर्ष बाद 1968 में ‘शिखरों के स्वर’ नाम से छप पाती है, जो कुमाऊंनी कविताओं का पहला प्रकाशित संग्रह है. योजना के अन्य संग्रह कागज पर ही रह जाते हैं. योजनाकार गिरीश तिवाड़ी तब तक भटकते-भटकते कहां का कहां पहुंच चुका होता है.

पूरनपुर-पीलीभीत से भटकता गिरीश तिवाड़ी लखनऊ पहुंचता है. यहां कभी दिहाड़ी की नौकरी और कभी रिक्शा चलाता है. जिंदगी के इस ताप के अलावा अमीनाबाद के झण्डे वाला पार्क में बैठ कर इकन्नी-दुअन्नी की पुस्तिकाओं से उर्दू सीखना उस बेचैन युवक को अलग ही सांचे में गढ़ रहा होता है. थोड़ी-सी स्कूली शिक्षा के साथ पहाड़ से भागा बालक गिरीश किसी अंत:प्रेरणा से भटकनों के बावजूद जिन्दगी के सार्थक अध्याय पढ़ रहा था. अपने गांव ज्योली में वह ढोलियों, हुड़कियों और जगरियों के बीच भटकते हुए दलितों के करीब पहुंचा था तो पूरनपुर-पीलीभीत एवं लखनऊ के जीवन संघर्ष उसे असंगठित मजदूरों के हालात से सामना करा रहे थे. पहाड़ की यादों और उसके विविध सौंदर्य का यह युवा कवि जीवन के विद्रूप और विसंगतियों से भी साक्षात करने लगा था. इसी के साथ फैज़  और साहिर की नज़्में  उसके भीतर प्रतिरोध की लहरें पैदा कर रही थीं. यही से गिरीश तिवाड़ी के ‘गिर्दा’ बनने की प्रक्रिया शुरू होती है.

………………….

1971-72 में जब मैंने गिर्दा के मुंह से ‘चिट्ठी’ सुनी थी तब तक वह भारत सरकार के गीत एवं नाटक प्रभाग के नैनीताल केंद्र में स्थापित हो चुका था. लखनऊ रहते उसका सम्पर्क जिज्ञासु जी से हुआ था जो ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के लिए अच्छे रचनाकारों की सदैव तलाश में रहा करते थे. कुमाऊंनी के अनेक रचनाकारों की तरह जिज्ञासु जी ने गिर्दा को भी ‘उत्तरायण’ का व्यापक मंच दिया, जिसके लिए उसने अनेक कविताएं, गीत तथा संगीत-रूपक लिखे एवं प्रस्तुत किये.

‘चिट्ठी’ का रचनाकाल संभवतः 1965-66 है जब वह लखनऊ में भटक रहा था. उन दिनों उसने कुमाऊँनी में कई कविताएं-गीत लिखे, कुछ खूबसूरत रूपकों-उपमाओं से भरे सौन्दर्य प्रधान गीत तो कुछ पहाड़ की नराई भरे। स्त्रियों के प्रति तब उसकी दृष्टि साफ नहीं दिखती, बल्कि उसमें परम्परागत स्त्री-निंदक तेवर दिखाई देता है- ‘और इन सैणिन् पार ले कतई नाखक् नाम नि हुन/सुदै पुरपुतलिन जसा यथां-उथां उड़ानी भुला।’ (और इन शहरी स्त्रियों में शर्म नाम की चीज नहीं होती, तितलियों की तरह यहां-वहां उड़ती रहती हैं) लेकिन बाद में गिर्दा स्त्रियों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हो जाता है। कविताएं हों या रंगमंच या आन्दोलन अथवा संपादन-प्रकाशन, स्त्रियाँ उसकी रणनीति में अग्रणी स्थान ले लेती हैं। ‘एक लड़ाई और’ कविता में वह कहता है-

‘‘फूंकते-फूंकते चूल्हा तमाम उम्र
पुरुष मकड़जाल वाले भरे-पूरे परिवार में
निरंतर सुलगती रही अकेली तुम
तुम्हारी माँ, तुम्हारी बेटी
यानी कि पीढ़ियाँ।’’

सीखने में गिर्दा लाजवाब है। उसकी पूरी जीवन गाथा ‘घोगने’ की है। घोगना माने सिर्फ पढ़ना नहीं है, ग्रहण करना और गुनना ज्यादा है। अपने समय और वातावरण से उसने सबसे ज्यादा सीखा. अपना गांव ‘ज्योली’ की आवारागर्दी उसकी प्राथमिक पाठशाला थी. सन् 1986 में जब वह तमाम भटकनों से उबरते हुए, जिसमें माओवादियों तक की परिक्रमा शामिल थी, उत्तराखण्ड के जनांदोलनों को सांस्कृतिक-राजनीतिक स्वर देने में मशगूल था, ‘ज्योली’ को इस तरह याद करता है-

तुम बहुत याद आती हो ज्योली मुझे
जिन्दगी की डगर में हरेक शाम पर….
वो तू ही है, है तेरी ही आबो हवा
जिसने मुझ जैसा नालायक पैदा किया
फिर भी है नाज मुझ पर तुम्हें आज भी…’

‘मुझ जैसा नालायक’ वह यूँ ही नहीं कहता. इसी नालायकी में छुपे हैं सर्वथा लायक होने के बीज. यह नालायकी अगर उसे बचपन में जगरियों-हुड़कियों के बीच खींच ले जाती थी तो कालांतर में नैनीताल की सड़कों पर थाली और हुड़का बजाकर भीख मांगते हरदास सूरदास जैसे जगरिये की प्रतिभा पहचानने और फिर भारत-नेपाल सीमा पर रहने वाले झूसिया दमाई जैसे गायक-वादक पर अभिनव शोध करने का कारक बनती है.

जब वह ‘चिट्ठी’ जैसी कविता या ‘देवी भवानी’ जैसी वन्दना रच रहा था तो उन्ही दिनों छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से उर्दू भी सीख रहा था. यह उसकी यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव था. उर्दू उसे फैज़ , गालिब, साहिर, फिराक, जांनिसार अख्तर, अली सरदार जाफरी और रहबर जैसे रचनाकारों तक ले गयी. यहाँ उसने साहित्य से जीवन में सार्थक हस्तक्षेप करना ही नहीं सीखा, बल्कि बल्कि प्रेम और क्रांति का अद्भुत संयोग भी देखा. तब ‘चिट्ठी’ की नराई और ‘देवी भवानी’ की श्रद्धा-भक्ति पीछे छूट गयी. प्यार की पहली जोरदार चटक उसे अल्मोड़ा-हवलबाग में ही लग चुकी थी. यह टीस और व्यवस्था के जुल्मो सितम उसे फैज़  के बहुत करीब ले आये. फैज़ उसके भीतर के बागी को हवा देते थे और उसकी टीस पर मलहम भी लगाते थे. फैज़ यूँ ही उसके पसंदीदा शायर नहीं बने जिनकी रचनाओं को उसने अपने शब्दों व संगीत में ढाला भी.
………

शायद 1980 की बात है. गर्मियों में 15-20 दिन गाँव में रहने के बाद लखनऊ लौटते हुए मित्रों से मिलने के लिए मैं एक-दो दिन नैनीताल रुका. ‘नैनीताल समाचार’ का दफ्तर हम सबका अड्डा हुआ करता था.
-‘और बता नबू, गाँव में किस-किस से क्या-क्या बातें हुईं?’ गिर्दा ने अपने स्वभाव अनुरूप ही प्यार से पूछा था.
-‘वहाँ क्या बात होती गिर्दा और किससे? कोई ऐसा हुआ ही नहीं। औरतें, बूढ़े, बच्चे, अपने ही काम-धाम में व्यस्त।’ मुझे अपना उत्तर आज भी याद है. एक तड़प के साथ आया गिर्दा का जवाब भी-

-‘यार नबू, बात तो उन्हीं से होनी हुई…गाँव-गिराम के इन्हीं लोगों से तो होनी चाहिए बातचीत, बहस…’
मैं अपने जवाब से शर्मिन्दा हुआ था लेकिन उससे भी ज्यादा प्रभावित हुआ था गिर्दा की सोच से. जिन्हें मैं किसी भी बातचीत के लायक नहीं समझ रहा था, वही गांव के सीधे-सादे आम लोग गिर्दा के लिए सबसे महत्वपूर्ण थे. उनसे विविध विषयों पर बात करना, उनकी राय जानना, अपने हालात पर उनके विचारों, उनकी समझ से सीखना, चीजों को उनकी निगाह से देखना और अपने विचारों को मांजना, उसके लिए यही जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला थी. गिर्दा ऐसे ही आमजन से संवाद बनाकर सीखना, अपनी सोच उन तक पहुँचाना और उन्हीं के साथ जीना-लड़ना चाहता था और ऐसा ही वह करता भी रहा. (कोई पोथी नहीं/कोई पत्रा नहीं/जो भी सीखा वो इस जिन्दगी से सनम)

यह अकारण नहीं है कि रिक्शेवाले, नाव वाले, ठेले-खोंचे वाले, चपरासी, चौकीदार, घरेलू या होटलों-ढाबों के नौकर-चाकर, जो भी गिर्दा के सम्पर्क में आये, उसके अच्छे दोस्त बन गये और उनसे उसका रिश्ता बना रहा. वह उनसे उनके घर-परिवार से लेकर निजी सुख-दुख और गीत-संगीत पर भी बड़े अपनापे से बात करता था. वह रिक्शे पर बैठा कहीं जा रहा होता तो चंद ही मिनट में ‘रिक्शे वाले भाईसाब’ उसके आत्मीय बन जाते, उनसे बीड़ी और चाय का ही साझा नहीं होता, सुख-दुख, घर-परिवार, बच्चे-शिक्षा, रोटी और गीत सब पर बहुत सहज-सरल ढंग से बात होने लगती. यह कहीं से भी आरोपित नहीं लगता था, बल्कि उन्हें बतियाते देखकर लगता कि वे पुराने परिचित हैं और उनमें बड़ा अपनापा है।

हालचाल लेने के लिए वह फोन करता तो बूबा को जरूर पूछता. बूबा उर्फ सन्त शरण की माँ हमारे घर का कामकाज करती थी और वह बचपन से हमारे घर रहा. बड़ा होने पर वह खुद घर का काम करने लगा और गिर्दा से सहज ही उसकी दोस्ती हो गयी. गिर्दा उसकी बाबत पूछना कभी नहीं भूलता. कभी घर आने पर उससे हाथ मिलाता, प्यार से मिलता. लखनऊ प्रेस क्लब के सभी कर्मचारी उसके बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे.

सन् 2001 में जब उसे दिल का दौरा पड़ा तो वह लखनऊ प्रेस क्लब में ही ठहरा हुआ था. सुबह दस बजे उसे दिखाने पीजीआई ले जाना तय था. नौ बजे प्रेस क्लब से फोन आया कि गिर्दा जी के सीने में बहुत दर्द है, आप फौरन आइए. वह कुमाऊं परिषद या प्रेस क्लब में ही रुकना पसंद करता था. घरबारी हो जाने के बावजूद घरों के लिहाज और औपचारिकाताएं उसे पसंद न थे. उस दिन प्रेस क्लब का कर्मचारी रंगलाल ने ही गिर्दा को रिक्शे पर लाद कर सिविल अस्पताल पहुंचाया और इमरजेंसी में भर्ती कराया. हमारे पहुँचने तक उसे जीवन रक्षक इंजेक्शन लगाया जा चुका था. समय पर इलाज मिल जाने से उस दिन उसकी जान बच गयी. गिर्दा का एक मात्र सामान, उसका झोला रंगलाल ने बड़े जतन से संभाल रखा था.

नैनीताल की कोठरी में गिर्दा कई बरस नेपाली मजदूर राजा के साथ रहा. वह कोठरी देश के कई साहित्यकारों, रंगकर्मियों, आंदोलनकारियों, पत्रकारों, श्रमिक संगठनों आदि-आदि का अड्डा थी. राजा के बेटे पिरम को उसने गोद लिये बेटे की तरह पाला. गिर्दा, पिरम और राजा का गलबहियां डाल कर रहना बहुतों के लिए ‘कल्चरल शॉक’ हो सकता था, लेकिन हमारे लिए वह गिर्दा और उसके जीवन-दर्शन को समझने का बेहतरीन जरिया था. वह मार्क्सवादी ढंग का किताबी ‘डि-क्लास’ होना नहीं था. वह मनुष्य के जमीनी रिश्तों के परस्पर आदर की स्वाभाविक परिणति थी, जिसको गिर्दा ने अपने जीवन में उतार लिया था. ‘सीजन’ में सैलानियों से भरे नैनीताल में सड़क किनारे हुड़का बजाकर भीख मांगते हरदा सूरदास जैसे जगरिये की ‘खोज’, जागर गाने और हुड़का बजाने की कला की पहचान से कहीं ज्यादा इस मानवीय रिश्ते के सम्मान से ही सम्भव हुई. गिर्दा ही के आंख-कान वहां पहुंच सकते थे.

गिर्दा के रिश्ते ‘बड़े-बड़े’ लोगों से भी थे लेकिन लखनऊ-दिल्ली के आलीशान ड्राइंग रूम या कारपोरेट दफ्तरों का आतिथ्य उसे असहज बना देता था. ऐसी जगहों पर उसका दम घुटता था. उसे सांस लेने के लिए खुली, आम और आत्मीय जगह चाहिए होती थी. पीने का शौकीन था लेकिन अगर उसे किसी ‘बार’ में बैठा दिया जाता तो उससे पी ही नहीं जाती थी। ‘बार’ हो तो फिर ‘यही है हुसैनगंज का’ टाइप मधुशाला जहाँ असली देसी के साथ सारा खांटी देसीपन चहकता रहता या फिर फुटपाथी खोंचे पर या सड़क किनारे किसी पेड़ के नीचे ही उसे आनन्द आता, जहां चाहे जैसे बैठ लो और निश्चिंत हो बीड़ी का धुंआ उड़ा लो.

यही ठेठ देसीपन, यही सहज-सरल मानवीय बर्ताव, यही जमीनी ललक और तड़प गिर्दा के समूचे जीवन व्यवहार और रचनात्मकता का आधार थे. उसकी कविता, उसके संवाद, उसके गीत-संगीत के सुर-ताल और उसकी बोली-बानी इन्हीं तत्वों से बनती-फूटती थी. वह गाँव-देहात और प्रकृति को दूर से सराहता नहीं था बल्कि उससे तादात्म्य रखता था. उसकी रचनाओं में चिड़िया, पेड़, पानी, पहाड़, वगैरह कविता-बिम्बों की तरह नहीं आते, बल्कि वे उतने ही सहज ढंग से कविता का हिस्सा होते हैं जितना कि आम ग्रामीण के जीवन का. उसकी कविता सीली लकड़ियों से चूल्हा जलाने की कोशिश करती आमा की मुश्किलात का तो जिक्र करती ही है, अंततः जल गये चूल्हे में रखी कढ़ाई में सब्जी की छौंक से सुवासित गाँव का अद्भुत सौन्दर्य भी देखती है. वहां जीवन का संघर्ष और सौन्दर्य साथ-साथ है. कुछ भी आरोपित नहीं. गिर्दा के लिए जीवन और कविता में फर्क नहीं रहा.

कुमाऊंनी बोली का ठेठ अंदाज़ , मुहावरा और शब्द-भण्डार उसने इसी तरह अपनाया और कविता में उतारा-

ते खुटी बिराइ, छै खुटी ढड़ू
वाल थू-पाल थू, साङाल बड़ू
बाड़ में गदुवौ झाल नमङू
गोठ में बोकी डुन-लङङू
(-ग्यूं रोट मडुवौ पल्थण)
या-
द्यो लागो दण-दण, बुड़ि भाजी बण-बण
ले बुड़ी खाजा, त्यार गोरू भाजा
ऐ जा पैं ऐ जा, ऐ जाली हो
मेरि भौ की निनुरी ऐ जाली (-लोरी)
और, अनेक बार वह नागार्जुन के समकक्ष खड़ा दिखाई देता है-
चिंता पर चिंतन
चिंतन पर मंथन
मंथन की चिंता-आसन, सिंहासन
बावन, त्रेपन, चव्वन (-चिंतन में सिंहासन)
या-
अजी वाह, क्या बात तुम्हारी
तुम तो पानी के ब्योपारी

खेल तुम्हारा तुम्ही खिलाड़ी
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी (-बूंद-बूंद को तरसेंगे)

मंगलेश डबराल का मन अगर उन्हें पहाड़ का नागार्जुन कहने को होता है तो क्या गलत है. बाबा गिर्दा को बेतरह प्यार करते थे, उसे अपनी प्यारी जेब घड़ी ही नहीं कविता और संघर्षों की विरासत भी सौंप गये थे, जिसे गिर्दा ने बड़े जतन से संजोया-विस्तारा.

गिर्दा, युवावस्था में चारुचंद्र पाण्डे के साथ

अपनी किशोरावस्था के दो-तीन बरस उसने अल्मोड़ा में बिताये थे. तब का अल्मोड़ा सांस्कृतिक चेतना में अद्भुत रूप से रंगा था। उदय शंकर के ‘कल्चरल सेण्टर’ और ‘लोक कलाकार संघ’ की सक्रियता की अनुगूंजें उसकी हवा में थीं. किशोर से युवा होते गिरीश तिवाड़ी को इस सबने आकर्षित जरूर किया होगा लेकिन तभी उसे मुहब्बत की चोट खानी पड़ी और वह अल्मोड़ा से भाग आया.

अपने टीन के बक्से में लाल व क्रीम कलर की एक साड़ी छुपाये वह पूरनपुर, पीलीभीत, लखनऊ और अलीगढ़ की तरफ भटकता फिरा। उस दौर में वह बड़ा रोमानी गीतकार था और गीतकार नीरज के साथ मंचों की वाहवाही भी उसने लूटी. नीरज भी उसे खूब पसंद करते थे. लेकिन यह रास्ता उसे जंचा नहीं. उसने समाज नाम के विश्वविद्यालय से अब तक जो सीखा था उसने उसे उस राह नहीं जाने दिया. पूरनपुर से लखनऊ और फिर एटा-अलीगढ़ की भटकन के दौरान बीड़ी और दारू की आदत के अलावा और भी कुछ बड़ा व कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण परिवर्तन उसके मन-मस्तिष्क में हो रहा था. तभी वह फैज़ को अपना प्रिय शायर बना कर अपनी टीस के साथ जमाने भर के दर्दों को अपनाना सीखता है-‘तू गर मेरी भी हो जाए, दुनिया के गम यूं ही रहेंगे….क्यों न जहां का गम अपना लें, बाद में सब तदवीरें सोंचें…’ ये लाइनें वह अक्सर ही गुनगुनाता था।

उसने कविता में, गीत-संगीत में और जो उसके साथ-साथ लगी रही थी अपनी उस लोक थात में त्राण पाया. उसी को अपना खास औजार बनाया और उसी को लेकर जनता के बीच लौटना अपना ध्येय बनाया. इसी की बदौलत 1967 में बृजेन्द्र लाल साह उसे गीत एवं नाटक प्रभाग, नैनीताल खींच ले गये. यह उसके जीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण मोड़ था कि वह पहाड़ वापस आ पड़ा. आज यह कल्पना करना कठिन है कि ऐसा नहीं होता तो गिरीश तिवाड़ी क्या और कहां होता.

इस तरह पहाड़ को गिर्दा वापस मिला और गिर्दा को पहाड़ की रचनात्मकता और आंदोलन से सुगबुगाती धरती मिली. यहाँ उसके विकसित होने के लिए पूरा माहौल तैयार था. लेनिन पंत और सुभाष गुप्ते की जोड़ी ने गीत एवं नाटक प्रभाग को सरकारी सीमाओं से बाहर निकाल कर खूब रचनात्मक और उन्मुक्त बना रखा था. जिनको वह गुरु मानता था, वे चारु चन्द्र पाण्डे जो  ‘गौर्दा’ (गौरी दत्त पाण्डे) पर शोध कर उनकी कविता की विविधता और व्यापकता को साल भर पहले ही सामने ला चुके थे और खुद भी आला दर्जे की कविताएं लिख रहे थे. उत्तर प्रदेश का पहाड़ी इलाका विशाल उत्तर प्रदेश में घोर उपेक्षित था. उसकी प्राकृतिक  सम्पदा की लूट मची थी. जनता में आक्रोश कुलबुलाने लगा था.

1967 के बाद गिर्दा इसी जमीन पर उगा और बढ़ा. इसी जमीन पर फिर उसने अपनी सांस्कृतिक-राजनैतिक खेती की. ‘अंधेर नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘धनुष यज्ञ’, ‘नगाड़े खामोश हैं’, ‘हमारी कविता के आंखर’ से लेकर जागर पुस्तिकाएं, आंदोलनों की विविध होलियां, ‘उत्तराखण्ड काव्य’, आदि-आदि सब इसी जमीन की उन्नत फसलें कही जा सकती हैं।

गीत नाटक प्रभाग की नौकरी ने उसे एक स्थायित्व जरूर दिया लेकिन उसकी भटकनें जारी थीं.उसने कहा/मैं यह सह सकता हूँ/सरकारी नौकर होने के नाते/ उसने कहा/लेकिन मैं यह नहीं सह सकता/एक आदमी होने के नाते…’ और, वह सरकारी नौकर होने के बावजूद आदमी होने का फर्ज निभाने जाने कहाँ-कहाँ दौड़ता-भटकता रहा और उस बीच कैसा-कैसा जीवन उसने जिया!

जून 1988 में शादी होने तक उसका जीवन घोर अराजक किस्म का रहा. एक दौर में तो वह टट्टी का दरवाजा खुला रखता और धोने वाले मग्गे से ही पानी पी लेता. हाथ धोओ कहना हुआ नहीं. तौलिये का काम दरवाजे-खिड़कियों पर लटके पर्दों से. नहाने से उसे जैसे बैर था. लेकिन तब भी उसके लिए इंसान से मुहब्बत, अपनी लोक-परम्परा से निरंतर साक्षात्कार, अध्ययन-मनन, गैर-बराबरी के खिलाफ आक्रोश, रंगमंच पर सक्रियता, लेखन और जन आंदोलनों में भागीदारी की अहमियत बराबर बनी रही. एक दौर ऐसा भी आया जब वह नक्सलवादियों के करीब होने लगा था.

इस तरह के कितने विचलन, कितने अजब-गजब दौर उसके जीवन में आये लेकिन हर दौर से वह अपने अनुभव ही गहन करता रहा. दरअसल, जिन हालात से वह गुजरा उसने उसके भीतर विचारों, विचलनों व विसंगतियों को मथने की ऐसी प्रणाली विकसित कर दी थी जो सार-सार को गह लेती थी. इसलिए वह हर बार सामाजिक-राजनीतिक चेतना से और भी लैस होकर निकलता था. चूंकि उसकी चेतना में आम जनता बराबर मौजूद रहती थी और जनता को ही वह सबसे बड़ा शिक्षक मानता था इसलिए दूब की तरह विनम्र और जमीन पर ही फैलते रहने वाला वह बना.

शादी करने के लिए वह बाबा नागार्जुन की सलाह से राजी हुआ था. कई रस्मों को खारिज करते हुए सप्तपदी के लिए किसी तरह तैयार हुआ मगर तीन फेरों के बाद ही बैठ गया कि बहुत हुआ. असली बात यह है कि हम सात फेरे लेने वालों ने क्या निभाया होगा रिश्ता जो उसने हमारी भाभी हेमलता के साथ निभाया. पत्नी का पूरा ध्यान रखने से लेकर पूरे मनोयोग से सब्जी काटने तक उसके पारिवारिक रूपांतरण पर सभी चौंके थे. उसकी अराजकताओं पर रोक लगी. शराब लगभग बंद हुई हालांकि बीड़ी वह नहीं छोड़ सका. पिता बनने पर वह भूमिका भी उसने बखूबी निभाई. कुछ आगे या पीछे भाभी और नन्हे तुहिन को कंधों पर बैठाकर पिरम का हाथ थामे चलते गिर्दा की छवि दिव्य लगती थी.

गिर्दा अपनी बेगम श्रीमती हीरा तिवारी के साथ

लखनऊ आना उसका लगा ही रहता था. कभी आकाशवाणी के निमत्रंण पर, कभी गीत-नाटक प्रभाग के सरकारी दौरे और कभी ‘यूँ ही मन हो गया यार नब्बू मिलने का.’ आया तो मयखोरी होनी ही ठहरी और बकौल गिर्दा, विलायती ससुरी में वह मजा कहाँ होने वाला हुआ जो ‘यही है हुसेनगंज का’ में ठहरा.
मुश्किल उस बार यह हुई कि नन्हा पिरम भी उसके साथ लखनऊ आया था. पिरम ने हर उस जगह अनिवार्य रूप से जाना हुआ जहाँ-जहाँ गिर्दा चरण धरते. तो मैं, पियूष और बालक पिरम संग गिर्दा पहुँच गए उदयगंज की मधुशाला जिसका ब्राण्ड-स्लोगन कभी नहीं भूलता- ‘यही है हुसेनगंज का’. सदाबहार, गुलजार. सफेदे की एक बोतल और मिट्टी के कुल्हड़ लेकर एक मेज पर बैठे ही थे कि सारे के सारे मधुप्रेमी मधुमक्खियों की तरह हम पर टूट पड़े- ‘अरे, इस बच्चे को लेकर यहाँ क्यों आ गये ? ’

-‘यहां एडमिशन कराने लाये हो क्या…स्कूल समझ रखा है इसे?’
-‘उसे घर छोड़कर आओ…अभी खुली रहेगी यार मधुशाला…’

-‘अरे, उसे थोड़ा बड़ा तो होने दो.’ मधुप्रेमियों का अद्भुत बच्चा-प्रेम और भविष्य-चिन्ता हमने उसी दिन देखे.
गिर्दा ने पहले तो कुछ अपनी तरह की तर्कबाजी शुरू की कि ‘क्या-क्या छुपाएंगे भाई उस बच्चे से और कब तक’ मगर वहाँ कौन सुनने वाला था! हम उठने को हो गये लेकिन गिर्दा वहीं डटे रहे. उधर पिरम था कि इस सब से बेखबर सभी मेजों का चक्कर लगाकर कहीं पकौड़ी चट कर आया तो कहीं से लाई-चना की मुट्ठी भर लाया. पिरम को टोकना तो गिर्दा को आता ही नहीं था. पिरम क्या, तुहिन क्या, किसी भी बच्चे को वह डांट नहीं सकता था.

लखनऊ में अक्सर उसके सथ देर रात तक बैठकी चलती. ‘और सुनाओ’ कहने के बाद वह खुद ही सुनाने लगता. दो-तीन पैग के बाद उसके भीतर का रचनात्मक बांध फूटने लगता. वह गाता, नई पुरानी बंदिशें. फैज़ और साहिर को अनिवार्य रूप से. तीव्र सप्तक  तक जाती उसकी आवाज. ‘उठो, अब चलो’ कहने पर वह शायराना अंदाज- ‘चलता हूं, चलता हूँ. जरा खुद को बटोर लूं तो चलू. जाने कहां-कहां बिखरा हूं, नबू.’ पहाड़ी होलियों की एक विशद मंचीय प्रस्तुति लखनऊ में करने की तमन्ना, जिसमें मंच त्रिस्तरीय होना था. एक स्तर बैठी (शास्त्रीय) होली का, दूसरा खड़ी (लोक) होली का और तीसरा महिला होली का. तीनों प्रस्तुतियों में सिंक्रोनाइजेशन. रचनात्मकता की ऐसी उड़ानें जो अक्सर बहुत अव्यवहारिक लगतीं मगर चमत्कारित करतीं. कभी खिझाने वाली भी. फिर पूछता- ‘है बात में कुछ दम?’ फिर यह यह टेर भी- ‘गो कि हमारी बात मानना कतई जरूरी नहीं, हाँ! रिजेक्ट करो साले को अगर बात में दम नहीं है तो.’ हर प्रस्तुति को उसकी सम्पूर्णता तक ले जाने की जद्दोजहद.

नैनीताल क्लब के जरा नीचे वाली उसकी कोठरी में रात गये तक कोई साथ हो, न हो, गिर्दा हारमोनियम से खेलते रहते. साथ हुआ तो हारमोनियम तक पहुंचने से पहले बेहिसाब बहसें होतीं, कल्पनाओं के घोड़े दौड़ते. ‘नैनीताल समाचार’ के अंकों की प्लानिंग उत्तेजक और झगड़ा मचाऊ बैठकों में बदल जाती, वन आंदोलन हो या ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन वह कुछ नया और असरदार करने के लिए बेचैन रहता, यात्राओं में उसकी बहसें जारी रहतीं.

नाटक की रिहर्सलों में अभिनव प्रयोग होते. यहां तक कि अति-प्रयोगधर्मिता से कभी साथी खीझ भी उठते. नाटक या कविता या लोकगीतों की किताब छापने की उसकी योजना उसके गीत-संगीत का कैसेट बनाकर आखिरी जिल्द की जेब में रखने की कल्पना तक जाती थी, जबकि ऐसे प्रयोग तब तक दिखाई-सुनाई नहीं दिये थे. अपने समय से बहुत आगे का उसका चिंतन होता.

दिन की गम्भीर बैठकें हों या रात की उन्मुक्त उड़ानें, गिर्दा लगातार गहराई में उतरता जाता. ‘जरा और गहरे पैठा जाए’ वह कहता. जितना गहरे जाता, उतना ही उसका कलाकार, उसका विचारक, उसके भीतर बैठा परफॉर्मर, उसका आलोचक प्रखर होता जाता. नशा गिर्दा को ‘डबल गिर्दा’ बना देता था. शराब उसकी रचनात्मकता को भड़का देती थी. तब हम सोचते, इस समय टेप रिकॉर्डर होना चाहिए था लेकिन हर बार हम चूक जाते थे. गिर्दा इतना करीब लगता था कि कभी उसका ठीक-ठाक इण्टरव्यू भी करने की हमने नहीं सोची. उसके पास इतना खजाना था कि उसे ठीक से संजोने की योजनाएं ही बनती रह गईं. हमेशा लगता था कि गिर्दा तो यहीं है, हमारे पास.

सन 2001 में दिल के दौरे से पहले और बाद में भी उसके शरीर पर बहुत हमले हुए. पुलिस–पीसी की लाठियां ही नहीं कई बीमारियां भी. अपने तन के साथ उसने अत्याचार भी कम नहीं किये थे. अब वह बदला लेने पर उतारू था. दिल घायल हो चुका था और गठिया ने उसे बहुत तंग किया, पंगु बना देने की हद तक. दवाओं के दुष्प्रभाओं ने उसे जितना हो सकता था सताया. परंतु वह शरीर की गुलामी मानने वाला जीव था ही नहीं. उसने बीमारी को दिमाग पर हावी नहीं होने दिया. वह स्वच्छन्द उड़ान वाला जीव बना रहा. हेमलता भाभी की पूरी देखभाल और हिदायतों के बावजूद इसकी गुंजाइश उसने बनाए रखी. बीमारियों से अशक्त होने पर भी वह हमेशा चैतन्य और रचनारत रहा.

गिर्दा शेखर पाठक के साथ

लता अक्सर कहती थी कि ‘नैनीताल समाचार’ की होली में शामिल हो कर गिर्दा से होली सुनी जाए लेकिन हर बार टल जाता था. 2009 में हम निकल ही पड़े लेकिन ‘समाचार’ की होली बैठक एक दिन पहले ही हो चुकी थी. तब कैलाखान वाले उनके डेरे में पहुंचकर लता ने कहा-’ गिर्दा, हम तो आपसे होली सुनना चाहते थे, एक दिन देर हो पड़ी, क्या करें.’
गिर्दा उन दिनों काफी बीमार थे. गठिया ने अंगुलियां टेढ़ी कर दी थीं. बवासीर में इतना खून बह गया था कि चेहरा निचुड़ आया था. चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी. अपनी टेढ़ी अंगुलियों से गिर्दा ने बीड़ी सुलगाई और बीमार चहेरे पर भरसक मुस्कान बिखेरी. अचानक वह तरंगित हो उठा.

बीड़ी का गाढ़ा धुंआ उगलते हुए बोला था- ’सुन लता, महिलाओं की बैठक में यह होली जरूर गायी जाती है… ’ और गिर्दा गाने लगा-’रंग डालि दियो हो अलबेलिन में….सीतादेही में, बहुराणिन में, रंग डालि दियो हो...’ गाते-गाते हाथ नचाते हुए उनके मुरझाए उनके चेहरे पर रंगत आने लगी थी. फिर उसने एक खड़ी होली सुनाई- ’मेरी नथ गढ़ी दे छैला सुनारा, मेरी नथ गढ़ी दे छैला बे….नथुली गढ़ै को क्या देली यारा….’
खूब डूब कर, हाथ नचा-नचा कर वह गाता रहा. सुरों के उतार-चढ़ाव के साथ उसके हाव-भाव भी बदलते रहे. फिर मुग्ध होकर जैसे खुद से ही कहने लगा- ’ओ, हो-हो-हो, कहां से आते होंगे ये सुर…’ हमने उसका गाते हुए छोटा-सा वीडियो भी बनाया था उस दिन.

चलते समय लता ने कहा था-गिर्दा, अगली होली में हम पहले आ आएंगे और आपसे खूब होलियां सुनेंगे.’ गिर्दा स्नेह से मुस्करा दिया और लता के सिर में हाथ फेरने लगा था. तब क्या पता था कि होली आती रहेगी, बैठकें भी होंगी मगर होलियों में रमने वाले गिर्दा अब कभी वहां नहीं होंगे.

पहाड़ी होली के बारे में गिर्दा
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अपने अंतिम दसेक वर्ष गिर्दा ने बहुत शारीरिक एवं मानसिक कष्ट में बिताए, हालांकि यह उसका सबसे ज्यादा उर्जस्वी दौर भी रहा- सड़क पर सक्रियता और चिंतन व रचना के स्तर पर भी। वन आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन और उत्तराखण्ड आन्दोलन गिर्दा के जनकवि और आन्दोलनकारी दोनों रूपों के चरम दौर थे. उत्तराखण्ड बन जाने के बाद उसकी बेचैनी और बढ़ गई थी क्योंकि जो राज्य बना वह जनता की उम्मीदों से बहुत-बहुत दूर है. वह जो कहता था कि ‘कस होलो उत्तराखण्ड, कास हमारा नेता/जड़ि-कंजड़ि उखेड़ि भली कै/पूरि बहस करूंलों…’ (कैसा होगा उत्तराखण्ड, कैसे हमारे नेता, हर बात की गहरी पड़ताल करके हम पूरी बहस करेंगे) अब हालात देखकर बहुत दुखी था और आक्रोशित था. इसीलिए ‘नदी बचाओ’ जैसे आन्दोलनों में वह अपनी शारीरिक अशक्तता के बावजूद पूरी तरह शामिल रहा.
उसके कष्ट शारीरिक तो थे ही मानसिक और भी ज्यादा थे. उत्तराखण्ड की जनता छली जा रही थी और उधर आन्दोलनकारी संगठनों में टूट-फूट बढ़ती गई. वह व्यथित था लेकिन कुछ कर भी नहीं पा रहा था. एक लोकप्रिय जनकवि और सम्मानित आंदोलनकारी के रूप में वह यह भूमिका नहीं ही निभा पाया कि बिखरती ताकतों को एक करने की कोशिश करता. बल्कि उस पर भी पक्षधरता के आरोप लगे. वह सबकी एकता चाहता अवश्य था लेकिन चाहने से आगे बढ़ नहीं पाया. व्यवस्था के प्रति गुस्से में कभी-कभी वह ‘टुक्याव’ छोड़ा करता था लेकिन अपने संगी-साथियों को छोटी-छोटी बातों के झगड़े भूलकर एक होने के लिए वह सजोर डांट क्यों नहीं पाया? उसका इतना सम्मान था कि वह सबको एक साथ बैठा तो सकता ही था. यह मैं उससे कभी कह नहीं पाया.

या, क्या इसके लिए वह किसी उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रहा था ?
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देश-दुनिया की स्थितियों के प्रति बेचैनी, हालात को बदलने के लिए यथासम्भव हस्तक्षेप करना और हमेशा बेहतर समाज का ख्वाब आँखों में बसाए रखना गिर्दा की बड़ी खूबी थी. वह निराश-हताश होकर बैठ रहने वालों में नहीं था. 27 नवंबर 1977 की रात अगले दिन नैनीताल में होने वाली कुमाऊं के वनों की नीलामी को रोकने का उपाय नहीं सूझ रहा था. अंतिम समय पर सूचना मिली थी. वन विभाग ने प्रशासन के साथ मिल कर गुप-चुप तैयारियां की थीं. भारी संख्या में पीएसी बुला ली गई थी. पिछली बार दर्जन भर लड़कों ने हॉल में जबरन घुसकर मंच पर कब्जा करके नीलामी रुकवा दी थी. इसलिए इस बार उन लोगों की भी गिरफ्तारी की साजिश थी. गिरफ्तारी से बचने और नीलामी रोकने का कोई जतन करने के लिए गिर्दा चंद युवकों के साथ विश्वविद्यालय के छात्रावास में बैठे थे. जनता को सचेत करने और आंदोलन खड़ा करने का इतनी जल्दी कोई तरीका था नहीं.

1926 में गौरी दत्त पाण्डे ‘गौर्दा’ द्वारा लिखे गये कुमाऊँनी गीत ‘वृक्षन को विलाप’ को नये सन्दर्भों में रचने/रूपान्तरित करने का विचार तभी गिर्दा को सूझा था. उसी रात जन्मी थी यह रचना- ‘आज हिमाल तुमन कैं धत्यूंछो, जागो-जागो हो मेरा लाल/ नी करी दी हालो हमरी निलामी, नी करी दी हालो हमरो हलाल.’ (आज हिमालय तुम्हें पुकार रहा है, जागो-जागो, ओ मेरे लाल। नहीं होने दो हमारी नीलामी, मत होने दो हमारा हलाल)

अगली सुबह गिर्दा ने नैनीताल की सड़क पर हुड़का बजाकर यह गीत गाया तो आग की तरह खबर नैनीताल भर को हो गयी. जब तक पुलिस वाले कुछ समझते हुजुम उमड़ आया. गिर्दा और साथियों को पीएसी ने पीट-पीट कर जब तक जेल भेजा तब तक भीड़ ने शैले हॉल में घुस कर वनों की नीलामी रुकवा दी थी. गिर्दा के साथ गिरफ्तार साथी हलद्वानी जेल में भी यह गीत गाते रहे थे. इस गीत ने ‘चिपको आन्दोलन’ और बाद के अन्य जन आंदोलनों को जिस तरह नई ताकत दी, वह बहुचर्चित है. तब से इस गीत के बिना उत्तराखण्ड में जनता का कोई आन्दोलन और आयोजन शायद ही सम्पन्न हुआ हो.

यह ‘गिर्दा’ के रूप में एक जन कवि का उदय था जिसका चरमोत्कर्ष 1994 के उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में जबर्दस्त आतंक और दमन के बीच भी 53 दिनों तक रोज रचे और गाये गये छंदों के रूप में हुआ, जो ‘उत्तराखण्ड काव्य’ नाम से चर्चित और प्रकाशित भी हुआ. राज्य आंदोलन के उन दमन भरे दिनों में जब जनता तक पूरे राज्य की खबरें नहीं पहुंच रही थीं, ‘नैनीताल समाचार’ की टीम विविध साधनों-सम्पर्कों (मोबाइल और सोशल मीडिया तब नहीं था) से खबरें जुटा कर शाम को नैनीताल में बुलेटिन पढ़ती थी और गिर्दा तत्सबंधी नित नये छंद लिख कर गाते थे.

अपनी रोमानियत में हम कभी सोचते थे कि गिर्दा को राष्ट्रीय फलक पर जाना चाहिए. उसकी रचनाएं सुनते, उसकी बुलन्द आवाज, उसके सुर-ताल, उसके नाटक देखते और मंच परिकल्पनाओं से अभिभूत होते तो उसे दिल्ली-मुंबई के राष्ट्रीय सांस्कृतिक मंच पर छाया हुआ देखने की कल्पना करते. वह लखनऊ आता तो उसे स्कूटर पर बैठाकर जगह-जगह ले जाते और मित्र मंडलियों में उसके प्रदर्शन करवाते. लोग भी कहते गिर्दा को तो दिल्ली जाना ही चाहिए. इस बात को वह हवा में उड़ा देता. यूं, वह प्रचार प्रिय नहीं था लेकिन उसकी इच्छा होती थी कि उसका काम दिल्ली-बंबई वाले देखें. लखनऊ-दिल्ली में बड़े प्रदर्शनों की योजनाएं भी वह बनाता था और उनके लिए ‘इंतजाम’ करने को भी कहता था. उसके काम के बारे में अखबारों में छपे, ऐसा इशारा भी वह कभी-कभार किया करता था लेकिन व्यावसायिक होने की तनिक भी इच्छा उसमें नहीं थी. जनता को समर्पित संस्कृतिकर्म ही उसका एकमात्र ध्येय बन गया था. उसे किसी किस्म का लालच न था. कभी जेब में पैसे हुए तो वह किसी पर भी खर्च कर डालता या जरूरतमंद को देने में एक पल की देर न लगाता.
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गिर्दा ने नाटक लिखे (नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ) नाटकों का निर्देशन (अंधेर नगरी, अंधायुग, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड, आदि) किया, उन्हें संगीत-गीत और नयी मंच सज्जा दी, लोककथाओं व कविताओं को नुक्कड़ नाटकों में पेश किया (राजा के सींग, रामसिंह, आए चुनाव-गए चुनाव, आदि) फैज़  और साहिर की अपनी प्रिय रचनाओं को सरल हिन्दी और कुमाऊँनी में अनूदित कर उनकी बंदिशें बनाईं. (हम मेहनतकश जगवालों से…., क्यों मेरा दिल शाद नहीं है, देखेंगे हम भी देखेंगे…, कौन आजाद हुआ, वगैरह) वह जितना अपनी व्यवस्था विरोधी काव्य धारा (ये उलटबांसियों नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी…आओ खेलें कट्टम-कट्टा…) के लिए जाना गया, उससे कहीं कम सौन्दर्य बोध के लिए नहीं सराहा गया (पार पछ्यूं धार बटी…, हुलरी ऐ गे वसंत की परी…, ओ हो रे द दिगौ लाली…, आदि)

अपने प्रतिरोधी काव्य में वह क्रांतिकारियों की पांत में बैठा दिखाई देता है. (उत्तराखण्ड काव्य, जागो-जागो हो मेरा लाल) उत्तरकाशी जिले में भागीरथी में भूस्खलन से विशाल झील बनने और उसके टूटने से मची तबाही हो या तवाघाट की विनाशलीला या पंतनगर का गोलीकाण्ड वह जान जोखिम में डालकर आँखी देखी रिपोर्ट लाने में पत्रकारों के कान काटते रहा (‘नैनीताल समाचार’ में छपे रिपोर्ताज). लिखित शब्द की सामर्थ्य को ही पर्याप्त न मानकर वह पुस्तिका के साथ ही कविता और गीतों के कैसेट भी बनाने के लिए बच्चों जैसे उत्साह से जुट जाता था (‘जागर’ पुस्तिकाएँ और कैसेट)

उसकी छटपटाहट देखकर लगता था कि अभिव्यक्ति की कोई एक-दो विधाएं उसे सम्प्रेषण के लिए पर्याप्त नहीं लगती थीं. इसलिए वह एक साथ कई विधाओं में, कई आयामों में मुखर होना चाहता था. हाथों के इशारों, आँखों के भावों, भृकुटियों के उतार-चढ़ाव, चेहरे की भंगिमाओं और बीच-बीच में मौन से भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करता रहता था. फिर भी जैसे कुछ बाकी रह जाता था.

कौसानी में आयोजित एक कार्यशाला में स्कूली बच्चों को गीत  सिखाते हुए गिर्दा
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और, ‘दावानल’ का गिर्दा !
अपने उपन्यास ‘दावानल’ को पूरा करना मेरे लिए कड़ा इम्तहान बन गया था. एक तो पहला उपन्यास, दूसरे ताजा इतिहास से भिड़न्त और तीसरे अपने ही आस-पास के पात्रों का चित्रण. 1991 में लिखना शुरू किया तो तीन सौ पेज लिखने के बाद कई सवालों में उलझकर ठप हो गया. फिर 2002-03 में उसे पूरा किया तो अजीब असमंजस में फंसा रहा. उसके सभी प्रमुख पात्र हम सबके जाने-पहचाने हैं, ज्यादातर बहुत करीबी नाम से. गिर्दा को पहले गिर्दा के रूप में ही लिखा. फिर एक वही नाम क्यों मूल रूप में हो, इसलिए गिर्दा को ‘हिर्दा’ बना दिया. गिर्दा की रचनाएं उपन्यास में प्रयुक्त होनी थीं इसलिए हिर्दा, गिर्दा की कविताएं गाते हैं. गिर्दा और हिर्दा के बीच चरित्र उलझ रहा था. इसके अलावा 28 नवंबर 1977 को नैनीताल में हुड़का बजाकर वनों की नीलामी रोकने के लिए जनता को ललकारते और पीएसी की लाठियां खाते गिर्दा का चित्रण किया था- ‘आज हिमाल तुमन कैं धत्यूं छौ/जागो-जागो हो मेरा लाल.’ उसमें कैसे फिट होते? तीन-चार ड्राफ्ट गिर्दा और हिर्दा के चक्कर में लिखे और रद्द किये.

अंततः मैं गिर्दा की शरण पहुँचा. उसे सारा किस्सा बताया. गिर्दा के रूप में ही उसे चित्रित करने की औपचारिक इजाजत (बब्बा हो, ऐसा!) भी लेनी थी. वह प्रसंग भी पढ़ने को दिया.

-‘तू क्यों परेशान हो रहा है. कोई संकोच मत कर.’ उसने गंभीरता से कहा और फिर ठठा कर हंसा था- ‘हिर्दा में वह बात कहां जो गिर्दा में हैं, क्यों नब्बू ! ’

मेरा असमंजस दूर हो गया था. गिर्दा ‘दावानल’ में गिर्दा ही बना रहा. हालांकि उसका यह तर्क और पात्रों पर भी लागू हो सकता था लेकिन उसने इस बारे में कुछ नहीं कहा. उसे ‘दावानल’ पसन्द था. उसमें अपना पात्र भी. कई लोगों से उसने उसका जिक्र किया. कहता भी था-‘एक प्रति और भेजना यार, लोग पढ़ने को मांगते हैं।’
………..

तेईस अगस्त 2010 को गिर्दा की शव यात्रा में शामिल सैकड़ों लोग उन्हीं के रचे-गाए गीत गा रहे थे और रो रहे थे. एक-दूसरे को चुप करा कर फिर गाने लगते. ये वही धुनें और गीत थे जिन्हें गा-बजा कर गिर्दा ने उत्तराखण्ड के विभिन्न भागों में जुलूसों-प्रदर्शनों-धरनों में जनता की आवाज को तीखे सांस्कृतिक तेवर दिये थे. नैनीताल में पहली बार महिलाएं अर्थी को कन्धा देने आईं और श्मशान  तक गईं . यह प्रमाण है कि उत्तराखण्ड का यह जन कवि, नाटककार, निर्देशक, गायक, संगीतकार, लोक अध्ययेता और आन्दोलनकारी अपने समाज में कितना गहरे पैठा और समादृत है.

वह बड़े सपने देखने वाला अनोखा रचनाकार था. अत्यन्त सहज, सरल और सुलभ इनसान. उसके सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक है‘जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में…’ (मेरी जैंता, इस दुनिया में वह दिन एक दिन जरूर आएगा…) इसमें एक खूबसूरत दुनिया का वादा है. गीत के अंत में वह कहता है-‘उस दिन हम नहीं होंगे, लेकिन हमारा होना उसी दिन सार्थक होगा.’

बिल्कुल गिर्दा, तुम्हारा होना एक दिन जरूर सार्थक होगा.

(  तस्वीरें नवीन जोशी और अशोक पांडे के संग्रह से )

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