समकालीन जनमत
कविता

स्मिता वाजपेयी की कविताएँ स्त्री की स्वतंत्र इयत्ता की आकांक्षा हैं

रमेश ऋतंभर


यह ध्यातव्य हो कि अपने विशिष्ट संघर्ष व अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति को लेकर कवयित्रियों ने गंभीरता से समकालीन हिन्दी कविता में अपना अलग स्वर एवं वैशिष्ट्य बनाया है। साथ ही यह भी ध्यातव्य हो कि जब भी किसी लेखक-लेखिका पर बात की जाती है, उसके लेखन संघर्ष, अनुभव व उसके वैशिष्ट्य के संदर्भ में ही उसे देखा-परखा जाता है। स्मिता वाजपेयी की कविताओं पर विचार करते हुए उनके समाज-विशेष के संदर्भ में उन सहित तमाम स्त्रियों के संघर्षों, पीड़ाओं, आकांक्षाओं, छटपटाहटों और विवशताओं को ध्यान से देखा जाना चाहिए।

स्मिता वाजपेयी की कविताएँ एक पिछड़े ग्रामीण-कस्बाई समाज में पली-बढ़ी परवान चढ़ी लड़कियों/स्त्रियों की कविताएँ हैं, जिनमें पितृसत्ता के अपने हिसाब से थोड़ी छूट और ज्यादा बंदिशों के बीच उनके सपने व आकांक्षाएँ परवान नहीं चढ़ पातीं और वे कुंद हो जाती या जिन्दगी भर घुटती-छटपटाती रहती हैं।

स्मिता वाजपेयी की कविताओं से रूबरू होना एक ऐसे समाज और उसमें जी रही ऐसी स्त्री से रूबरू होना है, जो अभी तक लिंगभेदरहित समतामूलक समाज और स्वतंत्रचेता व खुदमुख्तार स्त्री नहीं बन पाई है। कई स्त्रियाँ खुदमुख्तार हुई भी हैं, फिर भी वह अपनी स्वतंत्र इयत्ता व जिन्दगी नहीं जी पा रही हैं।

शायद अभी भी हमारी दुनिया में ऐसा समाज पूर्णतः निर्मित नहीं हो पाया है या हम निर्मित नहीं कर पाए हैं, जहाँ स्त्री को उसकी स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में स्वीकारा जाए और उसकी अपनी एक स्वतंत्र इयत्ता हो। अभी भी ‘स्त्री’ ऐसे समाज विशेष में जी रही है, जहाँ उसको विवाह के पहले पिता की पहचान (आईडेंटिटी) व पोषण-परिवेश और विवाह के बाद पति की पहचान व पोषण-परिवेश को ढोना पड़ता है। स्त्री सामाजिक यथार्थ के इन दोनों भिन्न बोधों व टकराहटों से हर पल गुजरती अपने सपनों व आकांक्षाओं को मारती बेचैन छटपटाहट भरी जिन्दगी जीती है।

स्मिता वाजपेयी की कविता का केन्द्रीय विषय/तत्व स्त्री का यही द्वन्द्व व पीड़ा है। स्मिता वाजपेयी की कविता ‘हम जो थे’ व ‘धान’ व ‘बेहया’ और ‘वे हारी हुई प्रेम में (से)!’ कविताएँ जरूर ध्यान से पढ़ी जानी चाहिए। स्मिता की इस कविता-चतुष्टय में स्त्री के स्वतंत्र व सहज व्यक्तित्व-विकास के जो बाधा-संकेत हैं, वे ही हमारे समाज के मुक्त व सहज विकास के भी बाधा-संकेत हैं। स्मिता को इस बात के लिए हार्दिक साधुवाद है कि उन्होंने अपनी तरह की स्त्रियों की आकांक्षा, दर्द-छटपटाहट, बेचैनी व पीड़ा को अपनी कविताओं में बखूबी व्यक्त किया है और उसके बहाने अपने सम्बद्ध समाज की जाँच-पड़ताल और शल्यक्रिया भी की है।

स्मिता वाजपेयी की कविताओं को पढ़कर आदमी अपने समय के समाज को लेकर एक गहरे अपराध-बोध से भर जाता है कि हम अभी तक एक ऐसा समाज नहीं बना पाए हैं, जिसमें एक लड़की/ स्त्री अपनी स्वतंत्र इयत्ता व पहचान बना सके और अपने सपनों व आकांक्षाओं को पूरा कर सके। एक समाज-विशेष और उसमें जी रही स्त्री को समझने-महसूने के लिए स्मिता की कविताओं को निस्संदेह अलग से पढ़ा और रेखांकित किया जाना चाहिए।

 

 

स्मिता वाजपेयी की कविताएँ

1. हम जो थे !
हम बहुत टैलेंटेड थे, हमने प्रतियोगिताएं जीतीं, रेडियो पर गाया ,अखबारों पत्रिकाओं में छपे, स्पोर्ट्स में शील्ड जीता, ट्रॉफी लाए
वाहवाही मिली

अंततः हमें अच्छी लड़की ही होना था
हम वह भी हुए !

रसोई और घर संभालने में दक्ष अच्छी बेटी !
हममें सारी अच्छी बातें थीं
सहेलियां, पापा, मां बहन- भाई का साथ था

तब साइकिल, मोटरसाइकिल जीप, ट्रैक्टर सब चलाना, रेस लगाना, हुड़दंग हमें खास बनाता था
हम थे बोल्ड
लेकिन शादी के बाद एक उम्र गुजर गई
अच्छी बहू, अच्छी पत्नी और अच्छी मां होने में !

हमने दवाइयों का साथ किया
कविता और शायरी की किताबों को
टाँड़ पर रख दिया
शेर भूले , प्रेम गीत भूले, ठहाके बीते दिनों की बात हुई
आह ! डांस के लिए कदम उठते ही नहीं जब
सुंदर गीत ही बज रहा हो और वह भी अपनी पसंद का

हमने कुकर की सीटी सुनने को साध लिया है संगीत की तरह
हम पढ़ी-लिखी स्मार्ट स्त्रियाँ हैं

जो हाट – बाजार दिल्ली, कोलकाता अकेले धांगती हैं
गूगलमीट और जूम पर भौकाल बांधती हैं
फोन पर चिपकी रहती हैं
व्हाट्सएप पर ठिठियाती हैं

इतनी स्वतंत्रता हमें दी गई है
मगर हम हैं कि बे- हाथ हुए जा रहे हैं
हम किसी रिश्ते में अच्छे नहीं हैं
आजादी और भूजा की तरह दवा फाँकने से हमारा दिमाग खराब हो गया है

और परिवार जैसे अब हमें सिर्फ बर्दाश्त कर रहा हो …..

 

 

2. बेटियाँ

शादी के कई सालों बाद
वे आईं हैं
थकी पकी अशक्त हो चली उम्र में
मांँ को आराम में देखना चाहती हैं

बुहारती है अंँधेरे सीलन वाले बंद कमरों को
हटाती हैं जाले

अभी कितने कामों को अंजाम देना है-
पुराने खपरैल के कमरे से निकाल मांँ की पेटियांँ, बक्से ,बनारसी साड़ियांँ धूप में रखनी हैं

सुखाना है बड़ियों के साथ
दाग- धब्बे लग रहे उन किताबों को
जिनके साथ बड़ी हुईं वे
सपने देखें और किताबी हुईं

संभालनी हैं सहेलियों की और भाई की चिट्ठियांँ
करीने से गिन कर रखना है
पीतल, फूल, काँसे के भारी बर्तन

लोहे की जंग लगी बाबा वाली तिजोरी में
प्लास्टिक के थैले में लपेट कर रखने हैं
जमीन के कागज ,फुलवारी, पोखरा और उत्तरवारी बगईचा का हिसाब जिन्हें
भाई को समझना है अंततः

बाबा की छड़ी, पचास के दशक की वह सागवान की कुर्सी, रंग छोड़ रहा पलंग सब झाड़ पोंछ देंगी
जिनसे आबद्ध रहे उनके भी दिन !

मांँ -बाबू की दवाइयांँ चश्मे संभाल कर रखेंगी
उनके कपड़ों पर इस्तरी लगा आलमारी में
जगह बनायेंगी
गोबर से लिपे आंँगन में पूर देंगी चउका

घर की चौखट पर आम का पल्लों और जल से भरा कलसा रख खोईंचा का अक्षत छींट
सगुन मनाती, उन्हें ठीक से रहने की हिदायत देतीं नईहर से एक रोज
फिर वापस लौट जाएंगी बेटियांँ !

 

 

3. मालती फुआ

अब जिन्दगी के आंगन में गुम है वह लड़की
क्षितिज के विस्तार तक जो हवा थी कभी

बाधा दौड़ में
कूदती थी दौड़ती थी बहती थी
मस्त पवन की तरह
कोई जलतरंग सा बजता रहता था जैसे

पर एक रोज लड़खड़ाया समय का जो पहिया !
वह कहाँ धंसा !
कहाँ फंसा !
जीवन की गति का क्या कहने
कि वह भी एक रहस्य ही है !

लोगों की वाह ही
उसके गले का फांस बन गयी!

हिरणी के पाँव बांधे गये एक रोज !

वह भूल गई है अब कि
अपने ऊपर पड़ी धूल को उड़ा सकती है
बगूलों में
कि चक्रवातों में पीस सकती है दुष्चक्रों को
गालियों के गरल पर टूट सकती है ज्वार हो के
लेकिन मगर हुआ बस इतना ही था तब

यह सब बीते दिनों की बात है
मर्यादा संस्कृति प्रतिष्ठा परिवार
इन्हीं चार शब्दों ने की एक बड़ी संभावना की हत्या !

सब कहते हैं
वह समुंदर में तैरने वाली लड़की थी
हवाओं से बात करने वाली
लोक गीतों सी बजने वाली
सितार की धुन थी आकाश में फैलती हुई
अल्हड़ बहती हुई नदी थी भरी हुई

तुम उस दौर में क्यों आयी थी मालती फुआ?
उन तिजारतियों के यहाँ किसने भेज दिया था तुम्हें ?
जो उड़ती हुई चिड़ियों के पंख कतरने में
परिवार की मर्यादा देखते थे

मैं आज भी खुले और साफ़ आसमान में तैरती
कोई चिड़िया देखती हूँ
तुम बहुत याद आती हो मालती फुआ !

 

 

4. बेहया की झाड़ियाँ

ये बेहया की झाड़ियाँ
उग आती हैं कहीं भी
थोड़ी सी नमी पा कर
डबरे के किनारे कूड़े कचरे में भी
खिले रहते हैं इनके फूल
जरा सी हवा पर झूमते हुए !

गंदगी के ढेर पर भी खिले रहना
बने रहना
तभी तो हैं ये बेहया !

बेहया हैं वे औरतें भी
बनी रहती है जो मर्दों की दुनिया में
लांँछना, तिरस्कार और अवहेलना के बाद भी
खाती पीती पहनती ओढ़ती मुस्कुराती
और तो और कमबख्त ये औरतें
ठहाके भी लगाती हैं

बेहया की झाड़ियांँ जरूरी हैं
कि बांध कर रख सके मिट्टी को
सरोवरों तालाबों नदियों के तटबंधों को

कि पागल उन्मत्त पानी का बहाव
रहे संयमित अपनी सीमा में
बहे अपनी पूरी उर्जा के साथ
गंतव्य की ओर सृजन की ओर

किनारों को उनकी
सीमाओं को
बांधे रखने के लिए
जरूरी है!
बहुत जरुरी हैं
बेहया की ये झाड़ियाँ !

 

5. बाढ़ के बाद
हेलिकाॅप्टर से लटके कैमरों की विहंगम दृष्टि भी
नहीं देख पाई उन बच्चों को
चिपके थे जो एक ही पेड़ के दो डालों से

कब, कैसे आए होंगे इतनी ऊंची डाल तक
और कैसे पकड़कर थिर पड़ गये होंगे
या पेड़ ने ही उनको थाम लिया होगा !
कहना मुश्किल है
प्रकृति के भी अपने रहस्य हैं !

कुछ भी याद नहीं
सिवाय इसके कि बकरी और गायों को खोलते हुए जब पानी का रेला आया था
तो वहीं खूंटा पकड़ा था जोर से

पानी हहरा कर आया था!

नंगे – कांपते एक दूसरे को चुपचाप देखते
वे दो दस-बारह साल के बच्चे
भादो की भारी बारिश से टीस रही है पीठ जिनकी
कैसे टंगे पड़े रहे होंगे पेड़ की डालियों से चिपके !

जाने कब तक कलेजा कांपता रहा होगा
कितने ही घंटों अपने से नीचे वाली डाल पर सांप को देखकर !

मौन भय से भरे वे बच्चे
एक दूसरे को देखते रहे होंगे
दिलासा दिया होगा एक दूसरे को नि:शब्द होकर

तेज धूप, सर दर्द के साथ आंँख खुलीं तो
नीचे से साँप और पानी जा चुका था
असह्य मृत्यु गंध छोड़कर..

 

6. समय चुप है

उस सुंदर बेजोड़ स्थापत्य से गुजरते हुए
सांँस रुक जाती है
मुंह खुला रह जाता है एकबारगी
कल्पना से भी सुंदर प्रस्तर प्रतिमाएं बुलाती हैं बार-बार!

समय अपना खाली पात्र लिए गुजरता है हर रोज उन अंधेरी सिमसिमी भित्तियों से भी
देखा नहीं जिसे हमने पहले कभी
भरता है समय का पात्र उसी के दान से
दिया था जो उसने कभी
बिना आहट बिना किसी सूचना के
उन अनाम मनुष्यों पशुओं और अपने ही क्षणों को

तब गूंजा था आह्लाद! विजय उन्माद!
आर्तनाद..
और बहुत धीमी सी चुप्पियाँ भी

आज भरता है समय का पात्र उन्हीं प्रतिध्वनियों से ..

बजता नहीं क्यों अब आह्लाद कोई
गूंजता नहीं है अनहद नाद भी
विगत का मौन भी बदल गया है चुप्पियों में

परिवर्तित हो के जैसे
सुनाई पड़ता है केवल सन्नाटा!

समय चुप है

और जारी है
युग का अनर्गल प्रलाप ..

 

7. धान 1

धान होती है औरतें!
धान जो अपनी ही धरती पर नहीं देता दाने
जिसके पल्लवित होते ही
निर्ममता से उखाड़ के जड़ों से
रोपा जाता है दूसरे खेत में
कि आ सके उसमें बालियां
भर सके पेट सभी का

धान ही होती है औरतें
जड़ों से उखड़ती हैं
बिछड़ती हैं अपनों से तब भी
पोषण ही देती हैं
वंश वृद्धि धान से हीं
जड़ों से लेकर बालियों तक
सब कुछ
पोषण सुरक्षा सबके लिए

तो सींचो धान को
मत सूखने दो खेत के खेत
धान तुम्हारा मान
सोचो समझो जानो देखो
धान है तो तुम हो
धान है तो घर है
धान है तो विश्व है!

8. धान -2

भर अंजुरी धान लिए
पीले चावल से पूरे हुए चौक पर
बैठी है बेटी आँगन में
सगुन है आज!

रखा है पास में हल्दी, उबटन,कजरौटा
नाउन मल्होरी जेठ भौजाई माई
जमा है सभी सुहागिनें कुटुम की
सगुन है आज!

धान, हल्दी की गांठ और पीली साड़ी में
पीली ही दिखती बेटी
बैठी है पूरे हुए चौक पर
बह रही है आंखों से धार
सगुन है आज!

सुभ सगुन है
उखाड़े जाने को जड़ों से
रोपे जाने को दूसरे खेत में
जहां मिट्टी, हवा, पानी सब अलग होंगे
और अलग ही होगा रख रखाव भी
फिर भी
प्रकृति का नियम है ये
धान में आएंगी बालियां
दूसरे खेत में हीं

प्रकृति,सृष्टि, सृजन के लिये
संतति,वंश ,मान के लिये
बैठी है आँगन में
धान सी बेटी
कुल के सम्मान के लिये

सगुन है आज
सुभ सगुन है आज

 

9. धान-3

अन्न का पहला परिचय धान
अन्न -धन है!
धन -धान है!

हमारा होना भी है धान से
धान को चाहिए तो बस पानी
उगता है यह किसी भी जमीन में

छीट दो बियरा चाहे यूं हीं
थोड़ी ही दिन में धरती हरियाती है
उखाड़ कर पौधों को
रोप दो दूसरे खेत में
दे दो तो बस पानी
बहुत ही जल्दी आती है बालियां
काटो, रखो ,बेचो, खाओ
हर हाल में खुशहाल रखता है धान!

जड़ ,पुआल ,भूसा सब कुछ है काम का
इस नए युग में धान के छिलके भी है कीमती
बनता है उससे खड्डी तेल
बहु उपयोगी हो चुका है धान

इसलिए

अब इसकी मंडी है
आढ़त है, बहुत बड़ा बाजार है
खेतों से ही सीधे बाजार को भेजने के लिए
दलाल है
धान से ही खुल रहा विश्व व्यापार है
धान का हो गया है ग्लोबलाइजेशन
धान ही आधार है
और जुड़े हुए इससे कई व्यापार हैं

बित्ते भर के पौधे को
मिले दूसरा खेत
मिले हवा पानी भी
जरूरी नहीं
ऐसे भी हैं बियरा
जिन्हें नहीं मिलती मिट्टी
मिलता है सीधे बाजार

अधकच्ची दुद्धी बालियां
परिपक्व होने से पहले ही
भेंट चढ़ जाती है मंडियों की
उतार लिए जाते हैं छिलके
नष्ट हो जाता है धान

आदिम बाजार के मुँह लग गया है
ये नया स्वाद धान का
उग रहा है खेतों में धान
उग रहा है धरती पर
धान का बहुत बड़ा बाजार

 

10. बेतरतीब
उसके सपनों की लकीरें भी
उसके जैसे ही रहीं
बेतरतीब !
अधूरे सपनों और पूरे दुखों से
उसने भर दिए कई कागज
कुछ ना हुआ मगर
इस कागद की लेखी से..

और एक दिन
उसने जला डाले सारे पन्ने
तोड़ डालीं सपनों की तीलियांँ

इस स्याह राख को
जब से उसने आंँख में आँजा है
कहते हैं

तभी से उसकी नजर करिश्माई हो गई है
उसे अब बहुतों के छिपे जख्म दिखते हैं

 

 

11. वे हारी हुई हैं प्रेम में( से?)
दर्ज है उनकी हार
कई प्रथाओं में , कथाओं में
स्थापित है स्थापत्य में

चाक्षुस सुख तुंम्हारा
रहा है ऊपर ऊपर ही

प्रेम से भरी ये आत्मायें
अस्पृश्य हैं अभी भी
किसी भी प्रेम मय स्पर्श से
उन्हों ने नहीं किया कभी सम-भोग
शताब्दियों से जिनकी संभोग रत मूर्तियांँ उकेरी है तुमने पत्थरों पर
प्रस्तर समय से प्रस्तर समय तक
अभी भी
चली आ रही परंपरा की तरह

प्रेम से भरी
हारी हुई पशु लिप्सा से
देह में
जीती चली जा रही हैं जो
बेपरवाह किसी जीत हार से
अनजान किसी भी नश्वर क्षणभंगुर ज्ञान से

रहती हैं निरंतर क्रियाशील
निष्काम सक्रियता ही
हर बार जिनके जीवन का हासिल है

ये स्त्रियाँ हैं
भूख , देह और पितृक देस की ..

 

12. लड़कियांँ स्त्रियाँ पृथ्वी हैं
रत्नगर्भा वसुंधरा !

अपने ऊपर पालते जंगल , नगर , बस्ती
भीतर लिए जल , खनिज , अग्नि
भूमि करती है परिक्रमा सूर्य की
अज्ञात समय से

यही नियम है ब्रह्मांड का
व्यवस्था है प्रकृति की

व्यवस्था की बागी औरतें
भागती हैं यहांँ से वहांँ
इस छोर से उस छोर तक
नापती हैं धरती से आसमाँ
कहीं ठौर नहीं..

भूल जाती हैं वे
कि शास्त्रों में , पुराणों में
अमृत उनके लिए नहीं रहा कभी
याद रखना चाहिए उन्हें
कि पृथ्वी
अब भी शेषनाग के फण पर है..

 

13. कहीं एक लड़की

मेरा एक आंँसू डुबा देगा तुम्हें वेदना की नदी में
और भावावेग से काँपती मेरी काया
हिला देगी तुम्हारे अब तक के तपश्चर्या को

इसलिए रोक कर आंँसू नयन में
और धुल कर चेहरा अपना, गर्म जोशी के बेहतरीन अभिनय से आश्वस्त करती हूंँ तुमको
मैं खुश हूंँ! सुखी हूँ!

मेरी यह समझ मुझे औरत बनाती है
मैं तुमसे बात करती हूंँ वैसे जैसे एक औरत करती है दूसरी से
बेहद समझदारी से ,बड़ी होशियारी से

पर सच तो यह है कि मेरे भीतर की लड़की नहीं होना चाहती इतनी समझदार
वह तुमसे लिपट कर खूब रोना चाहती है
उसे तुम्हारे सीने पर सर रख के रोना है
तुम्हारी बाहों के अभेद्य दुर्ग में सोना है
वह मचलना चाहती है अब भी
जिद करना चाहती है, कहना चाहती है

मांँ !
मुझे नहीं चाहिए यह दुनिया
यह समाज यह परिवार ये परंपराएं
दम घुटता है मेरा
यहीं रहना है तुम्हारे पास तुम्हारे कलेजे से लग के

और तुम चूम के माथा सजल नयनों से
मुस्कुरा के कहती हो
कितना सुख देती है मेरी बेटी जब भी आती है
इसे देख के मेरा हियरा जुड़ाता है

और बस यहीं पर सब कुछ उमड़ता रह जाता है अंतस में
लड़की भीतर किसी कोने में रह जाती है

बाहर दो औरतें बतियाती हैं
बड़ी समझदारी से..
बड़ी होशियारी से..!


कवयित्री स्मिता वाजपेयी। जन्म: बढ़निहार, प. चंपारण, बिहार। देहरादून और नरकटियागंज में शिक्षा- दीक्षा। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख और कविताएँ प्रकाशित
एक काव्य संग्रह ‘तुम भी तो पुरुष ही हो ईश्वर!’ आध्यात्मिक यात्रा वृतांत ‘कालीमठ’ प्रकाशित। वर्तमान में नरकटियागंज (प.चंपारण, बिहार) में निवास।

सम्पर्क: मेल: smitanke1@gmail.com
•फोन: 7979039347

 

टिप्पणीकार रमेश ऋतंभर (अकादमिक नामः डॉ.रमेश प्र.गुप्ता) का जन्म बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले के ‘नरकटियागंज’ शहर में 02 अक्टूबर,1970 को हुआ। बिहार विश्वविद्यालय से 2003 में ‘राजेन्द्र यादव का कथा साहित्य: कथ्य एवं शिल्प’ विषय पर पीएच.डी.की उपाधि प्राप्त की। सम्प्रति वे बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह महाविद्यालय में स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में विश्वविद्यालय आचार्य के रूप में अध्यापनरत हैं और मुज़फ़्फ़रपुर प्रलेस के अध्यक्ष, बी.आर.ए.विश्वविद्यालय सेवा शिक्षक संघ (बुस्टा) के महासचिव।

रचनाएँ: सफर जारी है ( साझा काव्य संग्रह,1990),
कविता दस वर्ष (साझा काव्य संग्रह,1993), रचना का समकालीन परिदृश्य (आलोचना, 2012), सृजन के सरोकार (आलोचना, 2013), प्रतिरोध के स्वर (पूनम सिंह के साथ साझा काव्य संग्रह सम्पादन), पुश्तैनी गंध (पूनम सिंह के साथ साझा काव्य संग्रह सम्पादन)शीघ्र प्रकाश्य: राजेंद्र यादव का कथा-लोक (शोध), ईश्वर किस चिड़िया का नाम है (काव्य संग्रह) सम्पर्क: 9431670598

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