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जम्हूरियत की ज़ुबान : अदम गोंडवी

 

फूल के जिस्म पे पहलू बदल रही तितली ,
पेट की आग में जलते हुए बशर की तरह .
मेरे ज़ेहन में तेरी शक्ल धुंधली धुंधली है ,
हसीन कोहरे में डूबे हुए शजर की तरह

क्या है इन पंक्तियों में ? अच्छी लगती हैं. दिल पर असर करती हैं. लेकिन अर्थ एकबारगी खुलता नहीं .

कविता के फूलों पर तितलियाँ अनादिकाल से मंडलाती आयी हैं. लेकिन यहाँ वे पह्लू बदल रहीं हैं .बेचैनी से .वह भी फूल के जिस्म पर , ‘पंखुड़ियों’ पर नहीं . उसे देख कर पेट की आग में जलते हुए इंसान की याद आती है .पहले किसी शायर को नहीं आयी . किसी ने नहीं समझा कि तितली भूख की आग में जलती हुयी फूल के पास जाती है, उस की खूबसूरती और खुशबू से मदहोश कर नहीं .

यहाँ शायरी एक बदली हुयी भूमिका में है .यह वो शायरी नहीं जो हकीकत पर कोहरे का एक हसीन पर्दा डाल देती है .या जेहन में मौजूद ज़िंदा शक्लों को धुंधला देती है . यह ‘हुस्न का मेयार’ बदल देने वाली शायरी है . यह वह शायरी है जिस के लिए प्रेमचंद ने आवाज़ लगाई थी . 1936 में . लखनऊ में . प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मलेन में .

करती क्या है यह शायरी ? धुंध को मिटा देती है . हकीकत जैसी भी हो , उस का सामना करने के लिए मजबूर कर देती है . दृष्टि को धुंधला करने के जगह उसे निखार देती है .अंतर्दृष्टि में बदल देती है .संवेदना को ज्ञान में बदलने वाली . भावानुभूति को अर्थानुभूति में बदलने वाली .

यही निखार – सुन्दरता -उसे चाहिए .सुन्दरता नज़र की . सुन्दरता देखने की पद्धति और प्रक्रिया की .सुन्दरता सचाई का सामना करने के साहस की . नकली नजारों की बनावटी सुन्दरता नहीं.

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इस नयी सुन्दरता को ठीक से समझने के लिए , आइये पहले यह देखते हैं कि अब तक हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की सुन्दरता को किस ढंग से समझा गया है .

जाने माने आलोचक शम्शुर रहमान फारुकी उर्दू ग़ज़ल को खालिस हिन्दुतानी मिजाज़ की शायरी करार देते हैं .मानना उन का यह कि हिन्दुस्तानी मिजाज़ की अपनी विशेषता वह वस्तु है , जिसे मशहूर अंग्रेज़ी आलोचक रैनसम ‘चमत्कारवाद ‘ कहते हैं. माने ”साधारण अनुभव को किसी नए और जटिल अनुभव में बदल देने की सलाहियत” . यही वह गुण है जिस के आधार पर फारुकी साहब उर्दू शायरी के मिजाज़ को फारसी शायरी से अलग कर के दिखाते हैं.

बेशक उर्दू ग़ज़ल फारसी ग़ज़ल से भिन्न मिजाज़ रखती है . लेकिन अगर चमत्कारवाद को ही हिन्दुस्तानी कविता का मूल स्वभाव मान लिया जाएगा तो कबीर से ले कर फारुकी साहब के प्रिय शायर मीर तक गैर -हिन्दुस्तानी मिजाज़ के शायर ठहराए जायेंगे . इस लिए हमन इस बहस में पड़ना ही नहीं चाहेंगे कि कविता का कोई ठेठ कौमी मिजाज़ होता भी है या नहीं .
निवेदन सिर्फ इतना है कि साधारण अनुभव को किसी नए और जटिल अनुभव में बदल देने की सलाहियत को ही अगर हिन्दुस्तानी कविता की एकमात्र कसौटी बना दिया जाए तो यह हमारी कविता की श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ हमारी परम्परा से खारिज हो जायेंगी .

चाहे हिंदी -उर्दू की हो या फारसी की , सब से अछ्छी कविता वह होती है जो अनुभव को अंतर्दृष्टि में बदलती है . या यों कहें कि जो अनुभव से अंतर्दृष्टि निर्मित करती है .मेरे जैसे साधारण मनुष्य के लिए अनुभव का अंतर्दृष्टि में बदलना ही कविता है .

अंतर्दृष्टि के बिना अनुभव चाहे जितना जटिल हो , नया हो , चमत्कारपूर्ण हो , वह दिलबहलाव या सनसनी के सिवा और क्या है .

प्रेमचंद ने यों ही हुस्न के मेयार बदलने की जरूरत पर जोर नहीं दिया था. हुस्न के मेयार को बदलना धुंध को बिजली में बदलना है . कविता यही एक ‘चमत्कार ‘ करती है .

अदम गोंडवी कविता लिखते भी हैं . कविता को समझाते भी हैं .देखिये , इन पंक्तियों में अनुभूति को अंतर्दृष्टि में बदलने की थियरी नहीं है तो और क्या है .

अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है .
सहज अनुभूति के स्तर में कविता जन्म पाती है
उठाता पाँव है विज्ञान संशय के अँधेरे में
अचानक उस अन्धेरे में ही बिज़ली कौंध जाती है

अनुभूति की सहजता ही संशय के अँधेरे में बिज़ली की कौंध बन जाती है . कविता और विज्ञान का जन्म एक साथ होता है .

अनुभूति की सहजता को संजोने वाली कविता सीधे दिल पर और दिमाग पर असर करती है . आसानी से लोकप्रिय हो जाती है . आसान नजर आती है . लेकिन होती नहीं . सब से सहज वाक्य लिखना सब से कठिन काम है . सहजता के अपने धोखे भी होते हैं . आलोचना अक्सर इस चकमे में आ जाती है .

अगर कविता में अस्पष्टता, ‘जटिलता ‘ और नए नए अर्थ खोजने की चुनौती हो तो आलोचना को कविता कुछ काम करने लायक लगती है . सीधी सादी कविता उस के किस काम की . उसे ‘लोकप्रिय कविता ‘ के खाते में डालो और छुट्टी पाओ. लेकिन आलोचना की इस छुट्टी का खामियाजा कविता को उठाना पड़ता है .

कविता एक स्तर पर संप्रेषित तो हो जाती है . ज़बान पर चढ़ जाती है . लेकिन उस के गहरे अर्थ- स्तरों का – अंतर्दृष्टि की सुदूर यात्रा का – अंदाजा नहीं हो पाता . वह आलोचना के मुहरबंद कैनन से बाहर हो जाती है . साहित्य के गंभीर विद्यार्थी के सिलेबस का हिस्सा नहीं बन पाती .

हिंदी में अनेक महत्वपूर्ण कवि इसी तरह निपटा दिए गए. शैलेन्द्र महज़ गीतकार हो कर रह गए . गोरख पाण्डेय आन्दोलन के कवि मान लिए गए . बल्ली सिंह चीमा और रमाकांत यादव ‘विद्रोही’ नौजवानों में लोकप्रिय होने के बावजूद अभी तक साहित्य के पावन दायरे के भीतर स्वीकार नहीं किये गए हैं.बेचारे ‘लोकप्रिय कवि’ ठहरे . इन्हें गंभीर कवि कैसे माना जाए . जैसे गोरख और अदम की लोकप्रियता और बच्चन और नीरज की लोकप्रियता में कोई फर्क ही न हो .

आइये अनुभूति की अंतर्दृष्टि के कुछ उदाहरण देखें .

...लगी है होड़ सी देखो अमीरी और गरीबी में
ये पूंजीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है ..

पूंजीवाद के चरित्र के बारे में अनगिनत कवितायेँ लिखी गयीं हैं . स्वयं मुक्तिबोध की प्रसिद्ध  कविता है -‘ पूंजीवादी समाज के प्रति ‘. ‘ इतना गूढ़ , इतना गाढ़ ,सुन्दर जाल / केवल एक जलता सत्य देने टाल .’

लेकिन क्या है वह जलता सत्य ? उस की जैसी सटीक पहचान ऊपर की पंक्तियों में है , वैसी किसी दूसरी कविता में मिलना कठिन है .अमीर और गरीबी में होड़ लगी है आगे निकलने की . सिर्फ यह नहीं कि अमीरी जितनी बढ़ती है , उतनी ही गरीबी भी . होड़ अमीरी और गरीबी की परस्पर निर्भरता से आगे की बात है .जैसे दोनों एक दूसरे को चाबुक मार तेज से तेज भागने के लिए मजबूर करते हों. अमीर और गरीब के बीच की खाई तो बढ़ती ही है , लेकिन असली बात यह कि इस खाई के बढने की रफ्तार भी दिन ब दिन बढती जाती है . यह पूंजीवादी व्यवस्था की बुनियादी विशेषता है . उस की सब से बड़ी क्रूरता है . यह होड़.

यह कोई रूपक नहीं है . पूंजीवाद वास्तव में एक ऐसी व्यवस्था है , जिस में हर कोई हर किसी से एक होड़ में है . बिकने और खरीदने की होड़. गिरने और गिराने की होड़. मरने और मारने की होड़. जैसे कि खुद मार्क्स ने समझाया था – पून्जीवादी व्यवस्था अपने प्रत्येक सदस्य को जिस होड़ और आत्म- केन्द्रिकता में फंसा देती है , वह सामाजिकता के किसी वास्तविक रूप को बाकी नहीं रहने देता .

लेकिन पूंजीवाद की ऐसी अचूक समझ किताबों से नहीं आ रही है . आसपास के जीवन – अनुभवों से आ रही है .

-‘तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है / मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है .’

किताबी दावों के बरक्श जिन्द्गी की हकीकत यह है –

‘ तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के / यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है .”

चांदी के मेज़ और सोने के जाम कुछ खास काम के नहीं होते . वे केवल उस अहंकार को प्रदर्शित करने की काम आते हैं , जो एक क्रूर और असमान होड़ में पाई गई दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती कामयाबी से पैदा होती है . आप जुम्मन की फूटी रकाबी पर हंसते हुए सोने के जाम की क्रूरता को महसूस करेंगे , तभी पूंजीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी को समझ पायेंगे .

कुछ लोग इस शेर को गलत उद्धृत करते हैं . पूंजीवाद की जगह ‘ गांधीवाद ‘ रख देते हैं . कविताकोश जैसी साइट पर भी यह गलती मौजूद है . अदम गांधीवाद के पैरोकार न थे . लेकिन यहाँ जो बात कही गयी है , वह पूंजीवाद के चरित्र के ऐसी आत्यन्तिक विशेषता है कि उस के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता . इस से पता चलता है कि अदम के शेरों की लोकप्रियता महज़ बात कहने के अंदाज़ के चलते नहीं है . वह बात काटी नहीं जा सकती , इस लिए है . अनुभव प्रेरित अंतर्दृष्टि का यही मतलब है .

एक और गज़ल लगभग मन्त्र की तरह लोगों की ज़बान पर है . उस का मकता यों है –

काजू भुने हैं प्लेट में, ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पहला मिसरा जनसाधारण का एक साधारण जीवन -अनुभव है . और दूसरा उस अनुभव की असाधारण अर्थानुभूति – अंतर्दृष्टि. यह एक शेर हमारे स्वतंत्र लोकतंत्र की सम्पूर्ण समीक्षा है . ये वो मोहभंग नहीं , जिस के गीत आज़ादी के बाद के लगभग समूचे हिदी- साहित्य के विश्लेषण के संदर्भ में गाये जाते हैं .

” कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए / कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ” वाली दुष्यंत -कुमार -मार्का हैरानी नहीं है . यह उसी चरागाँ की चीरफाड है जो पहले से तय थी . ऐसी चीरफाड वही कर सकता है , जो समझता है कि रामराज राजाओं के लिए तय है . कभी पहले वायसरीगल लॉज में उतरा था . अब विधायक- निवास में उतर आया है . जहां ऐसी स्पस्ट राजनीतिक दृष्टि होगी , वहाँ मोह होगा न मोहभंग .

विधायक- निवास में काजू और ह्विस्की के जलवों का अनुभव नया नहीं है . नयी है वह दृष्टि , जिस ने इस अनुभव में ‘ रामराज ‘ की हकीकत देख ली है . यह रामराज एक छोर पर गांधी के सपने से जुडता है तो दूसरे छोर पर भारतीय जनता पार्टी के राममंदिर आंदोलन से .
( ‘जिन के चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊंची फसील / रामनामी ओढ़ कर संसद के अंदर आ गये’ .)

मजदूर- राज तो सडक पर बनता है . लेकिन मजदूर राज किसे चाहिए . चाहिए रामराज . वह तो राजमहल में ही हो सकता है .

इसी गज़ल का मतला यह है-

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
ये बात कह रहा हूँ मैं होशो हवास में

यह बगावत का आह्वान नहीं है . यह महज़ इस सचाई का बयान है कि जनता बगावत पर आमदा है . यह कोई खास बात नहीं . सभी जानते हैं. कह रहे हैं . खुद सरकार कह रही है . लेकिन यह कोई नहीं कह रहा कि ऐसा हो क्यों रहा है . इस लिए हो रहा है कि जनता के पास और कोई चारा नहीं है . चारा इस लिए नहीं क्योंकि यह लोकतंत्र जनता का नहीं , पैसे वालों का है .

पैसे से आज चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में

यह है हमारे लोकतंत्र का वास्तविक सारतत्व .

लोकतंत्र की तरह हमारी आज़ादी की हकीकत भी इस शायर ने अपनी अनुभव-प्रेरित काव्य दृष्टि से तभी पहचान ली थी , जब किसी ने सेनगुप्ता या सच्चर का नाम भी नहीं सुना था .

सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिये मुल्क क्या आज़ाद है
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिये
असली हिदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है .

देश में जब साम्प्रदायिक फासीवाद का विस्फोटक उभार सामने आया , टनों कागज़ उस की व्यख्या- विश्लेषण में खर्च किये गए .लेकिन अदम का एक शेर साम्प्रदायिक फासीवाद के सारे प्रोपेगंडा पर भारी पड़ा —

हम में कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात अब उस बात को मत छेड़िए.

”गर्व से कहो हम हिंदू हैं ‘ जैसे नारे बुलंद किये गए तो एक छोटा- सा , निरुत्तर कर देने वाला ,सवाल अदम की ओर से आया .

अंत्यज कोरी पासी हैं हम
क्यों कर भारतवासी हैं हम .

यह सवाल ऊपर से जितना लगता है उस से कहीं अधिक वेधक जान पडेगा , अगर हम याद करें कि आजादी की पहली लड़ाई में , 1857 में , कोरियों -पासियों के बगावत की क्या भूमिका थी. तब समझ में आएगा कि भारतवासी कहलाने का हक ‘हम कोरियों पासियों’ के पास है या उन के पास जो जिन्हें भारतवासी नहीं , हिंदू होने का गर्व है .
कविता में मनुष्य के संघर्ष का इतिहास इस तरह बोलता है .

हिंदी में जिन कलापूजक कवि -आलोचकों ने स्मृतियों की अंतर्ध्वनियों की बात बार बार उठायी है , उन का ध्यान अदम की शायरी की ओर क्यों नहीं गया ?उन संस्कृति-पुरुषों की रचनाएं मनुष्य की जिस महान ‘सभ्यता ‘की मिथकीय स्मृतियों में गोते खाती मिलती हैं , उन में मृत्यु का सन्नाटा अधिक है , जिंदगी की जमीनी जद्दोजहद बहुत कम .

अदम की शायरी उस सभ्यता को भूली नहीं है .
सभ्यता ने मौत से डर कर उठाये हैं कदम
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो .

ताजमहल और चीन की दीवार -दोनों की गिनती दुनिया के आश्चर्यों में होती है .बेशक वे आश्चर्यजनक हैं. लेकिन उस से भी अधिक आश्चर्यजनक यह है कि यह मामूली- सी बात भुला दी गयी कि मनुष्य की ‘श्रेष्ठतम ‘ कृतियाँ मौत के डर से उपजी हैं , ज़िंदगी के जज्बे से नहीं .यह भुला दिया गया कि मनुष्य का एक ही इतिहास नहीं है . एक इतिहास मृत्युपूजकों का है तो दूसरा ज़िंदगी के लिए लड़ने वालों का. मृत्यपूजक कौन थे और ज़िंदगी के लिए लड़ने वाले कौन ? सभ्यता का इतिहास एक वर्ग -विभाजित इतिहास है .

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काव्यशास्त्र में सब से अधिक चर्चा इस सवाल पर हुयी है कि आखिर कविता है क्या .कविता जो कुछ भी है , वह भाषा में घटित होती है .लेकिन भाषा क्यों , कैसे और कब कविता में बदल जाती है ?

यह सवाल इस लिए भी महत्वपूर्ण है , क्योंकि आज कल हमारी साहित्यिक भाषाओं -हिंदी और उर्दू – के कवियों की यह आम शिकायत है कि उन के पाठक नहीं हैं . कि कविता अब लोकप्रिय नहीं रही. अशोक वाजपेयी तो साफ़ साफ़ कहते हैं कि हिंदी की कविता हिंदी समाज का प्रतिपक्ष है. माने हिंदी समाज एक कविता- विरोधी समाज है , काव्य -रूचि-हीन समाज है .

लेकिन इसी हिंदी समाज में अदम गोंडवी और गोरख पाण्डेय की कविता लोगों की ज़ुबान पर है . और वह भी तब है , जब कि ऊंची नाक-भौं वाले हिंदी आलोचकों ने इस कविता को लोगों तक पहुँचाने के लिए कोई मेहनत नहीं की है . मगर यह ऐसी कविता तो नहीं है , जो लोगों की कथित कुत्सित रूचि के अनुकूल होने के कारण लोकप्रिय हो गयी है .

यह कोई कठिन पहेली नहीं है . कठिनाई यह है कि हम आम तौर पर आंखों के सामने मौजूद सीधे -सादे जवाब की अनदेखी करने की विद्वानों जैसी आदत के शिकार हो जाते हैं .

कविता की लोकप्रियता का सीधा रिश्ता भाषा की लोकप्रियता से है . ऐसा कौन मनुष्य है जो अपनी भाषा से प्यार नहीं करता .भाषा ज़िंदगी की तरह प्यारी होती है , क्योंकि जिन्दगी भाषा में ही की जाती है .यों ही लोग भाषा के लिए जान देने पर उतारू नहीं हो जाते .

सब से कठिन और अविकसित समझी जाने वाली भाषाओं के लोग भी अपनी भाषाओं से उतना ही प्यार करते हैं . तब कविता क्यों लोकप्रिय नहीं होगी , जो भाषा की शक्ति की सब से सान्द्र और सब से तरल अवस्था है ?

देखना यह चाहिए कि भाषा का वह कौन सा रूप है जो आम बोलचाल में भी नापसंद किया जाता है .ऐसा अमूमन दो ही सूरतों में होता है . एक तो जब कोई किसी भाषा की अपनी लय और अपने मिजाज़ को जाने बगैर उस का उपयोग करता है . दूसरे जब भाषा का उपयोग आडंबरपूर्ण तरीके से किया जाता है .
लौन्गिनुस ने दो हज़ार साल पहले उदात्त के भाषिक आधार की चर्चा करते हुए इस बुनियादी सचाई की ओर काव्य शास्त्रियों का ध्यान खींचा था. आडम्बर शब्दों का भी हो सकता है , और भावों का भी .ऐसी आडम्बर भरी भाषा सुनने -पढ़ने वालों में अरुचि और क्षोभ पैदा करती है .

दुर्भाग्य से साहित्यिक हिंदी का विकास जिस साम्प्रदायिक- राजनीतिक परिवेश में हुआ , उस ने भाषा में आडम्बर को बढ़ावा दिया . हिंदी अपनी आधार बोली – खड़ी बोली -के बुनियादी जीवन स्रोतों से दूर होती चली गयी .ये जीवन स्रोत थे हिन्दी -उर्दू इलाकों में चलने वाली जन- भाषाएँ .यह समस्या छायावाद से ले कर नयी कविता तक और उस के बाद भी बनी रही .समस्या तो उर्दू के साथ भी ही हुयी , लेकिन हिंदी की तुलना में कुछ कम .

वज़ह साफ़ है -खड़ीबोली की कविता उन्नीसवीं सदी में उर्दू नाम ग्रहण करने वाली काव्य -परंपरा में हिंदी के मुकाबले हज़ार साल पहले से विकसित हो रही थी. इस परम्परा ने खड़ी बोली या हिदुस्तानी ज़बान के मिजाज़ और लय को बहुत पहले से न केवल साध रखा था , बल्कि उसे अधिक परिष्कृत भी करती जा रही थी. उर्दू के साथ झगड़े में हिंदी ने उस से जितनी मुँहफेरी की , उतनी ही वह उस लय से दूर होती गयी. हिंदी कविता के मुकाबले उर्दू ग़ज़लों और नज्मों के अधिक लोकप्रिय होने की यह एक बड़ी वज़ह है.

यह अकारण नहीं है कि हिंदी के अनेक बड़े कवियों ने गज़ल में हाथ आजमाने की कोशिश की है .इन में भारतेंदु , निराला और शमशेर के नाम सब से अधिक महत्वपूर्ण हैं . हम फिलहाल इन कवियों की कोशिशों से अदम की तुलना करने नहीं जा रहे हैं . कहना सिर्फ यह है कि गज़ल हिंदी की साहित्यिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है . फिर आलोचकों ने हिंदी की गज़ल पर गंभीरता से ध्यान देने में कोताही क्यों की?

गज़ल और नज़्म दो ऐसे काव्यरूप हैं , जिन में खड़ी बोली का मिजाज़ और उस की लय सर्वाधिक सधे हुए रूप में आते हैं . अगर आलोचकों ने इस ओर ध्यान दिया होता तो न केवल हिंदी कविता के इतिहास में अदम गोंडवी जैसे शायरों को उन का वाजिब मुकाम मिल पाता , हिंदी कविता को भी संप्रेषणीयता और पाठकीयता के ऐसे संकट का सामना न करना पड़ता.

गज़ल की पहली खासियत यह है कि यह बातचीत की विधा है . गज़ल लिखी नहीं जाती , कही जाती है .खुदा -ए सुखन मीर साहब ने फरमाया था कि ‘ शेर मेरे हैं गो खवास- पसंद / गुफ्तगू मुझ को पर अवाम से है .’ इस से इशारा यह मिलता है कि वही शायर अछ्छी गज़ल कह सकता है , जिस की गुफ्तगू अवाम से हो . यह वही बात है , जिसे अदम अपने अंदाज़ में बार बार दुहराते हैं .

भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो

भूख का अहसास वह चीज है जो मीर की गज़ल को 18वीं से बीसवीं सदी में ले आती है .इतना ही नहीं , अदम पहले बड़े शायर हैं जो गज़ल को शहर से गांव तक ले आते हैं .और साफ़ बताते हैं कि अदब का दम कहाँ घुट रहा है .

गजल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
न इन में वो कशिश होगी न बू होगी न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लान की लंबी कतारों में

जिस कवि को अवाम से गुफ्तगू करने की फ़िक्र होगी , वही उन की भाषा की लय को सहेज पायेगा . नहीं तो कविता में अपने ही मन की लय आजमाने की कोशिश करेगा और नाकाम रहेगा .खड़ी बोली की रवानी वाक्य के पूरेपन में और उस के स्वाभाविक विन्यास में है.

गज़ल में अधूरे , तिरछे , टेढ़ेमेढ़े, पंक्तियों के आर -पार जाते वाक्यों की गुजाइश नहीं होती . हिंदी कविता इस मिजाज़ को न समझ पाने के चलते सब से अधिक मार खाती है .

त्रिलोचन जीवन भर इस बात पर जोर देते रहे कि कविता में सीधे और पूरे वाक्य आयें . लेकिन खुद उन की कविता इस आदर्श से बहुत दूर रही.

हिंदी कविता आम तौर पर सहायक क्रियाओं को ले कर खासी असहज रहती है . अक्सर उसे कविता से , यहाँ तक कि मुक्त छंद की कविता से भी, निकाल बाहर किया जाता है .भाषा की असहजता को कम करने और उसे बोलचाल के करीब लाने के लिए अनेक कवि तद्भव और देशज शब्दों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं . इस प्रवृत्ति के सब से विख्यात उदाहरण खुद अज्ञेय हैं .

हिंदी कवियों ने शब्द पर जितना ध्यान दिया है , उतना वाक्य पर नहीं . मुहावरों पर नहीं .

जितने हरामखोर थे कुर्बो- जवार में
परधान बन के आ गए अगली कतार में

कुर्बो -जवार का इस्तेमाल करने की हिम्मत हिंदी -उर्दू के कितने कवियों में होगी . और हरामखोर. लेकिन अदम के यहाँ ये शब्द खटकते नहीं , असर पैदा करते हैं . क्योंकि वाक्य विन्यास और मुहावरा ठेठ खड़ी बोली का है . अदम से सीखने की चीज यह है कि ठेठ हिंदी का ठाठ बनाए रखते हुए अगर गाँव- जवार के लोगों से उन्ही की ज़ुबान और उन्ही के अंदाज़ में उन की बात की जाए तो कविता में वह आवेग पैदा हो सकता है ,जो उसे जनता का कंठहार बना दे .

यह यों ही नहीं है कि अदम इतने प्यार से अपनी शायरी में कबीर , ग़ालिब , धूमिल और नागार्जुन को याद करते हैं . अदम ने जन -कविता की इस व्यापक परम्परा को निचोड़ा है और उसे अपनी गाँव की बोली का निखार दिया है . ज़ुबान की यह जमीनी जम्हूरियत ही अदम की असली ताकत है . यह उन्हे खड़ी बोली की कविता की एक महान परम्परा से जोडती है , लेकिन उस परम्परा में भी वे सब से अलग दिखाई देते हैं .

आखिर अदम अपनी भाषा में यह जमीनी जम्हूरियत , जिंदादिली , जज्बा और जवानी इतनी आसानी से कैसे पैदा कर लेते हैं , जो भाषा के एकांत पुजारी नहीं कर पाते ? बक़ौल अमिताभ राय इन भाषा – पुजारियों की कविता में ‘घाम’ होगा , लेकिन लगेगा नहीं .’ हिंडोले’ होंगे , लेकिन डोलेंगे नहीं . ‘चिहुंक’ होगी , लेकिन भाषा की असाध्य वीणा से एक महामौन के सिवा कुछ न फूटेगा .

शब्द में कविता की खोज करने वालों की असली समस्या यह है कि भाषा अंततः उन के लिए एक प्रयोग है .प्रयोग में योजना अनिवार्य है . योजना सिद्ध कविता वैसी ही होगी , जैसे लॉन की क्यारियों में लगे फूल . अदम के लिए कविता अभिव्यक्ति मात्र नहीं है . वे अभिव्यक्ति को सजाने के लिए कविता के प्रयोग नहीं करते . कविता के लिए एक अभिव्यक्ति के लिए माध्यम मात्र नहीं है .वह स्वयं अनुभूति की प्रक्रिया है . अनुभूति की प्रक्रिया ही अंतर्दृष्टि में निष्पन्न होती है .

याद रखिये यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आंच पर अहसास की

कविता क्या है ?अहसास की धीमी आंच है , जिस में विचार पकते हैं . कविता की यह दृष्टि इस सवाल को बेमानी बना देती है कि कविता की क्या जरूरत है .कविता ज़िंदगी की सजावट नहीं है , जिस के जरूरी या गैरजरूरी होने का सवाल उठे . कविता खुद ज़िंदगी है .बकौल प्रेमचंद कशमकशेहयात है. इस लिए जो भी ज़िंदा है , ज़िंदगी की कशमकश में शरीक है , कवि है .

जीवन- संघर्ष की भाषा गद्यात्मक होती है , काव्यभासी नहीं . वह कमान की तरह तनी होती है , पतंग की तरह अनंत में काँपती हुयी नहीं . ज़िंदगी की तरह उस में फूलों जैसी नाज़ुकी होती है और चट्टानों जैसी सख्ती .
फूलों की नाज़ुकी है तो सख्ती चटान- सी
भाषा तो जुलाहे की तनी है कमान- सी
…………….
सहमे हुए हैं इस से अदब के इजारेदार
ये अपना हक वसूल रही है पठान- सी
…………
कांटे को आप फूल से कैसे निकालते
गाली पे उतर आयी गंवारू किसान- सी

गज़ल को गंवारू किसान की गाली तक उतार लाना उसे नयी बुलंदियों तक ले जाना है .नज़्म को चमारों की गली तक ले जाना उसे अदब के इजारेदारों के चंगुल से छुडा कर अवाम के हाथों में हथियार की तरह थमा देना है .अदम की शायरी नकली जम्हूरियत से लड़ती हुयी असली जम्हूरियत की कविता है .नकली जम्हूरियत वह है जो अवाम के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रही है .

असली जम्हूरियत उस हथियार के खिलाफ हथियार उठा लेने का उत्पीड़ित जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है.सियासत में, शायरी में, ज़ुबान में.

जब भुखमरी की धूप में जलते किसान हों
मुँह में ज़ुबान रखते हुए बेजुबान हों
नफरत की रुत में दंगों के शोले जवान हों
जम्हूरियत के तन पे ज़िना के निशान हों
जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले !

(2012)

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