समकालीन जनमत
शख्सियत

प्रेम और परिवर्तन की तड़प से भरे क्रांतिकारी कवि एर्नेस्तो कार्देनाल मार्तिनेस

मंगलेश डबराल


रूबेन दारीओ, पाब्लो नेरूदा और सेसर वाय्यखो के बाद एर्नेस्तो कार्देनाल लातिन अमेरिकी धरती के चौथे बड़े कवि माने जाते हैं, जिनकी आवाज़ कविता की परिधियों को लांघकर समूची मनुष्यता के संघर्ष की आवाज़ भी बन सकी है. ये चारों कवि लातिन अमेरिकी अस्मिता और नियति, उसके भूगोल और समाज, उसके रहस्यों और राजनीति के विश्व-प्रतिनिधि हैं. चीले के निकानोर पार्रा भी दुनिया के बड़े कवियों में शुमार हैं और सौ से ज्यादा वर्ष की आयु पानेवाले वे अकेले जीवित कवि भी हैं, लेकिन उनकी कविता –जिसे ‘गैर-कविता’ या ‘एंटी-पोयट्री’ कहा जाता है–के सरोकार ज्यादा आधुनिक हैं जो विडम्बनाओं और विरूपों से अपना विमर्श निर्मित करते हैं. उनकी कविता की जड़ें लातिन अमेरिकी धरती और राजनीति और उसकी क्लासिकी काव्य संवेदना में उतनी गहरी नहीं हैं और वे वैश्विक ज्यादा हैं. रूबेन दारीओ, वाय्यखो और नेरूदा जैविक और तात्विक ढंग से लातिन अमेरिकी हैं और उसकी प्रकृति, समाज और राजनीति के बगैर उनके कृतित्व की कल्पना करना कठिन है. दारीओ और वाय्यखो अगर स्पानी कविता में आधुनिकतावाद के प्रवर्तक कहे जाते हैं तो नेरूदा को सबसे बड़े रूमानी-क्रांतिकारी और प्रतिबद्ध कवि का दर्ज़ा हासिल है. तीनों कवियों की मुखर साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका भी रही है और उनमें हमेशा तीसरी दुनिया का संघर्षशील स्वर—और कभी विलाप भी—बजता रहता है.
एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता ने लातिन अमेरिकी समाज को रूमानी, राजनैतिक और आध्यात्मिक तीनों स्तरों पर गहरे प्रभावित किया है, लेकिन उनकी स्थिति दूसरे कवियों से कुछ अलग और विचित्र भी है. वे एक साथ कम्युनिस्ट और रोमन कैथलिक पादरी हैं, निकारागुआ के सान्दिनिस्ता छापामारों का साथ देनेवाले एक्टिविस्ट हैं और उसके एक द्वीप सोलेंतिनामे में कम्यून चलाने वाले आध्यात्मिक भी. वे एक साथ मार्क्सवाद और ईसाइयत से प्रतिबद्ध हैं और इस तरह वामपंथ की मुख्य धारा की बजाय ‘लिबरेशन थियोलोजी’ –मुक्ति के अध्यात्मवाद—से जुड़े हैं जिसकी शुरुआत लातिन अमेरिकी चर्चों में पिछली सदी के पचास और साठ के दशकों में हुई थी और जिसने ईसाइयत को गरीबी, सामजिक अन्याय जैसे मुद्दों और उनके खिलाफ संघर्ष से जोड़कर उसे एक जुझारू और वामपंथी स्वरूप दिया. और यथास्थितिवादी कैथलिक तंत्र की नाराजगी भी हासिल की. इस चर्च को अमेरिकी व्यवस्था और ईसाइयत के मुख्य केंद्र वेटिकन का काफी विरोध झेलना पड़ा और पिछले पोप जॉन पॉल ने ‘लिबरेशन थियोलोजी के समर्थक पादरियों और खास तौर से कार्देनाल की सार्वजनिक आलोचना भी की. गौरतलब यह है कि कार्देनाल दोनों विचारधाराओं में ज़रा भी अंतर्विरोध नहीं महसूस करते, बल्कि उनका एक अनोखा संश्लेषण तैयार करते हैं, ईसाइयत के प्रतीकों को क्रान्ति से जोड़ देते हैं और दोनों का एक ही उद्देश्य मानते हैं—मानव की मुक्ति.
सन 1925 में (20 जनवरी) मध्य अमेरिका के छोटे से देश निकारागुआ में जन्मे एर्नेस्तो कार्देनाल मार्तिनेस ने चार वर्ष की उम्र से कविता लिखना शुरू कर दिया था. प्रेम और परिवर्तन की तड़प से भरे अपने युवा दिनों में ही वे क्रांतिकारी आंदोलनों में हिस्सेदारी करने लगे थे. एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि ‘लगता है, मैं हमेशा से कविता लिख रहा हूँ’’. उनकी सूक्तियां — एपिग्राम्स – शीर्षक से युवावस्था में लिखी गयीं प्रेम और क्रांति की छोटी, उत्कट, मासूम और प्रगीतात्मक पचास कविताओं की सघनता और चमक अब भी सम्मोहित करती है. इन कविताओं में गहरा रूमान है, एन्द्रीयता और लालसा है, विरह और बगावत और क्रांति की गहरी तड़प है और कहने के ढंग में इतनी संक्षिप्तता है जैसी चीन में थांग राजवंश के काल के कवियों ली पाई या पी चुई की कविताओं या शायद हमारे यहाँ कन्नड़ के वचन काव्य या कश्मीरी में ललद्यद और हब्बा खातून के ‘वाख’ में मिलती है. उन पर बाइबिल की सूक्तियों-प्रवचनों का प्रभाव भी है, लेकिन उनकी भौतिकता और मांसलता उन्हें अलग पहचान देती है. वे पाब्लो नेरूदा की ‘बीस प्रेम कविताएँ और हताशा का एक गीत’ की प्रसिद्ध कविताओं की भी कुछ याद दिलाती हैं, हालाँकि दोनों में प्रेम के अनुभव बहुत अलग हैं. उनमें समानता यह है कि नेरूदा की उन कविताओं की तरह कार्देनाल की सूक्तियां भी लातिन अमेरिका में खासी लोकप्रिय हुईं और बहुत बार गाई गयीं. शुरू में कार्देनाल नेरूदा और रूबेन दारीओ से प्रभावित थे और उस दौर की कई कविताओं में वे अतियथार्थ किस्म की हलचलों और खामोशियों को कुछ-कुछ नेरूदाई ली अपनाते हुए लगते हैं– खासकर उन कविताओं में, जिनमें लातिन अमेरिका के पशु-पक्षियों और वनस्पतियों की रहस्यमयता मांसल और एन्द्रिक ढंग चित्रित हुई है. एक बड़ा फर्क यह भी है कि नेरूदा अपने वर्णनों में अक्सर रहस्यों की सृष्टि करते लगते हैं जिनसे उनकी एक भौतिक मिथकीयता बनती है जबकि कार्देनाल पृथ्वी से ब्रहमांड तक मौजूद रहस्यों को अनावृत्त करने की प्राविधि का उपयोग करते हैं. शायद इसीलिए नेरूदा की कविताओं में कुछ निर्मित करने का धैर्य ज्यादा है और कार्देनाल की भाषा में आकस्मिक का अनावरण करने की चपलता और कुछ खोजने की उत्सुकता गुंथी हुई होती है. नेरूदा अगर भौतिक उपस्थितियों, गहराइयों, बीजों, पेड़ों, जड़ों, भूगर्भों में जाने वाले कवि हैं तो कार्देनाल तारों, आसमानों, सौरमंडलों, ग्रहों और ब्रहमांड की ओर जाते हुए दिखते हैं.
कुछ वर्ष बाद जब कार्देनाल अमेरिका के पादरी-कवि थॉमस मेर्टन के संपर्क में आये तो यह उनके जीवन का एक अहम मोड़ था. सन 1956 में वे निकारागुआ से गेटसेमनी (अमेरिका का केंटुकी राज्य) के ट्रैपिस्ट मठ में दीक्षा लेने गये जहां उन्होंने मेर्टन को गुरू के रूप में पाया और उनकी कविताओं की शांति, मानवीयता और उनके अध्यात्म का प्रभाव ग्रहण किया. मेंर्टन एजरा पाउंड को कवि के तौर पर बहुत मानते थे जिनकी कविता अपने कठिन भाषा-प्रयोग और शिल्प के लिए जानी जाती थी और जिसका कथ्य आर्थिक विषयों तक फैला हुआ था. मेर्टन रोमन कैथलिकवाद में एक अंतर्धार्मिक और पर-धार्मिक संवाद के गहरे पक्षधर थे और वियतनाम युद्ध और नस्ली दंगों का विरोध करने में भी अग्रणी. गेटसेमनी में रहकर कार्देनाल ने अमेरिकी कविता का अध्ययन किया और एजरा पाउंड की भाषा और काव्य-प्रविधियों से परिचित हुए, हालाँकि वे इससे पहले अपनी पहली लंबी कविता ‘शून्य प्रहर’ लिख चुके थे, जिसका स्वरूप वृत्तचित्रात्मक—डाक्यूमेंट्री—या रिपोर्ताज जैसा था और जो अपने कई नये आयामों के साथ अब भी उनकी कविता में अन्तर्निहित है. मध्य और दक्षिण अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका के विराट निगमों द्वारा किया जानेवाला ऐतिहासिक शोषण वहाँ के कवियों का प्रिय विषय रहा है, और ‘शून्य-प्रहर’ का एक सरोकार तानाशाही आतंक, जन-विद्रोह और उसके दमन के साथ-साथ अमेरिकी लूटपाट भी है. इस कविता को अब एक क्रांतिकारी क्लासिक का दर्जा हासिल है:
‘पहरेदार! यह कौन सा पहर है रात का?
पहरेदार! यह कौन सा पहर है रात का?’
स्वास्थ्य खराब होने के कारण कार्देनाल दो साल बाद गेटसेमनी से लौट आये. निकारागुआ में उन्होंने कुछ साथियों से मिलकर सोलेंतिनामे नाम के द्वीप पर स्थानीय लोगों के एक कम्यून की स्थापना की जिसका नाम रखा गया– ‘अवर लेडी ऑफ सोलेंतिनामे.’ बहुत कम आबादी वाले इस द्वीप पर उन्होंने बहुत श्रम करके बस्ती बसायी, सांपों और बिच्छुओं और दूसरे जहरीले कीड़ों से भरी धरती पर खेती शुरू की और उसे एक आत्मनिर्भर इकाई बनाया. कार्देनाल की चित्रकला और मूर्तिशिल्प में गहरी दिलचस्पी रही है इसलिए उन्होंने सोलेंतिनामे के निवासियों को चित्रकला की तरफ प्रेरित किया. कार्देनाल के लकड़ी और दूसरे माध्यमों का काम तो जाना-माना रहा है और उसके कई प्रदर्शन हुए हैं, लेकिन सोलेंतिनामे में प्रकृति और मनुष्यों के चित्रण की एक नयी कला-शैली पनपी जिससे कलाकारों को आजीविका का एक साधन भी हासिल हुआ. निकारागुआ जानेवाले यात्री इस अतियथार्थपरक और मासूमियत-भरी कला को देखना नहीं भूलते.
उन्हीं दिनों लातिन अमेरिका में ईसाइयत का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी साम्राज्यवाद और शोषण के खिलाफ जुझारू भूमिका में उतर रहा था और कई चर्चों में राजनीतिक सुगबुगाहट थी. कार्देनाल जल्दी ही उस धारा के संपर्क में आये जो ईसाइयत के मानवीय गुणों का प्रतिबिंब मार्क्सवादी विचारधारा में देखती थी और जिसे ‘लिबरेशन थियोलॉजी’ के नाम से जाना गया. मुक्ति के इस रहस्यवाद ने साहित्य, कला और सिनेमा को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया. कवि के तौर पर कार्देनाल ने भी धार्मिक शिल्प के इस मुक्ति संघर्ष में कार्देनाल ने शिरकत की, जो उनकी कविता के लिए बहुत निर्णायक रही और वे ईसाई मिथकों को अपने समय के राजनीतिक सन्दर्भों में चित्रित करते रहे. ईसाइयत के पूंजीवाद-समर्थक इतिहास के बरक्स यह एक तरह की काव्यात्मक छापेमारी थी. कुछ वर्ष बाद जब सांदिनिस्ता कम्युनिस्ट सरकार बनी तो कार्देनाल को संस्कृति मंत्री का पद दिया गया. फिर सान्दिनिस्ता नेताओं से सत्ता-लोलुपता के मुद्दे पर उनके मतभेद उभरे, तो उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया. अंततः अमेरिका-समर्थित प्रतिक्रियावादी ताक़तों ने उस सरकार का तख्ता-पलट कर दिया. कुछ समय पहले निकारागुआ की दक्षिणपंथी सरकार ने कार्देनाल के मशहूर कम्यून को भी निशाने पर लिया, उसे ‘अवैध कब्ज़ा’ करार दिया, कार्देनाल पर जुर्माना भी लगाया और सोलेंतिनामे की कला, कविता और समता की सम्मोहक दुनिया को उजाड़ने की कोशिशें कीं. लेकिन कार्देनाल ने जुर्माना देने से इनकार कर दिया. लेखकों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था पीईएन की ओर से भी इस घटना का कडा विरोध हुआ.
स्पानी में कार्देनाल के लगभग बीस संग्रह प्रकाशित हैं जिनमें से तेरह किताबें अंग्रेजी अनुवादों में उपलब्ध हैं. इनमें प्रमुख हैं: ‘क़यामत और अन्य कविताएँ’, ‘शून्य-प्रहर और अन्य डाक्यूमेंट्री कविताएँ’’, ‘मैरिलिन मुनरो के लिए प्रार्थना’, ‘निकारागुआ में वाकर के साथ’, ‘सोलेंतिनामे प्रवचन’’, ‘प्रजातियों की उत्पत्ति और अन्य कविताएँ’’ और ‘प्लूरिवर्स’ और नब्बे वर्ष पूरे करने पर प्रकाशित संग्रह ‘नब्बे में नब्बे’. उनकी गद्य की किताब ‘क्यूबा में’ भी महत्वपूर्ण मानी जाती है जो उन्होंने सन 1970 में क्रांति के बाद क्यूबाई समाज में आये बदलावों पर डायरी की शक्ल में लिखी थी और कास्त्रो और चे गेवारा के देश के बारे में एक नयी समझ प्रस्तुत करती है.

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एर्नेस्तो कार्देनाल को पढ़ते हुए पहला एहसास यह होता है कि यह कविता लातिन अमेरिका के विशाल और प्रतिबद्ध काव्य-वृत्तांत का हिस्सा होते हुए भी उससे अनेक जगह अलग है. आरंभिक प्रभावों के बाद की उनकी कविताओं में शिल्प की इतनी विविधता है और रेटरिक इतना कम होता गया कि है वे अपना एक प्रतिमान या एक ‘स्कूल’ निर्मित करती दिखती हैं. उन्होंने चार से लेकर पंद्रह-सोलह पंक्तियों की ‘सूक्तियां’ लिखी हैं, क्रांतिकारी भजन लिखे हैं, यात्रा वृत्तांतो, ऐतिहासिक दस्तावेजों, पुरानी समुद्री यात्राओं के वर्णनों पर आधारित लम्बे दृश्यबंधों की कविताएं लिखी हैं और प्रकृति, मनुष्यों और वस्तुओं की कविताएं भी, जो अपेक्षाकृत छोटी हैं, लेकिन उनमें सुन्दर पेंटिंग जैसी विशेषता होती है. ‘सूक्तियां’ शीर्षक की पचास कविताएँ युवावस्था में लिखी गयी थीं जिनमें प्रेम की बहुत विकलता है, लेकिन निकारागुआ के अनास्तासीओ सोमोज़ा सहित कई लातिन अमेरिकी तानाशाहों, अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध और एक नए समाज के लिए चल रहे संघर्षों के विवरण भी हैं और उनमें अभियक्ति के ऐसे नए कोने हैं कि वे अब भी मर्म को छू लेते हैं:
‘अभी छप नहीं सकतीं हमारी कविताएं
वे हाथोंहाथ घूमती हैं हाथ से लिखी हुई
या साइक्लोस्टाइल की हुईं
पर एक दिन लोग भूल जायेंगे उस तानाशाह को
जिसके ख़िलाफ़ ये कविताएं लिखी गयी थीं
और कविताएं पढी जाती रहेंगी.’
प्रकृति, मनुष्य और वस्तुएं कार्देनाल की कविता में एक दृश्यात्मकता की रचना करती हैं जो सुन्दर और गतिशील है. उसे एक तस्वीर या बड़े भू-दृश्य के ब्यौरे की मानिंद देखा जा सकता है. ‘सूक्ति’-कविताओं में यह विशेषता जगह-जगह मिलती है और उनके शब्द इस कदर पारदर्शी हैं कि हम उस अनुभव को पढ़ते हुए उस देख और सुन भी सकते हैं: ‘अब भी याद है मुझे पीली बत्तियों वाली वह गली/ बिजली के तारों के बीच पूरा चाँद/ और कोने पर वह तारा, कहीं दूर रेडियो की आवाज़/ ला मेरसेद के गुंबद पर बजता ग्यारह का गजर/ और तुम्हारे खुले हुए दरवाज़े पर सुनहरा प्रकाश: उस गली में.’ कार्देनाल की कविता में जगहों और नामों की भरमार है और निकारागुआ की राजधानी मानागुआ और दूसरे शहरों लीओन और ग्रानादा के जीवन, स्त्री-पुरुषों, भूदृश्यों, झीलों-खाड़ियों के उनके बिम्ब बहुत लगाव और लोक-सौंदर्य के साथ उकेरे गए हैं:
‘युवतियां आयीं और गयीं
अपने मर्तबान लिए हुए.
प्रतिमाओं जैसी तराशी हुईं जो ऊपर आयीं
वे एक प्राचीन प्रेमगीत गा रही थीं.
ठंढे, बेलबूटों से काढ़े लाल मर्तबानों के नीचे
उनकी शीतल देहें, मर्तबानों की ही तरह.
और जो नीचे उतरीं वे इठलाती-नाचती हुई गयीं,
उनके घाघरे खिलते रहे हवा में फूलों की तरह.’

कार्देनाल बाइबिल के किसी धार्मिक प्रसंग और ‘टाइम’ पत्रिका की किसी राजनीतिक रिपोर्ट को एक साथ उद्धृत करते हुए उन्हें अमेरिकी व्यवस्था की तीखी आलोचना में बदल देते हैं या ईसा मसीह का गुणगान करते-करते सहसा पेंटागन, हथियारों के उद्योग और परमाणु विभीषिका तक पंहुच जाते हैं. एक प्रसिद्ध कविता ‘मैरिलिन मुनरो के लिए प्रार्थना’ में वे संसार को ‘पाप और रेडियो एक्टिविटी से दूषित’ बताते हैं और पूंजीशाहों के द्वारा ईश्वर के प्रार्थना-घर को ‘हॉलीवुड के चोरों के अड्डे’ में बदल दिए जाने की त्रासदी को रेखांकित करते हैं. मुनरो की आत्महत्या पर लिखी गयी यह एक बड़ी कविता है जो इस घटना को, अमेरिका के एक ‘अतिशय यथार्थ’—हाइपर-रियलिटी—को एक अप्रत्याशित मानवीय नज़रिए से देखती है. जिस तरह दुनिया में एक ही मेरिलिन मुनरो हुई है वैसे ही ‘मेरिलिन मुनरो के लिए प्रार्थना’ भी शायद कविता के इतिहास में एक ही कविता है:
‘उसके प्रेम बंद आँखों से दिए गए चुंबन थे
जो आँखें खुलने पर दिखता है
कि तेज़ स्पॉटलाइटों के नीचे दिए गए थे
——
या फिर वे एक नौका विहार की तरह थे
एक चुंबन सिंगापुर में एक नाच रियो में
एक जश्न विंडसर के डयूक और डचेज के महल में
किसी सस्ते फ्लैट की मनहूस तड़क-भड़क के बीच फिल्माए हुए.
फ़िल्म आखिरी चुंबन के बगैर ही ख़त्म हो गयी.
उन्होंने उसे अपने बिस्तर पर मरा हुआ पाया.’
बाइबिल के भजनों—साम्स—के अंदाज़ में कादेनाल ने कई भजन भी लिखे हैं, लेकिन वे पूरी तरह राजनीतिक और क्रांतिकारी हैं. कुछ भजनों में वे ईश्वर से दुनिया में संपत्ति का समान बंटवारा करने,’यथास्थिति का नाश करने’ और ‘कुलीनों के विषदंत तोड़ने’ का निवेदन भी करते हैं. ‘कयामत’ जैसी लम्बी कविता में सातों देवदूतों के माध्यम से आधुनिक समय में टेक्नोलोजी के आविष्कारों, परमाणु विभीषिका और मनुष्य-विरोधी सत्ताओं की दुरभि-संधि के नतीजे में होने वाली प्रलय के दृश्य चित्रित हुए हैं. उनकी परवर्ती कविताओं में ‘मोबाइल’ सरीखी अद्भुत रचना मोबाइल फ़ोन में इस्तेमाल होनेवाले कोल्टन के खनन के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कांगो के छोटे बच्चों के शोषण की क्रूर दास्तान को इस तरह व्यक्त करती है कि कोई भी मोबाइलधारी पाठक उसे पढ़कर सिहर उठेगा. कार्देनाल ने अमेरिका के अपने अनुभवों पर भी कई कविताएँ लिखी हैं जिनमें वे भौगोलिक-वैज्ञानिक तथ्यों के ज़रिये बहुराष्ट्रीय निगमों के शोषण, रेड इंडियनों के सफाए, पर्यावरण-विनाश, आत्महत्याओं की संस्कृति और कुल मिलाकर अमेरिकी सभ्यता की तीखी समीक्षा करते हैं, लेकिन ख़ास बात यह है कि अमेरिकी सत्ता की लो लांछित करते समय वे कहीं भी सामान्य अमेरिकी जन को निशाना नहीं बनाते, बल्कि उसे पूरी मार्मिकता और कामकाज की सुन्दरता के साथ उकेरना नहीं भूलते:
‘एक बस से मैंने देखा
एक गुलाबी लडकी, नीली पैन्ट में
एक सीढ़ी पर खड़ी हुई सेब तोड़ रही थी
(घर के भीतर से उसकी माँ बुला रही थी उसे)
और एक दूसरी लडकी, उसी की बहन, नीली पैन्ट में
घर के बरामदे को सफ़ेद रंग से रंगती हुई
–उन्होंने बस को देखा जो रफ़्तार बढाती हुई गुज़र रही थी.
वक़्त गुज़र गया है उस ग्रेहाउंड बस की तरह
लेकिन इतने वर्षों के बावजूद वे वैसी ही बनी हुई हैं,
बरामदे में रंग उतना ही ताज़ा है,
ब्रश अभी तक टपक रहा है
हाथ अब भी सेब पर हैं, वैसी ही उनकी निगाहें भी.’
कविता संवेदना की जिन बुनियादों पर टिकी या खडी रहती है, उनमें स्मृति सबसे प्रमुख है, जिसके अभाव में कोई भी कल्पना संभव नहीं होती. कार्देनाल की कविता में स्मृति की सरहदें बहुत विस्तृत हैं और उसकी भूमिका भी कुछ अनोखी है जिसमें ईसाइयत के दैवी कथनों, शिक्षाओं- गॉस्पेल—और प्रवचनों से लेकर लीओन शहर में ‘पत्थर के फूटपाथ पर दूधवालों के बर्तनों की खनखनाहट’ और दरवाजों पर दस्तक देकर ‘ब्रेड, ब्रेड’ कहते हुए फेरीवाले तक के अनुभव लिपटे हुए हैं. स्मृति का उपयोग वे जगह-जगह गहरे राजनीतिक मकसद से भी करते हैं और उनकी एक कविता में अमेरिका के राजचिन्ह गिद्ध का सन्दर्भ इस तरह रेखांकित हुआ है:
‘हमने उसे उड़ान भरते एक बाज़ पर झपटते हुए देखा
जिससे गिर पड़ा वह जो वह ले जा रहा था. ’शायद कोई चूहा या ऐसा ही कुछ’.
फिर उसने नीचे धावा बोला जहाँ वह शिकार गिरा हुआ था.
इधर-उधर देखते हुए, उसकी फूली हुई छाती, कुबड़े कंधे,
चौकन्ना व्यक्तित्व, खूंखार,
हूबहू जैसा वह सिक्के पर बना हुआ रहता है.
और फिर वह तेज़ी से उड़ चला बेचारे बाज़ से चुराई हुई चीज़ के साथ.
वह अमेरिकी गिद्ध.’
स्पानी कविता के प्रसिद्ध अनुवादक और रॉबर्ट प्रिंग-मिल ने कार्देनाल की कविताओं के अंग्रेजी अनुवादों की भूमिका में कहा है कि कविता में ऐतिहासिक दस्तावेजों, अखबारी रिपोर्टों, भौगोलिक विवरणों, पुरानी कतरनों और विज्ञापनों तक का उपयोग करने की विशषता कार्देनाल ने एजरा पाउंड से ली. यह लगभग अकाव्यात्मक सामग्री कार्देनाल की कविता को निजी मनोवेगों और निरी भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से बाहर ले जाने में मददगार हुई. इससे उनकी कविता में संवेदना के घात-प्रतिघात की बजाय एक वस्तुपरकता और यथातथ्यता पैदा हुई जो समय के यथार्थ को नए ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए जरूरी थी. इस वस्तुपरकता के लिए उन्होंने एक नयी अवधारणा प्रस्तुत की: ‘एक्सतीरियरिज्मो’–यानी बाह्यीकरण, बाह्यांतरीकरण या बहिर्मुखतावाद. इस काव्य आंदोलन का एक मकसद आत्मगत तत्वों को बुहार कर कविता को एक वृत्तात्मक—डाक्यूमेंट्री—व्यक्तिव देना था. कार्देनाल की कई कवितायेँ इस अवधारणा की पाठ्य-पुस्तकों की तरह हैं. बहुत सी लम्बी कविताओं में ख़ास तौर पर इतनी अधिक बहिर्मुखता है कि अनेक बार वे सिर्फ दृश्यों, घटनाओं, स्थितियों के वर्णन में घूमते रहते हैं, कविता में कहीं खुद प्रवेश नहीं करते, कोई वक्तव्य नहीं देते, सिर्फ तथ्य और घटनाएँ कविता की संवेदना या विचार में बदल जाती हैं. इस कविता की एक और विशेषता यह है कि वह कहीं से भी शुरू हो सकती है, बीच में अपना शिल्प या अंदाज़ बदल सकती है और फिर कहीं भी समाप्त हो सकती है. ‘शून्य प्रहर’ के अलावा भी कार्देनाल ने बहुत सी लम्बी वृत्तान्तपरक रचनाएँ लिखी हैं जो तथ्यों और रूपकों के ज़रिये राजनीतिक हस्तक्षेप करती हैं. ‘रात’, ‘खोये हुए शहर’, ‘शून्यप्रहर’, ‘क़यामत’, ‘मेंर्टन की मृत्यु’, ‘न्यू यॉर्क की यात्रा’, ‘निकारागुआ में भविष्य-कथन’, निकारागुआ में वाकर के साथ’ आदि इसके उदाहरण हैं, जिनमें ‘न्यू टेस्टामेंट’ की कथाओं के अलावा लातिन अमेरिका की प्राचीन माया और आस्तेक सभ्यताओं के भी बहुत से संदर्भ हैं और उनका शिल्प खासा जटिल है. कार्देनाल धार्मिकता, अध्यात्म, वामपंथी प्रतिबद्धता और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के कथ्यों और कविता की कला के बीच जो अंतर्सम्बन्ध और अंतर्क्रिया की कायम करते हैं, वह अपने में एक अद्वितीय घटना है और इस वजह से भी वे आज लातिन अमेरिका में पाब्लो नेरूदा के बाद सबसे अधिक सम्मानित और लोकप्रिय कवि हैं. उनकी गद्य की किताब ‘क्यूबा में’ भी महत्वपूर्ण मानी जाती है जो उन्होंने सन १९७० में क्रांति के बाद क्यूबाई समाज में आये बदलावों पर डायरी की शक्ल में लिखी थी और कास्त्रो और चे गेवारा के देश के बारे में एक नयी समझ देती है.

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कार्देनाल की सूक्तियों/सुभाषितों/वचनों — ‘एपिग्राम्स’ — से हिंदी पाठक को परिचित कराने का काम सबसे पहले कवि नरेंद्र जैन ने किया. शायद 1975 या 76 में उन्होंने ‘लंदन मैगजीन’ के एक अंक में छपी कार्देनल की 50 सूक्तियों में से कुछ के अनुवाद किये और उन्हें अपनी पत्रिका’ ‘अंतत:’ में प्रकाशित किया. उस अंक के साथ कार्देनाल की कुछ कविताओं को उन्होंने अपनी सुन्दर लिखावट में एक पोस्टर के रूप में भी जारी किया था जो मुमकिन है, अब भी किसी कविता-प्रेमी की दीवार पर चिपका होगा. फिर कई साल तक कार्देनाल की कविताओं के प्रति हिंदी में ज्यादा उत्सुकता नजर नहीं आयी–शायद इसलिए कि अंग्रेजी अनुवादों में उनकी कविताएं यहाँ उपलब्ध नहीं थीं और सीधे स्पानी से हिंदी में अनुवाद करनेवालों की संख्या भी नगण्य थी. कुछ वर्ष बाद मेरे पंजाबी के कवि-मित्र अमरजीत चंदन ने जब मुझे लंदन से कार्देनाल का संग्रह ‘मैरिलिन मुनरो के लिए प्रार्थना’ भेजा तो सन 1987 में मेरे किए हुए कुछ अनुवाद एक भूमिका के साथ वंशी माहेश्वरी के संपादन में ‘तनाव’ पत्रिका में प्रकाशित हुए. बाद में अनुराग वत्स के ब्लॉग ‘सबद’ में भी इनमें से कुछ चीज़ें जारी हुईं. ये सभी अनुवाद अंग्रेज़ी मे कई लातिन अमेरिकी कवियों के प्रसिद्ध अनुवादकों रॉबट प्रिंग-मिल, डोनाल्ड डी वाश और जोनाथन कोहेन द्वारा किये गए अनुवादों पर आधारित थे.
एक अद्भुत संयोग से कुछ समय बाद दिल्ली में 20 जनवरी 1989 को मेरी कार्देनाल से उनके जन्मदिन पर एक मुलाकात हुई. तब निकारागुआ में सान्दिनिस्ता की सरकार थी और कार्देनाल उसके संस्कृति मंत्री थे. वे भोपाल के भारत भवन में हुए अंतरराष्ट्रीय ‘वाल्मीकि कविता उत्सव’ से लौटे थे और निकारागुआ के दूतावास में उनका जन्मदिन मनाया जा रहा था. उलझी हुई सफेद दाढ़ी में, अपनी ट्रेडमार्क सरीखी काली टोपी पहने, किसी दरवेश या फ़कीर जैसे दिखते, वाइन के घूंट लेते हुए कार्देनाल को मैंने अपने अनुवादों की पुस्तिका दिखायी तो वे बोले, ‘ मैं इसे भोपाल में देख चुका हूँ.’ उन्होंने उस पर हस्ताक्षर किए: ‘पारा मंगलेश, मुई अग्रादेसीदो पोर एस्ते लीब्रो.’ (मंगलेश को, इस किताब के लिए बहुत आभार.) मैंने उनसे पूछा, ‘ फादर, आप मार्क्सवाद और ईसाइयत जैसे दो बहुत अलग दर्शनों के बीच किस तरह तालमेल बिठाते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘ दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है, दोनों ही मनुष्य की मुक्ति की विचारधाराएं हैं.’ मैंने पूछा, ‘ लेकिन आप सक्रिय पादरी हैं’ तो उन्होंने जवाब दिया, ‘ मुझमें और दूसरे पादरियों में फर्क यह है कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ, लेकिन लोगों के लिए प्रार्थना नहीं करता. मैं इश्वर और लोगों के बीच की कड़ी नहीं हूँ.’ मैंने उनसे कुछ नयी कविताओं की मांग की तो उन्होंने मेरी डायरी में अपना पता लिखते हुए कहा, ‘ तुम मुझे चिट्ठी लिखो, मैं भेज दूँगा.’ मैंने पूछा,’कॉपीराइट की समस्या तो नहीं होगी?’ वे बोले: ‘तुम्हें सीधे कवि से कविताएं मिलेंगी.’
उन दिनों मैं दैनिक ‘जनसत्ता’ में काम करता था जहां से चलते समय मुझे कवि-कार्टूनकार राजेन्द्र धोड़पकर ने एक कोरा कागज़ थमाते हुए कहा था कि इस पर आप मेरे लिए कार्देनाल से हस्ताक्षर करवाकर ले आइएगा. मैंने जेब से वह कागज़ निकालकर फादर से दस्तखत करने के लिए कहा. वे बड़ी सहजता से कलम निकालकर दस्तखत करने वाले थे कि उनके पीछे खड़ा दूतावास का एक अधिकारी बोला, ‘ ओह नो! डू यू वांट फादर टू साइन ऑन अ ब्लैंक पेपर?’ ( अरे, नहीं! क्या आप फादर से एक कोरे कागज़ पर दस्तखत करवाना चाहते हैं?). तब मुझे एहसास हुआ कि कार्देनाल एक विदेशी सरकार के मंत्री हैं और कोरे कागज़ पर उनके दस्तखत लेकर मैं कितनी बड़ी गलती करने जा रहा था. मैंने घबराकर कागज़ वापस जेब में रख लिया. फिर सब लोग फादर की सेहत और कविता के लिए जाम उठाने में जुट गये. उनसे लम्बी बात करने की बहुत इच्छा थी, पर यह संभव नहीं था क्योंकि उन्हें अगले दिन वापस लौटना था. इतने वर्ष हुए, मैं उन्हें लिखने की सोचता ही रहा, लिख नहीं पाया. लेकिन उस मुलाकात की याद इतनी गहन और अमिट है कि मैं अब भी झूमती-मुस्कराती, हर चीज़ को बच्चों जैसे कुतूहल से देखती हुई उस दरवेश-शख्सियत को अपने सामने देख सकता हूँ और कह सकता हूँ, ‘ओला, पाद्रे’ ( हलो, फादर ) !
करीब चालीस साल पहले नरेन्द्र जैन ने कार्देनाल की कविता के सम्मोहक संसार को हिंदी में पेश किया था, इसलिए ये अपेक्षाकृत नए अनुवाद नरेन्द्र को समर्पित हैं.

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