समकालीन जनमत
कविता

हेमंत देवलेकर की कविताएँ बदल रहे समय पर गहन दृष्टि से उपजे सवाल हैं

निरंजन श्रोत्रिय


युवा कवि हेमंत देवलेकर की कविताओं से गुजरना वह सुखद अहसास है जो मौसम की बारीकियों को समझने, समय को बीतते हुए महसूसने और रिश्तों की आँच में तपने पर ही महसूस किया जा सकता है। उनकी कविता के अनूठे बिम्ब काव्य भाषा को मितभाषी लेकिन संप्रेषणीय बनाते हैं। भुला दिए गए को वे इस तरह कविता का विषय बनाते हैं कि मानो गुजरे पल हुलस कर वर्तमान में जीवंत हो लौट रहे हों।

उनकी कविता ‘पौष’ में वे जनवरी-फरवरी को साक्षात कर देते हैं जहाँ कोहरे की चादर और अमलतास की चेतना शून्य फलियों के बीच बुलबुल ग्रीष्म को शीत की गिरफ़्त से मुक्त कराने का क्रांति-गीत गा रही है। एक छोटी-सी कविता में प्रकृति के इतने रंग और संदेश भर देना आसान नहीं होता। ‘समय और बचपन’ कविता मानो हमें रेतघड़ी के सामने खड़ा कर देती है जहाँ रेत कणों की शक्ल में समय गिरते हुए बीत रहा है। यहाँ काल और बाल दोनों के मनोविज्ञान है, दर्शन है और खिलंदड़ापन भी, यहाँ तक कि बच्चों की संगत से समय को बदलने की उम्मीद भी छितरी हुई है जो पूरी कविता को एक नया परिवेश देती है।

‘बीज पाखी’ बीजों के प्रकीर्णन को लेकर लिखी गई कविता है। यहाँ बीज एक पैराशूट है जो अपने वंश का प्रसार करने हवा में भटक रहा है। कविता के अंत में यह पैराशूट रोज़गार की तलाश में भटक रहे व्यक्ति में तब्दील हो जाता है। यहाँ प्रकृति के सूक्ष्म प्रेक्षणों में नए-नए बिम्ब खोज कर एक पादपीय प्रक्रिया को नया अर्थ-विस्तार दिया गया है ‘मुहाँसे’ एक बहुत छोटी कविता है जो उन लोगों पर कटाक्ष है जो नागरिकता या सहअस्तित्व पर गैरजरूरी सवाल उठाते हैं। इस दिलचस्प कविता का सबसे बड़ा चमत्कार इसका शीर्षक है।

‘परागण’ एक बार फिर प्राकृतिक क्रिया पर लिखी बहुत सुंदर कविता है। जब परागकण पुष्प के स्त्री अंग (जायांग) तक पहुँचते हैं तभी उनका जीवन-चक्र आगे बढ़ता है। यहाँ इस पुष्पीय प्रजनन की प्रक्रिया को बिम्बों की खूबसूरती ने फूलों की प्रेमकविता बना दिया जिसमें तितली की निर्णायक भूमिका होती है। ‘चार आने घंटा’ एक और मार्मिक कविता है जिसमें कवि ने अपना बचपन याद किया है। साइकिल चलाना सीखने जैसे उपक्रम में कवि ने वह समय याद किया है जब मध्यवर्ग आर्थिक तंगी में ज़रूर था लेकिन साहचर्य, रिश्तों और सामाजिकता की दृष्टि से कितना सम्पन्न था। इस स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित युग को कवि ने मनुष्यता के संकट का दौर कहा है जिसके उपचार तकनीकों में खोजे जा रहे हैं।

‘अभिशप्त’ कविता द्रोण एवं एकलव्य के मिथक पर आधारित है। इसे कवि ने फैंटेसी के रूप में दो भागों में लिखा है। कविता के पूर्व भाग में चर्चित घटना का विवरण है जबकि दूसरे भाग में शिष्य के प्रति तिरस्कार और अन्याय के फलस्वरूप उपजा हाहाकार है। यह प्रतिकार का एक काल्पनिक मगर काव्यात्मक अंदाज़ है।

हेमंत देवलेकर एक प्रतिभाशाली युवा कवि हैं जो प्रकृति, मानवीय रिश्तों और बदल रहे समय पर अपनी गहन प्रेक्षकीय दृष्टि द्वारा इन्हें सर्वथा नए रूप में परिभाषित करते हैं। यहाँ सृष्टि को बचा लेने की आकांक्षा भी है और हाट, मेले-ठेले को संरक्षित करने की बेचैनी भी।

 

 

हेमंत देवलेकर की कविताएँ

1. पौष
कोहरे ने लगाया
आपातकाल जारी है
और अमलतास पर ताले पड़े हैं

सलाखों-सी लम्बी
अमलतास की चेतना शून्य फलियों के सामने
काली टोपी पहने
ठिठुरती बुलबुलें गाती हैं
जनवरी के क्रांति गीत

वे ग्रीष्म को आजाद कराने आई हैं।

 

2.समय और बचपन
(चिंपुड़ा के लिए)

उसने मेरी कलाई पर
टिक टिक करती घड़ी देखी
तो मचल उठी वैसी ही घड़ी के लिए

उसका जी बहलाते
स्थिर समय की एक खिलौना घड़ी
बाँध दी उसकी नन्हीं कलाई पर

पर घड़ी का खिलौना
मंजूर नहीं था उसे
टिक टिक बोलती, समय बताती
घड़ी असली मचल रही थी उसके हठ में

यह सच है कि बच्चे समय का स्वप्न देखते हैं
लेकिन मैं उसे समय के हाथों में कैसे सौंप दूँ
क्योंकि वह एक कुख्यात बच्चा चोर है

तभी उसकी ज़िद ने मेरी कलाई पकड़ ली
बच्ची की आँखों में जीवन की सबसे चमकदार चीज देखीः कौतुहल
और मेरे पास क्या था? खुरदुरा, घिसा-पिटाः अनुभव
जिसने मुझे डरना ही सिखाया
ऐसा अनुभव किस काम का जो
बच्चों का कौतुहल ही नष्ट कर दे

हो सकता है बच्चों की संगत से
समय बदल जाए

मैंने टिक टिक करती असली घड़ी
बच्ची की कलाई पर बाँध दी
और समय उसके हवाले कर दिया।

 

3. बीज पाखी

यह कितना रोमांचक दृश्य है :
किसी एकवचन को बहुवचन में देखना
पेड़ पैराशूट पहनकर उतर रहा है

वह सिर्फ़ उतर नहीं रहा
बिखर भी रहा है
कितनी गहरी व्यंजना  : पेड़ को हवा बनते देखने में

सफ़ेद रोओं के ये गुच्छे
मिट्टी के बुलबुले हैं
पत्थर हों या पेड़ मन सबके उड़ते हैं

हर पेड़ कहीं दूर
फिर अपना पेड़ बसाना चाहता है
और यह सिर्फ पेड़ की आकांक्षा नहीं
आब-ओ-दाने की तलाश में भटकता हर कोई
उड़ता हुआ बीज है।

 

4. लिपि

उन्होंने कहा
-” लिखो”
मैं मोबाइल पर टाइप करने लगा

यह देख वे भड़क उठे
-“हमने कहा, लिखो”

मेरी याददाश्त पर गहरी चोट पड़ी
और मोबाइल हाथ से गिर गया

वे पूर्वज थे
खिन्न होकर लौट गए

मैने गिरे हुए मोबाइल को देखा :
मेरे हाथ से समूची लिपि फिसल गई थी

 

5. गुनगुन के लिए 

जी चाहता है
तेरा गुब्बारा बन जाऊं
या बन जाऊं घर्र घर्र घूमती चकरी
या फिर झूला,  गेंद,  गुड़िया…
या जैसी भी  तेरी मर्जी

खिलौनों में डूबे बच्चे
कल्पना का अंतरिक्ष लगते हैं
उस में कौन तैरना नहीं चाहेगा

तेरा खिलौना बनकर देखूं तो सही
कितनी मशक्कत करना पड़ती है
तुझे हंसाने में
तुझे मनाने में
कुतुहल जगाने में

तेरे चेहरे पर बसंत खिलाने के लिए
खिलौने के सारे मौसम हो जाते हैं खर्च
कितना धीरज होता होगा उसमें
और कितनी सहनशीलता भी

तू फेंकती है
रौंदती  है
तोड़ती है
खोलती है
जितनी ममता से भींचती है बाहों में
उतनी ही बेरुखी से छोड़ भी देती है अकेला

कितना अचरज कि उसने न कभी आपा खोया
न बहाए आंसू
खिलौने के अलावा कौन है ऐसा
जिसमें रत्ती भर भी अहं ना हो

तेरा खिलौना बनकर देखूं तो
शायद मुझमें भी उस जैसी संभावना हो

 

6. मुंहासे

गेंदे के कुछ फूल खिले हैं
गुलाब की क्यारियों में

उनकी अवांछित नागरिकता पर
गुलाब उठाते हैं सवाल
-‘तुम यहाँ क्यों ?’

ढीठ हैं फूल गेंदे के
सिर उठा कर देते हैं जवाब
-‘वसंत से पूछो’।

 

7. शुद्धिकरण

इतनी बेरहमी से निकाले जा रहे
छिलके पानी के
कि खून निकल आया पानी का
उसकी आत्मा तक को छील डाला रंदे से

यह पानी को छानने का नहीं
उसे मारने का दृश्य है

एक सेल्समैन घुसता है हमारे घरों में
एक भयानक चेतावनी की भाषा में
कि संकट में हैं आप के प्राण
और हम अपने ही पानी पर कर बैठते हैं संदेह

जब वह कांच के गिलास में
पानी को बांट देता है दो रंगों में
हम देख नहीं पाते
“फूट डालो और राज करो” नीति का नया चेहरा

वह आपकी आंखों के सामने
पानी के बेशकीमती खनिज चुराकर
किसी तांत्रिक की तरह हो जाता है फरार
“पानी बचाओ – पानी बचाओ”
गाने वाली दुनिया
खुद शामिल है पानी की हत्या में —
अपने आदिम पूर्वज को
गैस चेंबर में झोंकते हुए।

 

8. परागण

तितली के होठों में दबे हैं
दुनिया के सबसे सुंदर प्रेम पत्र

तितली एक उड़ता हुआ फूल है

हँसी किसी फूल की
उड़कर जाती है
एक उदास फूल के पास

उड़कर जाता है मन एक फूल का
एक फूल का स्वप्न
उतरता है किसी फूल के स्वप्न में

दो फूलों के बीच का समय
कल्पना है एक नए संसार की

तितली की तरह
सिरजने की उदात्तता भी होना चाहिए एक संवदिया में।

 

9. चार आने घंटा

यह बात उन दिनों की है
जब बच्चों के पास नहीं होती थी अपनी साइकिल
किराये की साइकिलें ही होतीं मुफ़ीद सीखने के लिए
किराया-चार आने घंटा

एक शांत-सी गली में
नन्हीं साइकिल चलना सीखती
और गुरूत्व बल को खुराफातें सूझतीं
यह उन दिनों की बात है
जब हर लड़खड़ाती साइकिल के साथ
एक भाई या दोस्त दौड़ा करता था
बेहद चैकन्ना और जवाबदार

वह टेका लगाने की बल्ली भी था
और मटका थापते कुम्हार का हाथ भी
संतुलन नहीं था उसके बिना संभव
गुरूत्व के सारे बल बेअसर थे उसके आगे

आज इतनी संपन्नता
कि हर बच्चे के पास साइकिल
लेकिन विपन्नता बस इतनी
कि साइकिलों के साथ दौड़ने वाले
भाई या दोस्त अब कहीं नहीं

समय सबसे महँगी धातु है
दूसरों को गढ़ने में इसे गँवाना
अब एक आत्मघाती विचार

यह मनुष्यता के संकट का दौर है
और उपचार तकनीक में खोजे जा रहे

अब देखिए
नन्हीं साइकिलों के पीछे दाएँ-बाएँ घूमते
दो छोटे-छोटे रक्षा पहिए

जब देखता हूँ उन्हें बचाव में घूमते
याद आते हैं साथ दौड़ते भाई या दोस्त
बेहद चैकन्ने और जवाबदार
और वह समय भी
जो मिट्टी की तरह हर कहीं उपलब्ध था
और उसका कोई किराया नहीं था।

 

10. हार्मनी

सफ़ेद और काला अलग रहेंगे
तो नस्ल कहायेंगे
मिलकर रहेंगे तो संगीत

हारमोनियम
साहचर्य की एक मिसाल है

उंगलियों के बीच की ख़ाली जगह
उंगलियों से भर देने के लिए है

 

11. कामाख्या देवी

ओ, देवी बताओ
क्या केवल वहीं गिरी है
योनि सती की
जहां तुम्हारा शक्तिपीठ है ?

इस धरती का कौनसा हिस्सा
बचा अछूता
जहां सतियों की योनि
कटकर न गिरी

सरिये, गंडासे, कांच, तेज़ाब, आग
कितनी कितनी हैवानियत
कटकर गिरने से पहले

तीर लगे पक्षी की तरह
धप् धप गिर रही हैं
लहूलुहान योनियां
हमारी निस्पंद करुणा  के आगे

देवी! धर्म तुम्हारी योनि को एक अद्वितीय मंदिर बताता है
पर मानवीय सच्चाई यह कि
कदम कदम पर योनियों के जिबहख़ाने खुले हैं
हम शक्तिपीठों के कब्रिस्तान में रहते हैं
अफ़सोस कि
हमारे खून में खौलता कोई तांडव नहीं
और हम धीरे धीरे शव में बदल रहे हैं

 

12. अभिशप्त

द्रोणाचार्य लौट चुके थे अँगूठा लेकर
एकलव्य वहीं पड़ा था निश्चेष्ट
रक्त फैला था पास ही
उसके कबीले के लोग सारे जमा थे आसपास
इतना भीषण था आक्रोश उनमें कि
निश्वासों से काँप-काँप जाता था जंगल।

शाप बनकर फूटा क्रोध उनका
गुरू द्रोण जा चुके थे दूर, सुनाई उन्हें दिया नहीं
कान एकलव्य के पड़े थे निस्पंद
सुनाई उसे भी दिया नहीं
सुन कोई नहीं पाया, शाप वह क्या था?

गुरू द्रोण ने एक बहती नदी में
उछाल दिया कटे अँगूठे को
और धूल उड़ाता रथ उनका लौट गया।

-00-00-

कहते हैं वह शाप उस युग में फला नहीं
उल्का बनकर अंतरिक्ष में भटकता रहा

-00-00-

बहुत बुरे सपने से आज नींद खुली
एक विशालकाय उल्का पृथ्वी से टकराई थी
और सब कुछ उथल-पुथल था
हजारों सदियाँ गर्त से निकलकर सामने आ गईं

मैंने देखा
पृथ्वी पर सिर्फ़ अँगूठों का अस्तित्व है
सुबह-शाम दफ्तरों को जाने वाली सड़कों पर
रेलों में सिर्फ अँगूठे ही भाग रहे हैं

शरीर का सारा बल, पराक्रम अँगूठों में सिमट चुका
कितनी कलाएँ, उनका कौशल, भाषा
यहाँ तक कि आवाज़ भी
अँगूठों के अलावा बाहर कहीं न थी
एकदम वास्तविक से लगते बड़े-बडे आभासी पहाड़ों को
धकेल रहे हैं अँगूठे
और आश्चर्य कि पसीने की एक बूँद तक नहीं।

निश्चेष्ट पड़ी हैं मनुष्य की भुजाएँ
जैसे एक दिन संज्ञाशून्य पड़ा था एकलव्य

लौट आया है अँगूठा उसका
और फैल गया है गाजर घास की तरह पृथ्वी पर

अचानक मुझे सुनाई दिया वह शाप।

 

 

(कवि हेमंत देवलेकर , जन्मः 11 जुलाई 1972 को उज्जैन में, शिक्षाः आई टी आई
सृजनः दो काव्य संग्रह ‘हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है’ तथा ‘गुल मकई’ प्रकाशित। रंग कर्म में रूचि। विहान ड्रामा वक्र्स से सम्बद्ध।
सम्मानः वागीश्वरी सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, स्पंदन युवा सम्मान, कर्मभूमि सम्मान, कला साधना सम्मान, राज्यस्तरीय शशिन सम्मान।
सम्पर्कः 11, ऋषि वैली, वैशाली नगर, कमला नगर थाने के पास, भोपाल-462 003
ईमेल: hemantdeolekar11@gmail.com
मोबाइलः 7987000769

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion