समकालीन जनमत
शख्सियत

वो अभी भी मेरे साथ हैं और हमेशा रहेंगे

(5 अगस्त को हिंदी के फक्कड़ कवि वीरेन डंगवाल का जन्म दिन होता है. अगर वे जीवित होते तो आज 73 वर्ष के होते . वीरेन दा की जीवन संगिनी रीता डंगवाल से बातचीत कर यह आत्मीय संस्मरण युवा पत्रकार शालिनी बाजपेयी ने तैयार किया. सं.)


हम सब के प्यारे ‘वीरेन दा’ को गए पांच साल हो गए लेकिन उनकी यादें उनके चाहने वालों के दिलों में आज भी ताज़ा हैं। वीरेन जी सरल, सहज और मिलनसार व्यक्ति थे इसलिए उनके मेलजोल का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा था। वीरेन जी के इस सफर में उनका साया और उनका सम्बल रहीं उनकी संगिनी, उनकी हमसफ़र रीता जी।

घर आने वालों को वीरेन जी लिविंग रूम के तख्त पर बैठे मिलते और रीता जी डायनिंग टेबल की कुर्सी पर। कोई नया शख्स घर में आता तो वीरेन जी रीता जी से उसका परिचय कराते। रीता जी भी गर्मजोशी से उसका स्वागत करतीं। उसके लिए चाय-पानी लातीं। इसके बाद चुपचाप उसी कुर्सी पर बैठी सबकी बातें सुनती रहतीं।

वीरेन जी की वर्षगांठ के विषय में जब संजय जोशी जी से मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने कहा की रीता जी की नजर से वीरेन जी को जानना और दिलचस्प होगा। उनसे भी कुछ जानना चाहिए कुछ लिखवाना चाहिए।

वीरेन जी ने रीता जी को समर्पित ‘प्रेम कविता’ में एक अद्भुत बिम्ब रचा था- ‘शोक के लौ की तरह एकाग्र’। वीरेन जी के न रहने पर रीता जी बारे में सोचने पर यहीं पंक्तियां बार-बार कौंध जाती थीं और मैं उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाती थी।

जब संजय जी ने कहा कि तुम उनसे बात करो। तब मुझे लगा कि मैं उनसे कैसे बात करूं। जब से बरेली छूटा है, तब से बात ही नहीं हुई। 2016 में वीरेन जी के जन्मदिन पर बरेली में होने वाले कार्यक्रम में बुलाने का साहस भी नहीं जुटा पाई थी।

संजय जी के कहने पर मैंने हां तो कर दी थी, लेकिन रीता जी को फोन करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। खैर, बड़ा साहस करके मैंने इंटरव्यू के लिए दस सवाल बनाए फिर उन्हें फोन किया। समझ में नहीं आया क्या परिचय दूँ। फिर मैंने कहा, ‘मै शालिनी हूँ। आपको याद होगा, अक्सर घर आया करती थी।’ इस वह तुरंत बोलीं, ‘हां, अमर उजाला में थी न।’ मैंने कहा, ‘जी। अब यहीं दिल्ली में एक चैनल में हूँ। और फिर सामान्य शिष्टाचार की बातें हुईं।

फिर मैंने उनसे कहा कि वीरेन जी को चाहने वाले उन्हें आपकी नज़र से देखना चाहते हैं, ‘क्या आप जनमत पोर्टल के लिए कुछ लिख सकती है।’ इस पर उन्होंने कहा, ‘लिख तो नहीं सकती। मेरी छोटी बहू के बेटा हुआ है। मैं और छोटी बहू ही घर पर हैं, बेटा बाहर है। इसलिए घर में थोड़ी व्यस्तता रहती है, लिखना संभव नहीं है।’ यह बात मैंने संजय जी को बताने के साथ ही कहा कि आप भी एक बार बात कर लीजिए हो सकता है आपके कहने से रीता जी कुछ समय निकाल लें।

संजय जी ने कहा कि वो थोड़ी संकोची स्वभाव की हैं। फिर संजय जी ने फोन करने के बाद कहा कि उनसे सवालों के जवाब ऑडियो में मंगा लो। फिर मैंने रीता जी को फोन किया और कहा, ‘आप चाहें तो ऑडियो भी रिकॉर्ड करा सकती हैं। जब भी वक्त मिले ऑडियो में एक-एक करके जवाब दे दीजिएगा। उसे हम लिख लेंगे।’ इस पर उन्होंने कहा, ‘ठीक है, कोशिश करते हैं।’ फिर संजय जी ने बात की और बताया कि ऑडियो नहीं, वह लिखकर ही भेजेंगी। दो दिन बाद रीता जी ने सवालों के जवाब लिख भेजे। आप भी पढ़ें।

बातचीत

प्रश्न– वीरेन जी को गए पांच साल हो गए। उनकी ऐसी कौन सी यादें हैं, जिनसे उनकी अनुपस्थिति में भी आपको लगता है कि वो साथ हैं?

रीता जी: हमेशा मेरे प्रति प्रेम और विश्वास का भाव रखना, ख़्याल रखना और हर परेशानी में साथ देना, इन सब बातों से उनकी अनुपस्थिति में मुझे लगता है कि वो अभी भी मेरे साथ हैं और हमेशा रहेंगे। मुझसे अलग हो ही नहीं सकते।

प्रश्न– आपका उनसे प्रथम परिचय कब हुआ?

रीता जी: विवाह के समय ही मेरा उनसे परिचय हुआ था। पहले मैं उनसे कभी नहीं मिली थी।

प्रश्न– अपने दोस्तों, सहकर्मियों और हमख्याल लोगों के साथ जिस तरह से वो खुले मन से उन्मुक्त अंदाज में पेश आते थे, क्या यह उन्मुक्तता आपके साथ भी थी या फिर संजीदा रहते थे? आपके साथ उनके दैनंदिन के व्यवहार को बताती हुई कोई घटना याद आ रही हो तो बताइए?

रीता जी: जिस तरह वो अपने मित्रों और सहकर्मियों के साथ खुले मन से मिलते वैसा ही उनका व्यवहार मेरे साथ भी था।

प्रश्न– जब आपने उनके साथ सहजीवन आरम्भ किया, तब से, उनके अंतिम समय तक क्या उनके सामाजिक या व्यक्तिगत व्यवहार में कोई बदलाव आपको महसूस हुआ?

रीता जी: सहजीवन आरम्भ करने से लेकर अंतिम समय तक उनके व्यवहार में बहुत बदलाव आया। वे बहुत सरल, स्नेही, भावुक स्वभाव के थे। फक्कड़पन, लापरवाह, लेकिन अलमस्त रहने वाले, सबको हंसाने वाले सच्चे इंसान थे। बीमारी ने जैसे उनकी हंसी छीन ली थी। हंसी की जगह गंभीरता आ गई। तकलीफ़ को कभी दिखाते नहीं थे। हमेशा चिंतित रहते थे। बीमारी के समय लोगों का आना-जाना भी पसंद करते थे। हर समय यह रहता कि मैं उनके पास ही रहूं।

( शादी के तुरंत बाद नैनीताल घुमाई की युगल तस्वीर , छायाकार : अज्ञात ))

प्रश्न– वीरेन जी तो बहुत सामाजिक व्यक्ति थे, उनकी मित्रता का दायरा बहुत बड़ा था, इसलिए अक्सर ही कोई न कोई घर पर आता रहता था। क्या यह सब आपको भी अच्छा लगता था, या कभी-कभी गुस्सा भी आता था?

रीता जी: यह सच है कि उनकी मित्रता का दायरा बहुत बड़ा था। घर पर आए पत्रकारों, साहित्यकारों, मित्रों और विद्यार्थियों का दिल से स्वागत करना। उन्हें बिना कुछ खिलाए या चाय पिलाए बिना जाने न देना उनकी आदत थी। शुरू में अजीब सा लगता था, क्योंकि मेरे लिए यह बिल्कुल नया माहौल था। पर कुछ समय बाद इसमें अच्छा लगने लगा। सबसे मिलने-जुलने में बहुत कुछ सीखने को मिला और आनंद भी आने लगा।

प्रश्न– आप दोनों की रुचियों में क्या भिन्नता और समानताए थीं, इनको लेकर कभी कोई बात हुई?

रीता जी: रुचियों में भिन्नता और समानता हर जगह होती है। हम लोगों में इसको लेकर कोई बात नहीं हुई। इनकी रुचि पढ़ने-लिखने में थी, मैं कम पढ़ती थी। फिर भी मैंने हर तरह से सहयोग दिया। हम दोनों ही सादगी का जीवन पसंद करते थे। ज्यादा की चाह नहीं थी, इसलिए सारा जीवन संतोषजनक रहा।

प्रश्न– कुछ दिलचस्प किस्से याद हों तो बताइये?

रीता जी: वैसे तो बहुत किस्से हैं, लेकिन एक किस्सा मेरी शादी के दो-ढाई साल बाद 1979 का है। हम लोग इलाहाबाद में लूकरगंज में रहते थे। दो साल के लिए वहां गए थे और मंगलेश भाई भी हमारे साथ रहते थे। उस समय वो अमृत प्रभात में थे। मेरा बेटा प्रशांत एक साल का रहा होगा। मंगलेश जी के दफ्तर जाने के कुछ देर बाद ये भी प्रेस चले जाते थे। रात फिर एक साथ वापस आते थे। एक दिन थोड़ी देर हो गई। बेटे को सुलाते हुए मुझे खुद भी नींद आ गई। जब ये घर आए तो दरवाजा न खुलने पर दोनों घबरा गए। किसी तरह सीढ़ी लगाकर ऊपर आकर मंगलेश भाई ने दरवाजा खोला। ये कमरे में एकदम घुसकर गुस्सा करने लगे। उन्हें लगा कि शायद मैंने गुस्से में जानबूझकर दरवाजा नहीं खोला। उसके बाद कई दिनों तक हंसकर मुझे चिढ़ाते हुए पूछते कि बताओ तुमने उस रात दरवाजा क्यों नहीं खोला था।

( 1979 में इलाहाबाद में अपने बड़े बेटे प्रशांत के साथ . फ़ोटो : वसीमुल हक़ )

 

प्रश्न– साहित्य के क्षेत्र में वीरेन जी का काफ़ी नाम है, क्या उन्होंने कभी आपसे कोई कविता, कहानी, उपन्यास कुछ पढ़ने के लिए कहा? क्या आप उनकी रचनाओं की पहली पाठक हुआ करती थीं?

रीता जी: मैं उनकी कविताएं पहले भी पढ़ती थी और अभी भी पढ़ती हूँ। पर उनकी रचनाओं की पहली पाठक नहीं होती थी। हम दोनों में कोई साहित्यिक चर्चा नहीं होती थी।

प्रश्न– वीरेन जी बहुत जिंदादिल शख़्सियत थे, कभी अपनी बीमारी के बारे में बात नहीं करते थे, क्या वो आपसे भी अपनी तकलीफ छिपाते थे?

रीता जी: इसमें कोई शक नहीं कि वो जिंदादिल इंसान थे। अपनी तकलीफ़ को जाहिर नहीं होने देते थे। मिलने वालों से भी अपनी बीमारी की बात न करके उनके बारे में ही ज्यादा पूछते। अपनी तकलीफ़ के बारे में हमसे भी ज़िक्र नहीं करते, बल्कि हमें तसल्ली देते थे कि सब ठीक हो जाएगा।

प्रश्न– उनके बाद आपको सबसे ज्यादा क्या याद आता है? क्या आप उनकी कविताएँ पढ़ती हैं?

रीता जी: उनके जाने के बाद सबसे ज्यादा उनकी कमी महसूस हुई। उनका हंसना, बोलना, लड़ना, मेरे लिए चिंतित रहना सब याद आता है। उस समय महसूस हुआ जैसे जीवन रुक सा गया। पर समय कहां ठहरता है। जीवन में अकेलापन और खालीपन आ गया था। बच्चों ने मेरा बहुत ख़्याल रखा, अभी भी रखते हैं। पर उनकी जगह तो कोई भी नहीं ले सकता। उनका प्रेम और साहस मुझे हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहा। आज वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कविताएं उनको हमेशा जीवित रखेंगी और उनके चाहने वालों को उम्मीद और हौसला देती रहेंगी।

( रीता डंगवाल का जन्म इलाहाबाद में हुआ. उनकी स्कूली शिक्षा सेंट मेरी कान्वेंट में हुई. उसके पश्चात उन्होंने बी. ए. और एम. ए. की पढ़ाई इलाहाबाद विश्विद्यालय से की. वीरेन जी के साथ उनका विवाह 24 फ़रवरी 1976 में हुआ.  विवाह  के पश्चात  वह गृहस्थ जीवन  में व्यस्त  हो गयीं . कुछ  वर्षों  बाद रोहतक  विश्विद्यालय  से  1993 में  बी .एड. किया . 1995 से  2005 तक बरेली  के  बिशप  कौनरैड  स्कूल  में  अध्यापन  किया . फिलहाल  वे  अपने  बेटे -बहू  के साथ  बरेली  में  रहती हैं )

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