समकालीन जनमत
कविता

अमित की कविताएँ अनसुनी आवाज़ों के चाँद के दीदार की मशक़्क़त है

रविकांत


नई शताब्दी में हिंदी के नए हस्ताक्षरों में अमित परिहार मेरे प्रिय कवि हैं, पर अमूमन वे सुकवि होने से बचते हैं. दोनों में अंतर सिर्फ़ इतना है कि प्रिय कवि वो होता है जिसकी कविताएँ पढ़ कर मन प्रिय भावों से गमक जाय. जबकि सुकवि वो है जिसकी कविताओं में कलात्मक सुगढ़ता होती है. तराश का पैनापन चमक मारता है.
अमित परिहार की कविताओं में इस चमक की खोज करने वाले पाठक की नज़र से क़ीमती मर्म छूट सकता है. अमित कुछ जानते हुए भी अपनी कविताओं में ऐसी लापरवाहियों को दुरुस्त नहीं करते हैं ताकि उनके कथ्य की ताज़गी व टटकापन भाषा के मोज़ैक में खो न जाय.
अमित परिहार की कविताओं में पेड़ जुगनुओं का कोट पहने दिखता है लेकिन माध्यम बनता है विदा हुई बेटियों के वापस न आ पाने की टीस का. अमित परिहार की कविताओं को रिश्तों की गर्माहट का आर्काइव कहना शायद उचित न हो, वो तो बस रिश्तों के वैविध्य और  उनके वजूद के वज़न को रेखांकित करते चलते हैं.
अमित परिहार की कविताएँ सम्मिलित रूप से सम्बन्धों की ऊष्मा व उनके बीच की पहल के सातत्य की दीर्घजीविता का प्रार्थना गीत लगती हैं.
रोज़मर्रा की जीवन स्थितियों में कविता की अनंत सम्भावनाएँ हैं इसे हर कवि अपने-अपने ऑबज़रवेशन व तकनीक से सिद्ध करता है. ठंडी चाय मैंने भी सौ बार फेंकी होगी लेकिन मैं इस क्रिया में कविता तलाशने से चूक गया. अमित परिहार की संवेदनशीलता ने इस फेंकी जाती चाय में घुले चाय बनाने वाले के श्रम को अनदेखा नहीं किया. अनदेखा आप भी नहीं करते होंगे. पर हम सिर्फ़ उसकी कसक सह के रह जाते हैं लाचार की तरह. कवि उसे पकड़ लेता है. अमित परिहार जब ठंडी हो गई चाय को बेसिन में बिना किसी आवाज़ के ढरकाते हैं तो वो सचेत हैं, इस क्रिया को चोरी से करते हैं, श्रम को भी ढरकते हुए देखते हैं. ये छोटी सी कविता, चीजों में मानव श्रम को मटीरियल  की तरह उपस्थित देखने की दृष्टि देने वाली कविता है.
अमित सही मायनों में टेढ़बकुलों (ठिगना महुवे का पेड़ के) कवि हैं. टेढ़बकुलों की पक्षधरता उनका प्राथमिक कवि-धर्म है. और सिर्फ़ इसी कारण वे मुझ जैसे पाठकों को विश्वसनीयता के मामले में आश्वस्त करते हैं.
“धीरे-धीरे हमनें जाना  
जीवन में जो भी बचा  
बचाया टेढ़बकुलों ने.”  
शमशेरीय तबियत वाले कवि मित्र अंशुल त्रिपाठी अक्सर कहते हैं कि कविता पूरी कविता में कहीं एक दो जगह होती है. अगर वो है तो कविता सार्थक हो जाती है. अमित की कविताओं में ऐसे उदात्त रस-बंद बिखरे पड़े हैं. पाठक के मन में ये बात आना ही बिंब की सार्थकता है-  काश की हम कम से कम, अपने लिए ही सही, हर एक को उसका सम्मान देने का सलीका सीख पाते-
“रात्रि को सौंपता हूँ उसका सम्मान  
सारी रोशनियाँ समेटता हूँ  
और रख देता हूँ  
अंधेरे में.”  
इस कविता में अमित ‘क्षरण की आवाज़’ को सुनते हुए बेचैनी में हैं. ऐसी बेआवाज़ों को सुनने वाला ही तो कवि कहलाता है ! फिर ये कवि तो अनसुनी आवाज़ों के चाँद के दीदार की मशक़्क़त में है.
अमित परिहार के कवि रूप से प्रेम करने के कारण एक-दो होते तो कालांतर में उनसे मुक्ति सम्भव थी. पर मजबूत कवियों की तरह उनकी कविताएँ भी पाठक को एक भरे-पूरे आत्मीय परिवेश से सम्बंधित कर देती हैं. फिर पाठक का जी तमाम ‘कोमल फाहों सी आवाज़ों’ को सुन कर वहीं कुछ देर रमना चाहता है. वहाँ कई परिचित माँएं मिलती हैं. मठहवा बिलारी मिलती है. बच्चों की दुनिया, अम्मा-बप्पा, लरिका-दामाद और लामा की सुहासिन मिलती है. यहाँ छेद्दन, रामरति, जद्दू खटिक और जपनापारी फाग गाते बैजनाथ मिलेंगे. और सबसे बढ़ कर मिलेंगे दशरथ माँझी, दुर्गा दादा और दऊआ काका. ख़ासियत ये कि इन कविताओं की दुनिया में कुदाल, फावड़ा और हँसिया के साथ ‘गोफ़ना’ भी मिलता है.
जीवन की कविता एक ओर जीवन से रू-ब-रू कराती है. दूसरी ओर जीवन विरोधी स्थितियों से संघर्ष भी करती है. अमित की कविताएँ इस संघर्ष को उसी स्तर पर अंजाम दे रही हैं जिस स्तर पर वो जीवन की वैविध्यता को प्राणवान बनाती हैं.
“एक ओर  पानी के सपने में  
भरी जा रही है रेत, 
दूसरी ओर  
बंजर जमीन पर बोए जा रहे हैं  
पानी के बीज” 
 “पूरी-पूरी रात पीटता रहता हूँ बंद दरवाज़े  
मेरे हाथ रक्ताभा से चमक रहे हैं “  
अमित की ये कविता मुझे अमित की कविताओं से उभरते संघर्ष का एक केंद्रीय भाव लिए हुए लगती है-
“मैं उन सपनों से डरता हूँ जिनमें शामिल नहीं मेरी मिट्टी, मेरी हवा, मेरे लोग/ ठेलना है तो मुझे चंद बहूटी के सपने में ठेल दो. जुगनुओं के यूथ में, या किन्हीं पक्षियों के झुंड में उड़ा दो. किसी पेड़ की शाख़ पर बैठा रहूँगा ताउम्र, किसी ठूंठ के कोटर में पड़ा रहूँगा/ मुझे किसी और की नींद न दो, किसी दूसरे के सपनों की ग़ुलामी न दो.”  
जीवन का कवि मूलतः प्रेम का कवि होता है. अमित प्रेम ऐसे करते हैं-
“भारी पहाड़ जैसी ठंड में, 
गर्म है देह, 
तुम्हारी हथेलियों की छाप वाले उपलों की तरह.” 
और
“मेरे सपनों में फेंक कर न जाना अपनी बोझ भर लकड़ियाँ, ऐसे न सुलगाना मेरी देह, 
सुलगती देह में, 
छींटना मत अपनी हंसी.”  
नरेश सक्सेना जी की लाजवाब कविता है ‘पुल को पार करने से, पार होता है लोहा लँगड, नदी में उतरे बिना, नदी पार नहीं होती.’ अमित परिहार की कसक अलग है- “ डेहरी को पार करने से, पार होता है जीवन, जीवन पार करने पर भी, पार नहीं होती डेहरी.”
अमित परिहार इलाहाबाद के वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य का एक अभिन्न हिस्सा हैं. ये परम्परा यूँ ही कायम रहे, यही कामना है. अमित को बहुत शुभकामनाएँ !
समकालीन जनमत के यशस्वी साथियों का विशेष शुक्रिया जिनके कारण हम सब एक कवि को क़रीब से जान पा रहे हैं.
अमित परिहार की कविताएँ

सुना! मां ने पुकारा खुद को खुद से
लगभग बुदबुदाते हुए
सुना सूप ने
सुना चकरी ने
कोमल फाहे सी आवाज़
मां को बनानी है दाल

मां के पास फेरहिस्त नहीं है
कठिन – सरल कामों की
उसके लिए सबसे कठिन काम वह है जो सिर्फ़ अपने लिए करती है
जैसे अपने अकेले के लिए बनाना खाना
सबसे सरल काम है उसके लिये
पूरे घर को पालना जिसमें शामिल है मठहवा बिलारी
कनीवा कुतिया

चकरघिन्नी की तरह नाचती हुई माँ
मेरे लिए सबसे कठिन है माँ को इस तरह देखना

एक जटिल क्रिया को ख़ूबसूरत बिम्ब में बदलने की
बीमार ख़्वाहिश!

अन्तराल में जारी है
फटकना दाल का
साठ पार बीमार और कमजोर मां की
तनी रीढ़ पर सधे और सख़्त हाथ की लयगति

ऐसे पाई शब्द में गुँथी अर्थछवि

मां को फटकते हुए देखा होगा कबीर ने
सार को गहने और थोथे को उड़ा देने का जतन
सीखा होगा मां से

कह सके होंगे
सार सार को गहि रहै थोथा देहि उड़ाय
जीवन के सार के बूते
संभव हुआ होगा थोथे से बच पाना

फटकने की सहायक क्रिया है पछोरना
फटकने में पछोरना साथ-साथ चलता है
जैसे बच्चे को डाँटते हुए दुलारना चलता है साथ-साथ
झापड़ मारना और पुचकारना
फटकना और पिछोरना

सार को गहना थोथे को फटकना
एक स्त्री से ही सीखा होगा दुनिया ने।

2. ढोलकिये और गवइये

फाग के दिन हैं
और जिंदगी वैसी ही है
बदस्तूर बेरंग
चिंताएं कायनात सी चढ़ी हैं सर पर
हल सुई के सुराख बने हुए हैं

फिर भी होली तो आ ही गई है
फगुआ तो होगा ही

फकीरे दाऊ पचासी की उमर में
चित्रकूट से जमना कछार
चल दिए होंगे अपने गांव दरियाबाद
होली ही है जब फकीरे लौटते हैं
वानप्रस्थ से गृहस्थ
गेरुए में बहुत सारे रंग लेकर

ढोलक की ताने कसते हुए
ढेकुलाई पेशियाँ भी कसते हैं
फकीरे
ठोक बजाकर देखते हैं
पचासी की उमर में
अभी कितना दम बाकी है
आखिर एक ढोलकिहा दस गवइये नाथता है
अपनी थाप पर

गवइये अपने भर्राए और फट चुके गले
सींच रहे होंगे
रियाज़ चल रहा होगा दिन-रात
मुलेठी, सौंफ और कालीमिर्च का कंछा
मार रहे होंगे अवरुद्ध कंठ पर
उठी हुई फाग और मद्धिम पड़ गई आवाज के बीच

कोई इसुरी को याद करेगा
कोई करेगा जपनापारी फाग की फ़रमाइश
पठारी फाग की नमी का कोई जोड़ नहीं
रंग में भी इतने रंग नहीं
जितने रंग फाग के

बैजनाथ बुन्देलखण्डी गा लेते हैं
मनउनी बहुत कराते हैं
बैजनाथ जितना तो गले से गाते हैं
उससे ज्यादा तो गाती है उनकी ठठरी

गवइये जो अभी सीख रहे हैं
नया-नया वह भी
फाग की चढ़ी हुई तान में
भरेंगे नई नई अँखुआई रेख की ऐंठ

जुगजियहिं सो खेल खेलैं होरी
बंसा-धुन्नी कै जोड़ी ।

3. मैं डरता हूँ इन हाथों के रेत हो जाने से

मैं डरता हूँ इन हाथों के रेत हो जाने से

डरता हूँ हृदय के
बाँझ हो जाने से
सूखती हुई रोशनाई से
सूखने लगता है मन

नींद छा रही है
पलकों-बरौनियों से उचककर झाँक रही है
मेरी आँखें
भार से मेरी पलकें झुक रही हैं
लुकाछिपी का खेल है चल रहा है
ख़ूब

मैं चाहता हूँ सो जाऊँ

अभी तो जगा हूँ
दशक भर की नींद से
मैं सोता रहा पूरा दशक किसी और की नींद
किसी और के सपने देखते हुए

मैं डरता हूँ
किसी और की नींद
किसी और के सपने में ठेले जाने से डरता हूँ

मैं नहीं जानता
कब कैसे कहाँ उठाकर
ठेल दिया जाऊँ किसी दूसरे की नींद में
दूसरे के सपने देखने के लिए

मैं डरता हूँ
उन सपनों से डरता हूँ
जिनमें शामिल नहीं मेरी मिट्टी मेरी हवा मेरा पानी
मेरे लोग

मैं डरता हूँ अपनी नमी खोते जाने से डरता हूँ
बंजर सपने देखते देखते मैं थक गया हूँ
वहाँ नहीं पहुँचने संदेश
नहीं होती कोई स्नेहिल सुबह
कोई उर्वर साँझ

ठेलना है तो मुझे चंद बहूटी के
सपने में ठेल दो
जुगनुओं के यूथ में
या किन्हीं पक्षियों के झुंड में उड़ा दो
किसी पेड़ की साख में बैठा रहूँगा ताउम्र
या किसी ठूँठ के कोटर में पड़ा रहूँगा

मुझे फिर से नहीं लौटना बेवतन
मुझे यहीं कहीं पड़ा रहने दो

मुझे किसी ताबूत में उतरने से
डर लगता है
कीलों के ठुकने की आवाज़ से
मुझे सोना नहीं है
मैं बैठा रहूँगा यहीं
यूँही नीद लेकर

मुझे बेहतर याद आ रहे हैं शमशेर
मुझे नींद की रेंत पर पड़ा रहने दो
अभावों के जंगल में भटकने दो
मुझे दे दो मेरे हिस्से का सुकरात
उसका जहर

बस किसी और की नींद न दो
किसी दूसरे के सपने की गुलामी न दो.

4. मेरे हाथ चूमकर चला गया कोई

( प्रेम के दस्ताने पहनकर सोया हूँ
हाथ मेरे खंजर हो गए हैं )

एक दरवाज़ा
बंद है
दरवाज़े के उस ओर कुछ चल रहा है
ठीक-ठीक पता नहीं
इस ओर क्या हो रहा संशय
मेरे आसपास बहुत से लोग बैठे हैं
सबने मजबूती से बंद कर रखे हैं दरवाज़े

दरवाज़ के एक ओर पानी के सपने में भरी जा रही है रेत
दूसरी ओर बंजर ज़मीन पर बोए जा रहे हैं पानी के बीज

दरवाज़े पर
न चौकीदार दिख रहा न साँकल दिख रही
न कोई घंटी
मैं जोर से धक्का देता हूँ
टस से मस नहीं हो रहा दरवाज़ा

एक महिला मेरे बगल में आकर बैठी गई अभी
जोर से हँस रही है
दंत पंक्ति में
झाँक रहे बंद दरवाज़े

वह देख रही है मेरे प्रेम के दस्ताने
उन पर कढ़ा सफेद कबूतर
और उसकी चोंच में दबा लाल गुलाब
इस दस्ताने के भीतर छिपे हुए मेरे हाथ
खंजर हो चुके हैं

कई और दरवाज़े बंद हुए
जब मिली होगी आग किसी चरवाहे को
कोई गोल आकृति जो पहिया बन गई होगी
और उसके बाद कलाबत्तू मशीनें आई होंगी और
आकाश में फैलाए होंगे इंसान ने पहली बार इस्पाती डैने
तब से

दरवाज़े के एक ओर देवता दूसरी ओर दानव के
नरेटिव में बनाई गई ठोक पीट कर दुनिया
दिखावे और पहनावें के बसुलों से
बनाये गए दरवाज़े
विलासिता के रन्दे से चिकनाए

बन्द दरव़ाजों पर दस्तक देते देते
लहू चू रहा हाथों से
कितने हैं थककर बैठ गए
कितने हैं जो बस पीट रहे हैं पीट रहे हैं
बंद दरवाज़े
जागरण में बेहोशी में नींद मे सपने में….

कुदाल फावड़ा हँसिया गोफना लिए
पीट रहे हैं दरवाज़े उस ओर के लोग
गुहार लगा रहे हैं दुंदुभी बजा रहे हैं
दरवाज़े के इस ओर छूट गई अपनी चीजों
के लिए

उनके पहाड़ चुराकर रख लिए हैं किसी ने
कोई उनके खेतों में बारूद बिछाकर लौट गया उस ओर
उनकी फसलों में घुल गया है विष

उन्होंने देखा है घर उठाकर भागे जा रहे लोगों को
देखी हैं उन्होंने रंग बिरंगी
टाइयांऔर कोट
फौज और फाटक

उनके बियाबान जंगल झरने पहाड़ रोज गायब हो रहे
रिपोर्ट दर्ज़ कराने की प्रतीक्षा में
शताब्दियों बीत गईं

किस भाषा में और कहँ दर्ज कराएँ अपनी रिपोर्ट
भाषा भी जाल की तरह बिछायी गई है
उनके इलाकों में
उसके भी बनाए हैं दरवाज़े
शब्दों के मजबूत कब्जे
न जाने कब से ऐसे ही मजबूत और सहायक
भाषा का तिलिस्म तोड़ते-तोड़ते
एक नई भाषा में लिखा गया है सन्देश
अपने गायब हुई चीजों की लिस्ट
बंद दरव़ाजों की बंद कुण्डियों में चुपचाप लटकाकर चले गए हैं लोग
पढ़े जाने की प्रतीक्षा करते लोग थक रहे हैं

कहाँ चला गया मैं
जिस कतार में लगा था
अपनी बारी की प्रतीक्षा करता हुआ
दरवाज़ा बंद हो गया है
दफ़्ती के एक छोटे दरवाज़ेनुमा टुकड़े पर लिखा ‘बंद’
झूल रहा है

उठकर चला आया हूँ घर
फ़िर एक दरवाज़ा
बंद है माथे पर
पीट रहा हूँ
पड़ोसियों के दरवाज़े बंद हैं
सुबह के दरवाज़े बंद हैं
प्यार के दरवाज़े बंद हैं
दोस्ती के दरवाज़े बंद हैं

मुझे लत हो गई है
बंद दरव़ाजों को खुलवाने की बेचैनी
बढ़ती जा रही है दिनोंदिन
मैं घर के दरवाज़े तोड़कर निकल आया हूँ
मैं पूरा पूरा दिन
पूरी पूरी रात ठोकता रहता हूँ बंद दरवाज़े
मेरे हाथ रक्ताभा से चमक रहे हैं
अभी अँधेरे में चले जा रहे कुछ लोगों ने
मेरे हाथ चूम लिए हैं !!

5. टपकती हुई आवाज़ों का कोरस

अर्धरात्रि का प्रहर है

मेरे नींद में उतरने की तैयारी पूर्ण हो चुकी
तख़्त पर रखी जा चुकी है कलम और मोबाइल
सोते हुए बच्चे का माथा चूमा जा चुका है
आज के लिए आख़िरी बार

रात्रि को सौंपता हूँ उसका सम्मान
सारी रोशनियां समेटता हूँऔर रख देता हूँ
अँधेरे में।

अधबुनी सी नींद का सवार
जिसे गिरना था नींद के पाले में
गिरा है
टपकने की आवाज़ की झिल्ली पर
झिल्ली के एक तरफ़ नींद है
दूसरी तरफ़ लगातार टोटी से टपक रही
जलबूँदों की आवाज़

सोचता हूँ
कहाँ तक जाएगी ?
ये क्षरण की आवाज़

बगल में सो रही पत्नी की नींद में
(जिसे प्यार में डूबना था वह नींद में डूब चुकी है
ऐसी ही एक झिल्ली चली आयी है हम दोनों के बीच)
इन दिनों ऐसी ही धीमी टपकने की
आवाज़ में कम हो रहा है प्रेम

कहाँ-कहाँ टपकेगी ये बूँद

भव्य इमारत के सेन्ट्रल हाँल से
जहाँ जनता ने रख दिए हैं अपने भविष्य के स्वप्न
सौंप दिया है अपना भरोसा आगे आने वाले कई
वर्षों के लिये
जहाँ कहीं भी ली जाएंगी शपथ उनकी प्रतिज्ञाओं से

पानी अभी भी टपक रहा है
और ये महीन झिल्ली और मजबूत होती जाती है

मैं उठता हूँ और याद करता हूँ आबिद सुरती को
पूरे जतन से कसता हूँ टोटी
बूंद-बूंद पर रखता हूँ नजर
कान धरता हूँ नल पर
आश्वस्त होकर लौटता हूँ
अब ठीक है !

पर ये क्या फ़िर वही आवाज़
वही टपकना

कुछ समय और बीता तो
अभ्यस्त हो जाऊंगा ऐसी
टपकती हुई आवाज़ों का
रीतते हुए संबंधों का

मैं पत्नी को आवाज़ देता हूँ
हिलाता हूँ उतरता हूँ उसकी नींद के भीतर
एक लाल खिला हुआ गुलाब लेकर
जिसकी कुछ पंखुड़ियां गिर गई हैं
और एक समूचा गुलाब देने की चाहत
फ़िर अधूरी रह गई है

चिड़ियों की आवाज़ आ रही है
शायद सुबह हो गई है
खिड़की का पर्दा हटाता हूँ
सुबह का आभास लिए एक बुलबुल
एक बूद की तरह उड़ गई अभी

एक वैसी ही टपकने की आवाज़
बारह से आ रही है
शायद कोई टोटी वहाँ भी ढ़ीली रह गई है।

6. मुझे तुम्हारे प्यार में पड़ना था

सारा-सारा दिन

सारी सारी रात
पड़ा रहता हूँ प्यार में

दूरबीन से देखता हूँ
आकाश मेरा घर

मुझे तुम्हारे प्रेम में पड़ना था

मैं आकाश के प्रेम में पड़ गया
मुझे चिड़ियों से प्रेम हुआ
भूरी कल्ली और कानी कुतिया से प्रेम हुआ
मैं जहाँ गया वहीं प्रेम हुआ

मैं रिक्शे में बैठा
और मुझे रिक्शा चलाने वाले बूढ़े से प्रेम हुआ
विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी डिग्री हासिल कर चुकने के बाद
मुझे एक लावारिस कुतिया और उसके तीन बच्चों से प्रेम हुआ
बाद में वे बच्चे मर गए पर मेरा उन बच्चों से प्रेम बचा रहा

मुझे पढ़कर उड़ आए किसी दूसरे के तोते
और एक दूसरे पंख अँखुआए तोते से प्रेम हुआ
तोते तो उड़ गए पर प्रेम बचा रहा

मुझे उस झल्लर से प्रेम हुआ जिसने मुझे कझा आठ की गर्मियों में ख़त लिखा
जिसे मैं आज भी बाँचता हूँ

मैं जहाँ भी जाता हूँ गाहे बगाहे प्रेम में पड़ ही जाता हूँ

मुझे मेस के बूढ़े बिरजू से प्यार हुआ जिसका पता मैं खोज़ रहा हूँ पिछले कई दिनों से

मुझे दीवार पर ईंट रखते हुए कारीगर से प्यार हुआ
मैं आज भी झाँक आता हूँ और बेनीमाधव और बबुल्ला की डेहरी

कभी -कभी मैं अपने दुश्मनों के प्रेम में पड़ जाता हूँ और उनकी अच्छाइयां खोजने लगता हूँ

अभी ताजा ताजा प्रेम हुआ है मेरे सपने से
और मैं तीन तिमाही से बिना बेतन के
सपने से प्यार में पड़ा हूँ
मुझे प्यार हो जाता है किसी भी जूझते हुए आदमी से

मैं भी जूझने लगता हूँ प्यार में पड़कर
मुझे तुम्हारे प्यार में पड़ना था
दुनिया ज़हान के प्यार में पड़ा हूँ

7. मित्रता सूची से बाहर करने पर विचार करते हुए

उधेड़बुन

फेसबुक की
मित्रता सूची से
गांव के भुल्लन त्रिवेदी को
अन्फ्रेंड करना चाहता हूँ

ये कोशिश पिछले कई माह से चल रही है
मैं फ्रेन्ड लिस्ट में खोजता हूँ ये नाम
ठीक ओके पहुँचकर दिख जाता है
कोई न कोई ठीहा

पहली जब ये विचार आया
गाँव वाली रिंद नदी दिख गई
दूसरी बार दिख गया नवलखा बाग

एक बार जब उँगली रख ही दी थी
डिलीट ओ के पर

भुल्लन त्रिवेदी के साथ दिख गए
भान दाऊ ! ये होली की तस्वीर थी
भुल्लन सटकर बैठे थे भान दाऊ से
दाऊ की मुखाकृति पर
अटका हुआ अलाप था कोई
या अन्तिम उठान थी फगुआ की

मैं उन पंक्तियों में खो गया
‘महला दुमहला मनही न भावै
टूटी मडइया के राज़ी बमभोला महादेव वैरागी’

मेरा दिल बैठ गया

भुल्लन त्रिवेदी अबकी बार भी बच गए !

हर बार जब खुन्नस बढ़ जाती है
मैं बैठ जाता हूँ फ्रेन्ड लिस्ट खोलकर

अबकी बार गाँव का सबसे पुराना बरगद दिख गया
तोतों का विशाल झुंड बैठा हुआ
दरख़्त के हर कोटर से कोई न कोई चेहरा झाँकता हुआ
एक बूढ़ा गिद्ध भी दिख गया
बूढ़े गिद्ध में दिख रहे हैं भुल्लन त्रिवेदी

फ़िर मैं सोच में पड़ गया हूँ
भुल्लन त्रिवेदी को फ्रेंड लिस्ट से हटाता हूँ तो

आज ये दशकों बाद दिखा गिद्ध कहाँ जाएगा ?
एक सपने में बसे हुए दृश्य की फ़िर हत्या करते हुए
कहाँ जाऊँगा मैं ?
मैं जानता हूँ अब ये दृश्य
राष्ट्र निर्माण की नीतियों और
किसी राष्ट्रीय अख़बार की चिंताओं में शामिल नहीं हैं
न ही शामिल है मेरी नदी
न ही शामिल है मेरा बूढ़ा बरगद
सच तो यै है कि भुल्लन त्रिवेदी भी शामिल नहीं है

आज भुल्लन त्रिवेदी फिर बच गए हैं
और शायद !
भुल्लन त्रिवेदी में बच गया हूँ मैं !!

8. मुझे नीली बकरी अच्छी लगती है

मैं छोटा हूँ

मेरे हाथ अभी छोटे हैं
खिलौनों तक नहीं पहुंचते मेरे हाथ

मुझे तारे पसंद हैं और चन्दा मामा भी
मैं जब गांव जाता हूँ सब आते हैं मेरे पास
मेरी छत पर मुझसे मिलने
जब मैं आता हूँ गाँव से लकनऊ
मेरे साथ-साथ आते हैं दूर तक छोड़ने

मेरे साथ खेलने आती हैं गाँव में मोर
छोटे-छोटे डागी भी आते हैं
मेरा दोस्त भी आता है गांव में खेलने

मैं गाँव से आ जाता हूँ पापा के साथ लकनऊ
सब रह जाते हैं गाँव में
मेरी दादी भी गाँव में रहती है नानी भी
दादी मुझको किस्से सुनाती है गाँव में
मुझे भूत वाले किस्से अच्छे लगते हैं परी वाले भी
पापा गोरीबहू का किस्सा सुनाते हैं
किस्सा सुनने में मुझे आ जाती है नींद

मुझे लखनऊ में अच्छा लगता है
और गाँव में भी
मेरे हाथ छोटे हैं मैं चंदा मामा को छू नहीं पाता
मेरी गाड़ी छोटी है चंदा मामा साथ नहीं ला पाता

मैं मम्मा को प्यार करता हूँ
और पापा को भी
मम्मा कहती है पापा अच्छे नहीं हैं
पापा कहते हैं मम्मा अच्छी नहीं है
दोनों अच्छे हैं दोनों मानते ही नहीं
दोनों गन्दे हैं
नहीं-नहीं दोनों अच्छे हैं

मेरी किताबें मेरे कलर मेरे पास नहीं हैं
ऊँची अलमारी में रक्खे हैं
मेरे हाथ छोटे हैं
मुझे कलर करना अच्छा लगता है
मुझे सारे रंग अच्छे लगते हैं
मुझे नीली बकरी अच्छी लगती है
पापा मुझको लाल खरगोश नहीं बनाने देते
पर कान खींचकर लाल बना देते हैं।

9. कोलाज़-१

दरवाज़े के पल्लों पर
छापे हुए तुम्हारे हाथ
गाढ़ा उनका सौंदर्य आज भी
जिन्दगी में जब भी कोई दरवाज़ा बंद होता है
उभरती तुम्हारे हाथों की रक्ताभ छवि
उन्हीं के सहारे खोलता हूँ
बंद दरवाज़े
पार करता हूँ कुछ ढहे हुए मकानों की ढूह

दरवाज़े पर
वर्षों से खड़ी नीम में
अँखुआए कोंपल सी
खिल जाती है तुम्हारी हँसी

आज भी ठिठका खड़ा हूँ
उन्हीं पगडंडियों पर जिनपर चलते हुए
तुम्हारे पैर डगमगाते
गिरने के उस हर एक पल में मैं तुम्हें थाम लेता
आज भी हर मौसम में अड़ियल घास की तरह उगता हूँ
उन्हीं पगडंडियों पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में रौंदा जाता हर बार

भारी पहाड़ जैसी ठंड में
देह गर्म है
तुम्हारी हथेलियों की छाप वाले
उपलों की तरह

घर की दीवारों पर
पुते हुए चूने पर छूटे रह गए
तुम्हारे हाथ
कनात की तरह छाते
ओसारे की दीवार पर ढरकती हुई बूँदें
बनाती हैं
तुम्हारी तस्वीरों का कोलाज़

२००३ की शीत ऋतु की कोई तारीख़.

10.

कोलाज़-२

१-
मुझे ख़ुशबू परेशान करती हैं इन दिनों
तुम्हारे होने से होकर आई हों तो और
पोर-पोर रेशे-रेशे जागती हैं स्मृतियाँ
नींद में बेचैन

किंवाड़ दर किवाड़ खुलते जाते हैं
कहीं बारिश हो रही है
इस पार मैं
ओरतियों के उस पार खड़ी होती हो तुम

कहीं अंधड़ आता है
और उड़ा ले जाता है मुझे
और इस पर भी तुम्हारा हँसना !

कहीं नाटक चल रहा
निबौलियों के हार पहने रानी बनी हो
और मैं राजा होकर जंगल में लकड़ियाँ काटता हूँ

कहीं मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ
तुम हो कि किंवाड़ की आड़ लिए रहती हो

और फ़िर आता है वो आख़िरी किवाड़
जो मुझे ला खड़ा करता है
निहत्था, बेज़ुबान और परवश
खुली सड़क पर बीच चौराहे

सुगंध हैं? कि स्मृतियाँ हैं? कि दुश्मन ?
कुछ पता नहीं चलता
बेनाम बेपता चिट्ठियों सी लिखावट
सुगंधों का ठाठबाट सहन नहीं होता
बेतरतीब धु्ँधली धूसर स्मृतियों का कोलाज़

२-
और आते हैं दृश्य
ओस और कुहासे में सनी सुबह
सुबह-सुबह ही हल की फाल से चीरे गए खेत की देह सा
चिरता है मन
कहीं भी कभी भी पहुंचने की फ़ितरत भरी
तुम्हारी याद

चूल्हे से उठते हुए धुँए और धीमी आँच में
सम्भावनाओं के रीत जाने में मेरा बचना
और धीमी आँच में पकना
ठंड से घिरी साँझ में
ये भी कोई फ़ितरत है

३-
तुम्हारी स्मृतियाँ
अलाव से धुँधुआते आँगनों से उठेंगी
और चली आएंगी
जहाँ कहीं हर वक़्त घर कर जाएंगी चुपचाप
और निःशब्द फूटेंगी आत्मा पर जब चाहेंगी
और मैं आत्मा पर पड़ा छाला लिए
किसको दिखाउंगा

४-
एक रात
आकाश के सीने पर और मेरे भी चाँद
उगेगा और बिखर जाएगा

५-
एक हवा झोंका
मरियल नदी
और खोड़हे जंगलों से उलझता
गुजरेगा तुम्हारी और मेरी
मुंडेरों से दूर जाता हुआ
बुन देगा सुगंधों की कायनात
मैं रीत जाऊंगा।

11. मिट्टी

जड़ से उखाड़ा जा रहा पेड़़ मिट्टी
और बहुत विशाल किला जो ढह गया मिट्टी
एक सबल साम्राज्य खो गया मिट्टी में
राजा मिट्टी का रानी मिट्टी की सिपहसालार मिट्टी के
मिट्टी का राजदरबार रत्न आभूषण झूमर झाल मिट्टी
सिंहासन मिट्टी का
सिंहासन पर चढ़ा तानाशाह मिट्टी का
तानाशाह के फ़रमान मिट्टी के
तानाशाह की हर बात मिट्टी की

मिट्टी में बोई जा रही हैं फसलें
लहलहा रही हैं हरियर
फूल खिल रहे हैं
कीट पक्षी मनुष्य गुनगुना रहे हैं

सोने हीरे रत्न जवाहरात के लिए
लड़े जा रहे हैं युद्ध
रक्त से सींची जा रही है मिट्टी
रक्त के मिट्टी होने तक लड़े जाएंगे युद्ध

एक औरत जो खिलखिला रही थी
लोटपोट हो रही थी अभी
लोहे की गोली दागी गई है सीने पर
मिट्टी हो गई

एक बच्चा चाँदनी रात अपने
मेमने के साथ खेल रहा था
मासूम छोटी बहन मेमने की पूछ
खींचे जा रही थी

धमाके की
तेज आवाज़ में
डूब गया यह सुंदर दृश्य
धूल और धुँए के गुबार में

मिट्टी के भीतर मिट्टी पल रही
मिट्टी की पहचान मिट्टी को
तारीख़ों और तारीख़ों से भी पहले
न जाने कब की ये पहचान

मिट्टी के असंख्य ढूहों को पार करते चले आ रहे हैं लोग
तलवारें ,तोप और भाले मिट्टी बनाने के
उपक्रम की तरह सजाए गए हैं कतारों में
पहाड़ों की कोख में बिछाए गए हैं बारूद के ढेर
मिट्टी का स्वप्न लिए नींद में
पल रही है सभ्यता
मिट्टी के लोंदे की

हल ,कुदालें और फावड़े
तैयार हैं बनकर
अपना हुनर दिखाने के लिए तैयार हैं
किसान और कारीगर
ढहती हुई सभ्यता के कोटरों में
फिरसे रचने को जीवन
मिट्टी में।

12. टेढ़बकुला

ये टेढ़बकुला ठिगना महुवे का पेड़

महुली
बड़े-बड़े छतनार पेड़ों के बीच
सबसे छोटा

इसका रंग रूप और आकार
किसी दूसरे की नमी सहेजते
टपक गया होगा किसी भोर
महुवों के साथ
कोई उठा ले गया होगा घर

बच्चे खेलते हुए छुई-छुवउहल
चढ जाते हैं
इसी टेढ़बोकली में धाँय से

ऐसे ही किसी दिन बच्चे खेल रहे होंगे
और यह दुलार में
मुन्ना पीलवान के हाथिनी की तरह पसर गई होगी
बच्चों के कूदने-उतराने में
शामिल हो गई होगी ये टेढ़बोकली

महुवों के झुंड में
सबसे मीठे महुवे इसी के हैं

गांव के जंगल में एक शेर रहता है
शेर में रहती है दहाड़
और इसी दहाड़ में
एक आदमी फँस गया
वह भी चढ़ा इसी महुली के पेड़ में

धीरे धीरे हमने जाना
जीवन में जो भी बचा
बचाया टेढ़बकुलों ने

एक्सीडेंट के बाद हस्पताल
एक ऐसा ही टेढ़बकुला लेकर गया
बीमार पड़े तो
एक ऐसा ही टेढ़बकुला आदमी
बहलाता रहा दिल
जब उधारी का सिलसिला चला
ऐसे ही टेढ़बकुलों ने दिया साथ

दउआ पासी,बाजपेयी महराज,रामप्रसाद,
झल्लर,लंगड़ उस्ताद
जब भी देखता हूँ इन्हें
टेढ़बकुली महुलियों का बाग दिखता है

गर्वोन्नत विशाल सरपट पेड़ पर चढ़े
तो आज भी बाट जोह रहे हैं
कोई उतार ले
पावों को दे दे ज़मीन

मुझे पता है
एक दिन

कोई ऐसा ही
टेढ़बकुला कमजोर आदमी
मेरे काँपते हुए पैरों के नीचे
अपने काँध रख देगा

और मेरे पावों को
मिल जाएगी ज़मीन।

13. मां जिस दिन देर से सोकर उठेंगी

मां का जी नासाज़ है

पैर दुखते हैं
एक हाथ पूरा नहीं उठता वर्षों से
कुव्वत कम हुई है साठ के बाद की उमर में

सबसे पहले भोर से तनिक पहले
माँ ही उठती हैं सबसे पहले
लगता है जिस दिन माँ देर से उठेंगी
भोर नहीं होगी
चिड़ियाँ चुप रहेंगी आहट लेती हुई सुबह की
महुवे नहीं टपकेंगे उस दिन देर तक
जिस दिन माँ नहीं उठेंगी भोर में

पड़ी रहेंगी बिस्तर पर गुमसुम
चौके में गरमाहट नहीं होगी
रोटियों के आकार को पृथ्वी कहने का सहूर खो देगी दुनिया
मिर्च का पौधा मुर्झाया रहेगा उस दिन
आवारा कुत्ते ताक-ताक कर लौटेंगे दुआर

जीवन का बोझ ढोते-ढोते मां के पैर दुख रहे
समय के उस छोर से इस छोर तक चला आया दुख..
इस दुख से न बादल रोया,न समुद्र अफनाया
कोई नहीं रोया

दादी-नानी-काकी-बड़िअम्मा-बुआ-परपरुआ दाई
जब भी मिलतीं बैठतीं हैं
अपने गीतों में रोतीं साथ-साथ
किस-किस की कोख में पलेगा कायनात-सा दुख
समय के किह छोर तक जाएगा
बन्नी,चीकट,कनहर,निहारन,अइपन,सोहर में कब तक गाया जाएगा ?

गीतों से हल्का हुआ दुख बार-बार कब तक लौटेगा ?
यूं ही

14. लामा की सुवासिन

(‘सुवासिन’ -“एक ऐसी कुँआरी या विवाहिता स्त्री जो अपने पिता के घर में रहती है.”)

एक स्त्री अपने वर्तमान में
कहावत बनते हुए
अपने नाम से नहीं पहचानी जाती
लोग जानते हैं…
गांव के नाम से,काम के नाम से

लामा की सुवासिन
कहावत बनकर भी
अपने नाम से नहीं जानी गई

एक स्त्री धान कूटती हुई धनकुटनी
एक स्त्री पानी भरते हुई पनिहारिन
एक स्त्री पान बेचती हुई तम्बोलिन
एक स्त्री चूड़ियाँ पहनाती हुई चुरिहारिन

एक स्त्री को उसके नाम से न जानने में
शामिल है सभ्यता की बहुत सारी कतरब्योंत

अपना नाम भूल चुकी स्त्री
याद रखती है अपना काम

एक स्त्री अपने नाम से कब जानी जाती है?

एक स्त्री सबकुछ याद रखती है —
घर भर की इच्छाओं और जरूरतों का खयाल
घर का हिसाब-किताब लेन-देन

वह जानती है
नींव का इतिहास
और दीवारों-मुंडेरों पर भटकती है
ईंट,अलगनी और तख़्त पर रख
दीये सा भूल जाती है जीवन

वह अपना नाम बुलाये जाने पर चुप रहती है
देर तक ताकती है चेहरे
अपने नाम से किसी और के
उठकर चले आने की प्रतीक्षा करती है स्त्री

एक मुस्कराती हुई स्त्री
ये नहीं जानती
ये मुस्कराना क्यों है?

15. ठंडी चाय

टेबल चाय रखे-रखे

ठंडी हो चुकी है
सोचता हूँ !
बेसिन में ढरका दूँ

फिर सोचता हूँ !
हरी चाय में क्या-क्या है ?

हरी चाय की पत्तियां हैं
पानी जिसमें ऊष्मा घुली हुई है
साथ में स्त्री का श्रम

ठंडी चाय से –

सबसे पहले ऊष्मा
अपना सबकुछ
समेटकर जा चुकी है

चाय की हरी पत्तियों का स्वाद
कसैला हो चुका है

स्त्री के श्रम का क्या करूँ ?
समझ नहीं पाता हूँ !
हमारी भाषा में
संस्कृति में

न उसका रंग है !
न कोई स्वाद है !
न कोई गणना है !

संस्कृति के पक्ष में हूँ

उठता हूँ
अपने पूरे ज्ञान का अहंकार समेटकर
चाय को बेसिन में
बिना किसी आवाज़ के
ढरका देता हूँ !

(कवि अमित एस. परिहार उत्तर प्रदेश सरकार में ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी के पद कर तैनात हैं. जन्म 1 जून 1981 को यूपी के फतेहपुर ज़िले के गाँव जबरजस्त खेड़ा में हुआ. बुंदेलखंड से सटा हुआ ये इलाक़ा अवधी, बुन्देलखण्डी और पश्चिमी खड़ी बोली का सम्मिश्र क्षेत्र है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए.स्वर्ण पदक के बाद वहीं से डी.फ़िल. की उपाधि ली. यहीं पर 2007-08 में  UGC के एक प्रॉजेक्ट में फ़ेलो रहे. पढ़ाई-लिखाई के दौरान छात्र संगठन आइसा से जुड़ाव के चलते छात्र-संघर्षों में हिस्सेदारी का मौक़ा भी मिला.
छात्र जीवन में अनियतकालीन साहित्यिक-वैचारिक पत्रिका ‘बतकही’ का सम्पादन भी किया. कई पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. पहली कविता 2002-03 में ‘उत्तर प्रदेश ‘ पत्रिका के संभावना विशेषांक में प्रकाशित हुई थी. 2007 में भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा “दशरथ मांझी “और “दुर्गा दादा ” कविताओं पर युवा कविता का प्रथम पुरस्कार मिला. सम्पर्क: 7007987800  मेल: ideas9415485894@gmail.com

टिप्पणीकार रविकान्त पेशे से पत्रकार हैं. पोस्ट ग्रेजुएशन तक की शिक्षा इलाहाबाद से लेने के बाद बनारस से पत्रकारिता की शुरूआत हुई. कुछ वर्ष लखनऊ में कार्य करने के बाद पिछले एक दशक से नॉएडा में एक टेली’विज़न संस्थान में कार्यरत हैं. भारतीय ज्ञानपीठ से एक कविता संग्रह ‘यात्रा’ नाम से प्रकाशित है. जिसे युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है. संपर्क:ravikantabp@gmail.com        फ़ोन : 9953680604

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