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निराला का वैचारिक लेखन: राष्ट्र निर्माण का सवाल और नेहरू

निराला कवि और लेखक होने के साथ चिंतक भी हैं। निराला का वैचारिक लेखन भी उसी मात्रा में है, जितना कविता और गद्य लेखन। निराला के चिंतन का दायरा विस्तृत है। वे मनुष्य, समाज, राजनीति की वस्तुस्थिति और गति पर गहरी नजर रखते हैं।

निरंतरता और उसमें होते परिवर्तन के लक्षणों को निराला दृष्टिगत करते हैं और उस पर अपने विचार प्रकट करते हैं। साथ ही,  मनुष्य, समाज, राष्ट्र को कैसा होना चाहिए, निराला इसे अपने चिंतन के दायरे में लाते हैं, उस पर लेखन करते हैं। इसीलिए निराला के यहां हर स्तर पर एक बदलाव को निरंतर लक्षित किया जा सकता है।

निराला का समय औपनिवेशिक शासन और उसके खिलाफ आजादी के लिए चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का है। निराला जहां औपनिवेशिक नीतियों की आलोचना करते हैं, वहीं वह राष्ट्रीय आंदोलन और उसके नेतृत्व पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करते।

वे उसकी शक्ति और सीमा दोनों को जांचता-परखते हैं। राष्ट्रीय आंदोलन और उसके अंतर्विरोधों  को निराला व्यक्त करते हैं। निराला अपनी सहमति और सहमति दोनों को निर्भय होकर प्रकट करते हैं।

इसी के अंतर्गत निराला ने राष्ट्रीय आंदोलन के व्यक्तित्वों  पर भी लेखन किया है। इस क्रम में निराला ने जवाहरलाल नेहरू को केंद्रित कर  लेखन किया है। निराला ने नेहरू पर कविताएं भी लिखी हैं। लेकिन यहां उनके वैचारिक और पत्रकारी लेखन को केंद्रित किया गया है।

नेहरू का राष्ट्रीय आंदोलन और आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण में महती योगदान रहा है।  नेहरू ने एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। निराला भी नेहरू से प्रभावित होते हैं। लेकिन इस प्रभाव के बावजूद राष्ट्र निर्माण से जुड़े कई सवालों पर निराला ने नेहरू की आलोचना भी की है। खैर

निराला ने 1930 ईस्वी में ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू’ शीर्षक से एक संक्षिप्त जीवनी लिखी। यह ‘सुधा’, मासिक, लखनऊ के फरवरी अंक में संपादकीय टिप्पणी  के रूप में प्रकाशित है।

नेहरू की यह जीवनी उनके लाहौर कांग्रेस के सभापति बनने के बाद लिखी गई है। सभापति बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज्य’ के प्रस्ताव के साथ व्यापक स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा। खासकर, युवकों में  उनकी प्रसिद्धि बढ़ी।

निराला ने संपादकीय टिप्पणी  के रूप में नेहरू की जीवनी से हिंदी देश की जनता में उनके बारे में बताना एक लेखकीय दायित्व समझा। इससे निराला के लेखकीय  सरोकार समझ में आते हैं। निराला राष्ट्रीय आंदोलन से किस कदर संबद्ध थे, इसे समझने में आसानी होती है।

नेहरू जब कांग्रेस के सभापति बने उस समय उनकी अवस्था 40 साल की थी और स्वयं निराला की अवस्था 34 साल की। आजादी की लड़ाई में यह दशक युवकों की दखल का गवाह बन रहा था और निराला स्वयं लेखकीय दखल के साथ इसमें शामिल हैं।

निराला नेहरू की जीवनी में  लिखते हैं,  कि “गत कई सालों में आपने देश के राजनीतिक आंदोलनों में जो विशिष्ट स्थान अधिकृत किया है, उसी का यह पुरस्कार है, कि आज आप उत्तरदायित्वपूर्ण इतने बड़े सम्मान के योग्य समझे गए हैं।”

निराला खुद राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान अपना उत्तरदायित्व तय कर रहे थे। इस संपादकीय टिप्पणी में निराला ने गंभीर पत्रकारिता का पूरा निर्वाह किया है। इसमें निराला इस बात का जिक्र करते हैं, कि नेहरू कई-कई महत्वपूर्ण निर्णय महात्मा गांधी की असहमति  के बावजूद लेते हैं।  ‘पूर्ण स्वाधीनता’ का प्रस्ताव गांधी की असहमति के बावजूद पास हुआ। बाद में गांधी भी इस पर मान गये। इसमें निराला ने नेहरू के बारे में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, कि

“वह अपने साधारण सीमा से बहुत दूर तक विचार कर सकते हैं।” और “कोई कार्य अपनी इच्छा के विरुद्ध होने पर भी निमंत्रण के विचार से वह उसे कर देते हैं।”

प्रधानमंत्री बनने के बाद कई लोगों ने नेहरू पर लिखा और उनके इन गुणों को उद्घाटित भी किया। इसमें निराला की गहरी लेखकीय और पत्रकार दृष्टि का पता चलता है। उनके सरोकार स्पष्ट होते हैं। वह स्वाधीनता आंदोलन और उसके नेतृत्व से अद्यतन  जुड़ाव रखते थे।

नेहरू के युवा होने के साथ कांग्रेस के भीतर ‘पूर्ण स्वराज्य’ पर नेहरू के निश्चय ने भी निराला को प्रभावित किया।

निराला कांग्रेस की समझौतावादी और सुधारवादी राजनीति के समर्थक न थे। निराला ‘पूर्ण स्वराज्य’ के समर्थक थे और देश की युवा आबादी भी कांग्रेस से ऐसा ही चाहती थी। नेहरू से उम्मीदें भी इसीलिए अधिक थीं कि वह कांग्रेस में स्वराज्यवादी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे।

अपनी टिप्पणी ‘राष्ट्र की युवक शक्ति’ में निराला लिखते हैं,

“कांग्रेस नजदीक है। इस कांग्रेस की बागडोर युवकों के हृदय सम्राट पंडित जवाहरलालजी के हाथ में है। अबकी ही भारत के भाग्य का अभिप्सित निर्णय होगा। इसके लिए भारत की युवक शक्ति को हर तरह से कार्य करने के लिए तैयार रहना चाहिए। असहयोग आंदोलन के बाद ऐसी आशा और कभी नहीं की गई।” वे आगे लिखते हैं,

“देश को हर तरह की पराधीनता के पाश से मुक्त करने वाली हमारी युवक शक्ति ही है। अभी-अभी चीन का राष्ट्रीय विप्लव इसकी साक्षी दे चुका है। सुधारवादी राजनीति पर इसी टिप्पणी में  निराला लिखते हैं,

“हमारे देश में ऐसे दलवालों की कमी नहीं, जो कृपा दृष्टि के ही भिक्षुक हैं। जरा सी मुसकिराहट  पाने पर ही कुत्ते की तरह पिघल कर दुम हिलाने लगते हैं  और उसे ही अपने दिल में स्वराज्य-सुख समझते हैं।”

निराला की यह टिप्पणी 1929 ई. के ‘सुधा’ मासिक के दिसंबर अंक में छपी है। यह वह समय है, जब देश में पूर्ण स्वाधीनता की मांग जोर पकड़ती जा रही थी और नेहरू इसके प्रबल समर्थक के रूप में सामने आ रहे थे।

इसी तरह एक प्रस्ताव विवाह की उम्र को लेकर था। नेहरू इसमें बदलाव के समर्थक थे। ‘संयुक्त-प्रान्तीय युवक कांग्रेस’ शीर्षक संपादकीय टिप्पणी में निराला लिखते हैं,

“श्रीयुत नेहरूजी ने वैवाहिक वय वाले प्रस्ताव पर अपनी सम्मति देते हुए जो भाषण दिया, उससे उनके सत्य का सम्मान करने वाले, तपस्वी, विशाल हृदय का परिचय मिलता था। मालूम होता था, पूज्य नेहरूजी का हृदय प्रत्येक प्रकार की गुलामी का अंत कर देने के लिए कैसा व्याकुल हो रहा है।”

प्रत्येक प्रकार की गुलामी अर्थात राजनीतिक, आर्थिक गुलामी के साथ सामाजिक गुलामी का भी अंत। निराला नेहरू के भीतर यह देखकर प्रभावित थे, कि वे सामाजिक प्रश्न पर भी मुखर हैं। खुद निराला सामाजिक गुलामी के खात्मे के प्रबल पैरोकार थे। उनका पूरा लेखन इसकी ताकीद करता है।

निराला सामाजिक मुक्ति के विचार को राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति के लिए एक योग्यता मानते हैं। अर्थात बिना सामाजिक मुक्ति की लड़ाई के राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई पूरी नहीं हो सकती।

‘सुधा’ अर्धमासिक के 16 अगस्त 1933 की संपादकीय टिप्पणी ‘राजनीति के लिए सामाजिक योग्यता’ में वे इसे लक्षित  करते हैं।  निराला इस टिप्पणी में लिखते हैं,

“जो ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी वर्णोच्चता का ढोंग  भी नहीं छोड़ सकते,  अपने ही घर के अंत्यजों  को अधिकार नहीं दे सकते,  भारतीयता के अंधेरे में प्रकाश देखने के आदी हैं, वे बिना दिए हुए कुछ पाने का विचार कैसे रखते हैं? उनकी सामाजिक नीचता ‘समाज’- शब्द को, उन्नतशीलता के अर्थ को कैसे पुष्ट  कर सकती है? हमारी राजनीतिक दुर्बलता यहीं पर है।… इसलिए तोड़कर फेंक दीजिए जनेऊ,  जिसकी आज कोई उपयोगिता नहीं, जो बड़प्पन का भ्रम पैदा करता है और समस्वर से कहिए कि आप उतनी ही मर्यादा रखते हैं, जितनी आपका नीच-से-नीच पड़ोसी, चमार या भंगी रखता है। तभी आप महामानुष हैं। उसी क्षण आप ज्ञान कांड के अधिकारी हैं।… यहीं से राष्ट्र की वृद्धि है। शक्ति  है,  उत्थान है, गति है।”

निराला जिस भी  राजनीतिक में ऐसा गुण पाते हैं, उससे सहज प्रभावित होते हैं। निराला नेहरू में ऐसे गुण देखते थे, जिसमें सामाजिक सुधार के तत्व थे। आधुनिकता और लोकतंत्र के तत्व थे। निराला नेहरू की जीवनी वाली टिप्पणी में इसका जिक्र करते हैं, कि नेहरू यूरोप में पढ़कर और राजनीतिक संघर्ष में आने के बाद यूरोप की यात्राओं और सोवियत रूस की यात्रा से काफी कुछ सीखते हैं। निराला जीवनी में लिखते हैं, “जब पं. जवाहरलाल की उम्र 14 साल की थी, उस समय पं. मोतीलालजी ने उन्हें इंगलैण्ड के हैरो विद्यालय में पढ़ने के लिए भेज दिया।…यहाँ पढ़ते समय जवाहरलालजी को इंगलैण्ड के बड़े-बड़े घरानों के लड़कों से मिलने, उनसे वार्तालाप आदि करने, उनके आचार-व्यवहार देखने तथा सीखने का अवसर मिला था। इंगलैण्ड के युवराज हैरो में जवाहरलालजी के सहपाठी थे।…कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से बीए की परीक्षा पास कर आप कानून का अध्ययन करने लगे। 1912 ई. में बैरिस्टर होकर इलाहाबाद लौटे और अदालत में कानून का व्यवसाय करने लगे।…1920 ई. में, जब भारत में असहयोग का डंका बजा, देश के दूसरे-दूसरे प्रतिष्ठित लोगों की तरह आपने भी कानून-व्यवसाय का परित्याग कर दिया। उसी समय से आज तक एकान्त निष्ठा के साथ आप देश की सेवा में लगे हुए हैं।” इसी में आगे निराला लिखते हैं,

“1927 ई में आप फिर योरप घूमने गये। इस बार आप जहां भी गये, वहीं भारत की राजनीतिक समस्या का मूल तत्व लोगों को समझाया। इसी समय इंगलैण्ड  में साम्राज्यवाद विरोधी संघ का अधिवेशन हुआ।  यहां भारत की तरफ से भारत के अधिकार की बातें आपने अच्छी तरह प्रकट कर दी। इस सम्मेलन में संसार के समस्त पीड़ित देश के प्रतिनिधि गये थे। पंडित जवाहरलालजी ने अपनी भाषण शक्ति तथा  दूरदर्शिता द्वारा सम्मेलन के संपूर्ण प्रतिनिधियों को इस तरह मुग्ध कर दिया था, कि आप ही इस सम्मेलन के वाइस प्रेसिडेंट नियुक्त किये गये। इसके बाद आप रूस भ्रमण करने गये और मद्रास कांग्रेस के कुछ काल पहले आप भारत लौट आये। इसी समय आपने महात्माजी के ‘यंग इंडिया’ पत्र में रूस में वर्तमान काल की शिक्षा का किस प्रकार प्रसार हो रहा है, इसकी वर्णना करते हुए कई चित्ताकर्षक निबन्ध  लिखे थे।  मद्रास-कांग्रेस के कर्तव्य का निर्धारण करने में आपने एक खास अंश ग्रहण किया था। आप ही के प्रयत्न   से इस कांग्रेस में ‘पूर्ण स्वाधीनता ही भारतवासियों का राजनीतिक आदर्श है’ यह प्रस्ताव ग्रहण किया गया था।”

नेहरू यूरोप और रूस से ‘पूर्ण स्वाधीनता’ तथा शिक्षा का आदर्श ग्रहण करके आये।

निराला भारत को यूरोप के जिस जोड़ में देखना चाहते हैं, नेहरू बहुत कुछ ऐसे राजनीतिक लगते हैं, जो ऐसा सोचता है।

आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्य और जातीय गौरव या भेदभावमुक्त भारतीयता की तलाश नेहरू के भीतर वे देखते हैं। लाहौर कांग्रेस के सभापति के रूप में दिए गए नेहरू के भाषण में निराला तत्संबंधी अंश को चिन्हित करते हैं।

‘सुधा’ मासिक के फरवरी 1930 अंक में निराला नेहरू के अभिभाषण पर अपनी संपादकीय टिप्पणी लिखते हैं। इस अभिभाषण में निराला नेहरू के राष्ट्रीय नेता होने के साथ वैश्विक राजनीति में उनके हस्तक्षेप को लक्षित करते हैं। वैश्विक राजनीति, जातीयता, धर्म, संप्रदाय आदि को लेकर नेहरू के विचार को उभारते हैं।

निराला स्वयं भी वैचारिक स्तर पर इन विषयों पर चिंतन करते हैं और रचनात्मक स्तर पर इसे लेकर संघर्ष करते हैं। भारतीय जाति के तत्कालीन(वर्तमान भी- जोर मेरा)  जीवन संकट पर नेहरू के इस विचार को निराला अधिक जगह देते हैं, जिसमें नेहरू कहते हैं,

“आज हमारी जाति के जीवन में कई गहन समस्याएं आ गई हैं। आप लोगों को इन कुल समस्याओं पर विचार करना होगा। आप लोग जो निश्चय करेंगे, उससे भारत के इतिहास की धारा बदल सकती है। यह समस्या केवल आप ही लोगों के सामने नहीं, तमाम संसार के सामने उपस्थित हो गई है। सब देशों के लोग इसका सामना कर रहे हैं। जो विषय हमारे पूर्व-पुरुषों के निकट बहुत पवित्र थे अथवा अपरिवर्तनीय थे, उन सब विषयों में भी संशय की एक रेखा खिंच गई है। जिससे राष्ट्र तथा समाज एक परिवर्तन के मुहाने पर आ पहुंचा है। स्वाधीनता, न्याय-विचार, संपत्ति और पारिवारिक अधिकारों के संबंध में अब तक जो धारणा चली आ रही थी, अब उस पर हमला किया गया है। फल अनिश्चित है। हम लोग इतिहास के एक संधि-काल में आ गए हैं। नवीन सृष्टि  की संभावना से आज संसार चंचल हो रहा है।  भविष्य हमें क्या पुरस्कार देगा यह कोई नहीं कह सकता। फिर भी हम एक दृढ़ता के साथ कह सकते हैं, कि पृथ्वी की भविष्य व्यवस्था के निर्णय में भारत का भी एक महत्वपूर्ण भाग रहेगा।”

नेहरू के इस अभिभाषण में राष्ट्र निर्माण में आने वाली सारी समस्याओं पर विचार प्रस्तुत किया गया है। पूर्व पुरुषों के लिए पवित्र विचार वर्ण व्यवस्था थी, जिसे अपरिवर्तनीय माना जाता था। जिसे सनातनी माना जाता था। लेकिन अब इस पर हमला किया गया है।

नेहरू का यह अभिभाषण वस्तुतः कांग्रेस के भीतर और राष्ट्रीय आंदोलन में भी एक भू-चिन्ह है। 1929-30 से नेहरू के राष्ट्रीय  नेतृत्व में आ जाने के बाद ही कांग्रेस के भीतर काम कर रहे दक्षिणपंथी नेता और हिंदूवादी, सनातनी अपनी अलग दिशा लेते हैं। हिन्दू महासभा और सावरकर की साम्प्रदायिक राजनीति इसके बाद ही अधिक सक्रिय होती है। 1930 का पूरा दशक इसका गवाह है। निराला की रचनात्मकता व इसमें बदलाव का भी महत्वपूर्ण समय यही है।

नेहरू एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक दिशा लेते हैं। निराला के लेखन में भी यही तत्व प्रमुख हैं। नेहरू के प्रभाव का एक प्रमुख पक्ष यही था। लेकिन, 1940 तक आते-आते निराला राष्ट्र निर्माण के कुछ प्रश्नों पर नेहरू से असहमत होने लगते हैं।  निराला की इसी दौरान लिखी गई प्रसिद्ध कृति ‘कुल्ली भाट’ में तो इसके संकेत हैं ही, इस समय की टिप्पणियों में भी यह जाहिर होता है। इसमें एक टिप्पणी महत्वपूर्ण है। 1939  ईस्वी में निराला ने एक स्फुट निबंध लिखा, ‘नेहरूजी से दो बातें’। इसमें कोष्ठक  में दिया गया है, इंटरव्यू द्वारा प्राप्त।  इसमें निराला एक ट्रेन यात्रा के दौरान नेहरू से प्रश्न करते हैं। प्रश्न का विषय है हिंदी भाषा और साहित्य। वास्तव में कोई यात्रा इस तरह की हुई थी या नहीं, इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन नेहरू के हिंदी भाषा और साहित्य संबंधी विचार से निराला गहरे असंतुष्ट थे।

यह बात ध्यान देने की है, कि नेहरू स्वयं हिंदी-उर्दू पट्टी में राजनीतिक अभ्यास करते हैं। उनके कार्य का मुख्य क्षेत्र यही है। ऐसे में उसके साहित्य से कोई गहरा संपर्क न होना निराला के लिए प्रमुख चिंता है।

इस इंटरव्यू में यही चिंता है। दरअसल निराला राष्ट्र निर्माण में हिंदी भाषा के महत्व की स्थापना में अग्रणी थे। वह हिंदी की एक जातीय पहचान के लिए वैचारिक व रचनात्मक स्तर पर संघर्ष करते रहे। ऐसे में नेहरू का इसको लेकर अद्यतन  न होना, निराला के लिए असह्य था।

निराला, नेहरू को एक जातीय नेता के अर्थात हिंदी-उर्दू क्षेत्र या हिंदुस्तानी जातीयता  के नेता के रूप में भी देखना चाहते थे। जैसे कि महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, रवींद्र नाथ टैगोर आदि। ‘नेहरूजी से दो बातें’ में निराला लिखते हैं,

“पंडितजी यह मामूली अफसोस की बात नहीं, कि आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रांत में होते हुए भी इस प्रांत की मुख्य भाषा हिंदी से प्रायः अनभिज्ञ  हैं। किसी दूसरे प्रांत का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् 1930 के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था, कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र कहते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गांधी के लिए कहा जाता है, कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। रवींद्र नाथ ठाकुर बांग्ला का अनुवाद अंग्रेजी में देते हैं।  हमारे यहां आपकी तरह के व्यक्ति होते हुए भी साहित्य में नहीं हैं।”

यह इंटरव्यू नेहरू की जिस बात पर केंद्रित है, वह 1933 ईस्वी में दिया गया उनका एक भाषण है, जो उन्होंने काशी में ‘रत्नाकर रसिक मंडल’ की ओर से एक मान पत्र ग्रहण करने के दौरान दिया था। नेहरू का सम्मान करने वाली सभा में पंडित रामचंद्र शुक्ल, बाबू जयशंकर ‘प्रसाद’, पंडित कृष्णदेव प्रसाद गौड़, एम.ए मौजूद थे। मान पत्र रामचंद्र शुक्ल ने दिया था। नेहरू ने इस भाषण में इन सब की उपस्थिति में कहा कि हिंदी में अभी दरबारी रचनाएं हो रही हैं। इस बात का जिक्र निराला ने ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू और हिंदी’ शीर्षक टिप्पणी में किया है। यह टिप्पणी ‘सुधा’ अर्धमासिक के 1 दिसंबर 1933 अंक में छपी है।

वस्तुतः निराला का रचनात्मक संघर्ष जिन मूल्यों के लिए है, नवीनता और आधुनिकता के साथ हिंदोस्तानी या हिंदी के जिस जातीय  पहचान को स्थापित करने के लिए है, उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति वे नेहरू में देखना चाहते थे। ‘नेहरूजी से दो बातें’ में वह नेहरू के लिए ‘समाजवादी’ विशेषण लगाते हैं। जाहिर है कि नेहरू से निराला की अपेक्षाएं इसी ‘समाजवादी’ विशेषण के अनुकूल थी। निराला स्वाधीनता आंदोलन और भावी राष्ट्र निर्माण को लेकर कितने सजग लेखक, रचनाकार, विचारक थे, इससे इसका भी पता चलता है!

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