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हमें न तो दया की दृष्टि से देखो और न ही दैवीय दृष्टि से–शिप्रा शुक्ला

बीते रविवार कोरस के फेसबुक पेज लाइव के माध्यम से तेजपुर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर शिप्रा शुक्ला से निशा ने ‘विकलांगता और स्त्री’ विषय पर बातचीत की l शिप्रा महज़ चार वर्ष की उम्र से दृष्टिबाधित हैं l अपनी पढ़ाई-लिखाई के बारे में बात करते हुए वे बताती हैं कि वाराणसी में रहकर उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और फिर ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली विश्विद्यालय आ गयीं, जहाँ से उन्होंने हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और अभी दिल्ली के ही अम्बेडकर विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहीं हैं l

वे कहती हैं कि उनके अपने अनुभव में तो उनका दृष्टिबाधित होना कभी भी कमज़ोरी जैसा नहीं महसूस हुआ और उसका सबसे बड़ा कारण परिवार का उनके प्रति सकारात्मक रवैया है l उनके माता – पिता ने कभी भी उन्हें दूसरे बच्चों से कमतर नहीं समझा और हमेशा उनका मनोबल बढ़ाया l उनके शिक्षकों का भी उन्हें हमेशा पूरा सहयोग मिला , जिससे कि वह अपनी पढ़ाई ठीक तरह से पूरी कर पायीं l

निशा द्वारा पूछे गए सवाल समाज में विकलांग स्त्रियों की जो स्थिति है, उसके लिए पितृसत्ता कितनी ज़िम्मेदार है का जवाब देते हुए शिप्रा कहती हैं कि स्त्रियाँ आज भी पितृसत्ता के शोषण चक्र से बाहर नहीं निकल पायी हैं l उस पर से अगर किसी स्त्री के शरीर में किसी प्रकार की कोई अक्षमता हो तब तो उसे पितृसत्ता की दोहरी मार झेलनी पड़ती है l सामान्यतः हमारे समाज में एक स्त्री का काम विवाह के बाद घर और बच्चों को संभालना माना जाता है ऐसे में एक डबल- डिसेबल्ड या मल्टी-डिसेबल्ड स्त्री के लिए इस तरह की ज़िम्मेदारियाँ पूरा कर पाना थोड़ा मुश्किल भरा हो सकता है और बस यहीं से शुरू हो जाता है उसका शोषण और तिरस्कार l इस तरह से ये देखा जा सकता है कि कैसे पितृसत्ता का सीधा प्रभाव पड़ता है एक विकलांग स्त्री और उसकी मनोस्थिति के ऊपर l व्यक्ति के आसपास का माहौल, वातावरण और समाज जैसा होता है , उस व्यक्ति का विकास भी वैसा ही होता है l अक्सर हम देखते हैं की एक विकलांग बच्चे को कह दिया जाता है की तुम कैसे खेलोगे या खेलोगी, ऐसा करो साइड में बैठ जाओ ! इस तरह के नज़रिए और बातों का बड़ा गहरा असर पड़ता है एक विकलांग व्यक्ति के मन पर, जो उसके साथ जीवनभर रहता है l

आगे निशा पूछती हैं कि ऐसा क्यों होता है कि विकलांग स्त्रियाँ अपनी ओर से अगर बहुत बढ़कर भी अपने परिवार के लिए हर तरह से मददगार बनने की कोशिश करती हैं और बनती भी हैं तब भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वह हक़दार होती हैं ? इस पर शिप्रा बताती हैं कि जब पढ़ने –लिखने की उम्र होती है , विकास का समय होता है तो अक्सर परिवार वाले विकलांग बच्चे को किसी संस्था या एनजीओ के भरोसे छोड़ देते हैं और जब वह बच्चा पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है तो वही परिवार आर्थिक फायदों के लिए उस बच्चे को अपने साथ रखने लगता है, पर सम्मान तब भी नहीं मिलता l ऐसा सिर्फ विकलांग स्त्रियों ही नहीं पुरुषों के साथ भी होता है l इस तरह की मानसिकता में बदलाव के लिए हमें समाज में जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है l परिवार में अगर विकलांग बच्चे हैं तो परिवार को समझना होगा कि वह सिर्फ शारीरिक तौर पर अक्षम हैं, उनका दिमाग या उनकी योग्यताएं किसी से कम नहीं हैं l स्कूलों को अपने पाठ्यक्रम में ऐसी चीजें शामिल करनी चाहिए, जिससे बच्चे समझ सकें कि विकलांग लोग भी इसी समाज का हिस्सा हैं, वह हमसे अलग नहीं हैं l

विकलांग स्त्रियों के विवाह पर बात करते हुए शिप्रा कहती हैं कि आप देखेंगे कि एक पूरी तरह से सक्षम स्त्री तो एक विकलांग पुरुष से विवाह कर लेती है पर एक पूरी तरह से सक्षम पुरुष एक विकलांग स्त्री से विवाह करे, ऐसा बहुत कम होता है l विवाह के बाद जैसे किसी भी स्त्री को नए माहौल में नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वैसे ही एक विकलांग स्त्री को भी नई- नई किस्म की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है l पूरे परिवार का सहारा चाहिए होता है उसको चीजों को समझने के लिए l इसके बाद अगर वह माँ बनती है तो भी कई चुनौतियाँ आती हैं सामने l वैसे तो कई उदाहरण हैं जहाँ माँ-बाप दोनों ही दृष्टिबाधित होते हुए भी अपने बच्चे का पालन-पोषण , उसकी परवरिश बहुत अच्छे से किये हैं फिर भी कई बार ऐसा होता है कि विकलांग स्त्री के माँ बनने पर परिवार या रिश्तेदार दो-तीन साल के लिए बच्चे को यह कहकर ले जाते हैं कि अभी आप कैसे देखभाल करेंगी ? अभी हम देख ले रहे, तीन साल बाद से आप खुद करियेगा l यह बड़ी दुखद स्थिति है एक माँ के लिए कि उसका बच्चा उससे अलग कर दिया जाये इस बिनाह पर कि वह उस बच्चे की देखभाल करने के लिए सक्षम नहीं है बल्कि यह हो सकता है कि परिवार का कोई सदस्य उनके साथ रहकर बच्चे के पालन-पोषण में उनकी मदद करे l

दूसरी बात वह बताती हैं कि अगर एक सक्षम स्त्री विवाह न करने का फैसला लेती है तो एक बार को लोग कहते हैं कि वह कितनी आत्मनिर्भर है पर वहीं अगर एक विकलांग स्त्री विवाह न करने का फैसला ले इस कारण से कि विवाह संस्थान में उसका विश्वास नहीं है तब भी लोग यही कहते हैं कि इससे शादी वैसे भी करता कौन ? ऐसी स्थितियों में एक विकलांग स्त्री के मन को गहरी ठेस पहुँचती है l हर व्यक्ति को एक जीवन साथी की ज़रूरत होती है , जिसके साथ वह अपना सुख-दुःख बाँट सके l एक विकलांग स्त्री की भी इच्छा यही होती है, जिसके पूरा न होने पर उसे अवसाद या और तरह की मानसिक विकृतियों का सामना करना पड़ जाता है और कई बार तो वे आत्महत्या तक भी चली जाती हैं l हमें समझना होगा कि इंसान का शरीर तो कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकता है l महत्वपूर्ण है उसका मन, उसका दिमाग, उसकी आत्मा और योग्यताएं l

आगे वे कहती हैं कि 1995 से पहले भारतीय संविधान में विकलांग लोगों के लिए कोई आरक्षण नहीं थे, उनके कोई अधिकार नहीं थे, उनके लिए कोई कानून नहीं थे l लम्बे जन आन्दोलन के बाद यह अधिनियम आता है l विकलांग विमर्श से जो पहली बात निकल कर आती है वह यह है कि हमें न तो दया की दृष्टि से देखो और न ही हमें दैवीय दृष्टि से देखो ! लोग या तो बड़ी हीन भावना से देखते हैं या मान लीजिये अगर मैं कक्षा में टॉप करती हूँ तो कहते हैं कि ईश्वर ने दुगुना दिमाग दिया है , इस पर भगवान की विशेष कृपा है l 1995 में जो अधिनियम आता है , उसमे विकलांग लोगों को निशक्त जन कहा गया, माने जिनमें कोई शक्ति ही नहीं है l वहीं 2016 में जो अधिनियम आता है, उसमें उन्हें दिव्यांग कहा जाता है, मतलब सीधे अशक्त से दिव्य शक्तियों वाले लोग l शिप्रा कहती हैं कि यह दोनों ही सम्बोधन उनकी नज़र में गलत हैं l विकलांग भी सामान्य जन ही हैं और वैसे ही देखे जाने चाहिए l

निशा के सवाल कि हमारे समाज में जब स्त्रियों के साथ लिंग-आधारित अपराध इतने ज़्यादा हैं, ऐसे में विकलांग स्त्रियों की क्या दशा है ? शिप्रा बताती हैं कि विकलांग स्त्रियों के परिप्रेक्ष में तो स्थिति बड़ी भयावह है पर अक्सर घटनाओं को दबा दिया जाता है और वे सबके सामने नहीं आ पाती हैं l एक दृष्टिबाधित लड़की का अगर बलात्कार होता है तो भी कोर्ट में उसको यह सुनने को मिलता है कि जब आप देख नहीं सकती हैं तो कैसे कह सकती हैं कि इसी व्यक्ति ने बलात्कार किया l बहुत सारे केस कोर्ट तक पहुँचते हैं पर फिर वे इसी बात पर आकर ख़त्म हो जाते हैं l आप समझिये जब एक सामान्य स्त्री के लिए इतना मुश्किल होता है पुलिस थाने तक जाकर रिपोर्ट करना तो एक विकलांग स्त्री के लिए यह कितना कठिन होता होगा l घरेलू हिंसा की बहुत- सी घटनाएं होती रहती हैं विकलांग स्त्रियों के साथ पर वह पुलिस थानों तक पहुंचकर रिपोर्ट नहीं दर्ज करवा पाती हैं l इस विषय को लेकर जागरूकता फैलाने में मीडिया एक अहम भूमिका निभा सकती है l फालतू की डिबेटों के बजाय हम विकलांग वर्ग और बाकी भी जो शोषित वर्ग हैं हमारे समाज के, उन पर यदि मीडिया की मदद से बातचीत की जाय तो हम अपने समाज को ऐसे बहुत-से विषयों को लेकर जागरूक और संवेदनशील बना सकते हैं l

बातचीत में आगे निशा सवाल करती हैं कि कानून में विकलांग स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर क्या व्यवस्थाएं हैं और शिप्रा की नज़र में सरकार को विकलांग स्त्रियों को और बेहतर सुरक्षा देने के लिए क्या नए नियम बनाने चाहिए ? जिस पर शिप्रा बताती हैं कि 1995 में पहली बार विकलांग वर्ग के लिए जो अधिनियम आया उसके अनुसार उन्हें शिक्षा और रोज़गार में 3% तक आरक्षण दिया गया है l इस अधिनियम के तहत भी विकलांग स्त्रियों को अतिरिक्त सुरक्षा देने की बात कही गयी थी किन्तु वह मिलती नहीं l फिर 2016 में दिव्यांग जन अधिकार अधिनियम आता है, जिसमें कि 1995 वाली ही सारी बातें और बढ़ा-चढ़ाकर कह दी जाती हैं और उससे भी कुछ ख़ास लाभ प्राप्त नहीं होता है l जब एक विकलांग स्त्री का बयान ही कोर्ट में नहीं माना जाता तो यह सारे सुरक्षा के नियम बस कागज़ी बन कर रह जाते हैं l इस विषय की जागरूकता के लिए हमें ज़मीनी स्तर पर काम करना होगा |

निशा का अगला सवाल विकलांग स्त्रियों की शिक्षा को लेकर था जिसका जवाब देते हुए शिप्रा कहती हैं कि हमारे इस समाज में तो शिक्षा के बगैर एक विकलांग स्त्री कुछ भी नहीं है l जब यह समाज एक शिक्षित विकलांग स्त्री को सम्मान नहीं देता तो आप सोचिये कि क्या स्थिति होती होगी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली अनपढ़ विकलांग स्त्रियों की ? वे बताती हैं कि 2010 की यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में रह रहे विकलांग बच्चों में सिर्फ 10% बच्चे ही स्कूलों में एडमिशन ले पाते हैं l इससे आप कल्पना कर सकते हैं की विकलांग लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में क्या स्थिति है भारत में l उच्च शिक्षा में तो आज भी विकलांग जन सिर्फ 1 % या उससे भी कम संख्या में पहुँच पाते हैं l 2011 का भारत सरकार का ही एक आंकड़ा है जिसके अनुसार साक्षर विकलांग जन में से सिर्फ 33-34% लोग ही रोज़गार में हैं l भारत में समावेशी शिक्षा तो ना के बराबर है l 2008 में विकलांग बच्चों के लिए जो स्पेशल स्कूल होते हैं, वह भारत में लगभग 400 थे l 2020 तक इन स्कूलों की संख्या 400 से बढ़ाकर 2000 करने की योजना थी भारत सरकार की पर वह 400 से 500 भी नहीं पहुँच पायी l

सामाजिक सुरक्षा के प्रश्न पर वे कहती हैं कि एक सामान्य स्त्री की अपेक्षा अगर एक स्त्री दृष्टिबाधित है या उसके हाथ या पैर नहीं हैं तो वह छेड़खानी जैसे अपराध होने पर तुरंत अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाती है l तो ऐसा करनेवालों को एक प्रकार का लाभ मिल जाता है और उनके मन में इस तरह के अपराध करते वक़्त पकड़े जाने का भय नहीं होता या कम होता है l इस तरह से हम देखते हैं कि कैसे विकलांग स्त्रियाँ “सॉफ्ट टारगेट” बन जाती हैं l इस तरह की विकृत मानसिकता से लड़ने के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी है अच्छी शिक्षा और उसके बाद कानून की सभी कड़ियाँ जैसे पुलिस, वकील, न्यायधीश और समाज के बाकी लोग अगर सकारात्मक ढंग से काम करें तो हम एक अच्छा वातावरण दे सकते हैं l सरकार को भी बेहतर नीतियाँ बनाने की ज़रूरत है, जिसके लिए उन्हें डिसेबिलिटी एक्सपर्ट्स का मशविरा लेना चाहिए l मौजूदा नीतियों में भी बदलाव की ज़रूरत है ताकि वे सचमुच लाभदायक बन सकें l
हमें समझना होगा कि विकलांगता किसी पूर्वजन्म का पाप या कोई सज़ा नहीं है ! यह एक शारीरिक अवस्था है जो किसी भी व्यक्ति के साथ हो सकती है और इसके प्रति जागरूकता के लिए सरकार की ओर से अभियान चलाये जाने चाहिए, जिसमें गाँव के परिवारों को प्रेरित किया जाये कि वह अपने विकलांग बच्चों को स्कूल भेजें l अगर वह बच्चा स्कूल जायेगा तो अंततः वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो ही जायेगा l विकलांग जन को समावेशन की आवश्यकता है, जो एक स्वस्थ मानसिकता वाला समाज ही उन्हें दे सकता है l

शिप्रा शुक्ला से निशा की बातचीत यहाँ सुन सकते हैं।

प्रस्तुति: मीनल 

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