समकालीन जनमत
कविता

उमेश पंकज की कविताएँ जनता की अदम्य शक्ति और साहस की बानगी हैं

कौशल किशोर


 

‘बिजलियों की गड़गड़ाहट/और बारिश की बूंदों में/परिलक्षित होता है मालिक का शोर/और मजदूरों का मार्मिक विलाप/न जाने यह कैसी विडंबना है/उषा काल में ही गगन में खून होता है/और पूर्णिमा की चांदनी रात में/टिमटिमाते तारों का चीर हरण’

उमेश पंकज ‘उषा काल में ही गगन में खून’ और ‘पूर्णिमा की चांदनी रात में तारों का चीरहरण’ जैसे खूबसूरत बिंबो के माध्यम से विडंबना को सामने लाते हैं। उनका मत है कि ऐसा इसलिए है कि ‘नाव उल्टी चल रही है’। कवि की चिंता मनुष्यता की है। उसकी नजर में ‘अमानवीयता चारों ओर/बेरोक-टोक बढ़ रही है और दमन चक्र जारी है/सचमुच नाव उल्टी चल चल रही है’। ‘नाव के उल्टी चलने’ के मुहावरे के साथ ‘सचमुच’ शब्द का इस्तेमाल संदेह की सारी गुंजाइश को खत्म कर देना है और अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की जरूरत को सामने लाना है।

उमेश पंकज की कविता का केन्द्रीय तत्व यही वर्ग संघर्ष है जो 80 के दशक में ‘महारानी’ के विरुद्ध काव्य सृजन का कारण था तो आज ‘महाराज’ को लेकर। ‘महारानी’ से ‘महाराज’ तक का विस्तार, वास्तव में, व्यवस्था की क्रूरता, छल-छद्म, तिकड़म, लूट, झूठ और बर्बरता का विस्तार है। महारानी जहां निरंकुशता की पर्याय हैं, वहीं महाराज तानाशाही का प्रतीक हैं। ‘महाराज’ शीर्षक से चार कविताएं हैं। इनमें व्यक्त भाव और विचार का विस्तार ‘जो मुट्ठी में है’  में है। इस शीर्षक से भी दो कविताएं हैं। भारत में 2014 के बाद जो व्यवस्था आई ‘महाराज’ उसी का प्रतीक है। बातें बड़ी, आश्वासन बड़े, संकल्प बड़े, नारे बड़े, पर उनमें आम जनजीवन के लिए छोटा भी कुछ नहीं। सबकुछ को अपनी मुट्ठी में कर लेने की चाह और इसके लिए सारा उपक्रम किया गया है और किया जा रहा है।  कैसा है उसका चाल-चरित्र? उमेश पंकज उसी के मुख से बयां कराते हैं –

‘बहुरंगी हूँ  मैं/गिरगिट की तरह/बराबर रंग बदलता रहता हूँ /मकड़ी की तरह/जाल बुनता हूँ/ मछेरे की तरह/समंदर में जाल फेंक कर/मछलियां फँसाता हूँ/हसीन सुनहरे सपनों का/एक बाइस्कोप है मेरे पास/मैं हसीन सपने बेचता हूँ’

कैसे हैं ये हसीन सपने? उमेश पंकज इसकी असलियत को सामने लाते हैं । कहते हैं ‘हंसीन सपने/तो हसीन ही होते हैं/रंगीन कागज की नाव होते हैं/उसमें सवार लोग/हवा के हल्के झोंके से डूब जाते हैं’। यही हकीकत है।  ‘हां यह वही डूबे हुए लोग ही तो होते हैं/जो मेरी मुट्ठी में होते हैं/जिन्हें मैं लगातार बाजार में उछालता हूँ’ – ऐसा कहने वाला और सोच रखने वाला शख्स जनतंत्र का मुखिया हो और अपने को जनसेवक कहे तो इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता है। मूल में यह तानाशाही हैं और इस सच्चाई को छिपाने के लिए उसका सारा स्वांग है। उमेश पंकज भ्रम के इसी चादर को तार-तार करते हैं और इसके लिए वे देश के अन्नदाताओं अर्थात किसान को सामने लाते हैं। दिल्ली के बॉर्डर पर बीते एक साल से चल रहा किसान आंदोलन इस दौर का बड़ा आंदोलन है जिसने समाज और साहित्य को प्रभावित किया है। हमने देखा कि आधुनिकतावाद का काल हो या उत्तर आधुनिकतावाद का, श्रमजीवी वर्ग को साहित्य से बाहर करने की कोशिश हुई। वहीं, उमेश पंकज की कविताओं में यह वर्ग आशा व उम्मीद के रूप में मौजूद है। वे ‘महाराज’ यानी सत्ता व्यवस्था के बरक्स किसानों की अदम्य शक्ति और साहस को सामने लाते हैं। वे कहते हैं –

‘किसान माटी कोड़ते हैं/बीज बोते हैं, सरपत उखाड़ते हैं/हम सब के लिए अन्न उपजाते हैं/वे कभी थकते नहीं/कभी हारते नहीं/किसी से कभी डरते नहीं/जब कभी वे भींच लेते हैं अपनी मुट्ठी/कस लेते हैं कमर/उठा लेते हैं अपने हाथ/सिंहासन डोल जाते हैं’

किसानों की जिन विशेषताओं का उल्लेख उमेश पंकज करते हैं, इन्हें हमने उनके आंदोलन के दौरान देखा। उन्हें बदनाम करने से लेकर दमन के जितने तरीके हो सकते हैं, सरकार ने आजमाया लेकिन वह आंदोलन की धार को कमजोर नहीं कर पाई है। शमशेर जी का कहना रहा है कि ‘सच्चाई और ईमानदारी से कविता में जान आती है’। उमेश पंकज इसी राह के राही हैं। इनकी किसी कविता को उठा लीजिए, वहां यह गुण मिलेगा। कहने की शैली, सहज-संप्रेषणीय भाषा और गहरा व्यंग्य कविता और उसकी अपील को धारदार बनाता है। जनजीवन से लिए मुहावरे कविता को गरिमा प्रदान करते हैं। कम शब्दों में अपनी बात कहना अन्य काव्य विशेषता है।

उमेश पंकज की नजर अपने समय पर है। कोरोना वैश्विक महामारी है। दुनिया उसकी चपेट में है। लेकिन भारत में जैसी नृशंसता और संवेदनहीनता देखने में आयी, वैसी शायद ही देखने को मिली हो। उमेश पंकज की कविताएं इस त्रासदी को सजीव करती हैं। कोरोना काल में जीवन के लिए कैसा संकट आया, सरकार व प्रशासनिक तंत्र की क्या भूमिका रही है तथा जान पर ऐसी बन आई कि लोग असामाजिक, ख़ुदग़र्ज़ व बेशर्म हो गये, कविता इन पहलुओं को दृश्यमान करती हैः

‘किसी को इस बात से भी मतलब नहीं/कि एक स्त्री सूटकेस पर थके अपने बच्चे को सुलाकर/खींचते हुए क्यों ले जा रही है चिलचिलाती धूप में/और एक किशोरी को अपने बीमार पिता को साइकिल पर बिठाकर/….यातनामयी यात्रा क्यों करनी पड़ती है/इस त्रासद समय में इतना ही पर्याप्त नहीं कि/इस क्यों का किसी के पास जवाब क्यों नहीं/….हमारी संवेदनाओं के स्रोत कहां-कहां सूख गए/और हम कितने खुदगर्ज और बेशर्म हो गए….’

उमेश पंकज की कविताओं के विविध रंग और आयाम हैं। उनमें प्रेम, प्रकृति, पर्यावरण, स्त्री व जन-जीवन के अनेक प्रसंग हैं। आज के समय पर उनकी नजर है। वे जानते हैं कि वर्तमान को बदल नया इतिहास रचने वाले आखिर कौन है? ये वही हैं जिनसे दुनिया का पहिया चलता है और उन्हें हाशिए पर ढकेल दिया गया है। उनमें हथौड़े जैसी ताकत है। साहस और हिम्मत ऐसी कि मजबूत से मजबूत दीवार दरक जाए। राजा का तख्ता पलट देने की कुवत है। कविता इन्हीं के कदम-ब-कदम चलती है – ‘भरोसा रखिए कविता पर/कविता अपना काम धीरे-धीरे करती है/कविता कभी शोर नहीं मचाती’। उमेश पंकज इसी भरोसे के कवि हैं और कविता पर भरपूर भरोसा रखते हैं। वे शोर नहीं मचाते बल्कि जनमानस में उतरते हैं। अस्सी के दशक में लिखी कविताओं में जो सजगता और वर्ग चेतना दिखती है, वह आज ज्यादा सघन और व्यापक हुई है। ऐसा वर्ग दृष्टि से ही संभव होता है। हालात जितने भी जटिल हों, परिस्थितियां जितनी भी प्रतिकूल हों, संघर्ष नहीं रुकता है। कविता ‘स्थाई पता’ कवि का जिसमें वह कहता है:

‘‘मैं यह घोषणा करता हूँ- ‘मेरे अंदर एक धरती है’ भेदभाव, दोहन, दमन से मुक्त/समतामूलक एक खूबसूरत धरती! वही मेरा स्थाई पता है/ढँूढिएगा अगर तो वहीं मिल जाऊँगा’।

 

उमेश पंकज की कविताएँ

1. विडंबना

श्वेत घनाशावकों की ओट में
परिलक्षित होती है
बिषधरों की तरह
फुफकारती काली काया
बिजलियों के प्रकंपन से
उत्पन्न चंचल चमक में
परिलक्षित होती है
आडंबर निहित निरी माया
बिजलियों की गड़गड़ाहट
और बारिश की बूंदों में
परिलक्षित होता है मालिक का शोर
और मजदूरों का मार्मिक विलाप
न जाने यह कैसी विडंबना है
उषा काल में ही गगन में खून होता है
और पूर्णिमा की चांदनी रात में
टिमटिमाते तारों का चीर हरण

 

2. महाराज – एक

आप धुरंधर खिलाड़ी हैं महाराज !
लंगी मारकर आगे निकल जाना
खूब जानते हैं
धोबिया पाट से पटखनी देने की कला
तो कोई आपसे सीखे

धन्य हैं महाराज!
जयी विश्वजयी!!

आपकी शोहरत का डंका
सात समंदर पार बजने लगा है
आप अपराजेय हैं
कोई आपका बाल बांका भी नहीं कर सकता
हवा,पानी,खेत खलिहान
सब कुछ आपकी मुट्ठी में है महाराज!

आपकी बातों के दांत
चमकीले,नुकीले और धारदार हैं
करैत और गेहुआं जैसे
दंत क्षत का जहर फैल रहा है
आप जहर मयी हैं महाराज!
विश्व जई !जहर मई !!

 

3. महाराज – दो

ग़रीबी और भूख के जबड़े तोड़कर
बाहर निकले
सोने के ऊंचे सिंहासन तक पहुंचे
और भूल गए
भूख से बिलबिलाती अंतड़ियों की ऐंठन

आपका रक्त चरित्र बदल गया महाराज!
बेहया भक्तों के जंगल में
जन कल्याण के उद्देश्यों से भटक गए
आम आदमी के दुख दर्द
दूर करने के
संकल्पों की चिद्दी चिध्दी क्यों उड़ी
कूट कूट कर क्रूरता कहां से आ गई
छल छद्मों की रजाई क्यों ओढ़ ली
जबकि हाड़ कंपाती ठंड में
अपने खेतों को बचाने की
आर पार की
लड़ाई लड़ रहे हैं अन्न दाता
अपनी आंखों से कॉरपोरेट का
रंगीन और कीमती चश्मा
हटाइए महाराज!
बेहया भक्तों के सुंदर वन में
आगे दल दल है
दल..दल..
दल दल महाराज!

 

4. महाराज – तीन
.
अष्ट चक्र भेदन क्रिया
फिर कभी संपन्न कीजिएगा
साधना कक्ष से बाहर आ जाइए
अब तो तोड़िए अपनी तंद्रा महाराज !

आपके चारों ओर कोलाहल है
मचा हुआ है हाहाकार

दिल्ली के सीमांतो पर
देश भर के किसान
हाड़ कंपाती ठंड में नंगे बदन
डटे हुए हैं अब भी
किसान अन्नदाता हैं महाराज!

किसान माटी कोड़ते हैं
बीज बोते हैं, सरप त उखाड़ते हैं
हम सबके लिए अन्न उपजाते हैं

वे कभी थकते नहीं
कभी हारते नहीं
किसी से कभी डरते नहीं
जब कभी वे भींच लेते हैं अपनी मुट्ठी
कस लेते हैं कमर

उठा लेते हैं अपने हाथ
सिंहासन डोल जाते हैं
सिंहासन बचाइए महाराज!
अष्ट चक्र भेदने का ख्वाब छोड़िए
अब तो तोड़िए तंद्रा अपनी
जागिए महाराज !जागिये!!

5. महाराज – चार

वे नंगे पांव पहाड़ लांघ जाते हैं
उनके हाथों में है हाथी का बल
उनके पसीने से उगती है हरियाली
खिलते हैं फूल ,उपजाते हैं अन्न
वे लोहा खाते हैं,लोहा पचाते हैं
आग पर जब चढ़ते हैं
दप द प करते हैं,चमकते हैं
और फौलाद बन जाते हैं

उनकी आंखों में बहती हैं
इस देश की सभी नदियां
सैलाब बा जाएं तो
बांध उन्हें बांध नहीं पाते
अपने प्रचंड वेग से
उमड़कर बहा ले जाते हैं
जंगल,पहाड़ और ऊंचे मकान
होश में आइए महाराज!
होश में आइए!!

 

6. जो मुट्ठी में है (एक)

चकाचौंध मुझे खींचती है
सभी खूब सूरत चीजों पर
काबिज। होना चाहता हूं
संग्रही हूं मैं
छल छद्म,झूठ फरेब से
मुझे कोई गुरेज नहीं
ईर्ष्या लाभ लोभ हिंसा
मेरे सहचर हैं
खौफनाक राहों को
अपने लिए सुगम बनाना
भली भांति जानता हूं
निस्तेज थका हारा नहीं
फौलाद से बना हुआ
अपराजेय हूं
पीठ पर हल चलाकर
पेट पर खेती कर सकता हूं
मेरी बांई आंख में चंद्रमा
और दांई में
चिपका हुआ है सूरज
हिमालय को हथेली पर लेकर
आसमान में उड़ सकता हूं
समुद्र मेरे घर की
एक छोटी कटोरी में समा सकता है
पूरी पृथ्वी
एक बाजार है
जो मेरी मुट्ठी में है

 

7. जो मुट्ठी में है (दो)

बहुरंगी हूं मैं
गिरगिट की तरह
बराबर रंग बदलता रहता हूं
मकड़ी की तरह
जाल बुनता हूं
मछेरे की तरह
समंदर में जाल फेंककर
मछलियां फंसाता हूं
हसीन सुनहरे
सपनों का
एक बाइस्कोप है मेरे पास
मैं हसीन सपने बेचता हूं
हसीन सपने लुभाते हैं
किसे नहीं अच्छे लगते
सपनों के ही पंख लगाए
लोग उड़ते हैं
अहमदाबाद से दिल्ली
दिल्ली से बंगलौर
बंगलौर से मुंबई
मुंबई से कोलकाता
और फिर…
ब्रिटेन जर्मनी जापान और अमरीका
हसीन सपने
तो हसीन ही होते हैं
रंगीन कागज की नांव होते हैं
उसमे सवार लोग
हवा के हल्के झोंके से
डूब जाते हैं
हां ये वही
डूबे हुए लोग ही तो होते हैं
जो मेरी मुट्ठी में होते हैं
जिन्हें मैं लगातार
बाजार में उछालता हूं।

 

8. लौट आएगी जिन्दगी

पृथ्वी का पहिया थम गया है
तेज हवा जहर लिए
बह रही है हर तरफ
फड़फड़ा रहे हैं पेड़ों के पत्ते
वीरान सड़कों पर नाच रही है मौत
अंधेरे में डूबे हैं गांव,शहर
क्या अंधेरे के साथ संधिपत्रों पर
हस्ताक्षर किए जा चुके हैं
क्या सूरज नहीं निकलेगा अगले आदेश तक

कितना भयानक समय है यह
कि कांप उठी हैं महाशक्तियां
कि अब ताबूत कम पड़  गए हैं
कब्रगाहों में जगह नहीं बची है
लाशों की गिनती अब नहीं की जा रही
अदृश्य हत्यारा पकड़ से बाहर है
पूरी दुनिया तब्दील हो गई है कैदखाने में

मानवीय मूल्यों के साथ
जो बाहर हैं कैद से लेकिन
मुश्तैदी से डटे हुए
मोर्चे पर लड़ रहे हैं युद्ध
उनके द्वारा आण विक हथियारों से नहीं
जल्दी ही किसी दिन सूई से
मारा जायेगा अदृश्य हत्यारा
जिंदगी फिर लौट आएगी एक दिन

 

9.कितना दूर है मेरा गांव

ठहरे हुए समय में
उनके पांव चल पड़े
कई सौ किलोमीटर चल चुके थे
कुछ सौ किलोमीटर बाकी था चलना
कितना दूर है हमारा गांव

माथे पर मोटरी गठरी और
बीबी बच्चों के साथ भूख भी पीछे पीछे
बाबू भइया ने जब फोन पर बताया
कि खेतों में गेहूं खूब झरे थे इस साल
घर में ले आया गया है बीनकर
रोटी की कोई कमी नहीं होगी
तो उसे लगा उसके पांवों में
कोई रेल इंजन जुड़ गया है
वह पटरियों पर दौड़ने लगा है पहियों की तरह

चांदनी बिखेरती मगर सन्नाटा बुनती
पूर्णिमा की दूधिया रात
सांय सांय बहती ठंडी हवा में
सियारों की हुंआ हुआ का भयावह शोर
पांव आखिर पांव ही तो!
क्यों नहीं थकते,क्यों नहीं लुढ़कते?
जाने कब थकान ने भूख को पटक दिया पटरियों पर
और घुस गई गहरी नींद में

सपने में वह अभी मां के पांव छू ही रहा था
कि गुजर गई एक मालगाड़ी दनदनाते हुए
बिखर गई गठरी,बिखर गई दुनिया उनकी
कटी गर्दनें, कटे हाथ और कटे पांव
रेल पटरियों पर उछड़ते हुए
पूछ रहे हैं अभी कितना दूर है मेरा गांव

10. माएं चिंतित हैं

बच्चियां उदास है
बच्चियां गुमसुम हैं
बच्चियां स्कूल नहीं जा पाएंगी
अपनी खिड़की से बच्चियां
नहीं देख पाएंगी बाहर की दुनिया
खिड़कियों और दरवाजों पर
लोहे के पर्दे टांग दिए गए हैं
बच्चियों की माएं चिंतित हैं
चिंतित हैं कि
पूरा का पूरा देश ही
दरिंदों के कब्जे में है
अंधाधुंध गोलियां चल रही हैं
घातक बम फोड़े जा रहे हैं
दहशत का मंजर है
चारो तरफ मची है अफरातफरी
हवाई जहाज के पहियों पर बैठकर
उसके डैनो पर चढ़कर
जान बचाने के लिए
भाग जाना चाहते हैं लोग
अपना ही प्यारा देश छोड़कर
जिधर देखो उधर धुआं ही धुआं है
माएं चिंतित हैं कि
किसी वक्त आ सकते हैं दरिंदे
घर के अंदर और
नोच सकते हैं बच्चियों के
कोमल अंगों के कोमल मांस
झोंटे पकड़कर घसीटते हुए
सड़क पर ले जा सकते हैं उन्हें अपने साथ
सरेआम कोड़े मारकर
छील सकते हैं उनकी कोमल पीठ
वे उन्हें नीलाम कर सकते हैं
वे कुछ भी कर सकते हैं
उनकी मरजी!उनकी मरजी!!
माएं चिंतित हैं कि
माएं चाहती हैं कि बच्चियां
फूलों की तरह चहकें महकें
दुनिया भर में खिलखिलाएं
महा शक्तियां चुप रह सकती हैं
अपनी बच्चियों के लिए लेकिन
लेकिन माएं चुप नहीं रह सकतीं
लोहे के पर्दे काटेंगी
कतार बद्ध होंगी
अपनी बकरियों के साथ
पहाड़ तक जाएंगी
लकड़ियां चुनेंगी और पत्थर उठाएंगी।

 

11. स्थायी पता

एक सौ पैंतीस करोड़
लोगों के बीच रहते हुए
मुझे ही नहीं पता मेरा स्थाई पता

बलिया, कोलकाता, पटना से
बनारस होते हुए लखनऊ आकर
पिछले उन्नीस वर्षों में
किसी एक घर में ठहर जाना
क्या मेरा स्थाई पता मान लिया जाएगा

बलिया में जन्म लिया
लेकिन वह मेरा स्थाई पता नहीं है
कोलकाता में पला बढ़ा पढ़ा
लेकिन वह मेरा स्थाई पता नहीं है
पटना, बनारस का पुरबिया संगीत
निरंतर बजता है मेरे अंदर
लेकिन वह भी मेरा स्थाई पता नहीं है
तो नजाकत की नगरी लखनऊ को
कैसे कह सकता हूँ अपना स्थाई पता

इकसठ पार कर चुका हूँ
जीवन के खाते में अब थोड़ा बचा है जीवन
उसके खत्म होते ही पता फिर बदल जाएगा
लेकिन आज आठ जून दो हजार इक्कीस को
मैं यह घोषणा करता हूं–
‘मेरे अंदर एक धरती है
भेद भाव, दोहन दमन से मुक्त
समतामूलक एक खूबसूरत धरती!
वही मेरा स्थाई पता है
ढूंढिएगा अगर तो वहीं मिल जाऊँगा।

 

 

(कवि उमेश पंकज जन्म: 1959, शिवपुर, लालगंज, बलिया(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: प्राइमरी तक गांव में। तत्पश्चात कलकत्ता । एम ए (हिंदी साहित्य) कलकत्ता विश्वविद्यालय से।
संपादन: कलकत्ता के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार ‘सन्मार्ग’ के संपादकीय विभाग में कुछ माह की सेवा। 1981-1983 तक ‘वृत्तांत’ साहित्यिक मासिक पत्रिका का नियमित प्रकाशन एवं सम्पादन। भारत सरकार के उपक्रम में सेवा के दौरान पटना से ‘दिशाएं’ और लखनऊ से ‘लक्ष्य’ तथा ‘मयूर पंख’ गृह पत्रिकाओं का संपादन।
पिछले चालीस वर्षों से लेखन कार्य। देश की विभिन्न महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। एक दर्जन से अधिक कहानियां एवं आलोचनात्मक लेख भी विभन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक प्रकाशित। एक कविता संग्रह ‘एक धरती मेरे अंदर’ प्रकाशित। दूसरा कविता संग्रह प्रकाशनाधीन।
उमेश पंकज, 60 एल्डिको ग्रीन वुड्स , मलहौर रोड, लखनऊ। मोबाइल -7704900443

टिप्पणीकार कौशल किशोर, कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), 01 जनवरी 1954, स्कूल के प्रमाण पत्र में। वैसे जन्म 25 दिसम्बर 1951। जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख तथा मंच के पहले राष्ट्रीय संगठन सचिव। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष।
संपादन: ‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन। दैनिक जनसंदेश टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में संपादन सहयोग ;2014 से 2017द्ध संप्रति : लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक। 
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना त्रासदी पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कविता के अनेक साझा संकलन में शामिल। 16 मई 2014 के बाद की कविताआों का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और प्रेम, प्रकृति और स्त्री जीवन पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दुनिया की सबसे सुन्दर कविता’ प्रकाशनाधीन। समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपी प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
मो – 8400208031

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