समकालीन जनमत
कहानी

हेमंत कुमार की कहानी ‘धरमदास की गाय’

हेमन्त कुमार


कातिक महीने की सांझ ढलने वाली थी। दीपावली बीत चुकी थी, छठ आने वाली थी। बहुत धीमी पुरवैया के चलते मौसम मे थोड़ी ठंड थी । गांव के पूर्वी सिवान मे दूर-दूर तक पछेती धान की फसल फैली हुई थी। जिस वक्त पूरी सिवान को सोने की थार सा दमकना चाहिए था, उस वक्त पूरी फसल जमीन पकड़ कर अपने ऊपर सावन-भादो की काली घटा ओढ़ ली थी। पूरी सिवान काली चादर सी ढंकी हुई थी मानो बंटाईदारों के थके कलेजे का खून धान की फसल पर पसर कर काला थक्का बन गया है। उसी खून के मलबे में दूर-दूर तक तमाम बंटाईदार अपने-अपने हिस्से में किसी बिजूके की तरह चुपचाप खड़े होकर अपनी किस्मत को निहार रहे थे।
उन्हीं अभागों में एक धरमू भी था- धरम दास। अभी मात्र दस रोज पहले जबरदस्त फसल को देखकर उसकी आंखों में तरह-तरह के सपने हिलोरें मार रहे थे। उसने अपने मां-बाप की तरह बड़े सपने देखना तो उसी दिन छोड़ दिया था जिस दिन वह सालों अथक मेहनत के बावजूद सरकारी नौकरी पाने में असफल रहा था। वह अपने मां-बाप की तरह किसी बड़े सपने की आस लेकर मरना नहीं चाहता है। उसकी जिंदगी में अब छोटे से छोटे ख्वाब रह गये हैं। किसी के कर्ज का बोझ न हो। शांति से दोनों जून पेट भरने को भोजन मिल जाय। दोनों बच्चों की पढ़ाई में कोई बाधा ना आये। बुरे वक्त के लिए साथ मे कुछ पैसे हो।
धीरे-धीरे अंधेरा गहराने लगा। धरमू चुपचाप घर के लिए लौट पड़ा। यह पूरी सिवान बबुआन की है। पिछले सालों बबुआन ने जमीनें तो काफी बेची, लेकिन इस सिवान को छोड़कर। करीब दस सालों से बबुआन ने अपने हाथ से खेती करना छोड़ दिया है। वैसे तो वह अपने हाथ से कभी नहीं किया, लेकिन ट्रैक्टर के बहुतायत हो जाने पर कुछ साल जरूर हाथ आजमाए। जब कुछ हासिल नहीं हुआ तो बंटाईदारी पर दे दिए। इसी सिवान में बस्ती के पूर्वजों के सवा सेर सांवा और एक लोटा मट्ठे पर हाड़-मांस गल गये। अब उनके वारिसों की बारी है।
धरमू विगत दस सालों से बंटाई की खेती कर रहा है। बाबू हरिकिसुन सिंह उसके पुश्तैनी मालिक हैं। उसका घर और पांच बिस्वा खेत अभी भी उन्हीं के नाम है। धरमू के मां-बाप को लगा कि उसका बेटा पढ़-लिख कर नौकरी कर लेगा तो आसामी का रिश्ता हमेशा के लिए टूट जाएगा लेकिन उनकी यह आस हल-जुआठ के नीचे पिस कर दम तोड़ दी। धरमू ने कई बार सोचा कि वह भी दिल्ली-बंबई जाकर कोई मजदूरी-धंधा करे लेकिन हर बार घर का मोह उसे बाँध लेता। जब पिछले लॉकडाउन में मजदूरों की दुर्दशा देखा तो वह हमेशा के लिए बाहर जाने का इरादा ही छोड़ दिया।
धरमू का घर घनी बस्ती के बीच में है। घर तो बहुत छोटा है। फिर भी उसके छोटे परिवार के लिए ठीक है। मिट्टी की दीवाल पर पहले खपरैल हुआ करता था। अब सीमेंट की चादर है। पांच पट्टीदारों के बीच सामूहिक दुआर है जहां पर बल्ब की मद्धिम मटमैली रोशनी फैली हुई थी। दुआर के बीच में नीम का पेड़ है। पेड़ के नीचे नाद के सामने उसकी गैया बंधी हुई थी – नख-सिख तक बिल्कुल काली, माथे पर सफेद टीका। छोटी सी सुडौल। सुंदर तो इतनी कि जो देखे, देखता ही रह जाये। गाय उसे देखकर धीरे-धीरे हुंकार भरने लगी। धरमू उसके समीप जाकर उसका माथा सहलाने लगा और वह उसे चाटने लगी। गाय जब स्थिर हुई तो धरमू चुपचाप बरामदे मे पड़ी चारपाई पर लेट गया। दीपावली में घर की सफेद मिट्टी से पुताई हुई थी जिसकी सोंधी गंध अब भी बरकरार थी। उसकी पत्नी बिमला घर के अंदर खाना पका रही थी और बरामदे में दूसरी तरफ दोनों बच्चे, बारह साल की बेटी शीतल और दस साल का बेटा नीरज पढ़ रहे थे। उसको देखते ही वे कुछ पल उसे टुकुर-टुकुर निहारते रहे, फिर चुपचाप पढ़ने मे मशगूल हो गये।
धरमू के जेहन में लगातार धान की फसल और उसमें लगी हुई लागत गूंज रही थी। लागत तो हर साल बढ़ती ही जा रही है। पूरे सिवान के किनारे छुट्टा पशुओं से रखवाली के लिए तमाम मचान गड़े हुए थे। दिन-रात एक कर खेत की रखवाली हुई थी। धान की ऐसी बढ़िया फसल कभी नहीं थी। समय-समय पर बरसात हुई। सही समय पर फसल का विकास हुआ। धान की लंबी बालियों के साथ बंटाईदारों के सपने हिलोरे मारते। एकाएक सब कुछ नाश हो गया। अभी फसल पकने के लिए तैयार हो रही थी कि दीपावली के हफ्ते भर पहले आधी रात को तेज तूफान के साथ भीषण बरसात शुरू हो गयी। तूफान इतना तेज था कि सिवान के सारे मचान उड़ कर दूर जा गिरे। किसी तरह लोग जान बचाकर घर भागे थे। सुबह जब बरसात बंद हुई तो पूरा गांव सिवान की तरफ दौड़ा। पूरी सिवान तालाब में तबदील हो चुकी थी और फसल गिरकर पानी मे समा गयी थी। बंटाईदारों के साथ – साथ किसानों के भी आंखो का पानी मर गया।
धरमू को अहसास हुआ कि सामने कोई खड़ा है। उसने आँख खोलकर देखा तो दीवाल से टेक लगा बिमला खड़ी थी और हाथ की उंगली चटका रही थी। धरमू ने फिर आंखें बंद कर लीं। थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद बिमला धीरे से बोली, “आज फिर खेत गये थे क्या ?”
धरमू ने कोई जबाब नहीं दिया ।
”क्यों अपनी तकलीफ देखने वहां बार-बार जाते हो। सिर्फ अपना ही तो नहीं गया। पूरे इलाके पर भगवान ने कहर ढाया है। यही सोचकर हमें भी संतोष कर लेना चाहिए।”
धरमू को उसका यह उपदेश अच्छा नहीं लगा। वह शान्त रहा। कुछ देर की चुप्पी के बाद बिमला फिर बोली, ”खाना ले आऊं ?”
”ले आओ, यहीं चारपाई पर खा लेता हूँ ।”
बिमला घर के अंदर चली गयी और धरमू चारपाई से उठकर गैया को नाद से हटाने लगा।
धरमू को भूख तेज लगी थी लेकिन खाने को वह घोंट नहीं पा रहा था। फिर भी वह खाने की कोशिश करने लगा। उसके सामने बिमला चुपचाप चारपाई पकड़ कर बैठी हुई थी। कुछ देर बाद वह धीरे से मिन्नत करते हुए बोली, ”एक बात कहूं , नाराज तो नहीं होगे ?”
वह नजर उठाकर इशारे से पूछा , ”बोलो।”
”छठ आ गयी है।”
”तब ? ”धरमू कौर निगलते हुए बोला , ”इस साल फिर नैहर जाना है क्या ?”
” नहीं।”
”तब ऐसी कौन सी ऐसी बात है कि तुम इतना सकुचा रही हो ?”
”ऐसी बात है कि-”वह उंगली चटकाते हुए रुक-रुक कर बोली , ”इस साल बस्ती की तमाम औरतें छठ माई का व्रत रख रही हैं। यदि तुम कहो तो मैं भी रख लूं।”
बिमला की यह बात उसके सिर पर बिजली की तरह घहरा कर गिरी। उसके गले में भोजन का निवाला अटक गया। हाथ थाली में रुक गया। वह आंखें फाड़कर एकटक बिमला का चेहरा घूरने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस बात पर पागलों की तरह अट्टहास करे या बच्चों की तरह रोवे। वह काफी देर तक उसका चेहरा घूरता रहा फिर बोला ,”तुम्हारे दिमाग में गोबर भरा हुआ है क्या? सिर पर इतनी बड़ी विपत्ति आयी है और तुझे नया त्यौहार सूझ रहा है। वह भी इतना मंहगा।”
”यह विपत्ति अकेले हमीं पर आयी है क्या ?”
बिमला बोली ,”यही तो तुम्हारे अंदर कमी है। जरा सी मुसीबत तुम झेल नहीं पाते हो। आखिर और लोग कैसे मनाने को सोच लिए। सबके घर तो दिल्ली – बंबई से पैसे नहीं आ रहे हैं। ”
धरमू तिलमिला गया, ”इतने दिनों में तुम मुझे सिर्फ यही समझी। क्या तुम भी चाहती हो कि मैं भी दूसरे लोगों की तरह गैर जरूरी कर्ज लेकर गली-गली दुत्कारा जाऊं। मेरे मां-बाप ने मुझे बहुत कष्ट सह कर पढ़ाया है। नौकरी भले नहीं मिली लेकिन मेरे अंदर स्वाभिमान अभी जिंदा है। तेरे शौक के लिए मैं अपने स्वाभिमान को नहीं मार सकता।”
बिमला की आंखें पनीली हो गयी। धरमू की आवाज धीरे-धीरे तेज होने लगी, ”तुम्हें सोचना चाहिए कि गेहूं बेच के जो पैसा मिला उससे बिटिया की आनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल ले लिया। धान की खेती पूरी तरह उधारी से हुई। ट्रैक्टर वाला तकादा कर रहा है। खाद-बीज वाले के यंहा कौन सा मुंह लेकर फिर जाऊंगा। अभी दशहरा-दिवाली बीता है। कोल्ड स्टोरेज से आलू आया है। पूरी रबी की बुआई सामने मुंह बाकर खड़ी है। गन्ने के बकाया पैसे का कुछ पता नहीं है। ”
वह तेज चीखने लगा। पास-पड़ोस के लोग अपने-अपने दरवाजे पर खड़े होकर तमाशा देखने लगे। उसके दोनों बच्चे चुपचाप उसे निहारते रहे। बिमला के आंसू निरंतर तेज होने लगे थे, ”यदि तुम्हें बहुत शौक है तो मेरे पास सिर्फ यही एक धन है ”वह गाय की तरफ इशारा करते हुए बोला, ”कहो तो उसे ही बेच दूं ।”
बिमला उठ कर खड़ी हो गयी और दोनों हाथ जोड़कर गुस्से में बोली, ”तेरे सामने हाथ जोड़ती हूँ। अपने भाई-पट्टीदारों के सामने अपनी दरिद्रता का ढिढोरा मत पीटो।”
वह सुबकते हुए घर के अंदर चली गयी और धरमू देर तक थाली को चुपचाप निहारता रहा। वह थाली जमीन पर रखकर चारपाई से उतरा, हाथ धोया और गैया को रोटी खिलाने के लिए दुआर पर आ गया।
चारपाई उसे कांटो सी चुभ रही थी। घर के अंदर से बिमला के सुबकने की आवाज लगातार आने लगी थी। बीच-बीच में वह अपने कलेजे की भड़ास निकाल रही थी, ”इस घर मे इतना दिन हुए आये, कभी सुख की रोटी मोअस्सर नहीं हुई …कभी ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे मरद पर घमंड हो …अभी भी नैहर की ही साड़ी से गुजारा हो रहा है …नाक में रहा तो कान में नहीं, कान में रहा तो गले में नहीं …भर बांह चूड़ी और चांदी की कड़ी के लिए मन तरसता ही रह गया …आग लगे ऐसे स्वाभिमान को …हे बपई ! यदि ऐसे ही अंगना में मुझे रोपना था तो क्यों नहीं जनम लेते ही गिद्ध – कौओं को सौंप दिए। ”
उसकी एक-एक बात धरमू के कलेजे को नश्तर सरीखे चीर रही थी। वह छटपटा कर बार-बार करवट बदल रहा था। बिमला की बातों की सच्चाई को वह महसूस भी कर रहा था। सचमुच उसने उसके लिए कभी कुछ नहीं किया था। बिमला तो चुप हो गयी लेकिन धरमू को देर रात तक नींद नहीं आयी।
दूसरे दिन की सुबह काफी मनहूस थी। घर के ऊपर तनाव की खामोश चादर पसरी हुई थी। घरी भर दिन निकल आने के बावजूद बिमला अभी तक मुंह ढांप कर सोयी हुई थी। घर का काम शीतल कर रही थी। धरमू गोबर-दुआर कर के चारपाई पर बैठकर दातून मलने लगा। बच्चे भकुआए हुए थे जिन्हें देखकर उसे इस वक्त आत्मग्लानि महसूस हो रही थी।
शीतल लोटे में पानी और गिलास मे चाय लेकर आयी तो वह मुंह धोकर चाय पीने लगा। शीतल चुपचाप खड़ी थी। उसके चेहरे से लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रही है लेकिन कह नहीं पा रही है। उसके पहले धरमू ही बोल पड़ा, ”बेटी, पहली छठ तो नैहर में पूजते हैं न, तो क्या तेरी मम्मी वहीं जायेगी ?”
”पिछली बार वह पूज चुकी है। ”शीतल बोली , ”डर की वजह से आपसे नहीं बताई।”
धरमू चुपचाप चाय पीता रहा। वह खाली गिलास शीतल को पकड़ाते हुए बोला, ”देखता हूँ । मलिकार अगर गन्ने का दस हजार रुपए एडवांस दे देते हैं तो कुछ काम बन सकता है।”
शीतल का चेहरा चहक उठा। वह दौड़ते हुए घर के अंदर चली गयी। धरमू मलिकार के घर के लिए चल पड़ा। अभी वह अपने पट्टीदार के दुआर पर पहुंचा ही था कि उसकी चचेरी भौजाई उसे कनखियों से देखकर अपनी ननद से तेज स्वर में व्यंग कसी, ”छठ का त्यौहार कोई हंसी-खेल थोड़ी न है। सबका भसोट नहीं है। इसको मनाने के लिए गज भर का कलेजा चाहिए। छठ की दौरी खरीदने के लिए दौरा भर नोट गिनना पड़ता है। मेरे तो वे कई साल से कह रहे हैं। तुमको जितना पैसा चाहिए ले लो। खूब ठाठ से मनाओ। मैं ही तैयार नहीं हुई। अबकी बार देखना मेरी दौरी गांव भर से ऊपर रहेगी।”
धरमू का पैर गुस्से से बेकाबू होकर रुक गया। उसका दिल चाहा कि उससे पूछे कि जब उसका मरद इतना ही पैसा वाला है तो क्यों वह सूद देने वालों से गाहे-बगाहे गाली सुनता रहता है। लेकिन वह दिल मसोस कर रह गया। बहुत झगड़ालू औरत है वह। उससे बोलने का मतलब कि सूबह ही रार शुरू हो जायेगी। वह चुपचाप आगे बढ़ गया।
सड़क पार करने के बाद जब वह बबुआन मे पहुंचा तो एकाएक उसकी स्मृति में बचपन के दिन कौंध गये। तब बबुआन कितना गुलजार हुआ करता था। पूरे बबुआन में इक्के -दुक्के लोग सरकारी मुलाजिम थे। बाकी लोगों का आर्थिक स्रोत सिर्फ खेती ही हुआ करती थी। फसल की पैदावार भी अब की तरह नहीं थी। दरवाजे की शान बर्धा और मर्दा हुआ करते थे। देखते ही देखते सब कुछ बदल गया। हवेली मानिंद तमाम मकान खंडहर में तबदील हो गये हैं। उनके ऊपर बड़ी-बड़ी झाड़ियां उग आयी हैं। वे सियारों का बसेरा बन गयी हैं जो रात में निकल कर डरावने अलाप करते हैं। नयी पीढ़ी नौकरी के लिए दूर शहरों में बस गयी है। जिनमें अधिकांश तो आते ही नहीं, जो आते भी हैं तो साल में दो-चार दिन के लिए। पहले वे दीपावली-दशहरा में आते थे, अब छठ में आने लगे हैं। जो नौकरी मे नहीं हैं, वे अपने ही शहर में बच्चों को पढ़ाने के बहाने बस गये हैं। जिनमें से तो कुछ लोग गांव की थोड़ी जमीन बेचकर अपना खुद का मकान भी बना लिए हैं।
धरमू जब मलिकार के दरवाजे पर पहुंचा तो वह बैठका के बरामदे में चौकी पर चटाई बिछाकर योगा कर रहे थे। पूरे शरीर पर सरसों का तेल चुपडा़ हुआ था जो धूप में चमक रहा था। धरमू उन्हें पालागी करके चप्पल उतारा और बरामदे के फर्श पर बैठ गया। मलिकार एक हल्की सी नजर उसके उपर डालकर शीर्षासन में व्यस्त हो गये ।
मलिकार पड़ोस की बाजार के एक इंटर कालेज में प्रिंसिपल थे। यही कोई दस साल पहले रिटायर हुए हैं। स्वभाव से बहुत ही खडूस और हर मौके पर अपना फायदा तलाशने में वे बहुत माहिर हैं। इसीलिए गांव में बहुत कम लोगों से उनसे पटती है। उनके दो लड़के हैं। दोनो बंगलौर में आई टी सेक्टर मे बड़े इंजीनियर हैं। बड़ा वाला तो मां-बाप की खोज खबर लेता रहता है लेकिन छोटा तो लगभग त्याग ही दिया है।
मलिकार ने आसन बदल कर उससे आंखों के इशारे से पूछा- कैसे आना हुआ ?
” मालिक, कुछ पैसों की जरूरत आ पड़ी है। बहुत कोशिश किया कि कहीं और से उधार ले लूं लेकिन मिला नहीं। आपके यहां बड़ी उम्मीद लेकर आया हूँ। ”
मलिकार अनुलोम-विलोम क्रिया करने लगे। धरमू धड़कते दिल से उनके जबाब की प्रतीक्षा करता रहा। दूसरा आसन शुरू करने से पहले वह कुछ कठोर शब्दों मे बोले, ”खेत खाली हो गया ? ”
”अभी नहीं मालिक। ल” धरमू बोला, ”खेत में अभी पानी है।”
”हूँ ।” वह कपाल भाती करने लगे। करीब पांच मिनट के बाद आंखें बंद किए ही वह फुफकारे, ”हमारे पूर्वज कहा करते थे कि हमारी जिंदगी को हलवाहे की किस्मत तय करती है। तुम्हारा बाप बकलोल जरूर था लेकिन तेरे जैसी खोटी किस्मत वाला वह नहीं था। धान तो पूरा चला ही गया, अब आलू, मटर, चना भी गया। जबसे तुम्हारे जिम्मे खेती गयी है तबसे हमारे घर में बरक्कत नहीं हुई।”
इतना जहर उगलने के बाद वह हलासन करने लगे। धरमू के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। वह जानता है कि यह आदमी जब भी मुंह खोलेगा, झूठ ही बोलेगा। यदि कभी सच बोल भी दिया तो लोग समझ जाते हैं कि उसमें इसका कोई स्वार्थ जरूर छिपा है। इस आदमी का पेट इतना बड़ा है कि यदि इसे दुनिया भर की दौलत दे दी जाय तो भी इसका मुंह गिरा ही रहेगा। धरमू को अब ऊबन सी महसूस होने लगी।
मलिकार ने आसन बदला, ”धरमू ! मैंने कल एक बात सुनी। तुम गांव के बंटाईदारों को एकजुट करके हमारे खिलाफ कोई संगठन बना रहे हो ?”
धरमू के कान खड़े हो गये। वह यह सोचकर चौंक गया कि इतनी गोपनीय बात मलिकार को कैसे पता चल गयी। जरूर किसी अपने ने भेद खोला है।
”यह भी सुना कि अबकी तहसील दिवस को जिला कलक्टर के यहां आपदा राहत के लिए मांग भी रखने वाले हो।”
धरमू चुपचाप मलिकार के अनुलोम-विलोम आसन को देखता रहा। उसने सोचा कि जब इन्हें सब कुछ मालूम ही हो गया है तो बता ही देना उचित रहेगा, ”मालिक, यदि न्याय की बात की जाय तो आपदा राहत पर हमारा ही हक बनता है। आखिर सारा कुछ हमारा ही बर्बाद हुआ। खेती हम कर रहे हैं, किसान निधि का पैसा आप लोग ले रहे हैं। खेती हर साल मंहगी होती जा रही है। हम कितनी मुश्किल से कर रहे हैं। कभी आप लोगों ने उस निधि से एक पैसे की हमारी मदद भी नहीं की।

योगासन करते हुए मलिकार की देह धीरे-धीरे सुलगने लगी। धरमू को इसका एहसास था। फिर भी आज वह अपनी काफी पुरानी भड़ास निकाल देना चाहता था, ”सब कुछ छोड़ दीजिए मलिकार। इस साल रबी की बुआई कैसे होगी। इसको कभी आप लोगों ने सोचा ? डीजल का दाम बेतहाशा बढ़ने पर ट्रैक्टर का भाड़ा काफी बढ़ गया। खाद गोदामों मे है ही नहीं। आप कहते हैं कि हर साल खेत में बीज नया पड़ना चाहिए। इस साल तो बीज के दाम सुनकर कलेजा बैठा जा रहा है।”
मलिकार के योगासन का क्रम एकाएक टूट गया। वह क्रोध से पालथी मार कर बैठ गये। धरमू को बोलने का जुनून था, ”मालिक ! आप लोग एक काम तो कर ही सकते हैं। पूरे गांव के बंटाईदारों के पूर्वजों को आप लोगों ने कुछ जमीनें दे रखी हैं। उसे देकर आप लोग भूल भी गये हैं। उसके बावजूद उस जमीन का मलिकाना आप लोगों के पास है। यदि उस जमीन को आप लोग हमारे नाम कर देते तो हम भी किसान निधि के हकदार हो जाते। उस पैसे को हम खेती में लगाते तो हमारे साथ आप लोगों का भी फायदा होता।”
”चुप।” मलिकार क्रोध से डपट पड़े ल, ‘मेरे सामने तेरे बाप की कभी बोलने की हिम्मत नहीं पड़ी। तुम दो अक्षर पढ़ क्या लिए ऊंच-नीच का भेद ही भूल गये। मैं अपने हलवाहे को खेत लिखकर अपने कुल मे कलंक लगाऊं। वही पांच बिस्वा खेत और तुम्हारा घर तुम्हारी नाक की नकेल है और तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें नकेल मुक्त कर दूं। ऐसा कभी नहीं हो सकता।”

मलिकार ने चेतावनी देते हुए कहा, ”जिस दिन तुम जिला कलक्टर के यंहा दरख्वास्त देकर आना उस दिन सीधे मेरे घर आ जाना। यहां तुम्हारी बेदखली का फरमान तैयार मिलेगा। आज तुम आपदा राहत की मांग कर रहे हो तो कल यह भी कह सकते हो कि इतने दिनों से जो खेत जोत ल-बो रहा है, खेत उसके नाम से होना चाहिए ल। एक बार हम गलती कर दिए कि हमारी जमीदारी चली गयी। अब ऐसी भूल हमसे नहीं होगी ल।”
धरमू के कलेजे मे एक सर्द लहर दौड़ पड़ी ल। वह कुछ बोलना चाहता था लेकिन मलिकार ने उसे डांट कर चुप करा दिया। वह तरह-तरह से धमकाते और एहसान लादते रहे, ” तुम जब चाहो खेती छोड़ दो। हमारे यहां ठेके पर खेती करने वाले दौड़ रहे हैं। फसल को चाहे बाढ़ ले जाय चाहे पाला मारे। उससे हमसे कोई मतलब नहीं। खेत में ठेकेदार का पैर पड़ने से पहले पूरा पैसा हमारे एकाउंट मे आ जाऐगा ल। अब तुम्हीं बताओ हमारा फायदा किसमें है। हम तो इसलिए नहीं दे रहे हैं कि तुम लोग खानाबदोश हो जाओगे। तुम्हारी पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे बुजुर्गों के टुकड़ों पर पली आयी है। हम अपने बुजुर्गों का ख्याल करके चुप हैं। लेकिन तभी तक जब तक हम जिंदा हैं, हमारे न रहने के बाद हमारे लड़के यहां बंगलौर से खेती करवाने नहीं आएंगे। वे वहीं से ऑनलाइन ठेके पर दे देगें, अब तुम अपना और अपने बच्चों के बारे में सोचकर मुझे जल्दी बता देना …अब तुम उठो और सरक लो यहां से। सुबह – सुबह आ गये दिमाग खराब करने।”

धरमू चुपचाप मुंह लटकाए घर के लिए चल दिया। वह दरवाजे पर पर पहुंचा तो गैया नाद से मुंह निकाल कर उसे निहारने लगी। धरमू उसकी पीठ पर एक हल्की सी थपकी देकर आगे बढ़ गया और बरामदे से चारपाई निकाल कर नीम के पेड़ के नीचे लेट गया। उसके आने की आहट सुनकर घर के अंदर से बिमला और दोनों बच्चे चहकते हुए बाहर आये। धरमू के चेहरे की रंगत देखकर वे मायूस हो गये। धरमू चुपचाप लेटा रहा और उसका परिवार उसे मुलुर-मुलुर निहारता रहा। बिमला ने शीतल को पानी लाने का इशारा किया तो वह दौड़ कर घर के अंदर से एक गिलास पानी लायी और धरमू को पकड़ा दी। धरमू मुंह धोकर दो घूंट पानी पिया और आंखें बंद करके फिर लेट गया। परिवार उसी तरह खड़ा रहा। कुछ देर के बाद बिमला धीरे से बोली, ”तुम चिंता मत करो मैं सबको आने से मना कर देती हूँ।”
धरमू के पूरे शरीर मे एकाएक क्रोध की तेज लहर दौड़ पड़ी। वह झटके से उठ बैठा ल, ”अभी पैसे का इंतजाम हुआ नहीं और तुम नैहर को न्योत आयी।”
बिमला और बच्चे सहम कर पीछे हट गये। धरमू उसे कुछ देर तक निहारता रहा फिर लेट गया। कुछ देर बाद बिमला साहस करके बोली, ” यदि तुम नाराज न हो तो माई से ही कुछ रुपए उधार ले लूं। गन्ने का जब पैसा मिलेगा तो उसे वापस कर दूंगी या इस बार भी वहीं चली जाऊं ?”
धरमू कभी अपनी सास से पैसा लेने के पक्ष मे नहीं रहता क्योकि उसकी तीनों बहुएं ताना मारने मे पारंगत हैं। उसको कोई जबाब नहीं सूझा ल। वह उसी तरह चुपचाप लेटा रहा। धीरे-धीरे पूरा परिवार मायूस होकर घर के अंदर चला गया। पल भर की खुशी मातम मे तब्दील हो गयी।
धरमू के दिमाग में भूडोल नाच रहा था। वह मलिकार के पास एक समस्या के हल के लिए गया था। वह उसके ऊपर एक और समस्या लाद दिए। वह सोचने लगा कि यदि मलिकार उसे खेती से बेदखल कर दिए तो वह अपने परिवार को कैसे पालेगा। परदेस की हालत बहुत खराब है। वह दूर-दूर तक सोचता रहा लेकिन कोई हल उसके दिमाग में नहीं आ रहा था।
भोजन पक गया था लेकिन पूरे परिवार का कोई भी खाना नहीं खाया। दोनो बच्चों के दिल की खुशी काफूर हो चुकी थी। दोपहर बाद हरगुन मलिकार का संदेश लेकर आया कि वह उसे बुला रहे हैं। धरमू के कलेजे में भय की एक सिहरन दौड़ पड़ी। उसे लगा कि मलिकार आज ही उसे जमीन से बेदखल कर देंगे। वह काफी देर तक तमाम अनिष्ट सोचता रहा फिर कलेजा मजबूत करके मलिकार के घर के लिए चल दिया।
धरमू जब मलिकार के दरवाजे पर पहुंचा तो वे उस समय बरामदे में चौकी पर बैठकर जनेऊ से नंगी पीठ को रगड़ रहे थे। चौकी से कुछ दूरी पर मालकिन घर की नौकरानी के साथ बैठ कर सूप में चावल पछोर रही थी। धरमू चप्पल उतार कर बरामदे में चढ़ा और दूर से ही मालकिन का पैर छू कर चौकी के बगल में बैठ गया।
”अरे धरमू , तुम निरा बेवकूफ ही रह गये। पैसा मांगने का भी कोई वक्त होता है। सुबह-सुबह घर से लक्ष्मी का जाना अनिष्ट होता है। अच्छा तो बताओ, तुम्हें एकाएक पैसे की क्यों जरूरत पड़ गयी ?”
मलिकार की नरम आवाज से धरमू को कुछ राहत मिली , ”मालिक, अबकी बार बस्ती की लगभग पूरी औरतें छठ पूजा करने वाली हैं। उन्हीं के साथ बिमला भी करेगी। मैंने सोचा कि गन्ना वाला पैसा मिल जाता तो समस्या हल हो जाती। जब गन्ने का भुगतान होता तो आप उसमें से काट लेते।”
मलिकार का चेहरा उतर गया। वह काफी देर तक चुपचाप जनेऊ से पीठ रगड़ते रहे ल। फिर वह बहुत मायूसी से बोले, ” मैं तो समझा तुम खाद-बीज के लिए पैसा मांग रहे हो। छठ से जरूरी खाद है ल। मैं सुन रहा हूँ कि खाद मिल नहीं रही है। कई जगहों पर किसान खाद के लिए कतार में लगे और भूख-प्यास से मर गये। मैं नहीं चाहता कि वही हालत तुम्हारी भी हो।”
मलिकार की यह बात धरमू के कलेजे में चुभ गयी। फिर भी वह चुप रहा। कुछ देर चुप रहने के बाद वह फिर बोले, ” गन्ने का भुगतान जब अब तक नहीं हुआ तो कैसे विश्वास करूं कि वह हो भी जायेगा। ल”
” नहीं मालिक, सामने चुनाव है। भुगतान तो जल्दी ही होगा।” धरमू पूरे आत्मविश्वास से बोला।
” अच्छा, एक बात मैं तुम्हारे भले के लिए बता रहा हूँ।” मलिकार ने उपदेश देते हुए कहा, ”यह छठ तुम्हे दरिद्र बना देगी। तुम लोग तो हमारे मनु महाराज को नहीं मानते हो ल। लेकिन हम उन्हें इस समाज का सर्वश्रेष्ठ संविधान निर्माता मानते हैं। मनु महाराज ने सब कुछ के साथ किसे कौन सा त्योहार मनाना चाहिए, वह भी बताया है। छठ पूजा सिर्फ हम कलचुरी राजपूतों का है। लेकिन आज शूद्र भी इसे मना कर इसकी पवित्रता नष्ट कर रहे हैं।”
धरमू के मन में आया कि वह कह दे कि नहीं मलिकार यह हमारा ही है। जिस तरह से हमारे अन्य त्योहारों को आप लोगों ने हड़प लिया उसी तरह इसे भी अपना लिए। लेकिन वह चुप रहा कि कहीं फिर न काम बिगड़ जाये। मलिकार अपनी भड़ास जारी रखे, ”तुम लोग जो भी हमारा अपनाए, सबका सत्यानाश कर दिए। नौकरी में गये, भ्रष्टाचार बढ़ा दिए। राजनीति में गये, देश को फूहड़ बना दिए। कहां-कहां गिनाऊँ, पूरे देश में तुम लोगों ने दुर्गंध मचा रखा है। अब यही धरम बचा है। इसकी भी गरिमा को नष्ट करने पर तुल गये हो।”
कुछ देर तक खामोशी छाई रही। बीच-बीच में सूप से चावल पछोरने की आवाज संगीत की तरह आती रही। मलिकार ने ही खामोशी को तोड़ा, ”पैसे का दुरुपयोग क्यों कर रहे हो। तुम जितना मांग रहे हो मैं पूरा दे दे रहा हूँ। बाजार जाकर खाद-बीज की व्यवस्था करो। औरत की जिद छोड़ो। औरतों का बस चले तो अपना शौक पूरा करने के लिए अपने मरद को भी बेच दे।”
“मैं उसका कौन सा शौक पूरी कर पा रहा हूँ मालिक। हमारी जिंदगी में तो सुख के दिन सिर्फ तीज-त्योहार में ही आते हैं। पूजा के बाद खाद-बीज की भी व्यवस्था किसी तरह से होगी ही।”
मलिकार कुछ देर के लिए चुपचाप शून्य में नजरे टिका दिए। ऐसा लग रहा था कि जैसे क्षितिज के उस पार कुछ लिखा है जिसे वह ध्यान से पढ़ रहे हैं। धरमू का दिल लगातार धड़कता रहा।
”जब मेहरी का शौक ही पूरा करना है तो क्यों नहीं अपनी गैया बेच देते। दस हजार तो मिल ही जाएंगे।”
”क्या कह रहे हैं मालिक, सिर्फ दस हजार ?” धरमू मुस्कराते हुए बोला, ”आज की बाजार में उसकी कीमत तीस ल-पैंतीस हजार से कम नहीं है। अगले महीने जब वह बच्चा दे देगी तो उसके दूध से हमारे घर का खर्च निकल आयेगा।”
” अब लगे डींग हांकने। सिवान मे ढूंढो तो वैसी दसों छुट्टा गाय मिल जायेगी। इसे बेचकर उन्हीं में से कोई दूसरी मुफ्त मे बांध लो।”
”अरे मालिक, उसे जिस दिन बेच दिया ल, समझ लीजिए मेरी बीवी जहर खाकर मर जायेगी।”
मलिकार चौकी पर से उठे। जनेऊ में बंधी चाभी से कमरे का दरवाजा खोलकर अंदर चले गये। कुछ देर के बाद निकले तो उनके हाथ में पूरे दस हजार रुपए थे, जिसको धरमू के हाथ पर रखते हुए बोले, ” मैं मेहरबस मरदों का दुख अच्छी तरह से समझता हूँ। देखो, गेहूं की बुआई में कोई कोताही हुई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”
धरमू रुपयों को माथे से लगा कर जाने लगा तो मलिकार ने आवाज देकर उसे रोक लिया, ”देखो धरमू , आज मैं तुम्हारे मौके पर तुम्हारा काम चला दिया ल। उसी तरह तुम भी हमारे मौके पर हीला-हवाली मत करना।”
”जी मालिक। ”वह उन्हें आश्वासन देकर अपने घर की तरफ बढ़ गया।

घर में रुपया आते ही बहार छा गयी।
पूरे परिवार का चेहरा खिल उठा। बच्चों की खिलखिलाहट बस्ती के ठहाकों मे घुल गयी। बिमला मोबाइल से अपने नैहर और बहनों के यहां बुलावा भेजने लगी। धरमू भी इत्मीनान की सांस लेकर गैया को चारा-पानी देने लगा। बिमला जब खाली हुई तो चहकते हुए वह धरमू के पास आयी, ”देखो, तुम भी कुछ खा लो। बस्ती के लोग सरसौता बनाने के लिए नदी पर गये हैं। तुम भी चले जाओ।”
” यह सरसौता क्या होता है ? ”
”तुम्हारे यंहा जिसे बेदी कहते है उसे हमारे यहां सरसौता बोलते हैं। ”बिमला हंसते हुए बोली, ”चलो जल्दी करो। शाम को तुम्हें बाजार भी जाना है।”
”अभी तक एक बात समझ में नहीं आयी कि मालिक का दिल एकाएक पसीज कैसे गया ?”
”बस समझो कि धरम के नाम पर वह इंकार नहीं कर पाये। ”बिमला हंसते हुए बोली ल, ” वे लोग धरम-करम को बहुत मानते हैं।”
धरमू फावड़ा लेकर नदी की तरफ चल दिया।
बेदी बनाने में देर हो गयी। जब वह घर पहुंचा तो शाम ढलने को हो गयी थी। फिर भी उसे इत्मीनान था कि आज बाजार कम से कम रात दस बजे तक तो खुला ही रहेगा। वह जल्दी ल-जल्दी तैयार होकर बस्ती के हमजोलियों के साथ निकल लिया। जाते समय बिमला ने विशेष हिदायत दी थी कि पहली छठ है, किसी तरह की कंजूसी मत करना।
बाजार का रंग देखकर धरमू दंग रह गया। कल तक जो बाजार अपनी कंगाली पर रो रही थी, आज अपने ऐश्वर्य पर इठला रही थी। पूरी बाजार खचाखच भरी हुई थी। जगह-जगह पर तरह-तरह के फलों के टेंट लगे हुए थे, जो तेज रोशनी से दमक रहे थे। उन टेंट में डीजे पर छठ के गीत मोहित कर रहे थे। इसी तरह कपड़ा, सुनार और बिसाता की दुकानों पर गहमागहमी थी। बिसाता की मशहूर असलम की दुकान पर उसकी बीवी औरतों को तरह-तरह से बता रही थी कि छठ मैया को अपने शृंगार में क्या-क्या पसंद है। बाजार हंस रहा था। खरीदने वालों का चेहरा रुआंसा हुआ था। बाजार मंहगाई का रोना रो रहा था। खरीददार चुपचाप खरीद रहे थे। बाजार अपना धर्म निभा रहा था और खरीददार अपनी आस्था लुटा रहे थे। बाजार में धर्म और आस्था का अद्भुत मिलन था।
धरमू अपने साथियों के साथ सबसे पहले फल की दुकान पर गया। यह सोचकर कि दुकानदार उसके गांव का है। वह कीमत में जरूर कुछ मुरौवत करेगा लेकिन आज वह पहचान ही नहीं रहा था। सबकी हर बात का उसके पास सिर्फ एक ही जबाब होता, ”भैया आज मत बोलो। बहुत महंगा सौदा मिला है। किसी तरह से मेल का जुगाड़ हो पाया है। जो है चुपचाप खरीद लो। मोल-भाव कल से करना।”
उसके फलों के मेल में तमाम फल ऐसे भी थे जिसको कल तक कोई कौड़ी के भाव भी नहीं पूछता था। आज उसकी कीमत आसमान छू रही थी।
फल खरीदने के बाद वे दूसरी दुकानों पर गये। हर जगह कीमत में आग लगी हुई थी। दुकानदार सरेआम लूट रहे थे और जनता खुशी-खुशी लुटा रही थी। बिमला ने जो-जो सामान के लिए कहा था सारा खरीद कर डाला में रखा और उसे सिर पर रखकर साथियों के साथ घर वापस लौट आया।
घर पहुंचते रात के नौ बज गये। दरवाजे पर पहुंचते ही वह भौचक रह गया। घर पर मेहमानों की फौज खड़ी थी। छोटे-बड़े मिला कर पूरे आठ लोग उसके पैर छूने और मिलने आये। बिमला उसके सिर से दौरा उतार कर लोगों के साथ घर के अंदर चली गयी। धरमू चारपाई खींच कर लेट गया।
कुछ देर बाद बिमला चहकते हुए बाहर आयी, ” बहुत अच्छा डाला लाए। मैं जितना सोची थी उससे कहीं ज्यादा अच्छा है।”
”जेब भी तो ढीली हो गयी। अभी किराना का सामान बाकी है।”
”तुम उसकी चिंता मत करो। उसे मैं गांव की दुकान से खरीद लायी हूँ। ल”
”अरे, तुम्हारे पास अभी तक तो एक दमड़ी भी नहीं थी। कैसे खरीदी? क्या तुमने अपने गहने बंधक रख दिया?”
”नहीं जी, हर औरत बुरे वक्त के लिए कुछ न कुछ पैसे छुपा कर रखती है, जो आड़े वक्त काम आता है।”
”इतने लोगों को बुलाने की क्या जरूरत थी। इनकी विदाई भी तो करनी होगी।”
”कहां लोग मेरे बेटे की शादी में आये हैं। हल्की-फुल्की विदाई कर दी जायेगी। ”बिमला इधर-उधर देखकर फुसफुसाते हुए बोली, ”माई चोरी से बड़ी वाली दीदी के हाथ दो हजार रुपया भेजी है। मझली दीदी एक हजार और बड़ी दीदी ने पांच सौ रुपए आते ही मेरे हाथ पर रख दिए।”
धरमू का दिल भावुकता से भर गया, ”अरे पगली तेरी मझली दीदी पैसे वाली हैं। उनसे तो कोई बात नहीं लेकिन बड़ी वाली दीदी से क्यों ले ली। वह बेचारी तो खुद ग़रीबी झेल रही है ल।”
”उनसे कैसे नहीं लेती। क्या उन्हें बुरा नहीं लगता ? जाते समय किसी बहाने उन्हें कुछ ज्यादा ही वापस कर दूंगी।”
भोजन के बाद पूजा का प्रसाद बनाने का काम शुरू हुआ। धीरे-धीरे पास-पड़ोस के घरों से गीत की आवाज आने लगी तो उसके भी घर मे गीत शुरू हो गया। बिमला की बड़ी बहन का गला बहुत सुरीला था। उसको एक से बढ़ कर एक गीत भी आते थे। कुछ ही देर में धरमू की सारी थकान और चिंता दूर हो गयी। उसका मन गीत सुनकर झूम उठा। मन रोमांचित हो उठा। वह याद करने लगा कि इसके पहले उसके घर मे इतनी सुंदर रात कब आयी थी।
कुछ देर बाद वह सड़क पर निकल गया। बस्ती के लगभग हर घर से गीतों की मधुर आवाजें आ रही थी। बच्चों की खिलखिलाहट और बुजुर्गों के ठहाके मन को सुकून दे रहे थे। सड़क पर वह देर तक अकेले टहलता रहा फिर घर वापस आ गया।
बाजार से सब सामान खरीदने के बावजूद कुछ न कुछ घटा ही था। कभी वह बाजार जाता तो कभी गांव में। उस समय वह बबुआन में था। वहां का हाल कुछ और ही दिख रहा था। जिन घरों मे नयी बहुएं थीं, उन घरों में बाजार से मेकअप करने के लिए औरतें आयी हुई थी। तमाम औरतें और कुंवारी लड़कियां गाड़ियों पर लद कर बाजार जा रहीं थी। शबीना चूड़िहारिन लगभग हर घर से झगड़ रही थी कि जब हर मौके पर चूड़ी वह पहनाती है तो आज चूड़ी बाजार से क्यों खरीदी गयी। हरिकिसुन सिंह के दरवाजे पर आठ-दस लोगों की भीड़ जमा थी। उनसे और उनके पुरोहित में तक झक हो रही थी। पुरोहित अपनी जिद्द पर अड़ा था, ”बाबू साहेब, आप मेरी बात मान लीजिए ल। सूर्य आपके कुल देवता नहीं है। इस इलाके और आपके कुल के देवता विष्णु जी हैं। बिना उनकी अनुमति के आप दूसरे देवता की स्थापना नहीं कर सकते हैं। इसके लिए आपको एक छोटा सा हवन ही तो कराना है।”
” लअरे महराज ! काहे हर जगह अपनी पंडिताई घुसेड़ने की फिराक में रहते हैं। इस पूजा में पुरोहित की कोई जगह नहीं है।”
”बाबू साहेब, सिर्फ शूद्रों के यंहा जरूरत नहीं है। आप उच्च कुल के यहां बहुत जरूरी है। या तो आप अपने कुल देवता का अपमान करें।”
बहुत देर तक दोनों की झिकझिक सुनने के बाद बाबू साहेब की पत्नी पल्लू संभालते हुए बाहर निकली और झगड़े को शांत कराने की गरज से अपने पति से बोली, ”आप ही शांत हो जाइए बाबू साहेब। पुरोहित जी का ही मान रख लीजिए। जैसे इतना कुछ खर्च हो रहा है, उसी तरह सौ-पचास दक्षिणा में भी हो जाएगा।”
बतकुच्चन शांत हो गयी।
दोपहर होते-होते गांव में कई घरों से बाजा बजने की आवाजें आने लगी। जिन घरों में इस साल बेटा पैदा हुआ था उनके यहां की छठ विशेष थी। बस्ती में सात घरों से बाजा और बबुआन में सिर्फ राम सनेही सिंह के दरवाजे पर शहनाई बज रही थी। थोड़ी दूर अहिरान से डीजे की कर्कश आवाज सुनाई दे रही थी।
सूरज की रोशनी मद्धिम होते ही घरों से डाला निकलना शुरू हो गये। धरमू भी पास-पड़ोस के साथ सिर पर डाला और कंधे पर दो ईख रखकर चल दिया। उसके पीछे बिमला हाथ मे कलश लेकर गीत गाती औरतों संग चलने लगी। बस्ती के लोगों को अंबेडकर मूर्ति के सामने इकट्ठा होना था।
बस्ती के मध्य मे सड़क के किनारे एक छोटा सा मैदान था, जिसमें बाबा साहब की ऊंचे और विशाल चबूतरे पर भव्य मूर्ति लगी हुई थी। मूर्ति के ऊपर छतरी भी थी। मूर्ति के सामने सभी व्रती औरतें कलश लेकर बैठ गयी। बाजे बज रहे थे। गीतों के समवेत स्वर गूंज रहे थे। पूरा माहौल पूरी तरह से मनोहारी था। एक साथ पांच औरतें कलश लेकर उठती, बाबा साहब की पांच बार परिक्रमा करती, उनके माथे और बुद्ध के पैर पर रोरी लगाती, अगरबत्ती सुलगाती और अपना माथा टेक कर वापस अपनी जगह पर बैठ जाती। जिन घरों की औरतों की बारी आती उन घरों के लड़के मोबाइल से उनका फोटो खींचते।
इस बीच बबुआन की औरतों की टोली निकली। आगे-आगे शहनाई बज रही थी। उसके पीछे भारी गहनों और कीमती साड़ियों से लदी पूरे मेकअप में सजी औरतें और लड़कियां थीं। सिर पर डाला रखे पुरुष थे। हाथ में ईख लिए बच्चे थे। औरतें मद्धिम स्वर में गीत गा रही थीं।
बबुआन की टोली गुजरने के थोड़ी ही देर बाद अहिरान का हुजूम नजर आया। उसमें हाथी-घोड़े भी थे। बैंड बाजों के साथ कई-कई डीजे भी कर्कश आवाज में बज रहे थे। औरतों के तमाम झुंड एक दूसरे की हथेली पकड़ कर गा रही थीं, जिनकी आवाज डीजे के शोर में गुम हो जा रही थी। हर डीजे के आगे नयी उमर के लड़कों के साथ-साथ अधेड़ उम्र के लोग भी अबीर-गुलाल से नहाए हुए और माथे पर केसरिया पट्टी बांध कर फूहड़ तरीके से नाच रहे थे। पूरे हुजूम मे भरपूर हुड़दंग था।
यह हुजूम जब आगे निकल गया तो बस्ती के लोग आगे बढ़े। वे ‘छठ मैया – बाबा साहब’ के संयुक्त गगन भेदी नारे के साथ नदी के घाट की तरफ चल दिए। रास्ते में मलिकार कुछ लोगों के साथ खड़े थे। धरमू उनसे नजर नहीं मिला पाया। वे चुपचाप उसे ध्यान से घूरते रहे।
नदी के घाट की छटा अत्यंत ही दर्शनीय थी। घाट के दोनों तरफ दूर-दूर तक बिजली की झालर और मर्करी जल रही थी। जिनके बीच में स्त्री और पुरुष सूर्य उपासना में लीन थे। नदी का पानी दीपों की परछाईं से जगमगा रहा था। अंधेरा होते ही पूरा आसमान आतिशबाजी के रंग और धमाकों से गूंज उठा। पूरा दृश्य देखकर यही लग रहा था मानो इस धरती से सारे दुख अब विलुप्त हो गये हैं और आज लोग अपार सुख के स्वागत के लिए उमड़ पड़े हैं।
दूसरे दिन भोर की पूजा के बाद घाट से घर आने में सात बज गये। व्रत का पारण करने और सबके लिए प्रसाद बांधने मे ग्यारह बज गये। सबकी विदाई का भी वक्त हो गया। बिमला बहुत खुश थी। वह बहनों को साड़ी और बच्चों को नकद पैसा दी। बहनों के झोले में भरपूर प्रसाद डाल दी। दरवाजे पर सभी लोग एक दूसरे से मिलने के बाद सड़क पर चलने के लिए तैयार ही हुए थे कि सामने से मलिकार को आता देख सभी लोग ठिठक गये।
मलिकार धीरे-धीरे आगे बढ़े चले आ रहे थे। वह घर से बाहर पूरा सज-धज कर ही निकलते हैं। वह आकर गैया के पास चुपचाप खड़े हो गये। गैया अपने दोनों कान खड़े करके उन्हें घूर कर देखने लगी। धरमू और बिमला धड़कते कलेजे से आगे बढ़कर उनका पैर छुए। लेकिन वह कुछ बोले नहीं।
”मालिक, आपने क्यों कष्ट किया। हुकुम भेज देते। मैं खुद पहुंच जाता।”
”मेरे ऊपर आज बहुत बड़ा संकट आ गया है धरमू।” मलिकार बहुत मासूमियत से बोले, ”मेरे बड़े वाले बेटे के यहां हमेशा कोई न कोई अनिष्ट हो रहा है। उसने किसी पहुंचे हुए ब्राह्मण से सलाह लिया तो पता चला कि उसके उपर कोई ग्रह दोष है। जिसके निदान के लिए वह तमाम पूजा-पाठ तो करा ही रहा है। यहां मुझे भी रोज काली गाय को रोटी खिलाना है।”
धरमू और बिमला दोनों का कलेजा एक साथ कांप उठा। मलिकार थोड़ा रुक कर बोले, ”मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं हैं। जो थोड़ा-बहुत था तुम्हें देकर तुम्हारा काम चला दिया। आज तुम मेरा काम चला दो।”
धरमू के उपर बज्रपात हो गया। वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा, ”इतनी जल्दी कैसे होगा मालिक। मुझे कुछ मोहलत दीजिए।”
”अपनी जुबान से पीछे मत हटो धरमू। मेरे बच्चों की जान आफत में पड़ी है और तुम मुझसे मोहलत मांग रहे। तुम्हारे बच्चों की सलामती के लिए मैं बुरे दिन के लिए रखा पैसा उठाकर दे दिया और तुम्हें मेरे बच्चों का जरा भी ख्याल नहीं है। यदि तुम पैसे नहीं दे सकते हो तो मुझे अपनी गाय ही दे दो।”
बिमला उनके पैरों पर गिर पड़ी , ”मालिक ऐसा मत कहिए। यही तो हमारे पास इकलौता धन बचा है। अगले महीने जब यह बच्चा दे देगी तो हमारे बच्चों को दोनों जून निवाले का इंतजाम हो जायेगा। मेरे बच्चों का निवाला मत छीनिए मालिक।”
बिमला फफक कर रो पड़ी लेकिन मलिकार पर कोई असर नहीं पड़ा। तभी बिमला को कुछ ख्याल आया। वह उठ कर खड़ी हो गयी, ”मालिक, मुझे सिर्फ आधे घंटे का समय दीजिए। मैं सूद पर पैसा लाकर आपको वापस कर दे रही हूँ ।”
वह बिजली की गति से बबुआन में दौड़ी। दरवाजे पर हाहाकार मच गया। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गये। धरमू माथे पर हाथ रख कर बैठ गया। मलिकार पत्थर की किसी मूर्ति की तरह छड़ी पर हाथ टिकाए चुपचाप खड़े रहे।
बिमला जिस गति से गयी थी उसी गति से वापस आकर एक बार फिर मलिकार के पैर पर गिर गयी, ”मालिक, आज सबका पैसा जल गया है। इंतजाम नहीं हो पाया। शाम तक की मोहलत दीजिए। मैं नैहर से पैसा लाकर वापस दे दूंगी।”
”मैं अब और मोहलत नहीं दे सकता। तुम लोग तो मेरे वसूल को जानते ही हो। मैं कभी आता नहीं हूँ। अब आ गया हूँ तो खाली हाथ नहीं जाऊंगा। चलो धरमू , खूंटा से गाय को छोड़ो।”
दोनों परानी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहे थे और बच्चे जार-जार रोने लगे। पूरे रिश्तेदार और पड़ोसी भौचक खड़े रहे। देर होने पर मलिकार इतना तेज गरजे कि पूरा दुआर कांप उठा। डर के मारे धरमू का हाथ स्वतः खूंटे से पगहा छुड़ाने लगा। बिमला गाय की गर्दन अपने कंधे पर रखकर रोने लगे। दोनों बच्चे भी बिमला को पकड़ कर रो पड़े। गाय अपने खूंटे से टस से मस नहीं हो रही थी। मलिकार ने उसके पैर में एक छड़ी मारा तो वह एक कदम आगे बढ़ कर फिर खड़ी हो गयी। उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। मलिकार ने अबकी बार ताबड़तोड़ कई छड़ी मारा तो वह उछल कर चल पड़ी। उसके आगे बढ़ते ही बिमला भहरा कर जमीन पर गिरी और बिना अन्न-पानी की देह अचेत हो गयी।
धरमू का दुआर चीत्कार मार कर रो पड़ा।

(हेमंत कुमार का जन्म 8 जनवरी 1966 को हावड़ा पश्चिम बंगाल में हुआ लेकिन उसके कुछ दिनों बाद परिवार अपने पुश्तैनी गांव खुटौली जनपद आजमगढ़ उ.प्र. आ गया । लेखन मे लंबे अरसे से सक्रियता । हंस, कथा देश, समकालीन जनमत, कथा, पल प्रतिपल, गांव के लोग आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित । दो साल पहले आधार प्रकाशन से कहानी संग्रह रज्जब अली प्रकाशित, जो काफी चर्चित रहा । मो. -9793591905)

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