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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-दस

जयप्रकाश नारायण 

किसान आन्दोलन  तथा संघ-भाजपा की झूठ व षड्यन्त्र की नीति

26-27 नवंबर 2020 को, रामलीला मैदान में धरना देने के लिए किसान जब गांव  में तैयारी कर रहे थे, तो दिल्ली की सत्ता और उसके द्वारा संचालित और नियंत्रित मीडिया तंत्र किसान आंदोलन के खिलाफ नयी-नयी  कहानियां गढ़ रहे थे।

पहले चरण में आंदोलन को अस्वीकार करने और किसी तरह की  नोटिस न लेने की जो नीति थी, उसमें बदलाव हुआ। दूसरे चरण में किसान आंदोलन के विरोध में  संघ-भाजपा सरकार और मीडिया के संयुक्त कमान में संगठित दुष्प्रचार शुरू हुआ। ये मुट्ठी भर बड़े किसान हैं, जो  आढ़तियों और दलालों के उकसाने पर दिल्ली आंदोलन के लिए आ रहे हैं।

दूसरा,  किसान विपक्षी सरकार द्वारा संरक्षित हैं और उसके हितों के लिए गुमराह किए जाने के बाद आंदोलन में शामिल हो रहे हैं।

कानून व्यापक किसानों के हित में है और कृषि में क्रांतिकारी बदलाव की दिशा में निर्देशित है।  इस दुष्प्रचार को निष्प्रभावी करते हुए जब  किसान और उनके संगठन दिल्ली की सीमा के इर्द-गिर्द पहुंचने लगे तो हमने देखा ही है, कि किस तरह से दमन अभियान चलाया गया।

सारी बाधाओं को पार करते हुए किसानों ने दिल्ली की बॉर्डर पर कैंप लगा दिया।  पहले कहा गया, कि यह पंजाब के किसानों का आंदोलन है, जिसकी अगुवाई सिख समाज, जो कहीं न कहीं,  खालिस्तानी एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं; उनके हाथ में है।

छिटपुट छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर इस आंदोलन को विदेशी मदद और खालिस्तानी हाथ का खिलौना बताया गया। लेकिन जब आंदोलन की खबरें देश के अन्य हिस्सों में पहुंचने लगी और पंजाब के साथ हरियाणा के किसानों का समर्थन आंदोलन को मिल गया, तो सरकार और उसके तंत्र का  प्रचार अभियान निष्प्रभावी  पड़ गया।

दूसरी जीत जो किसानों की थी, आरएसएस-भाजपा के सांप्रदायिकता के सबसे बड़े हथियार को तोड़ देना। यह आन्दोलन  सिख धर्म या सिखों के आंदोलन की जगह पर संपूर्ण भारत और खासकर दिल्ली के इर्द-गिर्द के करोड़ों किसानों के आंदोलन में  बदल गया।

किसान आंदोलनकारियों ने दूसरी विजय हासिल कर ली और भाजपा का सबसे मजबूत हथियार जो सांप्रदायिक विभाजन का होता है, उसे दिल्ली के नागरिकों, छात्रों, नौजवानों और किसानों ने सूझबूझ के साथ ध्वस्त कर दिया।

तीसरा, सतलुज नहर के जल बंटवारे के सवाल को लेकर हरियाणा की भाजपा सरकार और पार्टी ने पंजाब और हरियाणा के बीच में बहुत प्राचीन विभाजन को फिर से जिंदा करना चाहा।

लेकिन, हरियाणा के किसानों ने ही  भाजपा को आईना दिखाते हुए कहा, कि बंटवारे की राजनीति बंद करो, हरियाणा और पंजाब सहोदर भाई हैं।

हम अपने आपसी विवाद हल कर लेंगे। पहले तुम काले कानूनों को वापस लो। हरियाणा के किसानों की  मजबूत पहल ने भाजपाइयों के आंदोलन को टांय-टांय फिस्स् कर दिया। चार, दिल्ली के इर्द-गिर्द किसानों के समर्थन में छात्रों और नागरिकों का हुजूम उमड़ पड़ा।

इससे, किसानों की मांगों के समर्थन का सामाजिक विस्तार होना शुरू हुआ,  जिसमें राज्य-दमन, राजनीतिक बंदियों की रिहाई और अन्य सवाल जुड़ने लगे, तो कुछ राजनीतिक बंदियों को केंद्र करके कहा गया, कि इस आंदोलन के पीछे उग्रवादी वामपंथी ताकतों का हाथ है।

‘आइसा’ जैसे छात्र संगठनों के प्रयास से आंदोलन को बड़े धरातल पर ले जाने से नागरिक समाज का बहुत बड़ा समर्थन हासिल हो गया।

हरियाणा के किसानों के  जोशीले  समर्थन और सहयोग ने सरकार द्वारा संचालित सांप्रदायिक और विभाजनकारी रणनीति को निष्प्रभावी कर दिया।

दिल्ली के इर्द-गिर्द एक लंबी पट्टी में किसानों के बीच में गहरा सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ता है। वह चाहे हिंदू हो, सिक्ख हो या मुसलमान ।

आमतौर पर इस इलाके में किसान खाप पंचायतों के द्वारा संगठित हैं ।खाप पंचायतें एक बहुत ही प्राचीन सामाजिक ढांचा है, लेकिन आज के दौर में भी यह बहुत गहरा सामाजिक  प्रभाव रखती हैं ।

हरियाणा में खाप पंचायतों ने इस आंदोलन को अपने हाथ में लेकर हरियाणा को किसान आंदोलन की अग्रिम चौकी में बदल दिया।

जिसके चलते सिख-विरोधी प्रचार अभियान, जो भाजपा सरकार, आईटी सेल, आर एस एस और मीडिया  के हजारों मुंह से एक सुर में संचालित हो रहा था, वह निष्प्रभावी हो गया और किसान आंदोलन एक मजबूत सामाजिक आंदोलनकारी ताकत के रूप में दिल्ली के बॉर्डर पर जम गया।

दूसरी तरफ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  मौजूद सामाजिक-धार्मिक विभाजन आंदोलन की ताप में पिघल कर धीरे-धीरे समाप्त होने लगा।

किसानों का बहुत बड़ा समूह पुनर्विचार की अवस्था में पहुंचा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी खाप पंचायतों में 36 जातियों के साथ हिंदू-मुस्लिम भी संगठित हैं।

दोनों धर्मों के किसान नेता और किसान संगठन पिछले दिनों  भाजपाइयों के षड्यंत्र का शिकार हो जाने की स्थिति  पर अफसोस, पश्चाताप और ग्लानि का इजहार करने लगे।

आपको याद होगा, कि मुजफ्फरनगर की एक पंचायत में  जौला खाप पंचायत के प्रमुख गुलाम मोहम्मद जौला ने जब यह कहा, कि आप जाट भाइयों ने दो बड़ी गलती की ।

एक, हम मुसलमानों को मारकर और बेघर करके किसानों की एकता को तोड़ा और दूसरा चरण सिंह  और महेंद्र सिंह टिकैत की  विरासत को आपने भूलकर और अजीत सिंह को हराकर एक बहुत बड़ी गलती की।

उस समय लाखों की भीड़ में सबकी आंखें नम हो गयीं। जयंत चौधरी और राकेश टिकैत ने जौला साहब का पैर छूकर माफी मांगी ।

राकेश टिकैत ने तो यहां तक कहा, कि  हमसे गलती हुई है। हमने भाजपा को समर्थन और वोट देकर देश और समाज के साथ गद्दारी की।

इस घटना ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी सामाजिक शक्तियों के संतुलन को पलट दिया और किसान आंदोलन ने जमीन तक अपना पांव फैला लिया।

27 जनवरी की रात में जब गाजीपुर बॉर्डर पर भाजपाई गुंडे पुलिस के साथ मिलकर किसानों को खदेड़ने, मारने-पीटने और पीछे धकेल देने की कोशिश कर रहे थे तो राकेश टिकैत की दर्द भरी आवाज को सुनकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लाखों लोग गाजीपुर बॉर्डर की तरफ दौड़ पड़े।

इस सक्रिय और जुझारू एकता ने भाजपा के टकराव, दमन,  विभाजन और आतंक की रणनीति को धूल चटा दिया था ।

उसी दिन से किसान आंदोलन का  प्रभाव  और जड़ें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज में बहुत गहरायी तक पहुंच गयी, जिसे आज तक लंबी कोशिश के बावजूद भी भाजपा और उसकी सरकार उखाड़ नहीं पा रही है।

लगातार वार्ता से लेकर षड्यंत्र रचने  और सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग का अनवरत चल रहा प्रयास भी किसान आंदोलन को कमजोर नहीं कर सका।

किसान आंदोलन अपनी धीमी  और सुचिंतित गति से आगे बढ़ता जा रहा है। दस चक्र की वार्ता में किसानों को उलझाने, लालच देने, तोड़ने और किसी हद तक समझौते पर चले जाने के लिए सहमत कर लेने  की कोशिशें भी  असफल  हो गयी।

गांव में  नीचे  तक किसानों का  आंदोलन फैल चुका है और दिल्ली पर लगे मोर्चे के साथ मजबूती से  खड़ा है।

अभी तक किसान आंदोलन में भाजपा की सभी रणनीतियों को, जो किसी आंदोलन को बिखेर देने के लिए अपनायी जाती है, उन्हें सफल नहीं होने दिया है।  लगता है, किसान आंदोलन को बहुत लंबे सफर पर जाना होगा और बहुत लंबी, कठिन यात्रा तय करनी होगी।
(अगली कड़ी में जारी)

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