समकालीन जनमत
फोटो -मनोज कुमार सिंह
जनमत

बच्चे, दुनिया के सबसे अधिक शोषित और असहाय मजदूर !

निदा फ़ाज़ली के दो शे’र हैं –

घास पर खेलता है इक बच्चा

पास माँ बैठी मुस्कुराती है

मुझे हैरत है जाने क्यूं दुनिया

काबा ओ सोमनाथ जाती है।   

यह शे’र बहुत सुंदर है, मगर सपने की तरह है। इस शेर की तरह बच्चों पर कुछ बेहतरीन कविताएं  आज भी मिल जाती हैं, मगर सामाजिक इतिहास को देखने पर दूसरा ही नजारा सामने पेश होता है, जो खूबसूरत तो कत्तई नहीं है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि गरीबों के बच्चों के सपनों के साथ सबसे अधिक खिलवाड़ किया गया। दुनिया की तरक्की में गरीब माँ-बाप के साथ उनके नौनिहालों का खून भी मिला हुआ है। तमाम मुल्कों को मध्यकालीनता से आधुनिकता में लाने वाला नवजागरण ( The Age of Enlightenment) भी इसका अपवाद नहीं।

 मई दिवस मजदूरों, मजलूमों और गरीब-गुरबों के संघर्ष का दिन। इतिहास में इस दिन को अलग-अलग नजरिए से देखा गया है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पूंजीवाद ने गरीब औरत–मर्द के साथ उनके बच्चों तक को मजदूर बना कर मुनाफा कमाने का अमानवीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जो इतिहास के स्याह पन्नों में दर्ज़ है। इंग्लैंड इस दिशा में बढ़ने वाला पहला देश था, जिसने कच्चे माल की प्राप्ति के लिए और अपने तैयार माल की खपत के लिए विश्व के प्रमुख देशों की मंडियों पर अपना अधिकार जमाना प्रारंभ कर दिया। इस अधिकार के परिणामस्वरूप दुनिया के संसाधनों और बाजारों पर कब्जा किया गया और दुनिया के देशों के गरीब औरत-मर्द और बच्चों को मजदूरी में झोंक दिया गया। इतिहास की ही तरह तमाम मजलूमों की सिसकियाँ मैनचेस्टर और लंकाशायर जैसे शहरों में दर्ज़ हैं। निश्चित ही यह दुनिया की पहली यातनादाई वैश्विक परिघटना थी।

विकास और विनाश का चोली दामन का संबंध है। एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। बाल्यावस्था में जब तेजी से शरीर, मन और बुद्धि का विकास हो रहा होता है, तब शरीर, मन और बुद्धि का विनाश करने वाले जिंस शांत बैठे रहते हैं और विकास करने वाले जिंसों की गति के थमने का इंतजार कर रहे होते हैं। जैसे ही शरीर-मन के विकास के जिंस थमते या धीमे पड़ते हैं, वैसे ही बुढ़ापा लाने वाले जिंस सक्रिय हो जाते हैं और मृत्यु तक सक्रिय रहते हैं। मृत्यु चाहे शरीर की हो या विचार की, है तो वह सक्रियता का अंतिम परिणाम ही। इस तरह जिस पल कोई विचार, जीव, मनुष्य, समाज और समुदाय बन रहा होता है, उसी समय उसके विनाश या उसकी नकारात्मकता की शुरूआत हो जाती है। बुद्ध से लेकर हीगेल, मार्क्स और अंबेडकर ने इसे अपने तरीके से समझा।

पुनर्जागरण, जिसे नवजागरण भी कहा जाता है, पूरी दुनिया के लिए उपलब्धि जैसी परिघटना थी। इसने मनुष्य, समाज, राज्य, विचार और धर्म आदि को बदल कर रख दिया। पूरी दुनिया में प्रगति की शुरूआत पुनर्णजागरण काल से होती है। नवजागरण काल में हुई वैज्ञानिक प्रगति से औद्योगिक क्रांति का कारवां पूरी दुनिया में सौदागरों की तरह उतर आया। बाजार और इंसान का द्वंद्व ऐसी प्रक्रिया से उत्पन्न हुआ।

हालांकि इसकी अनेक अच्छाइयाँ थीं, मगर कुछ नफा-नुकसान भी थे। यदि दासों का शोषण सामंती समाज का बायप्राडक्ट था, तो मजदूरों का शोषण औद्योगिक क्रांति की देन मानने में किसी को इंकार नहीं हो सकता। औद्योगीकीकरण की शुरूआत ग्रेट ब्रिटेन में हुई। बाल मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज भी यहीं उठी। बाल मजदूरों के पक्ष का कानून भी यहीं बना।

नवजागरण की चर्चा करते हुए यह याद रखना पड़ता है कि मनुष्य ने मात्र अपने जीवन को सुगम और सरल बनाने के लिए प्रकृति और समाज को जटिल और संकटपूर्ण बना दिया। इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने ठीक ही कहा है कि ‘मनुष्य सभ्यता की दौड़ में रत रहा है, कुशल खिलाड़ी की तरह, लेकिन अच्छे खिलाड़ी की तरह नहीं। वह बराबर परिस्थितिवश एक तरफ ईष्यार्लु और असहिष्णु बना रहा है तो दूसरी तरफ सहिष्णुता को जीवनमूल्य की तरह स्थापित करता रहा है।’

इस नकारात्मक टिप्पणी के बाद भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पुनर्जागरण की भूमिका धरती के मनुष्य को बदलने वाली रही है। इतिहासकार फर्गुसन तथा ब्रून ने ठीक ही कहा है कि पुनर्जागरण का युग महत्वपूर्ण परिवर्तनों का युग था, जिसमें बहुत कुछ मध्यकालीन था, कुछ स्पष्टत: आधुनिक था तथा कुछ स्वयं में विशिष्ट था। इसने मध्य एवं आधुनिक युगों के बीच के रिक्त स्थान को पाट दिया, परंतु इसके साथ ही वह महान राजनीतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक जागृति का सांस्कृतिक काल भी था।

 

नवजागरण ने कुछ खास तरह की प्रवृत्तियों को जन्म दिया। जिस तरह आधुनिक शहर औद्योगिक क्रांति के परिणाम थे, उसी तरह औद्योगिक क्रांति और राष्ट्रीयता नवजागरण के ही परिणाम थे। इसके कारण (नवजागरण) ही मध्ययुगीन आडंबरों, अंधविश्वासों की जगह व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, स्वाधीनता की चेतना और आर्थिक विमर्श का भाव पैदा हुआ।

इस तरह चौदहवीं से सोलहवीं सदी (1350-1550 ई.) तक पूरा यूरोप मध्यकालीनता की गुफा से निकल चुका था और दुनिया को बदलने में अपनी भूमिका की तलाश कर रहा था। इसी समय दांते, पेटार्क, बौकेशियो क्रिसोलोर्स और टॉमस मूर जैसे चिंतकों तथा कैक्सटन (छापेखाने के व्यवहारिक प्रयोग को स्थापित करने वाला), एलियास होप (सिलाई मशीन का आविष्कारक) और मेक-एडम (पक्की और आधुनिक सड़कों को बनाने वाले पहले लोग) जैसे वैज्ञानिकों से यूरोप आधुनिक विचार और वैज्ञानिक चेतना के बल पर पृथ्वी के दूसरे हिस्से को प्रभावित करने के लिए तैयार हो रहा था।

इतना ही नहीं, इसी समय लोहा, कोयला और बारूद खोजे गए, जिनका इस्तेमाल मशीन बनाने के साथ-साथ मशीनगन बनाने में भी हुआ। अब यूरोप बहुत शक्तिशाली हो चुका था। बाद में यूरोप की यह शक्ति दुनिया में पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के रूप में प्रकट हुई।

नवजागरण और औद्योगिक क्रांति के अंतर्सबंधों पर कई लोगों ने अलग–अलग तरीके विचार किया, आर्नोल्ड टॉयन्बी भी उन्हीं में से एक है। हम जानते हैं कि सर्वप्रथम औद्योगिकी क्रांति 18 वीं सदी में इंग्लैंड में हुई। तत्पश्चात यूरोप में और सबसे अंत में एशिया में आई। टॉयन्बी ने अपनी पुस्तक ‘लेक्चर ऑन इंडस्ट्रियल रिवल्युशन’ में कहा कि औद्योगिक क्रांति कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, वरन विकास प्रक्रिया का परिणाम थी, जो निम्न कारकों से प्रभावित थी –

1- वस्तुओं की बढ़ती मांग, बढ़ता व्यापार और नई मंडियों का निर्माण

2- उत्पादन के साधनों और उत्पादन की पद्धति के पुराने समीकरण में बदलाव

3- यंत्रों की खोज और तर्कपूर्ण विचारों का प्रसार-प्रचार

4- पूंजी का संगठन

5- लोकतंत्र की मांग और शहरीकरण

6- लोहे और कोयले की मांग

7- मनुष्य के कौशल का मापदंड मशीनें हो गईं

8- औद्योगिक घरानों का उदय

टॉयन्बी की मानें तो ऐसी कई चीजें थीं, जो दुनिया को बदलने पर अमादा थीं। इन कारकों के प्रभाव स्वयं इंग्लैंड का ढांचा चरमरा रहा था। वहाँ के कुटीर उद्योग बदलने लगे थे। साथ ही साथ मनुष्य और समाज की संरचना बदल रही थी। कृषि के महत्वहीन होने से छोटे-मझोले किसानों को सपरिवार औद्योगिक शहर का रूख करना पड़ा, जिससे मजदूरी सस्ती हो गई। इतना ही नहीं गाँव से व्यापक जनसंख्या पलायन के कारण शहरों के आसपास मलिन बस्तियाँ बस गईं। इंसान का मुकाबला सीधे–सीधे मशीनों से होने लगा। एक आदमी की कमाई पूरे परिवार के लिए कम पड़ने लगी। इसलिए अब मर्द के साथ औरत भी फैक्ट्री जाने लगी, फिर भी मुश्किलें कम नहीं हो पा रही थीं। गंदी जगहों पर रहने के कारण तरह–तरह की बीमारियों के फैलने से स्लम में रहने वालों की कमाई पर्याप्त नहीं हो पाती थी। अब एक ही रास्ता था – बच्चों को भी काम पर लगाने का रास्ता। सपनों के साथ माँ-बाप समझौता करने को बाध्य थे।

पूंजीपतियों ने वयस्कों से कम मजदूरी पर बच्चों को काम पर रखना स्वीकार कर लिया। यह एक भयावह शुरूआत थी, जिससे गरीब परिवारों का भविष्य बरबाद हुआ और शिक्षा जैसी परिवर्तनकारी शक्ति से दूर हो जाने के कारण गरीब परिवार गरीबी के चक्र में फंसते चले गए। कारखानों के यातनापूर्ण जीवन और बच्चों के परिश्रम को देखकर डिकेंस ने कहा, ये ‘अंधेरे कारखाने शैतानों की देखरेख में चलते हैं।’ दूसरे लेखक ई.पी. थाम्पसन ने कहा, ‘ये स्थान बाल वेश्यालय, गाली-गलौज, अपराध, हिंसा और अजनबियों जैसे आचरण के अड्डे हैं।’

धीरे-धीरे इन यातनाओं के खिलाफ आवाजें उठने लगीं। मजदूर आंदोलन राजनीतिक शक्ति अर्जित करने लगे, जिसके परिणामस्वरूप बाल मजदूरों के हालात को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की गई और संसद पटल पर रखा गया। इस रिपोर्ट को ‘ब्रिटिश पार्लियामेंटरी रिपोर्ट- 1819’ कहा जाता है। इस रिपोर्ट के माध्यम से पहली बार ब्रिटेन की फैक्टरियों में काम करने वाले बाल मजदूरों का आँकड़ा पेश किया गया, जो इस प्रकार है –

क- कपड़ा उद्योग के कुल मजदूरों में से 5.4 प्रतिशत मजदूर दस साल से कम उम्र के हैं।

ख- कपड़ा  उद्योग के कुल मजदूरों में से 54.5 प्रतिशत मजदूर 19 साल से कम उम्र के हैं।

इस तरह हम देखते हैं मात्र कपड़ा उद्योग में लगभग साठ फीसदी मजदूर बच्चे या किशोर थे, जिन्हें पढ़ना लिखना चाहिए था।

ऐसे ही हालात में सन 1833 में फैक्ट्री एक्ट लाया गया। इस एक्ट के आ जाने से बाल मजदूरी बंद तो नहीं हुई (क्योंकि पूंजीवाद के बोझ का बड़ा हिस्सा इनके कंधों पर आ चुका था)  मगर थोड़ी राहत जरूर मिली। इस एक्ट की प्रमुख संस्तुतियाँ इस प्रकार हैं –

क- बाल मजदूरों के साथ गुलामों जैसा बर्ताव किया जाता है। उन्हें देर रात तक काम करना पड़ता है। मशीनों पर काम करते–करते वे पस्त हो जाते हैं।

ख– राजनीतिक, मानवतावादी और गुलामी उन्मूलन की दिशा में काम करने वाले संगठनों का दबाव था कि काम के घंटे कम किए जाएं। जननेता अंथोनी एश्लेय (Anthony Ashley) और कूपर (Cooper) ने स्पष्ट कर दिया था कि बाल मजदूरों प्रतिदिन काम के घंटों संख्या, दस घंटे से अधिक न रखा जाए।

इस दबाव के कारण बाल मजदूरों की उम्र को निर्धारित किया गया। उम्र के अनुसार काम के घंटे तय किए गए –

– नौ साल से कम उम्र के बच्चे से काम न कराया जाए।

– नौ से तेरह साल के बच्चों से एक दिन में नौ घंटे से अधिक मजदूरी न कराई जाए।

– उद्योग के मालिकों के पास उनके कारखानों में काम करने वाले बाल मजदूरों का आयु प्रमाण-पत्र का होना आवश्यक है।

– कारखाने में काम करने वाले बच्चों को प्रतिदिन दो घंटा स्कूल में पढ़ने की व्यवस्था की जाए।

– रात में बच्चों से मजदूरी न कराई जाए।

ग– सारी व्यवस्था की निगरानी के लिए हर क्षेत्र में दो सरकारी निरीक्षकों की तैनाती को मंजूर किया जाय।

इस तरह फैक्ट्री एक्ट-1833 बाल मजदूरों की सुधार की दिशा में पहला संसदीय निर्णय था, जिसका असर दुनिया के दूसरे देशों पर भी हुआ। इतिहासकार मानते हैं कि यह ऐक्ट मजदूरों की दशा और दिशा सुधारने में मील का पत्थर साबित हुआ। लोकतांत्रिक मूल्यों और गरीब मजदूरों को इंसानी हक दिलाने में यह आंदोलन हमेशा ऊर्जा देता रहा है। इसके सहारे बाद में महिला एक्ट (woman act–1844) और सभी मजदूरों के लिए के लिए ‘दस घंटा अधिनियम’ (Ten Hour Act 1847) पारित किया गया। खेद की बात है कि फैक्ट्री एक्ट को लागू हुए लगभग दो सौ साल होने वाले हैं, फिर भी धरती के बड़े हिस्से  में आज भी बच्चे स्कूल न जाकर दुकानों और कारखानों में खट रहे हैं। जब तक बच्चों के कदम विद्यालय की ओर न बढ़ेंगे, तब सुंदर दुनिया का ख्वाब स्थगित रहेगा।

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