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स्मृति और प्रेम का कवि कुंदन सिद्धार्थ

जैसे पूरा गांव ही कमरे में समा गया हो!

जब भी कोई शहर से लौटकर गाँव आता तो सारे लोग उसे घेरकर घण्टों शहर की बातें सुनते किस्सों जैसे। कुछ बातें तो अचंभित करतीं, कुछ किस्से चौंकाने लगते, कुछ घटनाओं पर तो यकीन ही नहीं होता, और भी सुनने का मन करता।

एक कवि हैं कुंदन सिद्धार्थ जिनकी कविताएँ पाठक को अपनी स्मृतियों में ले जाती हैं। इस कवि की कविताएँ कुछ ऐसी हैं कि पढ़ने के बाद भी जी नहीं भरता। कुंदन सिद्धार्थ की कविताओं में केवल शब्दों की कलाबाज़ी ही नहीं है बल्कि कहन में भी एक जादूगरी है। पाठक सम्मोहित हो जाता है।

शहर अजीब होते हैं। जैसे होते, वैसे दिखते नहीं, जैसे नहीं होते वैसे दिखाने की कोशिश करते हैं। इसलिए उसे शहर से हमेशा डर लगा रहता। एक शहरी घर के पिछले हिस्से में किराए के एक छोटे से कमरे में अपनी छोटी सी दुनिया बसा रखी है। इस कमरे में बेड रूम, लिविंग रूम, किचन, स्टोर आदि आराम से खुले खुले समाए रहते।
गर्मियों के दिन हैं।

शहर के सरकारी स्कूल में यह दूसरा साल है। जून का महीना है और पहाड़ों में गर्मी अपनी हद तक पहुंच चुकी है। चार बजे स्कूल की छुट्टी होने के बाद अपने कमरे में पहुंचता है तो देखता है कि गांव से कुछ करीबी रिश्तेदार आए हैं।

गांव की गंध पूरे कमरे में भर गई है, जैसे पूरा गांव ही कमरे में समा गया हो। ऐसे लग रहा है मानो वह घर आया है, उन छुट्टियों में जो साल में एक बार ही आती हैं और ऐसे आती हैं मानो सारे जहां की खुशियां इन्हीं दिनों में समा गई हों। कुंदन सिद्धार्थ की एक छोटी-सी कविता, छोटी भी क्या, मात्र आठ शब्द हैं, मगर जैसे पूरे जीवन का विस्तार इसमें सिमट गया हो-

तुम आये हो
लगता है घर आया हूँ।

गीतों में सराबोर चनाब खुश है कि कम से कम एक शाम तो रावी के तट पर गुज़र जाएगी, वो भी पानी के लिए रानी सुनयना के बलिदान की गाथा वाले लोकगीत को सुनते हुए, जो हवा स्वयं सुनाएगी तट पर ठहरे सबसे बड़े गोल पत्थर पर बैठकर। रावी खुश है कि सुन्नी-भुंकू की प्रेमकथा सुनते सुनाते आंखों ही आंखों में एक रात कट जाएगी।

कुंदन सिद्धार्थ की एक अन्य कविता तो और भी छोटी है, यानी सात शब्दों की कविता है, मगर इतनी खूबसूरत है कि किसीकी भी छोटी-सी दुनिया में इसका फैलाव और खिलना समा नहीं पाएगा-

खिल गये हो
जरूर मिल गये हो।

इधर बहुत देर तक गांव की बात हुई, खेतों की बात हुई, पेड़ों की बात हुई, भेड़ ने किस रंग का मेमना जना यह ख़बर मिली, बछड़ी अब गाय बन गई है और खूब दूध देती है, माँ कैसे यादों में जीती है यह बात कई बार हुई। उसके आंसू अब बहने लगे। बिना पंखे के कमरे में गर्मी और बढ़ी तो घुटन अधिक हुई, घुटन में सिसकियों ने एक तरफ़ा सम्वाद भी तोड़ा। फिर एक मूक संवाद शुरू हुआ। पसीना माथे से चू रहा था और नाक के ऊपर से धार बन बहने लगा, आंसू गालों से बहते हुए गले को भिगो रहे थे। उधर चुपी में हो रहे संवाद को एक कवि ने समझा। यह संवाद कोई मामूली बातें नहीं होते, बल्कि बात यदि है तो फिर बहुत गहरी बात है-

चुप हो

कर रहे हो
कोई गहरी बात।

कुंदन सिद्धार्थ की कविताएँ अगर छोटी हैं तो समझो मारक हैं। जहाँ तक मैं देख पाया हूँ कवि अपने शब्द ज़ाया नहीं करता। कविता में न एक शब्द अधिक है न एक शब्द कम। छोटी कविता लिखने में कवि कुशल है-

वे वसंत के दिन थे
जब हम पहली बार मिले

पहली बार
मैंने वसंत देखा

कुंदन सिद्धार्थ की प्रेम कविताएँ गहरे तक उतरती हैं। कवि अथाह गहरे तक डूबकर लिखता है। आजकल बेहद उथली प्रेम कविताएँ लिखी जा रही हैं। ये कविताएँ इस मुश्किल दौर में आश्वस्ति पत्र हैं-

वह तुम हो कि मैं हूँ
यह मैं हूँ कि तुम हो

प्रश्न गिर गये
विस्मय भर रह गया

बिना प्रेम किये, बिना प्रेम पाए भला कौन प्रेम कविताएँ लिख पाएगा! कवि की यह कविता एक सच्चा बयान है-

कविताएँ लिखते रहो, तुम बोले
तुम हो तो हैं कविताएँ, कहा मैंने

फिर तुम मुझे प्रेम करने लगे
और मैं लिखने लगा कविताएँ

कुंदन सिद्धार्थ ठीक कहते हैं कि पेड़ हुए बिना हम उसकी कटने की पीड़ा कैसे महसूस कर सकते हैं। खेत की भूख प्यास को समझना ज़रूरी है और यह खेत हुए बिना समझ नहीं आएगा। खेत हो जाना ही कठिन है उतना जितना कविता लिखना-

मैंने फूल देखे
और फूल हो गया
मैंने चिड़िया देखी
और चिड़िया हो गया
पेड़ देखे
पेड़ हो गया
नदी देखी
नदी हुआ
खेत देखे
खेत हो गया

यूँ मैंने सब कुछ देखा
और सब कुछ हुआ

सब कुछ देखने और होने के
इस खेल में मैंने पहली बार जाना
कि फूल होकर ही जाना जा सकता है
फूल का सौंदर्य
और सही जा सकती है
उसके झड़ जाने की वेदना
चिड़िया होकर ही
महसूस किया जा सकता है
उसकी उड़ान का मर्म
और जीवन बचाये रखने की उसकी जद्दोजहद
पेड़ हुए बिना नहीं भोगा जा सकता
उसके कटने का दर्द
अपने सूख जाने की चिंता से
हुआ जा सकता है उदास
नदी होकर ही
खेत की भूख-प्यास समझने के लिए
निहायत जरूरी है
खुद ही खेत हो जाना

एक और कविता पढ़ी जाए कि जी नहीं भरा अभी-

मैंने फूल देखे
फिर मैंने उन्हीं फूलों को
अपने भीतर खिलते देखा

मैंने पेड़ देखे
और मैंने उन्हीं पेड़ों के हरेपन को
अपने भीतर उमगते देखा

मैं नदी में उतरा
अब नदी भी बहने लगी
मेरे भीतर

मैंने चिड़िया को गाते सुना
गीत अब भीतर उठ रहे थे

यूँ बाहर जो मैं जीया
उसने भीतर
कितना भर दिया

कुंदन सिद्धार्थ की कविताओं में कुछ है जो अचम्भित करता है। कवि जितनी भी बार तितली को देखता है, चकित होता है-

पहली बार मैंने तितली देखी
चकित रह गया

चकित रह गया
जब भी मैंने तितली देखी
जैसे कि देख रहा हूँ पहली बार

असंख्य बार मैंने तितली देखी
असंख्य बार मैं चकित हुआ

यूँ मैं आज भी हूँ चकित
अभी-अभी मैंने देखी है तितली
और उठ रहे हैं प्रार्थना के स्वर

बने रहें रँग और फूल
बने रहें पराग और गंध
बनी रहें तितलियाँ
होता रहूँ चकित
इसी तरह
बार-बार
हर जनम में
जब भी आऊँ

क्योंकि तितली को देखकर चकित हो जाना
इस युग की एक विलुप्तप्राय घटना है
जिसे हर हाल में संरक्षित किया जाना चाहिए।

 

 

कुंदन सिद्धार्थ की कविताएँ

 

1.फूल

धरती आकाश को

लिख-लिखकर

भेजे जा रही प्रेमपत्र

अहर्निश

फूल

इन्हीं प्रेमपत्रों के

महकते हुए अक्षर हैं

 

 

2. प्रेम में प्रार्थना

प्रार्थना के दिन थे

क्योंकि प्रतीक्षा के दिन थे

प्रतीक्षा के दिन थे

क्योंकि प्रेम के दिन थे

प्रेम की प्रतीक्षा में

किस तरह उठते हैं प्रार्थना के स्वर

उन्हीं दिनों जाना

 

3.प्रेम में है पृथ्वी

चिड़िया उदास होती है

तो पृथ्वी के माथे पर पड़ती हैं लकीरें

एक पेड़ मरता है

तो सबसे ज्यादा चिंतित होती है

पृथ्वी

जब स्त्री रोती है

उस रात

पृथ्वी को नींद नहीं आती

 

 

4. मैं कहीं भी रहूँ

तुम्हें देखना

और प्रार्थना में खड़े होना

एक ही बात है

तुम्हें प्रेम करना

क्या ठीक उसी तरह नहीं है

जैसे खुद को प्रेम करना

तुम्हें पाकर

खुद को पाने का एहसास

यूँ ही तो नहीं होता

दो साँसों के बीच की जो दूरी है

क्या उतनी भी दूरी है हमारे बीच

मुझे तो नहीं लगता

क्योंकि मैं कहीं भी रहूँ

वहीं होते हो तुम

प्रार्थना में मौन

और प्रेम में तृप्ति की तरह

 

5. अधूरा प्रेम

एक दिन

मैं नहीं रहूँगा

एक दिन

तुम खो जाओगे

बचा रह जायेगा प्रेम

जो हम कर नहीं पाये

अधूरा छूट गया प्रेम

प्रतीक्षा करेगा पूरे धैर्य के साथ

फिर से हमारे धरती पर लौटने की

अधूरा छूट गया प्रेम

भटकेगा इस सुनसान में

उसकी आत्मा जो अतृप्त रह गयी

मैं आऊँगा रूप बदलकर

तुम भी आना

हम करेंगे प्रेम जी भर के

अधूरा जो छूट जाता है

पीछा करता है जन्मों-जन्मों

तुम्हीं ने कहा था

बरसों पहले

 

 

6. प्रेम के वे कठिन दिन

पंछी नहीं थे हम

जो उड़ जाते गगन में दूर तलक

और बना लेते किसी दरख़्त के कोटर में

अपना खूबसूरत आशियाना

नदी नहीं थे हम

जो अपने अकेलेपन से घबड़ाये

एक दिन किसी संगम पर हो जाते एकाकार

हमेशा-हमेशा के लिये

हवा तो बिल्कुल नहीं थे हम

जो छुप जाते किसी कोने-अँतरे

और ढूँढ़ने से भी कभी हाथ नहीं आते

चाहे कोई लाख कोशिश कर ले

हम आदमी थे

और जीवन के उन कठिन दिनों में

सबसे ज्यादा बचते रहे

आदमी से

 

 

7. गंध: कुछ कविताएँ

1.

हरेक गंध से जुड़ी होती है

एक ख़ास स्मृति

जब भी नासापुटों को छूती है कोई गंध

स्मृति के चित्र सजीव हो जाते हैं

बिजली की मानिंद कौंध जाता है

वह ख़ास दृश्य

जब पहली बार उस गंध ने

हमें छुआ था

हरेक गंध में बसी होती है

एक ख़ास कथा

एक ख़ास मौसम समाया होता है

हरेक गंध में

 

2.

पहली बेटी के जन्म के बाद

पत्नी की देह से मिली थी

अपनी माँ की देह की गंध

माँ तब खूब याद आयी थी

 

3.

जीवन भर ढूँढ़ता रहा

पहले प्रेम के पहले चुंबन की गंध

कुछ गंध

जीवन में बस एक बार मिलती है

फिर गुम हो जाती है किसी रहस्यलोक में

हमेशा के लिए

 

4.

मेरे और पिता के

पसीने की गंध एक है

मैं कहीं भी रहूँ

रोयें-रोयें से रिसते हैं पिता

पसीने की तरह

मेरे और पिता के पसीने में

नमक की मात्रा

एक जैसी है

 

5.

किसी सुनसान में

अचानक उठी कोई गंध पाकर

टोकते नहीं हैं

समझाते थे पुरखे-पुरनिया

बहुत पास से गुजर रही

किसी आत्मा की होती है वह गंध

टोकते ही

गंध के खो जाने से ज्यादा

भटकती आत्मा के कुपित हो जाने का डर

गंध को भयावह बना देता था

 

8. प्रेम और वसंत

प्रेम आया

तो वसंत आया

पहली बार

रँग

प्रेम करने वालों की ही ईज़ाद हैं

फूल

पहली बार प्रेमियों के सामने खिले

पहली बार

जब कोयल कूकी

पुकारा पपीहरा

निहारा चकोर

तब वे प्रेम में थे

रची गयी

जब पहली कथा

पहली कविता

जब धरती पर उतरी

बीज बना होगा प्रेम

भक्ति जगी होगी प्रेम में

प्रेम में ही उठे होंगे प्रार्थना के स्वर

किसी चेहरे पर

आयी होगी हँसी प्रेम में

प्रेम में ही

मुस्कराये होंगे किसी के ओठ

पहली बार

आँसू गिरे होंगे पहली बार

प्रेम के वियोग में

प्रेमी ने ही गाया होगा

पहला गीत

 

9. हँसी

बहुत कुछ कहती है

भरोसे जगाती हँसी

एक बेपरवाह हँसी गढ़ती है

सुंदरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान

अर्थ खो देंगे

रँग, फूल, तितली और चिड़िया

एक हँसी न हो तो

हँसी से ही

संबंधों में रहती है गर्मी

नींद कैसे आयेगी हँसी के बिना

प्रेम का क्या होगा?

हँसी को तकिया बनाकर

सोता है प्रेम

 

 

10. तुम कैसे रहोगे उदास

उदास मत होना

गमले में लगी जूही बोली

मुंडेर पर बैठी गौरैया

सहसा चहकी

और कह गयी

आँगन में खड़े

छतनार आम की मंजरियाँ महकीं

आहिस्ते से बोल गयीं

तुम

जबकि बहुत प्रेम करते हो

गमले की जूही को

मुंडेर की गौरैया को

अपनी सुगंध से

तुम्हें बेसुध कर देती हैं

आम्र-मंजरियाँ

कैसे तुम

इनकी बात नहीं मानोगे!

तुम अब

कैसे रहोगे उदास!

 

11. एक तुम्हारे होने से

एक तुम्हारे होने से

फूलों के रँग हो गये हैं

थोड़ा और ज्यादा चटक, सुंदर

पत्तियाँ, पहले से थोड़ी और गहरी हरी

बढ़ गयी है मस्ती

चिड़ियों की चहचहाहटों में

दुनिया पहले से कुछ

ज्यादा अच्छी और प्यारी हो गयी है

कमजोर होते भरोसे को

मिलने लगा है संबल

लगातार दरक रही उम्मीदों में

जागने लगे हैं पँख

समय और स्थान की दूरी

कोई दूरी नहीं होती —

सुना भर था

यह बात भी हो गयी पक्की

एक तुम्हारे होने से

वह खुशी जो

दुबकी पड़ी बैठी थी गुमसुम

मन के किसी कोने में कहीं

हँस पड़ी बच्चे की निर्दोष हँसी

वह उदासी जो

बार-बार समेट लेती थी मुझे

खुद के भीतर कछुए की तरह

बोरिया-बिस्तर बाँध निकल पड़ी है ढूँढ़ने

कोई और नया आशियाना

उड़ गये भाप की तरह

तुम्हारे न होने के तमाम सारे रंज-ओ-ग़म

एक तुम्हारे होने से

 

12. चलो मीता

चलो, कहीं दूर चलते हैं

मुखौटों से भरी इस दुनिया से बहुत दूर

बनाते हैं एक सुंदर आशियाँ

पेड़ों के झुरमुट में

हरे-भरे पहाड़ों से उतरते

झरने के करीब

साफ-सुथरी झील के किनारे

आसमान में बादल

जहाँ करते हों अठखेलियाँ

चलो, कहीं दूर चलते हैं

जहाँ कुछ भी न हो जाना-पहचाना

न लोग, न चेहरे, न उनकी बातें

न दुख, न चिंता, न उदास यादें

चलो मीता

वहाँ चलते हैं जहाँ

प्यारी चिड़ियों के मनभावन गीत हों

गीतों पर थिरक रहे बहुरँगे फूल हों

फूलों की खुशबू में

नहाई बयार हो

और बस प्यार हो

 

13. डर

डरें वे जो झूठ को सच की तरह बोलते हैं

डरें वे जिन्हें मुखौटों से आशिक़ी है

जो सोचते हैं कि सब कुछ जानते हैं हम

वे जरूर डरें

सूख गया है जिनकी आँखों का पानी

वे क्यों न डरें

डराते हैं जो दूसरों को

वे ही हैं असल में डरे हुए लोग

फैलाते हैं जो डर का भ्रम

और गढ़ते हैं तिलिस्म डर का

अभिशप्त हैं वे

डर के स्याह साये में जीने के लिये

घृणा कम

प्रेम की खाल ओढ़े घृणा ज्यादा डराती है

हिंसा से ज्यादा

अहिंसा की चादर लपेटी हिंसा

रचती है डर का चक्रव्यूह

शत्रु क्या खाक डरायेंगे

मित्र का चोगा पहने शत्रु से

लगता है ज्यादा डर

वे क्यों डरें जो बिछाते हैं प्रेम

और प्रेम ही ओढ़ते हैं

घुला हुआ है प्रेम जिनकी साँसों में पराग बनकर

जिनकी नसों और शिराओं में

दौड़ रहा है प्रेम लहू से एकरँग होकर

वे तो बिल्कुल न डरें

डर के खिलाफ़ यह प्रेम ही है

जो बन जाता है सबसे बड़ा हथियार

घृणा के विरुद्ध

परचम लहराने के लिये

 

14. जीवन बिन प्रेम

मैं कहीं भी जाऊँ

कुछ चीजें अनिवार्य रूप से साथ होती हैं

जैसे धूप, हवा, पानी और बादल

जैसे आग, धरती, पहाड़ और आसमान

जैसे खेत, नदी, बगीचे और पगडंडियाँ

जैसे रँग, फूल, पेड़ और चिड़िया

और आखिर में

जैसे प्रेम

क्योंकि ये सब रहें

और प्रेम न रहे

तो क्या भरोसा

मैं खो सकता हूँ सरेराह

भूल सकता हूँ अपना गंतव्य

भटक सकता हूँ रास्ता

ये सब रहें

और प्रेम न रहे

तो क्या ठिकाना

हो सकता है मुझे चक्कर आ जाये

और धड़ाम से गिर जाऊँ

किसी चौराहे पर

ये सब रहें

और प्रेम न रहे

तो कोई उम्मीद मत रखना मुझसे

यह भी हो सकता है

कि मैं गूँगा हो जाऊँ तब

कंठ हमेशा-हमेशा के लिए

हो जाये अवरुद्ध

शब्द न निकले

और रोने लगूँ

साथ में न रहे प्रेम

तो कुछ भी घट सकता है अनिष्ट

जीवन जा सकता है

क्या पता

यह प्रेम है

जो संभाले हुए है मुझे

नहीं तो इस क्षणभंगुर संसार में

बिखरते देर नहीं लगती

 

15.थोड़ा-सा

कहीं भी

जब कोई मरता है

थोड़ा-सा

मैं भी मर जाता हूँ

कहीं भी

जब कोई लेता है विदा

थोड़ा-सा

मैं भी चला जाता हूँ

उसके साथ

यह थोड़ा-सा

मर जाना

और थोड़ा-सा

साथ चले जाना

जीवन को दी गयी

मेरी श्रद्धांजलि है

 

  • ●●

कवि कुंदन सिद्धार्थ जन्मतिथि: 25 फरवरी 1972। जन्मस्थान: पश्चिमी चंपारण, बिहार. शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य) राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, पहला काव्य-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

संप्रति: पश्चिम मध्य रेल, जबलपुर, मध्यप्रदेश में कार्यरत

टिप्पणीकार गणेश गनी चर्चित युवा कवि, कविता से पाठकीय संवाद की एक पुस्तक ‘किस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर’ हाल ही में प्रकाशित। सम्प्रतिः कुल्लू और मंडी के ग्रामीण क्षेत्रों में एक निजी पाठशाला ग्लोबल विलेज स्कूल का संचालन।

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