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साहित्य-संस्कृति

हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन

हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन की स्थिति को समझने के लिए उसके जन्म के समय की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों पर ध्यान देना जरूरी है । सन 1929 से 1935 तक चलने वाली विश्व महामंदी का प्रभाव भारत पर भी पड़ा था । उसी दौर में रूस की योजनाबद्ध आर्थिक प्रगति की कथा भी पढ़े-लिखे लोगों के लिए अनजानी न थी। जर्मनी में हिटलरी नाजीवाद के उदय और रूस में जोसेफ स्तालिन के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण की प्रगति ने दोनों दुनिया (पश्चिमी और पूर्वी) की इन व्यवस्थाओं (पूंजीवादी और समाजवादी) के इस वैषम्य को दुनिया भर में उजागर कर दिया।

जब हिटलर ने रूस पर हमला किया तो दुनिया भर के मार्क्सवादी साहित्यकारों ने प्रयास करके इसे मानवता विरोधी युद्ध साबित करने में सफलता हासिल की । इसी के इर्द गिर्द पूरी दुनिया में एक वैचारिक अभियान भी चलाया गया जिसमें मार्क्सवादी साहित्यकारों का साथ ढेर सारे गैर-मार्क्सवादियों ने भी दिया। रूस के साथ युद्ध में हिटलर की ऐतिहासिक पराजय ने मार्क्सवादियों की वैचारिक बरतरी को स्थापित कर दिया। उन्होंने इसे साहित्य की दुनिया में भी अनूदित किया। रूस में लेनिन के नेतृत्व में हुई बोल्शेविक क्रांति के बाद स्थापित तीसरे इंटरनेशनल ने एशिया और अन्य जगहों के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के साथ एका कायम करने की नीति अपनाई थी । उसी की निरंतरता में इस दौर में रूसी नीतियों की भारत में लोकप्रियता की परिघटना को देखना चाहिए ।

इस अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति के साथ राष्ट्रीय परिस्थिति भी वाम के पक्ष में माहौल बना रही थी । भारत में जन भागीदारी के लिहाज से स्वाधीनता आंदोलन का सुनहरा दौर अर्थात असहयोग आंदोलन बीत चुका तो था ही, जिस तरह उसे वापस लिया गया था उसके चलते स्वाधीनता के लिए लड़ रही ताकतों के बीच विभ्रम और हताशा की स्थिति थी। इसका प्रभाव स्वाधीनता की आकांक्षा के तबकाई अनुवाद में दिखाई पड़ने लगा। धीरे धीरे स्वाधीनता आंदोलन के भीतर तबकाई संगठनों का निर्माण शुरू हुआ । इसका एक प्रमुख कारण महामंदी (1929-1935) थी जिसके चलते मजदूरों और किसानों का जीना दूभर होता जा रहा था ।

मार्क्सवाद की लोकप्रियता के चलते ज्यादातर इन संगठनों का नेतृत्व मार्क्सवादी कर रहे थे । इन संगठनों की स्थापना के समय पर एक नजर मारते ही यह बात साफ होने लगती है । 1925 में कानपुर में मजदूरों का संगठन, 1936 में किसान सभा, लखनउ में ए आई एस एफ़ तथा प्रगतिशील लेखक संघ- ये सभी एक ही ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंग थे ।

इसी वजह से प्रलेस की स्थापना के बाद नहीं, बल्कि उसके पहले से ही छायावादी लेखकों में बदलाव आने लगे थे । इस परिवर्तन को प्रगतिशील साहित्यकारों ने अपनी विरासत के रूप में ग्रहण किया । जयशंकर प्रसाद का नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ तथा उनका लेख ‘छायावाद और प्रगतिवाद’ इसका प्रबल सबूत हैं । उक्त लेख में प्रसाद जी ने प्रगतिशीलता की सर्वोत्तम परिभाषा दी कि यह ‘लघुता की ओर दृष्टिपात’ है । निराला साहित्य- कविता और गद्य दोनों, के भीतर आए बदलावों को रामविलास शर्मा ने विस्तार से गिनाया है । महादेवी का इसके बाद कविता लिखना बंद करके वंचितों के साथ सहानुभूतिपरक गद्य का प्रणयन भी इसी बदलाव का अंग था । पंत द्वारा ‘ग्राम्या’ की कविताओं का सृजन और ‘रूपाभ’ का संपादन भी इसी बात की पुष्टि करता है।

प्रगतिशील साहित्यिक हस्तक्षेप का सबसे प्रबल रूप कविता बना तो उसका एक कारण इसके पहले छायावाद के दौर में साहित्य की प्रधान गतिविधि के रूप में इसकी मौजूदगी थी । प्रगतिशील कविता पर बात शुरू करने से पहले उसके समानांतर चलने वाली साहित्यिक धारा अर्थात प्रयोगवाद के बारे में बात करनी होगी अन्यथा प्रगतिशील कवियों की समूची विविधता को समझना मुश्किल होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत में मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद का प्रसार एक साथ हुआ लेकिन 1947 में स्वाधीनता मिलने के बाद हिंदी भाषी मध्यवर्ग को सत्तासीन होने की खुशफ़हमी हुई । इसके कारण प्रगतिशील साहित्य के मुख्य स्वर किसान मजदूरों के जीवन की आशाओं-आकांक्षाओं के चित्रण की जगह मध्यवर्गीय जीवन की चिंताओं को साहित्य में अधिक जगह देने की मुहिम तेज हुई । शीत युद्ध के साथ जुड़ी मार्क्सवाद विरोधी वैचारिक मुहिम ने भी आग में घी डालने का काम किया । हिंदी में इस प्रक्रिया को ठोस सांगठनिक अभिव्यक्ति अज्ञेय के संपादन में निकलने वाले सप्तकों के जरिए हुई इसलिए ये भी इस टकराव के गवाह बने ।

पहला सप्तक ‘तार सप्तक’ के नाम से 1943 में यानी आजादी से पहले ही प्रकाशित हुआ था । बहुत सारे लोग इससे ही प्रगतिवाद की समाप्ति और इसके विरोध के रूप में प्रयोगवाद की शुरुआत मानते हैं लेकिन अन्य लोग ढेर सारे प्रमाणों के आधार पर इसे प्रगतिशील आंदोलन से ही जुड़ी पहल मानते हैं । इसकी योजना ‘फ़ासिस्ट-विरोधी लेखक सम्मेलन’ में बनी थी जिसकी अध्यक्षता श्रीपाद अमृत डांगे ने की थी । ‘तार सप्तक’ में कवि के रूप में रामविलास शर्मा शामिल किए गए थे जो मार्क्सवादी आलोचक के रूप में उभर रहे थे। इसमें शामिल मुक्तिबोध के अलावा अधिकतर कवियों ने मार्क्सवाद और प्रगतिशील आंदोलन के प्रति अपनी निष्ठा कभी नहीं छिपाई । खुद अज्ञेय की शुरुआती मानसिकता में विद्रोह के तत्व प्रबल थे और उनका अस्तित्ववादी संस्कार तब तक नहीं हुआ था।

इन सभी के चलते यह कहना ज्यादा सही लगता है कि कम से कम ‘तार सप्तक’ से प्रयोगवाद का आरंभ नहीं हुआ था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के बारे में एक और मत है जिसके अनुसार अज्ञेय शुरू से ही प्रगतिवाद से दूर थे । ऐसी स्थिति में मानना पड़ेगा कि प्रगतिवाद और उसके विरोध में प्रयोगवाद लगभग एक ही साथ शुरू हुए। ‘तार सप्तक’ की भूमिका में ही इसके लक्षण दिखाई देने लगे थे । त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल के ‘तार सप्तक’ में भी शामिल न होने के पीछे यही कारण महसूस होता है । 51 में जब ’दूसरा सप्तक’ और 59 में ‘तीसरा सप्तक’ प्रकाशित हुआ तो इस प्रक्रिया में यह दुराव क्रमश: बढ़ता गया । इस टकराव की पृष्ठभूमि में प्रगतिशील कवियों के अलग अलग समूह बनते दिखाई पड़ते हैं ।

पहले समूह में तीन कवि आते हैं जिन्हें हम खांटी प्रगतिशील कवि कह सकते हैं । ये सप्तकों के प्रकाशन के समूचे दौर में सक्रिय रहे लेकिन किसी भी सप्तक में शामिल नहीं हुए । प्रगतिशील आलोचना की बात आगे की जाएगी लेकिन उसके दो धुरंधरों- रामविलास शर्मा और नामवर सिंह- की अवस्थिति इन कवियों के प्रसंग में अलग-अलग रही और इसी रूप में उसे व्यापक हिंदी समाज ने समझा भी । इन कवियों के नाम क्रमश: नागार्जुन, केदार नाथ अग्रवाल और त्रिलोचन हैं ।

इनमें नागार्जुन सबसे बीहड़ रचनाकार थे । उन्होंने संस्कृत, मैथिली, हिंदी और बांगला भाषा में कविताओं की रचना की । देव भाषा संस्कृत में लिखी उनकी रचनाओं के नाम ही इस बात को जानने के लिए काफी हैं कि वे इसमें एकदम नया काम कर रहे थे । उनकी किताबों के नाम हैं- लेनिन शतकम और कृषक शतकम । मैथिली कविता में आधुनिकता की बयार उन्होंने ही बहाई । सोचिए कि मैथिल जैसी पोंगापंथी ब्राह्मण संस्कृति में बास्केट बाल खेलती लड़कियों के सौंदर्य पर रीझकर लिखी उनकी कविता का क्या प्रभाव पड़ा होगा । छंद पर अपूर्व पकड़ ही उनकी ‘हम जाय रहल छी आन ठाम, हे माँ मिथिले अंतिम प्रणाम’ की विशेषता नहीं है बल्कि ‘वैवाहिक घट के फोरि फारि, पुरजन प्रियजन के छोड़ि छाड़ि’ में सामंती सवर्ण ग्रामीण वातावरण के प्रति विद्रोह भी है।

हिंदी में उचित ही निराला के बाद वे सर्वाधिक सम्मानित रचनाकार हैं । उनकी कविताओं में छंद के शास्त्रीय से लेकर लोक प्रचलित रूपों तक का पूरे अधिकार के साथ प्रयोग हुआ है । यहां तक कि चना जोर गरम किस्म के छदों तक का । उन्होंने अपने नाम के साथ भी बहुत सारे प्रयोग किए । उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था । मैथिली कविताओं के लिए उन्होंने ‘यात्री’ उपनाम अपनाया था । हिंदी कविताओं में नागार्जुन नाम मशहूर हुआ । यह नाम उनके बौद्ध दर्शन के साथ संसर्ग से उपजा है । उनकी कविताओं और जीवन को जो ऊपर से देखते रहे उनके लिए यह सोचना भी मुश्किल था कि बौद्ध दर्शन की पारंपरिक शिक्षा की सर्वोत्कृष्ट उपाधि ‘त्रिपिटकाचार्य’ उन्हें प्राप्त थी । इसी नागार्जुन को बाद में उन्होंने अर्जुन नागा में भी बदला था।

इसी तरह त्रिलोचन शास्त्री का मूलनाम बासुदेव सिंह था । आखिर इन दोनों ने अपने नाम क्यों बदले । इस सवाल का एक संभावित जवाब यह है कि इन नामों से समाज के सुविधासंपन्न तबकों से जुड़े होने की गंध आती थी जो किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए थोड़ी शर्मिंदगी की बात होती है । शायद इसीलिए इन दोनों कवियों ने माता-पिता के दिए नामों की जगह ये नाम चुने । नागार्जुन की कविता स्वतंत्र भारत का जनता के नजरिए से राजनीतिक इतिहास है । नागार्जुन पारंपरिक अर्थ में राजनीति को नहीं देखते बल्कि उनके लिए सामाजिक बदलाव का उपकरण राजनीति है जिसके प्रति व्यक्त आक्रोश का निशाना केवल नेता नहीं, बल्कि समूची समाज व्यवस्था होती है । उनकी निहायत छोटी छोटी कविताओं में भी कथ्य और रूप का नायाब संतुलन होता है । शिक्षा व्यवस्था पर ‘घुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचें’ हो या चुनाव पर ‘लौटे हैं दिल्ली से एक टिकट मार के’ हो या सांप्रदायिकता- सभी पहलुओं पर नागार्जुन की निगाह जन साधारण की, बल्कि वर्ग सचेत सर्वहारा की निगाह की तरह पड़ती है । ‘पाँच पूत भारतमाता के’ तो आधुनिक भारत का राजनीतिक इतिहास है । प्रगतिशील ही नहीं, अपने समकालीन सभी कवियों में प्रकृति वर्णन के मामले में वे अलग हैं।

‘बहुत दिनों के बाद’ और ‘बादल को घिरते देखा है’ के साथ ही ‘कालिदास सच सच बतलाना’ उनकी प्रकृति संबंधी संवेदनशीलता का प्रमाण है । ‘अकाल और उसके बाद’ तो प्रकृति और मनुष्य के सर्वकालिक साहचर्य का ही चित्रण है । नागार्जुन की एक छोटी कविता है ‘प्रतिहिंसा ही स्थायिभाव है मेरे कवि का’ । शासन और संपत्ति के प्रति अपार घृणा और क्रोध ने उनकी कविताओं को सबसे विशिष्ट बना दिया । तभी सियारामशरण गुप्त और मैथिलीशरण उन्हें ‘जहर को पोटलो’ कहते थे । इस मामले में वे प्रेमचंद और निराला जैसे हिंदी लेखकों की परंपरा में आते हैं । आश्चर्य नहीं कि इन दोनों लेखकों पर नागार्जुन ने आलोचनात्मक पुस्तिकाएं लिखीं । इसके अलावा हिंदी उपन्यास की यथार्थवादी धारा का अनुगमन करते हुए उन्होंने अनेक उपन्यास भी लिखे । ‘हरिजन गाथा’ और ऐसी ही कुछ अन्य कविताओं में कथा और कविता का भेद भी लगभग मिटाने की कोशिश दिखाई पड़ती है ।

नागार्जुन के हमउम्र केदारनाथ अग्रवाल की प्रतिष्ठा ऐंद्रिक काव्य लेखन के नाते है । शरीरी प्रेम ज्यादातर पत्नी के लिए व्यक्त हुआ है और इसी कारण उन्हें ‘स्वकीया प्रेम’ का कवि कहा जाता है । वस्तुत: प्रेम और प्रकृति प्रगतिशील कविता का स्थायी विषय रहे हैं । उनकी कीर्ति का आधार राम विलास शर्मा के साथ उनकी मित्रता भी है जिसका अप्रतिम दस्तावेज इन दोनों का आपसी पत्राचार है । उनकी कविता की प्रमुख विशेषता भाषा की सहजता है जो कभी कभी लोकभाषा के स्तर तक चला जाता है और इसी कारण तथा अपनी बिंबात्मकता और सीधी चोट के चलते भी अत्यंत पठनीय है । केदारनाथ अग्रवाल की कविता की इस सहजता के पीछे के कलात्मक प्रयास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है ।

उनके मूर्ति विधान, छंद सौष्ठव और वर्ग विभेद की प्रस्तुति में जो कला है वह अब भी पुरानी नहीं हुई है । ‘हवा हूं हवा मैं वसंती हवा हूं’ में बसंती हवा में एक अल्हड़ लड़की की चंचलता यगण के अनुशासन में ढल गई है और इसी वजह से जुबान पर चढ़ जाती है । मानव श्रम के सौंदर्य की स्थापना हिंदी की प्रगतिशील कविता का सबसे बड़ा योगदान है और इसमें प्रलेस के स्थापना सम्मेलन में दिए गए प्रेमचंद के भाषण के उस आग्रह की पूर्ति भी है जिसमें उन्होंने ‘सौंदर्य के मेयार’ बदलने का आवाहन किया था ।

इन तीन प्रगतिशील कवियों में सबसे बाद में जन्मे और मुक्तिबोध के हमउम्र त्रिलोचन जीते जी किंवदंती बन चुके थे । हिंदी कविता में उन्हें सानेट छंद को प्रचलित करने के लिए हमेशा याद किया जाएगा । कविता में पूरे वाक्य लिखने का प्रयास त्रिलोचन ने किया । सानेट में भी उन्होंने पूरे पूरे वाक्य लिखे और इसके लिए वाक्य को उसी तरह तोड़ने और मोड़ने की कला विकसित की जिस तरह निराला ने उसे ‘सरोज स्मृति’ में बीच बीच में तोड़ा था । उनकी ‘चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ अब क्लासिकल कविता का दर्जा हासिल कर चुकी है । उसमें गद्य में कविता की सहज गति देखी जा सकती है ।

इन तीन कवियों को प्रगतिशील आलोचना के एक बड़े आलोचक नामवर सिंह से हमेशा शिकायत रही कि हिंदी कविता की दुनिया में तमाम किस्म के कलावादी प्रवृत्तियों से इनके संघर्ष के बावजूद नामवर जी ने कभी इनकी कविता को मूल्यांकन का प्रतिमान नहीं बनाया, बल्कि ऐसे काव्य मूल्यों को ही समीक्षा का आधार बनाया जो नयी समीक्षा के थे । कम से कम नागार्जुन (अगर कीर्ति का फल चखना है) और त्रिलोचन (प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है) ने इस आशय की कविताएं लिखीं ।

इनके बाद ऐसे कवियों का जिक्र किया जा सकता है जो सप्तकों में शामिल तो किए गए लेकिन उनकी मार्क्सवादी आस्थाओं पर सवाल नहीं उठाया जा सकता । इनमें सबसे प्रसिद्ध मुक्तिबोध थे । खुद वे अपने को नयी कविता से जोड़कर देखते थे और नयी कविता को प्रयोगवाद का विरोधी मानते थे । उन्हें इसी रूप में हिंदी की दुनिया में समझा भी गया । अगर कुछ प्रतीकों के सहारे देखें तो हिंदी के आधुनिक काव्य-जगत में मुक्तिबोध और अज्ञेय एक दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ते हैं।

जहां अज्ञेय के लिए मनुष्य ‘नदी के द्वीप’ हैं तो मुक्तिबोध के लिए ‘मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते, यदि वह है तो सबके साथ’ है । जहां अज्ञेय लगभग जीवन भर महानगरों में ही रहे वहीं मुक्तिबोध की छ्टपटाहट में ‘दिल्ली’ का विकल्प ‘उज्जैन’ है और सचमुच वे इसी किस्म की छोटी जगहों पर रहे भी । अज्ञेय के जीवन और साहित्य से निश्चिंतता की झलक मिलती है तो मुक्तिबोध के जीवन और साहित्य से बेचैनी की । अगर अज्ञेय मध्य वर्ग के ऊंचे तबकों की रुचि के प्रतिनिधि दिखाई पड़ते हैं तो मुक्तिबोध निम्न मध्य वर्ग का घोषित रूप से पक्षपोषण करते हैं । परंपरा से अज्ञेय का रिश्ता ‘पिता-पुत्र’ का दिखाई देता है जबकि मुक्तिबोध का संबंध आलोचनात्मक है ।

अनेक मायनों में वे न केवल प्रगतिशील कविता के बल्कि हिंदी की आधुनिक कविता के बहुत विशिष्ट कवि हैं । उनका अनुकरण करने की कोशिशें बहुत हुई हैं लेकिन यह काम लगभग असंभव है । वैसी ऊबड़ खाबड़ लेकिन फिर भी अत्यंत सार्थक शब्दावली हिंदी के किसी आधुनिक कवि के पास नहीं है । उन्हें ठीक ही कुछ लोग निराला के बाद सबसे महत्वपूर्ण कवि मानते हैं । लगता है जीवन भर मुक्तिबोध एक ही कविता लिखते रहे ।

मोटे तौर पर उनकी लगभग सभी कविताओं का कथ्य इस बात के इर्द गिर्द घूमता है कि मध्य वर्ग की वास्तविकता उसे मजदूर वर्ग के साथ मिलने की ओर लगातार ठेल रही है लेकिन वह पूरी तरह से उसके साथ एकाकार नहीं हो पाता और इसी अंतर्विरोध में पिसता रहता है । इसे उन्होंने ज्यादातर ‘मैं’ शैली में व्यक्त किया है इसलिए व्यक्ति मुक्तिबोध के बारे में भी खासकर रामविलास शर्मा ने मानसिक-स्नायविक परेशानियों का उल्लेख किया है।

मुक्तिबोध का शिल्प कविता में कोई कथा कहने की कोशिश करता है । इस कथा शिल्प में मूल रूप से स्वप्न आते हैं । तो उनकी कविताएं बहुधा आपस में विचार की निरंतरता में गुंथी हुई स्वप्नमालाओं का रूप ले लेती थीं जिन्हें शमशेर शक्तिशाली बिंब कहते हैं । इन स्वप्नों में एक आंतरिक काव्य-तर्क होता था वे खुद अपने शिल्प को फैंटेसी कहते थे । इसके कारण उनकी कविता आम तौर पर लंबी हो जाया करती थी ।

काफी दिनों तक वे अपनी कविताओं में सुधार-संशोधन करते रहते थे । विचार सघन कविता की एक समृद्ध परंपरा मुक्तिबोध ने विकसित की । उनके कुछ पद अनायास याद हो जाने वाले हैं । मसलन ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ या सच्चिदानंद को तोड़कर बनाया गया पद- ‘सत चित वेदना’ । अज्ञेय की तरह ही उन पर भी अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव था और उनका काव्य नायक लगातार मन की उलझनों से बाहर निकलने और व्यापक समाज से जुड़ने की कोशिश और संकल्प करता रहता था।

कविताओं के अलावा उनकी दूसरी ताकतवर छवि आलोचक के रूप में है जिसके चलते वे लगभग सभी मुद्दों पर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के मुकाबले एक तीसरा रुख अपनाते दिखाई पड़ते हैं लेकिन उसकी चर्चा प्रगतिशील आलोचना के प्रसंग में की जाएगी । उनका लेख ‘कला का तीसरा क्षण’ सृजन प्रक्रिया के बारे में बहुत ही मौलिक विचार परक लेख है जिसमें वे मूल प्रेरणा, उसके बाद अन्य प्रसंगों के साथ उसका घुलाव और विस्तार तथा तीसरे क्षण में उसके लेखन का जिक्र करते हैं लेकिन उनका कहना है कि इन सभी समयों में रचना लगातार बदलती रहती है। इसीलिए उनके लिए कविता ‘कभी खत्म नहीं’ होती । इसके अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ पर उनकी लिखी ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ इस किताब पर लिखी एकमात्र अच्छी आलोचनात्मक कृति है । उसमें मुक्तिबोध ने पैराणिक कथा के भीतर व्यक्त आधुनिक मनुष्य की समस्या को पहचाना है।

प्रसाद जी की पंक्तियां थीं ‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की ।’ इसको आधुनिक समय की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए मुक्तिबोध ने कहा कि प्रसाद जी ने समस्या बहुत बड़ी उठा दी थी लेकिन समाधान अत्यंत भाववादी प्रस्तुत कर पाये । इसी आधार पर उन्होंने ‘मनु’ को आधुनिक मनुष्य तथा उसकी उलझन को पूंजीवादी समाज के व्यक्ति की उलझन साबित किया । मुक्तिबोध ने काफ़्का की तरह ही रूपकात्मक कहानियां भी लिखी हैं । ‘पक्षी और दीमक’ सुविधाओं के लिए स्वतंत्रता कुर्बान कर देने की करुण कहानी है । ‘समझौता’ शीर्षक कहानी नौकरशाही में बास और मातहत के बीच बाघ और रीछ की खाल ओढ़े झूठे और भय पर आधारित संबंधों की विडंबना को उजागर करती है । इसी तरह हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने वाले क्लाड ईथरली के अपराध बोध को ‘क्लाड ईथरली’ में दर्ज किया गया है जिसने असल जिंदगी में उस घटना की पचासवीं सालगिरह पर आत्महत्या कर ली और हरेक साल उसकी बरसी पर हिरोशिमा जाया करता था । बहरहाल मुक्तिबोध के प्रशंसकों का एक हिस्सा ऐसा भी है जो प्रगतिशील आंदोलन को पीटने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल करता है ।

मुक्तिबोध के बाद एक और ऐसे कवि के बारे में बात करना जरूरी है जिनकी कविताओं से प्रगतिशील आंदोलन का संबंध सबसे दूर का महसूस होता है । इनका नाम शमशेर है जो हिंदी में सुर्रियलिज्म के एकमात्र प्रयोगकर्ता माने गए । उनकी गति हिंदी के साथ उर्दू में भी थी । अपने कविता संग्रह में हाशियों पर चीनी चित्राक्षरों को छपवाने पर बल को लेकर विजयदेव नारायण साही ने उनके बारे में लिखा कि उनकी क्रांतिकारिता हाशिये तक सीमित है । शमशेर बहुत अच्छे चित्रकार थे और इसका बाकायदे प्रशिक्षण लिया था । उन्होंने ढेर सारे चित्र बनाए भी । उनकी कविता में रंगों के उल्लेख और प्रखर चित्रात्मकता के कारण मुक्तिबोध ने उनके कवि को ‘सिंहासनच्युत चित्रकार’ कहा है । उन्होंने साथी प्रगतिशील कवियों पर लेख तो लिखे ही यह भी घोषित किया कि जीने के लिए ‘मार्क्सवाद और आक्सीजन’ जरूरी चीजें हैं । उनकी लंबी कविता ‘अमन का राग’ विश्व शांति के लिए दुनिया भर के साहित्यकारों की एकता का आवाहन या उत्सव है । उन्हें इंप्रेशनिस्ट भी कहा जाता है लेकिन आधुनिकतावाद के साथ साम्यवाद भी लगातार उनके लेखन में प्रकट होता रहा ।

प्रगतिशील कवियों की एक ऐसी भी टोली थी जिसे लोकप्रिय लेखन के नाते गंभीरतापूर्वक याद नहीं किया जाता । इस मामले में उर्दू और हिंदी ने अपने लेखकों के साथ अलग अलग व्यवहार किया । उर्दू में फ़िल्मों में लेखन करनेवालों को कभी साहित्य से बहिष्कृत नहीं किया गया । हिंदी से जो भी फ़िल्मों में गये उन्हें काव्य-अभिजात के समर्थक आलोचक और साहित्यकारों ने साहित्य में गिनने से इनकार कर दिया । इनमें गीतों के सिरमौर शंकर शैलेन्द्र हैं । उन्होंने सहज हिंदी खड़ी बोली में इतने जुबान पर चढ़ जाने वाले गीत लिखे कि आश्चर्य यह सोचकर होता है कि उन्हें साहित्य में शामिल न करने से हिंदी का कौन सा भला हुआ । इसी के साथ शील को भी शामिल कर लेना चाहिए । इस लेखन की खूबी आंदोलन के साथ कदम मिलाकर चलना है । इसे राजनीतिक प्रचार का लेखन कहकर इसकी रचनात्मकता को खारिज करने की प्रवृत्ति रही है । खास बात यह कि इस तरह के लेखन की निरंतरता बाद में भी बनी रही और लोकप्रियता तथा गुणवत्ता के बीच संतुलन की बहस इसलिए भी बार-बार उठती रही ।

उपन्यास की दुनिया में प्रेमचंद पहले से ही प्रगतिशील मूल्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । यशपाल और रांगेय राघव ने वर्ग संघर्ष की यांत्रिक समझ को इतिहास में ले जाकर आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कहानियां लिखीं । यशपाल ने विभाजन की पृष्ठभूमि पर ‘झूठा सच’ लिखा, साथ ही ‘दिव्या’ में औपनिषदिक काल में भारतीय दर्शन के वैचारिक संघर्ष को दास स्त्री की निगाह से विश्लेषित करने की कोशिश की । ‘दादा कामरेड’ और ‘पार्टी कामरेड’ कम्युनिस्टों की विद्रोही छवि उकेरने के मकसद से लिखे गए थे । साहित्य में ऐंद्रियता के चित्रण के चलते रामविलास शर्मा ने उनकी आलोचना की लेकिन स्त्री विमर्श के हालिया दौर में उनके इस लेखन की विशेषता को रेखांकित किया जा रहा है ।

कविता के अतिरिक्त आलोचना हिंदी के प्रगतिशील लेखन का विशेष पहलू है । प्रगतिशील आलोचना को समझने के लिए हिंदी आलोचना की परंपरा को समझना जरूरी है । हिंदी आलोचना के शिखर रामचंद्र शुक्ल थे । उन्होंने साहित्य की वस्तुवादी समझ को हिंदी समाज के सामने स्पष्ट किया । साहित्य को उन्होंने मनुष्य के भावजगत से जुड़ी गतिविधि समझा और मनुष्य के भावों की व्याख्या इस दुनिया में उसके समाजीकरण से जोड़कर की । इसी आधार पर उन्होंने साहित्य को धर्म से अलगाया । साहित्य के इतिहास को उन्होंने समाज के इतिहास से इस तरह जोड़ा कि बहुतेरे लोग उन पर प्रत्यक्षवादी होने का भी आरोप लगाते हैं । शुक्ल जी की जिस मान्यता पर सबसे ज्यादा विवाद हुए वह भक्ति के उदय से जुड़ी हुई है । इस सवाल पर वे एकाधिक प्रस्ताव रखते हैं । पहला तो भक्ति के दक्षिण में उत्पन्न होने को वे ‘भक्ति द्राविड़ उपजी लाये रामानंद’ के सही होने से मानते प्रतीत होते हैं । दूसरी ओर पूर्वोत्तर से आने वाली योग की धारा की भी स्वतंत्र मौजूदगी देखते हैं ‘गोरख जगायो जोग’ के जरिए । तीसरे पश्चिमोत्तर से आने वाली सूफी धारा के सबसे महत्वपूर्ण कवि जायसी की महत्ता को वे ही स्थापित करते हैं । ऐसा लगता है कि इन तीनों की आमद को वे मंजूर करते हैं लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र में उसी समय उनके एक साथ मिलकर प्रमुखता प्राप्त कर लेने की तात्कालिक व्याख्या करते हुए उन्होंने मुसलमानी शासन की स्थापना से पराजित हिंदू मानस को वह माहौल माना है जिसने इसे फैलने का मौका दिया । इसी बिंदु पर हजारी प्रसाद द्विवेदी सोचने और देखने का एक दूसरा तरीका प्रस्तावित करते हैं और भक्ति आंदोलन को भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास मानते हैं । थोड़ा आश्चर्य की बात है कि हजारी प्रसाद के समर्थक नामवर सिंह उनकी मान्यताओं को ‘अदर ट्रेडीशन’ की धारणा के जरिए समझते हैं जबकि रामचंद्र शुक्ल के समर्थक रामविलास शर्मा मुख्य धारा की परंपरा में जन पक्षधर तत्वों की तलाश पर बल देते हैं ।

बहरहाल प्रगतिशील आलोचना के दो मुख्य स्तंभ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह रहे । इनमें हमने पहले ही कहा कि तीसरे के बतौर मुक्तिबोध को शरीक किया जाता है । रामविलास जी और नामवर सिंह के बीच अंतर की जड़ें कुछ हद तक उन दोनों के बौद्धिक निर्माण के दौर से जुड़ा हुआ है । रामविलास जी का निर्माण तेलंगाना विद्रोह के दिनों में हुआ जबकि नामवर जी उसके दमन के बाद नेहरू शासन के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के हेलमेल के दिनों में विकसित हुए । उम्र में केवल 15 साल के अंतर के बावजूद उनके विचारों के परिप्रेक्ष्य में यह भारी अंतर व्यावहारिक दुनिया और आंदोलनात्मक माहौल के अंतर से पैदा हुआ है ।

प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण में ही परंपरा के प्रति संपूर्ण नकार के बीज मिलते हैं ‘अब और सोना मृत्यु का लक्षण है’ और भक्ति साहित्य के प्रति एक तरह की हिकारत में । इसी तरह ‘पल्लव’ की भूमिका में भी भक्ति और रीति को एक साथ जोड़कर दोनों को खारिज किया गया है । कहने का मतलब कि परंपरा के प्रति संपूर्ण नकार की प्रवृत्ति प्रगतिशील आंदोलन से पहले से मौजूद रही है । प्रगतिशील आलोचकों के एक हिस्से ने भी इसी तरह शुरू किया । रामविलास शर्मा ने इसका विरोध किया और सामंतवाद विरोध के आधार पर संपूर्ण भक्ति साहित्य में प्रेम की प्रमुखता को सामंतवाद विरोधी एक विराट भक्ति आंदोलन का अंग घोषित करते हुए उसे जनता के जन पक्षधर साहित्य के भीतर समाहित कर लेने की वकालत की । इसी तरह स्वाधीनता आंदोलन के समय लिखे संपूर्ण साहित्य को सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोध का हिस्सा मानने की जरूरत बताई । भक्ति साहित्य के भीतर सगुण-निर्गुण के बीच अंतर्विरोध को सवर्ण और निचली जातियों के बीच विरोध मानने से इनकार किया और आधुनिक साहित्य में मुस्लिम शासन के प्रति विरोध भाव को हिंदू सांप्रदायिकता का प्रभाव नहीं माना और इन सबको उन्होंने गौण अंतर्विरोध माना । नामवर सिंह ने कबीर आदि निर्गुण संतों को दूसरी परंपरा का वाहक माना और तुलसी तथा कबीर के विरोध भाव को लोक और शास्त्र का द्वंद्व समझाया । भक्ति आंदोलन के प्रसंग में इन दोनों की परस्पर विरोधी मान्यताओं के चलते रामविलास शर्मा को रामचंद्र शुक्ल का तो नामवर सिंह को हजारी प्रसाद द्विवेदी का समर्थक माना जाता है । मुक्तिबोध का लेख ‘भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ इसमें तीसरा कोण पैदा करता है । उनका कहना है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति निचली जातियों में निर्गुण धारा के रूप में हुई लेकिन जैसे जैसे आंदोलन शक्तिशाली होता गया ऊंची जातियों के लोग भी उसकी ओर आकर्षित होते गए लेकिन जो लोग भी उसमें शामिल हुए वे अपने संस्कारों को छोड़कर नहीं आए थे, बल्कि वे अपने संस्कारों को लिए दिए आए और उन्होंने आंदोलन को प्रभावित करना शुरू किया । इस प्रभाव के परिणाम स्वरूप भक्ति आंदोलन का आरंभिक क्रांतिकारी आवेग खत्म होना शुरू हुआ । कृष्णभक्ति धारा में उसकी थोड़ी क्रांतिकारिता बची रही थी लेकिन रामभक्ति धारा तक आते आते उसके नख दंत उखाड़ डाले गए । इसे पूरी तरह से भिन्न नजरिया घोषित करते हुए ध्यान रखना चाहिए कि उसके शीर्षक में ही ‘एक पहलू’ लिख दिया गया है । दूसरे कि इसमें एक प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं प्रतिपादित किया गया है क्योंकि इस प्रक्रिया को बदलाव के किसी भी आंदोलन पर लागू किया जा सकता है ।

भक्ति आंदोलन के अतिरिक्त जिस दूसरे सवाल पर इन आलोचकों की स्थिति में आपसी विरोध दिखाई देता है वह है नयी कविता के प्रति रुख । इस प्रसंग में रामविलास शर्मा ने अनेक लेख लिखकर यह दिखाया कि नयी कविता पर अस्तित्ववाद का प्रभाव है । ये लेख ही बाद में ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’ में संग्रहित किए गए । मुक्तिबोध को मार्क्सवाद से प्रतिबद्ध और प्रगतिशील कवि मानने वालों का कहना है कि इस किताब में उन्होंने मुक्तिबोध के साथ अन्याय किया । रामविलास शर्मा ने कहा कि उन्होंने मुक्तिबोध को कभी मार्क्सवाद विरोधी नहीं कहा । बहरहाल नामवर सिंह ने प्रगतिशील खेमे से दूरी बनाने का आरोप लगने का खतरा उठाकर भी ‘कविता के नये प्रतिमान’ पुस्तक लिखी जिसमें पाश्चात्य नयी समीक्षा की प्रचलित शब्दावली का उपयोग करते हुए नयी कविता को सामयिक यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली साहित्यिक प्रवृत्ति घोषित किया गया । इसमें मुक्तिबोध को नयी कविता के केंद्र में रखने का दावा नामवर सिंह ने किया लेकिन उनके आलोचकों का कहना है कि इस पुस्तक के केंद्र में मुक्तिबोध नहीं, विजयदेव नारायण साही हैं । वैसे भी नामवर सिंह ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को ‘अस्मिता की खोज’ कहकर उसके क्रांतिकारी मर्म को धूमिल किया है । उनके मुकाबले रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध को ‘सशस्त्र क्रांति का समर्थक’ कहा था । मुक्तिबोध ने नयी कविता को प्रयोगवाद की विरोधी धारा माना और शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के नेतृत्व में संचालित मार्क्सवाद विरोधी वैचारिक अभियान, जिसमें व्यक्तिवाद, कुंठा और हताशा जैसे मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जा रहा था, का गहरा प्रभाव प्रयोगवाद पर देखा । उन्होंने नयी कविता को निम्न मध्य वर्ग की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में समझा और नयी कविता के भीतर वैचारिक संघर्ष चलाने के मकसद से ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ किताब लिखी ।

विवाद के इन बिंदुओं को छोड़कर भी इन दोनों के लेखन के बारे में कुछ परिचय आवश्यक है । रामविलास शर्मा के लेखन के तीन आयाम हैं- साहित्य की आलोचना, भाषा चिंतन और भारत के इतिहास के बारे में । एक हद तक ये सभी आपस में जुड़े हुए हैं । इन सबको जोड़ने वाला तत्व उपनिवेशवाद विरोध है । रामविलास शर्मा का समूचा लेखन इतना विपुल है कि इस जगह उसकी रूपरेखा भी प्रस्तुत करना संभव नहीं, लेकिन बिना उसके प्रगतिशील आलोचना की समृद्धि को समझना एकदम असंभव है । उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लिखे गए हिंदी साहित्य की साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी जन पक्षधर विरासत को उद्घाटित करने से अपने जीवन भर चलने वाले प्रोजेक्ट की शुरुआत की । इस क्रम में उन्होंने निराला, प्रेमचंद, भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल पर अनेक किताबें लिखीं और प्रगतिशील रचनाकारों को उनसे सीख लेने की सलाह दी । इन साहित्यकारों ने भक्ति साहित्य से प्रेरणा ली थी इसलिए इन पर लिखते हुए भक्ति साहित्य और लगे हाथों संस्कृत के क्लासिक कवियों की भी सामंतवाद विरोधी भूमिका पर भी लिखा । इस तरह जनता के पक्ष में साहित्य की एक विराट परंपरा का उद्घाटन करते हुए उन्होंने परंपरा को प्रगतिशील धारा के पक्ष में खड़ा कर दिया । ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के दो खंडों में ॠग्वेद से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखे उपनिवेशवाद विरोधी साहित्य तक को उन्होंने इस परंपरा की धारा बना दिया । उन्होंने सुश्रुत की चरक संहिता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और भरत के नाट्यशास्त्र के आधार पर अनुमान किया कि भारत में भौतिकवादी चिंतन की दृढ़ परंपरा के बिना इन ग्रंथों का प्रणयन संभव नहीं था । हम इसी के साथ वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ को भी जोड़ सकते हैं ।

भाषा के प्रश्न पर उन्होंने भारतीय भाषाओं को आर्य, द्रविड़ आदि परिवारों में बांटने का विरोध किया और इसे औपनिवेशिक नस्लवादी नजरिए का विस्तार साबित किया । उनका मानना था कि संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश का जननी-पुत्री का संबंध ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है । उनका कहना था कि कोई भाषा किसी भाषा से पैदा नहीं हुई है वरन उनका आपस में लेन देन का रिश्ता रहा है और इस प्रक्रिया में वे विकसित हुई हैं । भारत की सारी भाषाएं एक दूसरे के साथ आपसी अंत:क्रिया के जरिए विकसित हुई हैं । इसी क्रम में वे आर्य-द्रविड़ विभाजन की औपनिवेशिक विरासत पर सवाल उठाते हैं और अपने जीवन की सबसे विवादास्पद मान्यता प्रतिपादित करते हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे और सरस्वती के सूख जाने से भीतर और बाहर गए हैं । सिंधु घाटी की सभ्यता आर्य सभ्यता ही थी । उनके जीवन का परवर्ती सारा काम इसी के इर्द गिर्द घूमता रहा और ॠग्वेद पर उन्होंने किसी भी पोंगापंथी भारतविद से अधिक लिखा और सफलतापूर्वक दिखा दिया कि आर्य को बाहर से आयी हुई नस्ल बताना औपनिवेशिक परियोजना का अंग था । ‘पश्चिम एशिया और ॠग्वेद’ में पुष्ट प्रमाण देकर उन्होंने पश्चिमी एशिया में भारतवासियों की बस्तियों की उपस्थिति बताई । ‘इतिहास दर्शन’ में इसी परियोजना के तहत उन्होंने कहा कि यूनान तो एशिया माइनर का अंग था और वहां का समूचा दार्शनिक विकास एशियाई सभ्यताओं के विकास का हिस्सा था, पश्चिमी दुनिया से उसका कोई सीधा लेना देना नहीं था लेकिन यूरोप ने पुनर्जागरण के समय अपना अतीत जबर्दस्ती उसके साथ जोड़ा और पूरबी विरासत से इसे काट दिया । यहां के बाद उनके इतिहास संबंधी काम का परिचय दिया जा सकता है ।

इतिहास संबंधी उनके काम की जड़ 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अवस्थित है । उनके लिए यह संग्राम भारत के उस रूप की खोज का माध्यम बन जाता है जो वह अंग्रेजों का गुलाम बनने से पहले था । अकेले इस संग्राम पर उनके काम से भारत के इतिहास के शोध के नये रास्ते खुलते हैं । एक तो यही कि शासक अंग्रेज भारत से उन्नत सभ्यता का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे, बल्कि खुद इंग्लैंड में पूंजीवाद उस समय तक सामंतवाद से राजनीतिक सत्ता को छीनने के लिए लड़ ही रहा था । भारत के अपार शोषण और लूट खसोट से इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति में तेजी आई । इस परिघटना के लिए उन्होंने व्यापारिक पूंजीवाद की मार्क्स द्वारा प्रयुक्त कोटि का प्रयोग किया जो सामंतवाद के ही गर्भ में पैदा होता है और उस समय के इंग्लैंड को विकास के उसी चरण में माना । जिसे तमाम भारत का आधुनिकता में प्रवेश बता रहे थे अंग्रेजों के उस शासन से पहले ही भारत में आधुनिकता का आगमन उन्होंने स्वीकार किया । जिसे यूरोपीय पुनर्जागरण कहते हैं उससे बड़ी लेकिन लक्षण में समान परिघटना को उन्होंने भक्तिकाल के समय होता हुआ बताया और इसे ‘लोकजागरण’ का नाम दिया । बाद में जो हुआ उसे उन्होंने ‘नवजागरण’ कहा और इसके मूल में स्वाधीनता संग्राम को चिन्हित किया । 1857 इसी नवजागरण का आरंभ है, भारतेंदु युग दूसरा चरण, द्विवेदी युग तीसरा चरण, छायावाद चौथा चरण है और कहा तो नहीं लेकिन इस कालानुक्रम से स्पष्ट है कि प्रगतिवाद उसी भारतीय नवजागरण का पांचवां चरण है और हिंदी का प्रगतिशील साहित्य उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति ।

यदि आधुनिकता का प्रवेश भक्तिकाल से होता है तो स्वाभाविक रूप से पूंजीवाद को भी उसके सामाजिक आधार के बतौर होना चाहिए । जिसे हम भारतीय इतिहास का मध्ययुग कहते हैं उस समय व्यापारिक पूंजीवाद की मौजूदगी उन्होंने दिखलाई । इससे जुड़ी एक और धारणा का परिचय होने से यह बात और साफ होगी । उन्होंने ‘हिंदी जाति’ की कोटि का निर्माण किया जो अन्य भाषा भाषी जातियों की तरह थी और हिंदी इसी जाति की भाषा तथा हिंदी साहित्य इस जाति का साहित्य था । इस जाति का निर्माण व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में हुआ । हिंदी और उर्दू को वे दो भाषाओं के रूप में मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थे और मानते थे कि हिंदी जाति का साहित्य इन दोनों भाषाओं में लिखा जाता है । हिंदी और उर्दू दोनों की शब्द संपदा, वाक्य रचना और क्रिया रूपों की समानता को वे इनकी एकता का सबूत मानते थे और अपने लेखन से प्रमाण देकर सिद्ध किया कि औपनिवेशिक शासन ने इन्हें दो फाड़ करके अपने हित साधे । इन दोनों पर आगरे की ब्रजभाषा का गहरा प्रभाव उन्होंने विस्तार से दिखाया । खड़ी बोली के आरंभिक लेखकों और नजीर अकबराबादी की कविताओं पर यह प्रभाव उन्हें दिखाई पड़ा ।

भक्ति साहित्य को वे भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति मानते थे, नवजागरणकालीन हिंदी लेखन को हिंदी नवजागरण की और इसी तर्क से प्रगतिशील साहित्य को प्रगतिशील आंदोलन की अभिव्यक्ति माना जा सकता है । अंतिम दिनों में उन्होंने ॠग्वैदिक सभ्यता और संस्कृति की भी जन पक्षधर व्याख्या शुरू की और इसे भी मार्क्सवाद के सामाजिक विकास की व्याख्या के अनुरूप विश्लेषित करना शुरू कर दिया ।
संक्षेप में रामविलास शर्मा ने अपने लेखन से प्रगतिशील आलोचना को हिंदी की तमाम साहित्यिक हलचल का केंद्र बना दिया था । इस काम में उन्हें नामवर सिंह का भी साहचर्य मिला । नामवर सिंह के लेखन का दायरा अधिकतर साहित्य तक ही सीमित रहा । समाज उनके साहित्यिक विवेचन की पृष्ठभूमि ही बनाता है । उनकी दूसरी विशेषता यह रही कि उन्होंने मार्क्सवाद विरोधी रूपवादी साहित्यिक आलोचना से लगातार संवाद बनाया । ‘आलोचना’ नामक साहित्यिक पत्रिका के जरिए उन्होंने हिंदी की समूची साहित्यिक बिरादरी में प्रगतिशील आलोचना की बरतरी स्थापित की ।

छायावाद’ से उन्होंने हिंदी की इस रोमांटिक काव्य धारा को सही समाजैतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया । इसे पूंजीवादी व्यक्तिवाद की अभिव्यक्ति बताया और उसकी ताकत तथा कमजोरी को छायावाद की ताकत और कमजोरी साबित किया । ‘कहानी: नयी कहानी’ के जरिए स्वतंत्रता के बाद उभरे मध्य वर्ग की मानसिकता को पहचाना और नए हालात के बयान के लिए प्रेमचंदीय कहानी को अपर्याप्त बताते हुए इसकी संरचना की नवीनता के सामाजिक आधार को उद्घाटित किया । ‘कविता के नये प्रतिमान’ में नयी कविता के अस्तित्ववादी व्याख्याताओं से लोहा लेकर उसे तत्कालीन समय और समाज के बयान की अनिवार्य रूपगत अभिव्यक्ति चिन्हित किया । ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के जरिए पश्चिमी दुनिया में लोकप्रिय ‘अदर ट्रेडीशन’ की धारणा का रचनात्मक अनुवाद किया ।

हिंदी में प्रगतिशील आंदोलन अपने पूर्ववर्ती हिंदी नवजागरण और भक्ति आंदोलन की तरह ही अखिल भारतीय साहित्यिक आंदोलन था। हिंदी-उर्दू की साझा साहित्यिक अभिव्यक्ति का यह एकमात्र गंभीर प्रयास था । इसके लेखक अपने आपको एक बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक आलोड़न का अंग समझते थे । स्वाधीनता आंदोलन की आंच से तपा यह आंदोलन अनेक उतार चढ़ावों के साथ नये अवतार में अब भी जारी है । हिंदी पट्टी में वाम की कमजोर उपस्थिति के बावजूद इस आंदोलन ने साहित्यिक और बौद्धिक जगत में उसे प्रासंगिक बनाए रखा है ।

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