समकालीन जनमत
शख्सियत

मोहब्बत और उम्मीद के शायर फ़िराक़ गोरखपुरी

 (उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर युवा कहानीकार, आलोचक विष्णु प्रभाकर का लेख। )

उर्दू शायरी में कहन पर जियादा जोर है। मानी-आफ़रीनी और मजमून-आफ़रीनी को लेकर अदब में तवील बहस है। नई उर्दू ग़ज़ल को जिन शायरों ने तराना और तरन्नुम से गरमाया उनमें एक नाम फ़िराक़ है। अगर मीर 18वीं सदी के बड़े ग़ज़ल गो हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब 19वीं सदी के बड़े ग़ज़ल गो हैं तो फ़िराक़ का नाम 20वीं सदी के नुमाइंदा शायरों में शुमार हैं। फ़िराक़ ने शायरी में जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया वो एक तरह से शायरी में वर्जित जैसे समझे जाते थे या उनका इस्तेमाल नहीं होता था, लेकिन फ़िराक़ ने उन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल बड़े सलीके से किया है कि उनसे भी आहंग पैदा हो गया है।

पड़ती है आसमाने-मुहब्बत प छूट-सी
बल बे जबीने-नाज़ तेरी जगमगाहटें।

चलती हैं जब नसीमे-ख़याले-खरामे-नाज़
सुनता हूँ दामनों की तेरे सरसराहटें। (गुले-नग़मा, पृष्ठ-23)

कुनमुनाहटें, लहलहटें, सरसराहटें, अचपलाहटें जैसे लफ्ज़े उर्दू शायरी में ग़ालिबन नामुमकिन है कि दूसरे किसी अन्य शायर के यहां मिले।
फ़िराक़ कई भाषाओं को अच्छी तरह जानते थे और सिर्फ जानते ही नहीं थे बल्कि उनको अच्छी तरह बरतना भी जानते थे। अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी में उनको महारत हासिल थी। उन्होंने फ़ारसी शायरी से भी सीखा, उर्दू शायरी से भी और अंग्रेजी पोएट्री से भी। मीरा और सुर का छाप भी उन पर दिखाई देता है। इसीलिए उनकी शायरी में कहीं फ़ारसी, उर्दू के लफ्ज़ बेशुमार आते हैं तो कहीं आमफहम भाषा में ही पूरी ग़ज़ल कह डाली है। फ़िराक़ की एक ग़ज़ल है जिसे जगजीत सिंह ने गाया है।

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे, ऐ ज़िंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।
मेरी नज़रें भी ऐसे काफ़िरों की जानो-ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं ।

(गुले-नग़मा, पृष्ठ- 57)

पहले के शायर इस बात का भरपूर ध्यान देते थे कि शे’र ऐसे बहर में हों कि आहंग पैदा हो। ये कोशिश आपको फ़िराक़ के यहाँ शुरू से लेकर आखिर तक मिलेगी।
ज़ुल्फ़ें-सियाह ख़ुतन-ख़ुतन
जल्वा-ए-रूख़ चमन चमन

हाय ये शोखीए-सुख़न
बात में बात कन में कन
अपनी शायरी पर इतराना कोई नई बात नहीं है। हर दौर के बड़े शायरों के यहाँ यह मिलता है। ग़ालिब ने तो अपनी शायरी के बारे में कहा ही है जो बहुत मशहूर है-

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे ।

कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और ।।

फ़िराक़ का नाम आते ही ये शे’र हमारे जेहन में आता है-
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेगी हमअस्रो ।
जब ये ध्यान आयेगा उनको, तुमने ‘फ़िराक़’ को देखा था ।।

हाय ये बेखुदी ये ग़म
आये जो वो तो हम नहीं
‘ग़ालिबों’-‘मीरा’- ‘मुसहफ़ी’
हम भी ‘फ़िराक़’ कम नहीं
(गुले-नग़मा, पृष्ठ- 75)

मैंने फ़िराक़ को नहीं देखा लेकिन फ़िराक़ को देखने वालों से मेरी सोहबत रही है। फ़िराक़ जहाँ रहते थे वो जगह हमने देखी है, जहाँ पान खाते थे वो पान की दुकान लक्ष्मी टॉकीज चौराहे पर आज भी आबाद है। और हम इस पर भी रश्क कर ही सकते हैं कि हमने फ़िराक़ के इलाहाबाद को देखा है, इलाहाबाद अगरचे अब प्रयागराज हो गया है।
रघुपति सहाय जिन्हें दुनिया फ़िराक़ के नाम से जानती है, की पैदाइश गोरखपुर के एक कायस्थ परिवार में 28 अगस्त 1896 को हुई थी । उनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद एक मशहूर वकील होने के साथ फ़ारसी और उर्दू के अच्छे जानकार थे और खुद ‘इबरत’ के नाम से शायरी करते थे।
रघुपति सहाय ने गोरखपुर से ही बुनियादी तालीम हासिल की। मॉडर्न स्कूल से पढ़ने के बाद 1913 में स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट का इम्तिहान गोरखपुर के ही जुबली हाई स्कूल से पास करने के बाद म्योर सेंट्रल कॉलेज (अब यूनिवर्सिटी ऑफ इलाहाबाद) में एफ. ए. (अब 12वीं) करने के लिए दाखिला लिया। यहाँ पर उन्होंने अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र और अंग्रेजी भाषा और साहित्य की शिक्षा हासिल की। 1915 में उन्होंने एफ. ए. की परीक्षा पास की और 7 वां स्थान पर आए। बी. ए. करने के लिए उन्होंने यहीं पर दाखिला लिया और 1917 में बी.ए. की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया।
बी.ए. करने के बाद 1918 में रघुपति सहाय को डिप्टी कलेक्टर पद के लिए चुना गया। जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो रघुपति सहाय 28 नवंबर 1920 ई. को डिप्टी कलेक्टर पद से त्यागपत्र देकर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। 6 नवंबर 1920 को गाँधी जी के साथ ‘प्रिंस ऑफ़ वेल्स’ के भारत आने के विरोध में गिरफ्तार हुए और जेल भेज दिए गए। 12 दिसंबर 1920 को डेढ़ साल की सजा हुई और पांच रूपये दण्ड लगाया गया। जेल में ही उनकी मुलाकात कांग्रेस के लीडरानों से हुई। जेल से बाहर आने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें बुलाकर और ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अंडर सेक्रेट्री नियुक्त कर दिया। बाद में इस पद से स्तीफा देकर रघुपति सहाय क्रिश्चयन कॉलेज, लखनऊ में पढ़ाने लगे। आगरा विश्वविद्यालय, आगरा से 1930 में अंग्रेजी लिटरेचर में एम. ए. किया। एम. ए. की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। वो छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। कॉमरेड रामजी राय ने ‘यादगारे फ़िराक़’ में लिखा है कि ‘फ़िराक़’ जैसा हैरतअंगेज, हाजि़र-जवाब, दिलचस्प, जीवंत, उम्र-हैसियत-तजुर्बा-ज्ञान-ख्याति किसी का कोई भेद-भाव, लाज-लिहाज़ किए बगैर सबसे बराबरी के स्तर पर आकर बात करने वाला, निहायत डेमोक्रेटिक मिज़ाज की शखि़्सयत का कोई दूसरा आदमी मुझे नहीं मिला।
1958 ई. में फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रिटायर हुए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने उन्हें नेशनल रिसर्च प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त किया जहाँ से वो 1966 में रिटायर हुए।

ग़ज़ल को फ़ारसी ज़बान से निकाल कर आम लोगों की ज़बान में लाने का प्रयास कुली क़ुतुब शाह और वली दक्कनी ने किया और कुछ हद तक किया भी। ग़ज़ल जब मीर के यहाँ आई है तो उसकी भाषा एकदम आमफहम और रवां हुई। लेकिन फ़ारसी के प्रभाव से बच नहीं सकी थी। कोई ये नहीं सोच सकता था कि ग़ज़ल में ‘रात रानी’ और ‘गुड़हल’ का फूल का जिक्र आ सकता है लेकिन फ़िराक़ के यहाँ ये है। फ़िराक़ ने रवायती ग़ज़ल से हटकर ग़ज़ल कही-
ये रात छनती हवाओं की सोंधी सोंधी महक,
ये खेत करती हुई चाँदनी की नर्म दमक ।

सुगंध रात की रानी की जब मचलती है, 
फ़ज़ा में रूह-ए-तरब करवटें बदलती है ।
फ़िराक़ ने ग़ज़ल में भाषा के साथ ही नए मेटाफर और इमेजरी पेश की है। ये फ़िराक़ का उर्दू का शायरी में कंट्रीब्यूशन है। मिसाल के तौर फ़िराक़ का एक शे’र है-
रात कमाल कर गयीं, आलमे-कब्रो-दर्द में
दिल को मेरे सुला गयीं, तेरी नज़र की लोरियाँ
या फिर
ऐ मेरी शामे-इंतेज़ार, कौन ये आ गया, लिये
जुल्फों में एक शबे-दराज़, आँखों में कुछ कहानियाँ

दोनों में शे’र में देखे तो ‘नज़र की लोरियाँ’ और ‘आँखों में कुछ कहानियाँ’ ये एकदम नई इमेजरी है।

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार
बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे
‘बच्चा सोते में मुस्कराए’ ये मेटाफर एकदम नया और ताज़ा है और ये फ़िराक़ का कंट्रीब्यूशन भी है।
फ़िराक़ ने लगभग हर बहर में ग़ज़ल कही है। ग़ज़ल चाहे छोटी बहर में हो या बड़ी बहर में सब में तरन्नुम की गुंजाइश है। फ़िराक़ के यहाँ रदीफ़ और काफ़िया भी सबसे जुदा और नया है। इस तरह रदीफ़ काफ़िया का इस्तेमाल उन्होंने मोमिम खाँ मोमिन से सीखा है-
तू है सर बसर कोई दास्ताँ, है अजीब आलमे-अंजुमन
ये निगाहें-नाज़ ज़बाँ-ज़बाँ, ये सुकूते-नाज़ सुख़न-सुख़न

फ़िराक़ ने अपने पहले के शायरों मुसहफ़ी, मीर तक़ी मीर, मोमिन खाँ मोमिन से सीखा है। फ़िराक़ के बाद के शायरों ने भी फ़िराक़ से बहुत कुछ सीखा चाहे वो नासिर काज़मी हों, खलील उल रहमान आज़मी हों, मख्दूम मोहिउद्दीन हों, शहरयार हों या फिर जॉन एलिया। मजरूह सुल्तानपुरी ने तो उनकी जमीन पर शे’र कहा है-
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गये कारवाँ बनता गया ।
– मजरूह सुल्तानपुरी
इश्क़े-तनहा से हुई आबाद कितनी मंज़िलें,
इक मुसाफ़िर कारवाँ-दर-कारवाँ बनता गया ।
– फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ की एक नज़्म है- शामे-अयादत। मशहूर शायर मख़दूम मोहिउद्दीन ने भी इस नज़्म की ही जमीन पर शे’र कहे हैं-
ये कौन आता है तन्हाइयों में जाम लिए
जिलों में चाँदनी रातों का एहतमाम लिए
– मख़दूम मोहिउद्दीन
ये कौन मुस्कुराहटों का कारवाँ लिए हुए
शबाबों-शेरो-रंगो-नूर का धुआँ लिए हुए
– फ़िराक़ गोरखपुरी

रात का जिक्र हर शायर के यहाँ आया है। किसी के यहाँ ‘चाँदनी रात’ है तो किसी के यहाँ खूबसूरत है लेकिन फ़िराक़ के यहाँ जिस रात का मंजर आता और घूम घूमकर बार-बार आता वो रात हिज्र की उदास भरी रात है जो उनकी शायरी में जहाँ-तहाँ बिखरी हुई है। इसीलिए फ़िराक़ को ‘हिज्र की रात का सितारा’ भी कहा गया है।
ढक लिये तारों भरी रात ने, हस्ती के उयूब
आँसुओं ने शबे-गुर्बत में कफ़न मुझको दिया।
या,
वो चुपचाप आँसू बहाने की रातें
वो एक शख़्स के याद आने की रातें
या फिर,
ये नकहतों की नमरवी ये हवा ये रात
याद आ रहे हैं इश्क़ को टूटे तअल्लुक़ात

20वीं सदी कम्युनिज्म के विचार का उरूज की सदी है। रूस और चीन की क्रांति हुई तो दुनिया ने उनकी तरफ बड़ी उम्मीद के साथ देखा। अदीबों ने भी मसर्रत के साथ देखा। दुनिया की संरचना टूट रही थी और एक नई दुनिया बन रही थी तब फ़िराक़ ने ‘नयी दुनिया’ के उनवान से एक नज़्म ही लिखी-
रूस, चीन की कम्पित किरनें
नव प्रभात की आभा लायीं
नव जुग का संदेशा लायीं
इसी नज़्म में वो आगे कहते हैं-

धरती का तख़्ता उलटेंगे
दुनिया में सर्वोदय होगा
नया समाज आँखें खोलेगा
नयी सभ्यता क़ायम होगी

ग़ज़ल की सिंफ हमेशा से उर्दू शायरी में दूसरे सिंफ से जियादा हावी रही है। फ़िराक़ खास तौर पर ग़ज़ल के शायर हैं। लेकिन उन्होंने ग़ज़ल के साथ नज़्म और रुबाइयाँ भी लिखी हैं। नज़्म और रुबाइयाँ भी उनके यहाँ बेहद कामियाब हैं। ‘रूप’ उनके रुबाइयोन्नक संग्रह है। ये एकदम हैरान कर देने वाला है कि इश्कियां शायरी करने वाले फ़िराक़ जब नज़्म के सिंफ में आते हैं तो दस्ताने आदम और धरती की करवट जैसी नज़्में कहते हैं जिसमें घन गरज है। जुगनू, हिंडोला, परछाइयाँ, आधी रात को जैसे नज़्में फ़िराक़ ने लिखी हैं।
ये चाँदनी, ये हवाएँ ये शाख़े-गुल की लचक
ये दौरे-वादा ये साज़े ख़मोश फ़ितरत के
सुनायी देने लगी जगमगाते सीनों में
दिलों के नाज़ुको-शफ़्फ़ाफ़ आबगीनों में
तिरे ख़याल की पड़ती हुई किरन की खनक
(परछाइयाँ, गुले-नग़मा, पृष्ठ-157)

फ़िराक़ ने न सिर्फ शायरी बल्कि नस्र ने भी लिखा है। आलोचना के अलावा उन्होंने उर्दू भाषा और साहित्य नाम से एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब लिखी है। ‘अंदाज़े’, ‘चारगां’, ‘धरती की करवट’, ‘ग़ज़लिस्तान’, ‘गुलबंग’, ‘गुले-नग़मा’, ‘गुले परेशां’, ‘हाशिए’, ‘हज़ार दास्ताँ’, ‘मन आनम’, ‘मशाल’, ‘नग़मा-ए-नुमा’, ‘पिछली रात’, ‘रूह-ए-कायनात’, ‘रम्ज़-ओ-कायनात’, ‘शेरिस्तान’ और ‘शबनमिस्तान’ उनकी किताबें हैं। 1968 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले वे उर्दू के पहले शायर और अदीब हैं। उनके शे’री किताब ‘गुले-नग़मा’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। फ़िराक़ साहब हिन्दोस्तानी तहज़ीब के अलंबरदार थे।
आज ही के दिन 1982 में फ़िराक़ साहब इस दुनिया से रुखसत हुए। आज जब फिरकापरस्ती, नफ़रत रात दिन फैलाई जा रही है ऐसे समय में फ़िराक़ हमें रास्ता दिखाते हैं, मोहब्बत करना सिखाते हैं। वो एक उम्मीद देते हैं-
गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अँधेरा है
फ़िराक़ मोहब्बत और उम्मीद के शायर हैं।

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