समकालीन जनमत
कविता

होती हुई सुबह की तरह कविताएँ

विनय कुमार


लिखने वाले कवियों से भरे हिंदी जगत में कुमार मुकुल एक पढ़ने वाले कवि हैं। उनकी मारक लघु टिप्पणियों से परिचित पाठक भली-भाँति जानते हैं कि वे प्रकट को कितनी संलग्नता और सूक्ष्मता से पढ़ते हैं; मगर यह बात शायद ही कोई जानता हो कि वे भविष्य में लिखी जाने वाली कविताओं को भी पढ़ लेते हैं। अंतर्वस्तु के स्तर पर तो नहीं मगर गुणवत्ता और दिशा के स्तर पर यक़ीनन। कवि को ख़ुद भले न यक़ीन हो कि वह कुछ ख़ास लिखने वाला है, मगर मुकुल की अंतर्दृष्टि सम्भावनाओं को टोह लेती है। एमिली डिकिंसन ने कविता को परिभाषित करते हुए कहा था कि यह सम्भावनाओं में निवास करती है। दरअसल यह बात हर रचनात्मक प्रक्रिया पर लागू होती है, मगर कविता पर ख़ास तौर से क्योंकि वह सूक्ष्म और वायवीय की ही नहीं, ठोस और निर्जीव प्रतीत होते यथार्थ की साँसों की भी ख़बर रखती है। कल्पना की तीसरी आँख से देखे बग़ैर आप यथार्थ की कविता भी नहीं लिख सकते। मुकुल के पास बेहद समर्थ तीसरी आँख है जो एक अच्छे कवि की तरह समय के आर-पार देखने की कोशिश भी करती है। शायद इसीलिए वे काव्यारंभ के मोड़ पर खड़े कवियों के भविष्य को देख पाते हैं और पूरे विश्वास के साथ कवि के कानों में धीरे से कह भी देते हैं – बहुत अच्छा लिखनेवाले हैं आप। यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि कुमार मुकुल के उस मस्तिष्क की वजह से है जिसमें रक्त की जगह कविता बहती है।

कुमार मुकुल से मेरा परिचय ‘पहाड़’ के कवि के रूप में हुआ था। शुरुआती होने के बावजूद यह कविता गहरे अर्थों वाली निर्दोष कविता है, और शायद इसीलिए बहु- प्रकाशित-चर्चित भी। जब तक कुमार मुकुल का संग्रह “परिदृश्य के भीतर” पढ़ नहीं पाया था तब तक वे जब भी मिलने आते रहे, मुझे लगता रहा कि जनाब किसी पहाड़ से उतर कर आए हैं। जब भी आते पूछते – नया क्या लिखा ? और मैं सोचता, ऐसा सम्भावना-आस्तिक! क्यों इन्हें लगता है कि हर कोई एक पहाड़ पर है, बादलों के क़रीब। मैं जनाब की तरह होल-टाइमर कवि तो हूँ नहीं कि उनकी तरह पहाड़ के साथ ही रहूँ – कभी चढ़ता, कभी कहीं टिकता, कभी बादलों की तरह मँडराता और कभी उतार दिया जाता ! बहरहाल, पहाड़ शीर्षक कविता में एक ऐसा श्लेष है जो इसे आत्मपरक तो बनाता ही है, पेडागॉगिक और राजनीतिक भी। बयानों की तरह सपाट कविताओं के समय में कुमार मुकुल जैसी आवाज़ का होना एमिली डिकिंसन की परिभाषा को दिलासा देता है कि पार्टी- और बैंक- स्टेट्मेंट की तरह लिखे जाने वाले थोक साहित्य के बावजूद उसकी पंक्तियों में विन्यस्त उम्मीद जीवित रहेगी।

कुमार मुकुल को मैं सिर्फ़ समकाल का कवि नहीं मानता। इनके भीतर एक दूर से आती हुई पुरानी नदी बहती है, जिसे अपने पानी पर तो भरोसा है ही साथ प्यासे खेतों के मार्ग में खड़े अवरोधों पर क्रोध और उन खेतों की फ़िक्र भी है जहाँ फसलों की जगह भूख उग रही है। जो लोग खेत की तरफ़ से मुकुल को देखेंगे, उन्हें वे वामपंथ का कवि मानेंगे और जो लोग नदी के उद्गम की तरफ़ से वे कवि, सिर्फ़ कवि। यह अकारण नहीं कि वे शमशेर को अपना पूर्वज मानते हैं और कम कविताओं के बावजूद क़द्दावर कवि आलोकधन्वा को बारहा पढ़ते-गुनते हैं। शमशेर और आलोकधन्वा दोनों गहरी संवेदना और मानवीय सरोकारों के कवि हैं और दोनों के कहन में एक विरल कलात्मकता है जो अनुभव और संवेदना की साझी मरोड़ से पैदा हुई है। कुमार मुकुल का रचनात्मक मानस भी स्वभावत: यही करता है और इनके लिखे का पचहत्तर प्रतिशत से भी अधिक अनुभव और संवेदना के घर से आए बिंबों से भरा है।
मुकुल पर एक और कवि का प्रभाव है, और वह हैं राइनर मारिया रिल्के। प्रिय किताबों का ज़िक्र आने पर मुकुल ‘रिल्के के पत्र’ का नाम अवश्य लेते हैं। कुमार मुकुल पर रिल्के का प्रभाव है, यह बात पहली बार आलोकधन्वा ने एक गोष्ठी में रेखांकित की थी। उन्होंने कहा था कि मुकुल में एक भोली प्रश्नाकुलता है, जैसे रिल्के के इस वाक्य में – ईश्वर, मैं तुम्हारा जलपात्र हूँ, टूट जाऊँगा तो पानी कैसे पिओगे? मुकुल को पढ़ते हुए मुझे भी कई बार लगता है कि उनकी कविताओं में जो साहस से भरे नि:स्वार्थ प्रश्न हैं वे भोलेपन की भूमि पर ही खड़े होकर पूछे गए हैं। हालाँकि कवि को अच्छी तरह ज्ञात है :

चीज़ों को सरलीकृत मत करो
अर्थ मत निकालो
हर बात के मानी नहीं होते

चीजें होती हैं
अपनी संपूर्णता में बोलती हुई
हर बार
उनका कोई अर्थ नहीं होता

अपनी अनंत रश्मि बिंदुओं से बोलती
जैसे होती हैं सुबहें
जैसे फैलती है तुम्हारी निगाह
छोर-अछोर को समेटती हुई
जीवन बढ़ता है हमेशा
तमाम तय अर्थों को व्यर्थ करता हुआ
एक नये आकाश की ओर

हो सके तो तुम भी उसका हिस्सा बनो

यह भोलापन जीवन और जगत से एकात्मता की देन है। सनद रहे कि यह कविता रिल्के को समर्पित है।

कुमार मुकुल को एक शब्द बहुत पसंद है – चित्रेतना। यह शब्द नकेनवाद की देन है। मुझे लगता है, नलिन जी ने गढ़ा होगा। इस शब्द का अर्थ है – चित्र की चेतना। कुमार मुकुल की कविताओं में चित्र और चित्रात्मकता एक प्रविधि के रूप में ख़ूब दिखती है। मैं दो ऐसी कविताओं का ज़िक्र करना चाहूँगा जो गढ़न और अर्थ के लिहाज़ से अलग-अलग ध्रुवांतों पर हैं। पहली कविता शमशेर की विस्मयकारी चित्रेतना को इस क़दर समर्पित है कि इसका शीर्षक ही “शमशेर” है। इसमें गाँव के घर से निकल बाँध पार कर सोन नदी में स्नान का चित्र है। जब कवि सोन के तट से पहले की ढलान पर पाँव धरता है तो कहता है –
“चिकनी धूल भरी बदली ज्यों शुष्क भुर-भुरी”।
सोन की ढलान पर नंगे पाँव चलने वाले जानते हैं कि चलो तो धूल उठती-उड़ती है और पाँव ऐसे खो जाते हैं जैसे बादलों के बीच उड़ता हुआ जहाज़ –
तलुए दो या छायाएँ हृदय की
कि दो विमान खो … खो जाते बदली में
आगे बाँध से उतर दौड़ते हुए पानी में जा धँसने का चित्र है –
ढलान गुरुत्व खिसकाता धाता
धँस आता वक्ष रेतीला
…………
भीरु मन छूता जल
काँपता दो पल / छटपटाती चेतना की जीभ …
और अंत में कवि की स्थिति यह :
सौंदर्यकामी आत्मा देती उलीच सारा भय निर्भय!

दूसरी कविता है – एनकाउंटर जो अख़बार में छपी एक तस्वीर देखकर लिखी गयी है। तस्वीर में माँ और दो बच्चे हैं। बच्चे के हाथ में मारे गए पिता का फ़ोटो है। अख़बार में प्रकाशित इस तस्वीर देखकर कवि कहता है –
यह तस्वीर स्थानीय पुलिस की बनायी थी
पुलिस तस्वीरें बना रही है
कितना क ला त्म क ख़याल है …
कविता आगे और गहन होती है जब कवि तस्वीर में अनुपस्थित आकाश को माँ की आँखों में ढूँढ लेता है। आगे बच्चों के बहाने ऐसी मौतों से पैदा हुए ख़ालीपन का ज़िक्र है। कवि तस्वीर के आधार पर घटना का लोकेशन तय करता है और उसके बहाने पीछे के सारे राजनीतिक सूत्र को उजागर कर देता है। यह एक बौनी राजनीतिक कविता होकर रह जाती, अगर मुकुल यहीं रुक जाते। मगर वे मनुष्यता के प्रवक्ता होकर आगे आते हैं –

एनकाउंटर तो नक्सली भी करते हैं
पुलिस वालों का
उनके घरों से भी
ऐसी तस्वीरें निकल जाएंगी

लेकिन कविता यहीं नहीं रुकती। कवि की चित्रेतना फिर आगे आती है मगर शमशेर शीर्षक कविता वाले अवतार में नहीं, आलोकधन्वा वाले अन्दाज़ में –

बंदूक़ की नली से बनायी तस्वीरें ऐसी ही होती हैं
पूरी नहीं बनतीं वे, क्योंकि एक आँख से बनायी जाती हैं
और एक आँख से पूरा आकाश नहीं दिखता
उड़ती हुई चिड़िया दिखती है!
जिस सहस्राब्दी के पहले वर्ष में ग्यारह सितम्बर घटित हुआ था, हम उसी की पहली शताब्दी के तीसरे दशक में हैं। इन बीते दशकों ने हमें बहुत कुछ और तेज़ी से दिया है, मगर सच पूछिए तो उसी तेज़ी से लिया भी बहुत कुछ है। इस कालखंड ने त्वरित और निरंतर संवाद की सुविधा ज़रूर दी है, मगर जतन से पत्र लिखने का रूमान और संतोष ही नहीं संदेशों से उनकी वह प्रामाणिकता भी छीन ली है जो हस्तलिपि और हस्ताक्षर की वजह से प्राप्त होती थी। अब पत्र बहुत कम लिखे जाते हैं। आज ग़ालिब होते तो तलाशी में सामान ए बुतां तो निकल सकता था मगर हसीनों के ख़तूत? नए ज़माने के हैक हो जाने वाले उपकरणों ने हमसे सामाजिक जवाबदेही और हसीनों के ख़तूत जैसे राज़ साझा करने का ग़ुरूर छीन लिया है। पत्र भले कम लिखे जाएँ आजकल, मगर पढ़े तो जाते ही हैं – कभी-कभार वाले भी और वे भी जो काग़ज़ी और दिली किताबों में फूल या दर्द या शर्म की तरह दबे रहते हैं। कुमार मुकुल की कविता “सबसे अच्छे ख़त” भी पत्रों को पढ़े जाने के बारे में ही है। मगर जैसा कि आप जानते हैं पत्र तो निमित्त होते हैं, और हम पत्र पढ़ते हुए लिखने वाले को ही पढ़ रहे होते हैं। मुकुल भी यही कहते हैं, मगर बड़ी ख़ूबसूरती से। इस कविता में वे कुछ ‘सबसे अच्छे ख़तों’ का ज़िक्र करते हैं। अस्पष्ट, छिपाने लायक़ और अप्राप्त पत्रों के बहाने वे उम्र के तीन पड़ावों, जीवन के तीन सम्बन्धों और सभ्यता के तीन अनिवार्य तत्त्वों की तरफ़ इशारा करते हैं। ऊबड़-खाबड़ भाषा वाले पत्र उस पीढ़ी के हैं जो हमें प्यार करती है मगर सभ्यता की चमक भरी आधुनिकता में शामिल नहीं, छिपाने लायक़ पत्र वे हैं जिनमें हमारा वह प्यार धड़कता है जिसे सभ्यता अनुमति नहीं देती, और अनमिले पत्रों का पढ़ लिया जाना सभ्यता की व्यवस्था-गत गड़बड़ियों के बावजूद हमारी संवेदना और तादात्म्य-क्षमता की आश्वस्तिदायक विजय को प्रतीकित करता है।
“इस चयन में संकलित ‘सुबह’ शीर्षक कविता मेरे विचार से कुमार मुकुल की प्रतिनिधि रचना है। इसमें उनकी कविताई का सौंदर्य ही नहीं, उसके संदेश और रचना संसार को समझने के कुछ संकेत भी हैं। दरअसल, उनकी अधिकांश कविताएँ किसी होती हुई सुबह की तरह हैं – अंधकार और रहस्यमय चाँदनी से निकलने की कोशिश और धूप की तरफ़ गति-प्रगति से भरी। लेकिन कवि की नीयत में रात के सौंदर्य और उसके भीतर से फूटती-बगरती गंध को स्मृति और जीवन में सहेजने-सँभालने की भी तत्परता है और सम्भवत: इसीलिए तेज धूप और लू जैसी कविताओं में भी सौंदर्य, प्रेम और करुणा की धाराएँ जीवित रह जाती हैं।

आओ, पाँवों में पहन लो
धूप मिट्टी ओस, और दौड़ो

देखो स्मृतियों में कोई हरसिंगार अब भी हरा होगा
पूरी रात जगकर थक गया होगा
सँभालो उसे, उसकी गंध को सँभालो
उठो कि कुत्ते सो रहे हैं अभी
और पक्षी खोल रहे हैं दिशाओं के द्वार

जगो, और बच्चों के स्वप्नों में प्रवेश कर जाओ !

मुकुल का एक पूरा संग्रह प्रेम कविताओं का है – एक उर्सुला होती है। उस संग्रह में प्रेम का अनोखा इंद्रधनुष है, मगर इस संग्रह की एक कविता मिथक प्यार का एक अलग क़िस्म की कविता है। यह प्रेम के बारे में तो है मगर प्रेम कविता नहीं। यह कविता “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ” के मिथक को बड़ी ही काव्यात्मक प्रविधि से तोड़ती है और प्रेम को उन बोध-चित्रों से रचती है जो हर प्रेमी-प्रेमिका के आत्मगत संसार में बनते हैं। यह अकारण नहीं है कि फ़िल्म सिलसिला में जब रेखा अमिताभ के वक्ष में उँगलियाँ धँसाते हुई कहती है – ‘आइ हेट यू’ तो कानों में बड़ी तीव्रता से गूँजता है – आइ लव यू ! प्रेम में शब्द अपने मूल अर्थ में ही रहें, कोई आवश्यक नहीं। ऊष्मा की मात्रा और पड़ने वाली छाप की ध्वनि उनके अर्थ बदल देती है। प्रेम कहे गए से अधिक सुने गए में अपना रहवास बनाता है। कुमार मुकुल इस कविता में इसी रहवास का पर्दा हटाते हैं और कविता को वहाँ विराम देते हैं जहाँ से दुनियादारी की गम्भीर कहानियाँ शुरू होती हैं। इस कविता के तुरत बाद “पत्नी” शीर्षक कविता पढ़ी जानी चाहिए, जिसमें वाचक कहता है –
“चाँदनी की बाबत उसने कभी विचार ही नहीं किया”
या फिर यह ..
“उसे तो बस तेज काटती हवाओं और अंधड़ों में चैन आता है”……
या फिर यह अंत ..
“अंधड़ उखाड़ देते हैं उसकी चिंगारी को
और धधकती हुई वह अतीत की सपाट छायाओं को छू लेना चाहती है।“

यूँ तो कविताएँ कवियों के जीवन में बुरा वक़्त लाने के आरोप से घिरी रहती हैं, मगर यह भी सच है कि हारे हुए हृदयों के देश में आशा और विश्वास को भी वही गाती हैं – “ये माना ज़िंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी” और “नर हो न निराश करो मन को” से लेकर Woods are lovely dark and deep और Hope is thing with Feathers तक। हज़ारों पंक्तियाँ होंगी जो किसी जाम्बवन्त की तरह बोलती हैं और निष्क्रियता-ग्रंथि से ग्रस्त हनुमान को महावीर विक्रम बजरंगी में बदल देती हैं। कुमार मुकुल के यहाँ ऐसी कई कविताएँ हैं। यह देख प्रसन्नता का अनुभव हुआ कि इच्छाओं की उम्र नहीं होती, नेटरा हाथ और कविता तय करती है जैसी कविताएँ इस चयन में शामिल हैं। इन कविताओं के बहुत सारे अंश अलग-अलग वेब साइट्स और सोशल मीडिया प्लैट्फ़ॉर्म पर लोकप्रिय हो चुके हैं –

इच्छाओं की कोई उम्र नहीं होती
ये इच्छाएँ ही थीं
कि एक बूढ़ा
पूरी की पूरी जवान सदी के विरुद्ध
अपनी हज़ार बाहों के साथ उठ खड़ा होता है
और उसकी चूलें हिला डालता है
………………………..……
अगर विवेक की डांडी टूटी न हो
बाहों की मछलियाँ गतिमान हों
तो खेई जा सकती है कभी भी
इच्छाओं की नौका
अंधेरों की लहरों के पार!

Handedness या Hand Preference एक जैविक तथ्य है और यह तय होता है दो हिस्सों में बँटे मगर एक सेतु (corpus callosum) से जुड़े मस्तिष्क के एक हिस्से के प्रभुत्व-प्राबल्य से। नेटरा हाथ वह है जिसका संचालन वह हिस्सा करता है जिसके पास प्रभुत्व नहीं। मुकुल नेटरा हाथ के पक्ष में बड़े ही तार्किक ढंग से खड़े दिखते हैं और जीवन और जगत के व्यापार में प्रभुत्व-हीन उपस्थितियों की अनिवार्य भूमिका को रेखांकित करते हैं।

लेटा पढ़ता होता हूं
तो किताब उठाये रखता है दाहिना
और हल्के थामे नेटरा
पलटता चलता है पन्ना

पन्ना पलटना में कितना मानीखेज़ रूपक है और कैसा सूक्ष्म उद्बोधन, इसे खोलकर कहने की ज़रूरत नहीं। नेटरा हाथ एक लम्बी कविता है और जीवन के कई प्रसंगों के बहाने जागतिक उपेक्षाओं की किताब के कई पन्ने पलट जाती है। और इसी श्रृंखला में रखना चाहिए उस कविता को भी जो कुमार मुकुल के हिसाब से कविता की परिभाषा है। कविता क्या करती है और क्या कर सकती है जैसे सवालों का जवाब आसान नहीं। ख़ासकर तब जब सतही और मौक़े के लिए कही गयी कविताएँ इंस्टाग्राम से लेकर छोटे पर्दे तक राज कर रहीं हैं। ऐसे समय में जब कोई कवि एक ऐसा सरल वाक्य कहता है – “कविता मैं से तुम या वह होने की छटपटाहट है” तो वह न सिर्फ़ कविता को परिभाषित कर रहा होता है बल्कि अवसर के हिसाब से की जा रही कविताई को भी जवाब दे रहा होता है। मुकुल की यह बात कितनी उचित है और कितनी अनिवार्य, सोचा जा सकता है –
“यह बंदूक़ की नली से
भेड़िए और मेमने का फ़र्क़ करना सिखाती है”
और यह भी कि :
“ कविता तय करती है
कि कब चूल्हे में जलती लकड़ी को
मशाल की शक्ल में थाम लिया जाए।”
कोरे गद्य की तरह निष्कर्ष-मूलक कविता लिखने वालों को सीखना चाहिए कि विमर्श यूँ भी रचे जा सकते हैं।

कुमार मुकुल पार्टी-बद्ध तो नहीं, मगर वाम-चेतना के कवि हैं और इनके पास काफ़ी राजनीतिक कविताएँ हैं, कुछ तो त्वरित प्रतिक्रिया सी भी। काफ़ी मित्रों को वैसी ही कविताएँ पसंद हैं। मुझे भी उनकी कई राजनीतिक कविताएँ पसंद हैं, ख़ासकर वे जो गहरी मानवीय दृष्टि और आलोचना-विवेक के साथ लिखी गयी हैं। दो कविताओं का ज़िक्र मैं ख़ास तौर से करना चाहूँगा। इनमें से एक है चिड़िया का बच्चा जो मुकुल ने तब लिखी थी जब वे नवयुवक थे। यह कविता तसलीमा नसरीन के साहस और उसके साइड इफ़ेक्ट्स को सम्बोधित है, और इस क़दर खुली कि उसे पढ़ते हुए आप किसी भी साहसिक आत्मा को याद कर सकते हैं। दूसरी कविता है – ग्यारह सितम्बर। अमेरिका में घटित ट्रैजेडी को सम्बोधित यह कविता जो हुआ उसके विवरणों के बहाने हथियारों के धंधे के आत्मघाती पक्ष की तरफ़ इशारा करती है। इन दोनों के अलावा भी काफ़ी कविताएँ हैं यहाँ जो कवि की दृष्टि और रचनात्मक हस्तक्षेप के साहस का परिचय देती हैं।

सब के जीवन में कुछ ऐसे दौर आते हैं जब दुःख कटहल के छिलके जैसी जीभ से आत्मा के कोमलतम अंश को छील रहा होता है और उसके पास धैर्य-धन गदहा की तरह घर से अस्पताल और अस्पताल से घर आने के रूटीन को दुहराने के सिवा कोई और काम नहीं रह जाता। कुमार मुकुल के जीवन में भी यह दौर आया था और लम्बे समय के लिए आया था। वह कटहल तो खप चुका और उनका सोनू भी ल्यूकीमिया को पराजित कर पूर्ण स्वस्थ हो चुका, मगर उस दौर की कुछ कविताएँ मृत्यु के बादलों के बीच घिरे पुत्र को देखते विवश किंतु साहस के हाथों से स्नेह का निवाला खिलाते पिता के प्रेम के करुण आलाप की स्मारिका हैं।

कैसे हो रहा है यह
कि मेरी गोद में पड़े-पड़े ही
कुम्हलाने लगा है वह
कि जाने कहां-कहां से आकर
छुपते जा रहे हैं रक्त कर्कट
उसकी अस्थि मज्जा में
इतने रक्त कर्कटों के साथ
कैसे सो पा रहा है वह
इतनी गहरी नींद
क्या चुन सकूंगा मैं
उसके रक्त कर्कट
या गोद में पड़े-पड़े ही
बदल जाएगा वह
रक्त कर्कटों के गुच्छे में।

रक्तकर्कट सिरीज़ की कविताएँ पढ़ते हुए कटहल के छिलके जैसी जीभ से पाठक का मन जब छिलने लगता है तब जीवन के राग से भरा कवि कह उठता है –

सुबह हो चुकी है
अब तो जागो बेटे
जीवनदायिनी हवा आ रही है
पूरब से
और प्राणदायिनी धूप भी
जगो बेटे खुद को सौंप दो इन्हें
और चुनने दो रक्त कर्कट
हां-हां
असंख्य हैं रक्त कर्कटों के विषाणु
पर सूर्य रश्मियां भी अनंत हैं।

इस सिरीज़ की कविताएँ तब लिखी गयी थीं जब परिवार संकट के बीच था। दरअसल कुमार मुकुल एक प्रश्नाकुल आत्मा हैं। इनके लिए उदासी भी एक प्रश्न है जिसका सबब वे ढूँढने लग जाते हैं। मगर जब संकट बड़ा हो और अवसाद इस क़दर गहरा कि आईना ही घूरे और पार देखे तो शून्य नज़र आए और समय की देह मृतप्राय हो जाए तो साहस का स्वर साधना जितना आवश्यक होता है उससे अधिक कठिन। कुमार मुकुल के भीतर के कवि ने यह साहस दिखाया है। यह अकारण नहीं कि राजस्थान पत्रिका की नौकरी में जब उन्हें वैदिक साहित्य पर काम करने को कहा गया तो वे हमारे लिए “मृत्यु सूक्त” लेकर सामने आए। वेद-सम्मत भाषा में रचा गया यह सूक्त एक आधुनिक कवि का सूक्त है। दो नमूने ग़ौरतलब हैं –


हे मृत्यु,
निष्करुण हो तुम
या तुम्हारा आतंक ही
अविरल स्रोत है, करुणा का ?


हे मृत्यु,
हर क्षण लटकती तलवार सी
सर पर टंगी मत रहा करो
गहरे आतंक से
यह सर
अक्सर फिर जाया करता है
जो तुम्हारी महत्ता को कम करता है !

कुमार मुकुल के जीवन में एक आमंत्रित क़िस्म की आर्थिक लापरवाही है, जिसे देखकर चिंता से अधिक आश्चर्य होता है। एक युवक जो कम से कम अध्यापक-प्राध्यापक अवश्य बन सकता था उसने एक अनिश्चितता का चयन, कहना चाहिए वरण किया। आख़िर क्यों ? पिछले 21 सालों में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इस इंसान का भरोसा उस अर्थ पर सबसे अधिक है जो शब्दों से फूटता है, और शायद यही वजह है कि कविता कुमार मुकुल की आत्मिक प्राथमिकता है। वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के विश्वव्यापी और टिकाऊ साइक्लोन भी इस कविता-आस्तिक का नज़रिया नहीं बदल सके। बंद होती पत्रिकाओं, कविता की किताबों की घटती बिक्री, चुटकुलों और सस्ती तुकबंदियों से भरे साहित्य-समागम और शब्दों से बलात्कार और उनके गर्भ से निकले अपंग और विकराल अर्थों से अटे समय में भी ऐसी निष्ठा! जी करता है कहानियों के भीतर से सचमुच की सरस्वती का आवाहन करूँ और कहूँ – “देवि, ऐसे बच्चों का विशेष ध्यान रखना। ऐसे कविता-पागल बंदे कम बनते हैं।”

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