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वीरेन डंगवाल की याद में संगोष्ठी और कविता पाठ

वीरेन की कविताएं काली ताकतों की पहचान करती हैं – कौशल किशोर
अलका पांडे, सीमा सिंह, शालिनी सिंह और श्रद्धा बाजपेई ने कविताओं का पाठ किया
ये कविताएं पितृसत्ता को चुनौती देती हैं – उषा राय

हिंदी के प्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की याद में जन संस्कृति मंच की ओर से संगोष्ठी और कविता पाठ का आयोजन शिरोज हैंग आउट, गोमती नगर, लखनऊ में किया गया। इसकी अध्यक्षता कवि व कथाकार उषा राय ने की तथा जसम लखनऊ के संयोजक युवा कथाकार फ़रज़ाना महदी ने संचालन किया।

मुख्य वक्ता थे कवि और जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर । वीरेन डंगवाल की कविताओं पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि इनकी कविता के कई शेड्स हैं, अनेक रंग हैं। वहां ऐसे विषय पर भी कविताएं मिलती हैं जो आमतौर पर अछूते रहे हैं। वीरेन के जीवन और कविता में कहीं बनावटीपन नहीं दिखता बल्कि इसके बरअक्स अनौपचारिकता छलछलाती हुई नजर आती है। उनके यहां अपनों के प्रति अतिशय प्रेम और अपनेपन की मिठास है, वहीं शोषक और लुटेरी काली ताकतों की पहचान है। जब वे कहते हैं कि ‘आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे’ तो यह परिवर्तन का आशावाद है। इस उम्मीद को वे लगातार जिलाए रखते हैं। इस मौके पर वीरेन डंगवाल की ‘सूअर के बच्चे’, ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘प्रेम कविता’ आदि कविताओं का पाठ भी हुआ।

दूसरा सत्र युवा कवयित्रियों के कविता पाठ का था। इस मौके पर अलका पांडे, सीमा सिंह, श्रद्धा वाजपेई और शालिनी सिंह ने अपनी कविताएं सुनाईं। इनकी कविताओं में एक तरफ स्त्री जीवन की विडंबना की अभिव्यक्ति थी, वहीं सामाजिक व्यवस्था पर चोट भी । अलका पांडे अपनी कविता में कहती हैं ‘पुराने जमाने में पानी शुद्ध होता था/पानी अब कहां बचा /धरती का पानी अशुद्ध है /आंखों का पानी मर चुका है’। एक अन्य कविता में वे कहती हैं ‘जिस घर में रहती हूं/वह मेरा अपना है/ददिहाल मेरा अपना है/ननिहाल मेरा अपना है/ यहां पर बिताया/और वहां पर निभाया/यह है पितृसत्ता की चाल’।
सीमा सिंह ने ‘कील’, ‘इमामदस्ता’, ‘ईश्वर’ आदि के साथ कोरोना काल में लिखी ‘इन दिनों’ सुनाई। इसकी त्रासदी को यूं व्यक्त किया ‘सब्जी वाले की गुहार पर निकलता है मालिक मकान/ पूछता है नाम/ बताने पर अपना नाम जुबेर /दिखाता है मालिक मकान आंखें/ देता है धमकी/गली में दोबारा कदम न रखने की/कितना अजीब है ना /सब्जियां ताजी हरी नहीं/हिंदू और मुसलमान हो गई है’। इसी तरह श्रद्धा वाजपेई कहती हैं ‘जब मैंने चाहा /तुम्हारे शहर ने मेरे पंख काट दिए/जब मैंने दामिनी बन चमकना चाहा तुम्हारे शरीर ने मुझे राजनीति का मोहरा बनाया’। अपनी कविता में शालिनी सिंह कहती हैं ‘मेरे पुरखे किसान थे/ मैं किसान नहीं हूं/मेरी देह से/ खेत की मिट्टी की/कोई आदिम गंध नहीं आती पर…मेरे मन के किसी पवित्र कोने में/सभी पुरखे जड़ जमाए बैठे हैं /उनकी आंख का पानी मेरी आंखों में रहता है’।
इन कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कवि और कथाकार उषा राय ने कहा कि यहां पढ़ी गई कविताएं अच्छी और जरूरी कविताएं हैं । स्त्री मन को व्यक्त करती हैं। ईश्वर को लेकर सच्ची बात की गई कि जब उसकी जरूरत पड़ती है वह नहीं होता। कविताएं स्त्री जीवन की मुश्किल को सामने लाती हैं। आज भी हमारा समाज ऐसा नहीं बना जो पढ़ी लिखी स्त्रियों को बर्दाश्त करें । ये कविताएं पितृसत्ता को चुनौती देती हैं। इन कविताओं में विस्तार है। ये किसान आंदोलन और सरकार की जनविरोधी क्रियाकलाप को सामने लाती हैं। उषा राय ने वीरेन डंगवाल को उनकी प्रेम कविताओं के माध्यम से याद किया और कहा कि उन्होंने पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत जैसे कवियों की कविताओं का अनुवाद करके उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाया।
इस अवसर पर शिवमूर्ति, राकेश, भगवान स्वरूप कटियार, मीना सिंह, आदियोग, आशीष सिंह, आर के सिन्हा, रामायण प्रकाश, प्रमोद प्रसाद, अनिल कुमार आदि मौजूद थे । धन्यवाद ज्ञापन जसम लखनऊ के सह संयोजक शायर मोहम्मद कलीम खान ने दिया।
ज्ञात हो कि जन संस्कृति मंच लखनऊ के फेसबुक ब्लॉग की शुरुआत वीरेन डंगवाल की चुनिंदा कविताओं के पाठ से हुई। ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’, ‘पीटी उषा’, ‘तोप’, ‘मसला’, ‘हमारा समाज’ के साथ उन दो कविताओं का भी पाठ हुआ जिन्हें वीरेन डंगवाल ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में लिखा था जब वे कैंसर से बुरी तरह ग्रस्त हो चुके थे।

फ़रज़ाना महदी
संयोजक
जसम लखनऊ

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