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प्रिय कवि मंगलेश डबराल की याद में

लखनऊ के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने आज मंगलेश डबराल और राघव नरेश की स्मृति में शोक सभा आयोजित करके उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। शोक सभा की अध्यक्षता करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने कहा कि मंगलेश डबराल के साथ उनकी ‘अमृत प्रभात’ के दौर से ही कई स्मृतियाँ हैं। उन्होंने उनकी कई कहानियों को छापा और अपनी रचना धर्मिता से प्रभावित किया। राकेश ने मंगलेश डबराल की ‘कविता’ शीर्षक कविता को उद्धृत करते हुए कहा कि मंगलेश की कविताओं में आम जनजीवन की बेहतरीन समझ प्रस्तुत होती है।

मंगलेश डबराल को याद करते हुए जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कवि कौशल किशोर ने कहा कि मंगलेश से भावनात्मक निकटता कविता की वजह से हुई। वे उनकी कविता के पाठक और आलोचक दोनों रहे। उनकी कविता में दुख व निराशा है तो वही उम्मीद भी है। यहां पहाड़ दुख की तरह टूटता है । वे कहते भी हैं कि मुझे खिड़की खोली चाहिए जो तमाम खिड़कियों के खुलने की शुरुआत है । उनके जीवन और कविता में खिड़कियां लगातार खुलती चली गई। लखनऊ में नवचेतना सांस्कृतिक संगठन से उनका जुड़ाव था। उनकी वैचारिकी नक्सलबाड़ी विद्रोह से तैयार होती है । जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में रहे और इस दौर में कविता 16 मई के बाद के अभियान के साथी रहे। उनका असमय जाना हम सभी को मर्माहत कर गया है।
आलोचक नलिन रंजन सिंह ने मंगलेश डबराल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि मंगलेश को एक खांचे में फिट करके नहीं रखा जा सकता। मंगलेश डबराल कवि होने के साथ-साथ एक बेहतरीन पत्रकार, संपादक, अनुवादक पटकथा लेखक और संगीत की समझ रखने वाले इंसान थे। उन्होंने मंगलेश डबराल की पहाड़, शहर, व्यक्ति और मनः स्थितियों से जुड़ी हुई तमाम कविताओं का जिक्र किया। नलिन रंजन ने मंगलेश डबराल की कविता ‘तानाशाह कहता है’ का पाठ भी किया।
पत्रकार नागेंद्र प्रताप ने मंगलेश डबराल के अवदान को याद किया और बताया कि साहित्यकार-पत्रकार तो बहुत हुए लेकिन मंगलेश डबराल जैसे सुधी और लोकतांत्रिक सम्पादक बिरले ही होते हैं। पत्रकारिता में साहित्यिक मठाधीशी के दौर में भी वे मंगलेश डबराल ही बने रहे। एकदम ओरिजिनल वाले मंगलेश डबराल। जनसत्ता के रविवारीय परिशिष्ट को अगर राष्ट्रीय पहचान मिली तो उसका कारण मंगलेश डबराल ही थे। लेकिन उससे पहले लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ को उन्होंने जो स्वरूप दिया और जिसके साप्ताहिक परिशिष्ट के जरिये मेरे जैसे तमाम पत्रकारों को लिखने का बड़ा अवसर ही नहीं संस्कार भी दिया, वह उनका बहुत बड़ा योगदान है। यह हिंदी के सम्पादकों, खासकर मठाधीश साहित्य सम्पादकों के लिए किसी सीख से कम नहीं है। ये सुखद संयोग ही नहीं मेरा सौभाग्य है कि पत्रकारिता के शुरुआती तीन वर्षों में मुझे उनका लखनऊ में साथ मिला तो अखबारी नौकरी से मेरे रिटायरमेन्ट पूर्व के तीन वर्षों में मुझे दिल्ली में उनका सानिध्य मिला। उनका जाना मेरे लिए बड़ी व्यक्तिगत क्षति है।

 जसम के भगवान स्वरूप कटियार ने कहा कि वरिष्ठ कवि, पत्रकार मंगलेश डबराल का अनायास जाना सम्पूर्ण बौध्दिक जगत को उदास कर गया। उनकी लेखकीय और वैचारिक सक्रियता की जो गति और धार थी उससे उनके इस तरह जुदा होने की कतई उम्मीद नहीं थी। पूरा सृजन जगत उन्हें बचाने में जिस मुश्तैदी से लगा था उससे उम्मीद जगी थी कि हम उन्हें अपने बीच से जाने नहीं देंगे। पर जो हुआ वह हम सबके लिए गहरा आघात है क्योंकि मंगलेश हम सबके थे।

  वह एक संवेदनशील कवि, प्रखर पत्रकार, अनुवादक और आलोचक तो थे ही वह दोस्तों के दोस्त और हर वक़्त मदद के लिए तत्पर रहने बहु आयामी शख़्शियत थे। जनसंस्कृति मंच के शीर्ष नेतृत्व में होने के कारण उनसे मिलना जुलना और मंच शेयर करना अक्सर होता रहता था। वह जितना मुझसे जुड़े थे उतना ही मेरी बेटी प्रतिभा से भी जुड़े थे। उसके कार्यक्रम ‘कविता कारवां’  देहरादून में भी वह शामिल हुए थे। उन्होंने अपने को एक कविता में इस तरह प्रस्तुत किया है,  “मैं थोड़ी मिट्टी हूँ /थोड़ी हवा/थोड़ी धूप /और थोड़ा पानी/छड़ भंगुर हूँ मैं /मिट्टी में मिल जाना है एक दिन।

कवि-आलोचक चंद्रेश्वर ने अपने वक्तव्य में कहा कि सत्ता और व्यवस्था के विरूद्ध प्रतिरोध की बड़ी आवाज़ थे मंगलेश डबराल। हम सब के मानस में उनकी एक बड़े और लोकप्रिय कवि की छवि बनी हुई थी। दिल्ली में होने या उनके पहाड़ के होने के बावजूद उनसे ज़्यादा आत्मीयता या निकटता का अनुभव होता था। वे अपने पारिवारिक जन की तरह लगते थे। इसकी मूल वजह उनकी रचनाशीलता ही रही है। उनकी कविताओं का मैं आरंभ से ही प्रशंसक रहा हूँ। सच कहूँ तो मैंने उनको पढ़ते हुए कविताएँ लिखना सीखा है। हिन्दी की समकालीन कविता में उनकी सक्रियता और उपस्थिति के बड़े एवं विशेष मायने थे। वो देश में सत्ता और व्यवस्था के विरूद्ध साहित्य में प्रतिरोध की एक बड़ी आवाज़ थे। इस बुरे और मुश्किल वक़्त में उनका विदा होना हमें कमज़ोर बना रहा है। उनकी कविताएँ अपने वक़्त का न सिर्फ़ आईना हैं; बल्कि वे उसे समझने में भी हमारी मदद करती हैं। वे हमें आँखें प्रदान करती हैं और नयी राह भी दिखाती हैं।

मंगलेश डबराल समकालीन कविता में एक ऐसी अनोखी शख़्सियत थे जिनसे बहस की जा सकती थी, जिनसे उलझा जा सकता था, उनसे नाराज़ हुआ जा सकता था। वे किसी के प्रति स्थायी तौर पर कोई ग्रंथि नहीं पालते थे।

कवयित्री विमल किशोर ने मंगलेश डबराल की दो कविताओं का पाठ किया। सभी वक्ताओं ने राघव नरेश के असमय निधन पर दुख व्यक्त किया और राघव नरेश को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह कामना की कि इस दुख की घड़ी में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को धैर्य बनाए रखने की शक्ति मिले। इस अवसर पर शैलेंद्र सागर, ऋषि श्रीवास्तव, कल्पना पांडेय, इंदु पांडेय सहित तमाम साहित्य प्रेमी और संस्कृति कर्मी उपस्थित थे।

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