(आज वीरेन डंगवाल का जन्मदिन है। वह हमारे साथ होते तो आज 73 बरस के होते। उनके जन्मदिन पर समकालीन जनमत विविध विधाओं में सामग्री प्रकाशित कर रहा है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है डॉ. कामिनी का यह लेख: सं।)
वीरेन डंगवाल की कवितायें हमारे परिवेश को समग्रता में व्यक्त करती हैं। रोज़मर्रा की जिंदगी में निहायत मामूली और गैरज़रूरी लगती हुई चीजें उनकी कविता में गरिमामय सौंदर्य के साथ उपस्थित हैं। कुत्ता, बिल्ली, गाय से लेकर चूहे और मक्खी तक के क्रियाकलाप पर कवि की बारीक नजर है। दरअसल वीरेन की पूरी कविता ही जन-जीवन में गहरे धँसी हुई है। उनकी कविताई कई बार प्रेमचंद का स्मरण कराती है, जैसे प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ते हुए हमें लगता है कि यह तो हमारे अगल-बगल, घर-गाँव की ही कोई घटना है ठीक उसी तरह वीरेन की कविता के सभी विषय हमें एक अपनेपन से बांधे रहते हैं। एक सम्पूर्ण जीवन उनकी कविताई में दिखाई पड़ता है जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों से लेकर हवा तक शामिल है –
वह बहती है सुरंगों के भीतर
खुफ़िया संकेत भेजती
हू-हू-हू करती
टेलीफोन के खंभों के अंदर सनसनाती
और हम कितने भोले हैं
कि फूल के हिलने में मासूमियत खोजकर
रीझ जाते हैं।
मामूली चीजों को गरिमा देना उनकी कविता का एक पक्ष है तो वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के खतरों की सटीक पहचान करना उसका दूसरा पक्ष है। आज के समय में जिस तरह फासीवादी ताकतें सभ्यता और संस्कृति का मुखौटा पहन कर हत्या का तंत्र रच रही हैं उसकी मजबूत शिनाख्त हमें वीरेन की कविता में मिलती है। मिसाल के तौर पर हम उनकी कविता ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ की पंक्तियाँ ‘संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुसकाती / इनकी असल समझना साथी’ या ‘रामसिंह’ की यह पंक्ति ‘वे माहिर लोग हैं रामसिंह / वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं’ को देख सकते हैं। तथाकथित विकास का हल्ला मचाकर असमानता की जो भयावह खाई खोदी जा रही है उसकी विडम्बना वीरेन एक बहुत सहज-सरल व्यंग्य से उजागर करते हैं –
अब दरअसल सारे खतरे खत्म हो चुके
प्यार की तरह
दरअसल चारों तरफ चैन ही चैन है
एक –एक बच्चा जा रहा है स्कूल
बस में ,स्कूटर पर , साइकिल से
हर पेट भरा हुआ है
और इन आधुनिक पोशाकों का तो कहना ही क्या
वे भी हरेक के पास हैं कई-कई जोड़ा
आज जब देश के अनेक हिस्सों से लगातार भूख के कारण आत्महत्या से लेकर हत्या तक की खबरें सुनाई पड़ रही हैं उपर्युक्त कविता की अर्थवत्ता को समझा जा सकता है। वीरेन की कविता जन–जीवन के इसी कटु यथार्थ की कविता है।
उनकी कविता में आई स्त्रियाँ भी इसी जन-जीवन का हिस्सा हैं। उन्हें वे मनुष्य के रूप में पहचानने और रेखांकित करने की कोशिश करते हैं । उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘पोथी पतरा ज्ञान कपट से बहुत बड़ा है मानव’ तो उनकी पूरी कविता मानवीयता की कविता है। वे किसी को कहीं भी विशिष्ट बनाने की कोशिश नहीं करते बल्कि हर चीज का चित्रण उसकी पूरी साधारणता के साथ करते हैं ।जैसा कि मंगलेश डबराल ‘कविता वीरेन’ की भूमिका में लिखते हैं ‘साधारण चीजों की एक असाधारण दुनिया दिखाने का काम हिन्दी कविता में कुछ हद तक हुआ है, लेकिन वीरेन की कविता जैसे एक जिद के साथ कहती है कि मामूली लोग और मामूली चीजें दरअसल उसी तरह हैं जिस तरह वे हैं और इसी मामूलीपन में उनकी सार्थकता है, जिसे पहचानना उनके जीवन का सम्मान करना है और हम जितना अधिक ऐसे जीवन को जानेंगे, उतने अधिक मानवीय हो सकेंगे।’ शायद इसी सहजता को बनाए रखने के लिए वीरेन डंगवाल स्त्रियों को अलग करके बमुश्किल एकाध कवितायें लिखते हैं लेकिन स्त्रियों की वह छवि जो हमारे समाज का बड़ा यथार्थ है उसे उनकी पूरी कविता में देखा जा सकता है।
वीरेन डंगवाल की कविता पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्चक्र को उघाड़ती हुई चलती है। ‘हमारा समाज’ कविता में इस पूंजीवादी व्यवस्था की असलियत को उजागर करते हुए वे कहते हैं–– ‘पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है/ वह कत्ल हो रहा सरेआम चौराहे पर/ निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है |’ इस व्यवस्था ने मनुष्य-मनुष्य के बीच गहरी खाई खींच दी है, स्त्रियाँ इस दुश्चक्र की दोहरी शिकार हैं, वर्गभेद और लिंगभेद दोनों तरीकों से। वीरेन समाज की वर्गीय संरचना को बहुत गहराई से महसूस करने वाले कवि हैं और यही कारण है कि उनके यहाँ आने वाली लगभग सभी स्त्रियाँ निम्न वर्ग से जुड़ी हुई श्रमशील स्त्रियाँ हैं। पितृसत्ता से लड़ने के पहले उनके सामने रोटी का संकट है। हमारे समाज का जो वर्गीय ढांचा है वह स्त्रियों की स्थिति और उनकी लड़ाई को अलग-अलग नजरिए से देखने की मांग करता है। एक निम्न वर्गीय स्त्री के सामने सिर्फ वही लड़ाई नहीं होती जो एक पढ़ी-लिखी सम्पन्न स्त्री के सामने होती है। उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती रोजी-रोटी की है फिर शिक्षा व अन्य अधिकारों की बात आती है। वीरेन डंगवाल की कविता स्त्री जीवन के इसी बुनियादी संकट का उल्लेख करती है और साथ ही साथ परिवार में स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति को रेखांकित करती चलती है। इसीलिए यदि हम स्त्री विमर्श की दृष्टि से यहाँ पर कुछ खोजने का प्रयास करेंगे तो निराश होना पड़ सकता है लेकिन वर्ग-संघर्ष के बीच स्त्री जीवन का संघर्ष वीरेन की पूरी कविता में सहज व्याप्त है।
एक कविता है ‘वह आ रहा है’ यूं तो यह कविता एक बढ़ते हुए बच्चे के जीवन को लेकर लिखी गई है लेकिन इसी क्रम में चार पंक्तियाँ आती हैं जो समाज में स्त्री की स्थिति के कटु सत्य को उजागर करती है –
अभी उसे पता नहीं कि क्यों
वयस्कों की एक दुनिया के
प्रचलित शब्द आजादी का उच्चारण
वयस्कों की दूसरी दुनिया में वर्जित है
इसी तरह उनकी कविता है ‘रामसिंह’। रामसिंह एक सिपाही है जो छुट्टी पर अपने घर जाने की तैयारी में है। वह हमारी व्यवस्था का एक ऐसा व्यक्ति है जिसको सीमा पर मरने-मारने के लिए खड़ा कर उसकी बुद्धि –विवेक को हर लिया गया है। कवि उसको उसकी स्मृतियों में ले जाता है, इन स्मृतियों में उसकी माँ की जो छवि आती है वह एक निम्नवर्गीय परिवार की स्त्री के जीवन की पीड़ादायक स्थिति को अभिव्यक्त करती है –
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अंग्रेज़ बहादुर की खिदमत करता
माँ सारी रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हुई माँ होती थी बिल्ली की तरह
एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी संपत्ति और पितृसत्ता’ में हम यह देखते हैं कि वह पूंजी ही है जो समाज को पितृसत्ता की ओर ले जाती है और जैसे-जैसे इसका प्रसार होता गया है स्त्री की गुलामी बढ़ती गई है। पूंजी के संग्रहण ने ही उत्तराधिकार के प्रश्न को जन्म दिया और इसने स्त्री को किसी न किसी पुरुष की निजी वस्तु के रूप में बदल दिया। पूंजी ने ही स्त्री को समाज में दोयम दर्जे पर स्थापित किया और उससे जुड़े विभिन्न अपराधों को भी जन्म दिया। इसी तरह का एक अपराध दहेज के कारण की जाने वाली हत्याओं का भी रहा है। आज तक न जाने कितनी लड़कियां इस दहेज की बलि चढ़ चुकी हैं। ‘बस में लंबे सफर का एक टुकड़ा’ कविता में कवि रास्ते में आने वाले विविध चित्रों का वर्णन करता चलता है कि अचानक कुछ लोगों को देखकर उसे एक लड़की दीपा विश्वास की याद हो आती है जिसे महज एक रंगीन टी वी की खातिर जला दिया गया था –
कहाँ-कहाँ तक आ पहुंचे स्कूटर
कहाँ-कहाँ तक हत्यारे
रोकते हुए कुत्सित इच्छाओं के विस्फोटक
उजाड़ते हुए जीवन की शुभता
आई याद मुझे दीपा विश्वास
खचाखच जीवन से
जैसे खुद को साबित करती बहती हो हवा
………………………………..
दीपा विश्वास
कल ही तो बंधा मौर माथ गालों पर गाढ़े प्रवाल
कल ही तो शुरू हुआ जीवन में
उत्सुकता झंझट से भरा हुआ नया साल
मार डाली गई आज वतन से दूर
पति के घर में
रंगीन टीवी की खातिर
वीरेन की एक बहुत चर्चित कविता है ‘पी.टी. उषा’। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ इस तरह हैं ‘आँखों की चमक में जीवित है अभी/ भूख को पहचानने वाली विनम्रता/इसीलिए चेहरे पर नहीं है/ सुनील गावस्कर की छटा’। भूख की यह पहचान वीरेन की कविता में प्रमुखता से मौजूद है इसीलिए सभी चीजें उसी से जुड़ी हुई हैं और इसी क्रम में ही वे स्त्री शोषण के विविध रूपों को उजागर करते हैं। मसलन उनकी कविता है ‘जहां की महिलाएं हो गई कहीं’ प्रथमदृष्ट्या यह कविता पढ़ते हुए लगता है कि कवि महिलाओं के घर में न रहने पर मिलने वाली स्वतन्त्रता का हिमायती है लेकिन जैसे ही हम इस कविता के भीतर उतरते हैं समझ में आने लगता है कि कितनी सहजता से कवि स्त्री जीवन की विवशता को अभिव्यक्त कर रहा है। एक स्त्री का पूरा जीवन किसी घर को व्यवस्थित करने में बीत जाता है और उनके इस कार्य का कोई मूल्य भी नहीं स्वीकार किया जाता। वे मायके को अपना कह नहीं सकती हैं, ससुराल तो खैर पति का घर होता है और अमूमन उन्हें यही शिक्षा दी जाती है कि वही स्त्री का असली घर है जहां अन्याय, अत्याचार को सहते हुए भी उसे गुजारा करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्री का अपना स्पेस नदारद है वह पुत्री, बहन या पत्नी के रूप में ही हो सकती है। इस पूरी बात को यह कविता बड़े सटीक ढंग से व्यक्त करती है –
वे लौटेंगी
कुछ अनमनी मायके से
भाभी से कुछ रूठी
तनिक खुश
अपने नरक की बेतरतीबी में ही ढूँढ़ेंगी वे
अपनी अपरिहार्यता की तसल्ली
खीझ भरी प्रसन्नता के साथ।
इसी मिजाज की अन्य कविताओं में हम ‘माँ की याद’ तथा ‘हम औरतें’ कविता को रख सकते हैं। ‘माँ की याद’ में कवि प्रश्न करता है कि क्या माँ हाड़-मांस के बने किसी मनुष्य से अलग होती है ? हमारे समाज में एक औरत के माँ बनने के बाद का सारा जीवन बच्चों की देख-रेख और उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को पूरा करने में बीत जाता है। घर-परिवार की सभी समस्याओं का सामना करने के लिए वे ही सबसे आगे खड़ी होती है –
या यह कि हम मनुष्य हैं और एक
सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा है हमारी
जिसमें माएँ सबसे ऊपर खड़ी की जाती रही हैं
बर्फीली चोटी पर
और सबसे आगे
फायरिंग स्क्वैड के सामने
‘हम औरतें’ कविता में कवि औरत के जीवन की इसी दशा का वर्णन करता है जहां वे बच्चों से लेकर पति तक की आकांक्षाओं,आदेशों का पालन करती हुई अपनी इच्छाओं को आजीवन दबाती चलती हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों में इस व्यवस्था से आजिज़ आ वह कहती है –
हम हैं इच्छामृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ मार लेने दो हमें कमबख़तों !
इसी सिलसिले में उनकी ‘प्रेम कविता’ का भी जिक्र किया जा सकता है जहां कवि दांपत्य प्रेम का खूबसूरत चित्रण करता है। यहाँ भी वह इस बात को लेकर पूरी तरह सचेत है कि कैसे एक स्त्री परिवार के निर्माण में अपना पूरा जीवन खपा देती है और अपनी इच्छाओं को बमुश्किल जाहिर करती है –
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाये
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र
यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !
आज की कॉरपोरेट पूंजीवादी व्यवस्था की सर्वाधिक विनाशक नजर हमारे जंगलों पर है क्योंकि वे खनिज संपदा से भरे हुये हैं और उनकी खुली लूट में शासन-प्रशासन से लेकर सत्ता का पूरा तंत्र शामिल है। इस व्यवस्था के नुमाइंदे जंगल की संपदा को तो लूटते ही हैं साथ ही वहाँ के बाशिंदों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी करते हैं। उनकी बर्बरता का सबसे ज्यादा शिकार लड़कियां और महिलायें होती हैं। ‘वन्या’ कविता इस नई सभ्यता के जंगलों में दखल के परिणामस्वरूप निम्नवर्गीय लड़कियों के दैहिक शोषण को बहुत कम शब्दों में लेकिन तीखेपन के साथ व्यक्त करती है। जंगल में घास और लकड़ियाँ बीनने जाने वाली लड़कियां कब उनके शोषण का शिकार हो जाएंगी इसका कोई भरोसा नहीं। इस कविता में कवि उनके शोषण के प्रमुख कारण गरीबी का भी चित्रण करता है जहां ठेकेदार और उनके आदमियों के चले जाने के पश्चात वे वन की तरफ इस आशा से भी जाती हैं कि जहां उनके तम्बू लगे थे शायद वहाँ से कुछ माचिस, मोमबत्ती और खाली बोतलें मिल जाएँ। जंगल में चीड़ के पेड़ों के विलाप में छिपी किसी लड़की की कराह और कुछ कहने का अवकाश नहीं छोडती –
ठेकेदार के आदमी गये
चली गईं जंगलात के अफ़सरों की गुर्राती हुई जीपें
अब कोई ख़तरा नहीं है दिदी
चलती हो घास लाने बण की तरफ?
……………………………………….
‘अकेली मैं कैसे जाऊँगी वहाँ
मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़
सुनाई देने लगती है किसी घायल लड़की की दबी-दबी कराह’
लड़कियों की यह कराह और चीत्कार उनकी ‘धन का घन’ कविता में भी सुनी जा सकती है जो दिखाती है कि पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामों और उसकी सर्वाधिक मार झेलती लड़कियों के दुख के प्रति कवि कितना सजग और संवेदनशील है।
‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा’ कविता में हम एक निम्नवर्गीय स्त्री के जीवन के दोहरे संघर्ष की त्रासदी को देख सकते हैं। रुकुमिनी का एक भाई जेल में सिर्फ इसलिए है क्योंकि वह अपने परिवार की रोजी-रोटी के लिए थोड़ी शराब बना रहा था , जबकि कितने बड़े-बड़े और रसूखदार लोग इसी के अवैध व्यवसाय से करोड़पति बने हुये हैं। उसका छोटा भाई सिर्फ दस हजार की फिरौती न दे पाने के कारण मार डाला गया । अब उसकी माँ भी कच्ची खींचने की उस्ताद हो चुकी है लेकिन इसके बदले में उसे थानाध्यक्ष के साथ समझौता करना पड़ा है। यह केवल रुकुमिनी और उसकी माँ की ही कथा नहीं उन जैसे तमाम लोगों की कथा है। रुकुमिनी की माँ की इच्छाएँ गोदान के होरी की याद दिलाती हैं जो कि हमारे समाज के एक बहुत बड़े वर्ग का सच है। इन सब के बीच रुकुमिनी जिसने अभी-अभी चौदह की उम्र पार की जीवन की भयानक सच्चाईयों से परिचित हो चुकी है –
एवम प्रकार
रुकुमिनी समझ चुकी है बिना जाने
अपने समाज के कई जटिल और वीभत्स रहस्य
अपने निकट भविष्य में ही चीथड़ा होने वाले
जीवन और शरीर के माध्यम से
गो कि उसे शब्द ‘समाज’ का मानी भी पता नहीं
सोचो तो ,
सड़ते हुए जल में मलाई सा उतराने को उद्यत
काई की हरी –सुनहरी परत सरीखा ये भविष्य भी
क्या तमाशा है
और स्त्री का शरीर !
तुम जानते नहीं, पर जब-जब तुम उसे छूते हो
चाहे किसी भाव से से
तब उस में से ले जाते हो तुम
उसकी आत्मा का कोई अंश
जिसके खालीपन में पटकती है वह अपना शीश।
यह इस सड़ते हुए जल की बात है
जिसकी बगल से गुजरता है मेरा अलग रास्ता।
वीरेन डंगवाल की कविता में स्त्रियाँ रोपनी करती हुई, खेत गोंड़ती हुई, घास काटती हुए, संतरे बेचती हुई या जंगल से लकड़ियाँ बीनती हुई दिखाई पड़ती हैं। उनकी कविता में रेलवे प्लेटफार्म की वह बावली स्त्री भी है जिसे हमारे समाज ने बर्बरता से नोचा-खसोटा है और अब भी उसके शोषण से बाज़ नहीं आ रहा है।
हमारे समाज ने धर्म से जुड़े ज़्यादातर कर्मकांडों को महिलाओं के हवाले कर पितृसत्ता की जकड़न को और मजबूत बनाया है। स्त्रियों को ही सुहाग की सारी निशानी पहनने के लिए बाध्य किया गया तथा सारे व्रत त्योहार का अनुष्ठान उनके ही सर मढ़ दिया गया। इस तरह से देखा जाय तो इज्जत और धर्म का सारा ठेका महिलाओं के हवाले कर उनकी ऐसी कन्डीशनिंग की गई कि उन्होंने इसे खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। वीरेन डंगवाल की असंकलित कविताओं में एक कविता है ‘परिकल्पित कथालोकांतर काव्य नाटिका नौरात, शिवदास और सिरीभोग वगैरह’ इस कविता में कवि पूजा-पाठ में स्त्रियों की भागीदारी के पीछे आस्था के साथ जुड़ी एक और महत्वपूर्ण चीज की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है और वह है पूजा पाठ के बहाने ही सही ‘घर से बाहर निकलने की छुट्टी की खुशी’। इस कविता के अंत में कवि हाशिये के सभी लोगों को संबोधित करता हुआ कहता है –
इसलिए सुन लो सब यह नया गाना :
राज्जों , बजीरों का शास्त्रों पुरानों का नाश हो
जिन्होंने हमें गुलाम बनाया |
इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाये बैठे हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों में
और हमारे मनों में।
यह सच है कि वीरेन डंगवाल अपने समकालीन कवि आलोक धन्वा की ‘भागी हुई लड़कियां’ या ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ की तरह स्त्री जीवन पर सम्पूर्णतः एकाग्र कोई एक कविता नहीं लिखते लेकिन उनकी कविताओं में स्त्री-जीवन का यथार्थ और संघर्ष पूरेपन के साथ मौजूद है | वे ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा’ के रूप में निम्नवर्गीय स्त्री के संघर्ष और शोक की गाथा लिखते हैं। यह अकारण नहीं है कि उनकी ज्यादातर व्यक्ति आधारित कवितायें बेटियों पर ही हैं उदाहरण के रूप में ‘भाषा, मेरे दोस्त की बेटी’, ‘समता के लिए’, ‘पी.टी.उषा’ और ‘मिष्टू का मामला’ आदि को देखा जा सकता है। दरअसल वीरेन की कवि दृष्टि स्त्री को लेकर अलग से कोई प्रयास करती नहीं दिखती। उनकी कविता में स्त्री अपनी जगह ठीक उसी तरह घेरती आती है जिस तरह वह समाज में आशंका, संघर्ष, प्रताड़ना और आकांक्षाओं के बोझ तले दबी हुई दिखती है। अमूमन कवियों की करुणा स्त्री को कुछ विशेष बना देती है। वह कभी देवी, कभी विशेष मनुष्य, कभी ममत्व में सीमित होती रही है लेकिन वीरेन के यहाँ करुणा के अतल अजस्र प्रवाह के बावजूद वह अपने ठेठपने में मौजूद है बिना कोई विशेषण ग्रहण किए।
(डॉ. कामिनी छत्तीसगढ़ के एक महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाती हैं।)