समकालीन जनमत
कविता

सुंदर चंद ठाकुर की कविताएँ मर्मभेदी यथार्थ को उजागर करती हैं

कुमार मुकुल


फौजी, संपादक और मैराथन दौड़ाक सुंदर चंद ठाकुर के भीतर इतना संवेदनशील कवि निवास करता है यह नहीं जान पाता अगर उनकी ‘चयनित कविताएँ’ से नहीं गुजरता। दिल्ली में बारह-पंद्रह साल पहले की दो-चार मुलाकातों में जिस खिलंदड़े, रफ-टफ से साथी से मेरा परिचय कवि मित्र चेतन के माध्यम से हुआ था उससे उसके कवि की बाबत कुछ ठोस आकार ले नहीं पाया था भीतर। जबकि उन दिनों दिल्‍ली में रहते हुए ‘संप्रति पथ’ नामक पत्रिका निकालता था मैं। जिसमें सुंदर की एक कहानी ‘जिगोलो’ छापी भी थी।

सुंदर चंद ठाकुर की कविताएँ बहुत मार्मिक हैं। आम भारतीय नागरिक जीवन का यथार्थ कैसा विडंबनाग्रस्त और त्रासद है इसे वे बारहा जाहिर करती हैं। अच्छे दिनों में बेरोजगारी का दर्द नई पीढ़ी को कैसे और कितना हलकान कर रहा है इसे सुंदर ने कई कविताओं में शिद्दत से अभिव्यक्त किया है –

क्या ईश्वर के दफ्तर में उसे मिलेगी नौकरी ?…
उसके बुरे और अच्छे दिनों में
एक पक्की नौकरी का फासला था

‘चौराहा’ संकलन की पहली कविता है। इसमें कवि अतीत के चौराहों से लेकर आज विकास की दौड़ में चौराहों से घिर आए जीवन तक आवाजाही करता है –

समूचा शहर एक जगमगाता चौराहा
लोग स्‍वचालित मशीनों की तरह हाथ-पांव जैसे कलपुर्जे
हृदय घड़ी की तरह टिक-टिक करता हुआ

यह बहुत अच्छी कविता है जो अंत में थोड़ी हड़बड़ी में खत्म हुई लगती है। अपनी कई कविताओं में कवि जिस तरह विषय संदर्भ को अचानक बदल देता है उससे कभी-कभी दिक्कत होती है। थोड़े गैप, चिन्‍ह आदि के प्रयोग से इस संकट से उबरा जा सकता था। बावजूद इसके ये कविताएँ बहुत कुछ सौप जाती हैं पाठकों को। चौराहे, गणित, इन दिनों प्रेम आदि ऐसी ही कविताएँ हैं।
सुंदर ने जीवन के यथार्थ को ही अपनी कविताओं में दर्ज किया है। पर यथार्थ के जितने स्तरों को और उसके मन पर पड़े प्रभाव और उससे बने चित्रों को जिस तरह वे सामने रखते हैं वह हमेशा मर्मभेदी होता है।

चिड़िया- सी बेटी
घोसले-सा
यह नश्वर परिवार
बाहर कितना विकराल
अजर-अमर संसार।

कितने मार्मिक ढंग से यहाँ कवि नश्वरता से निर्मित अमरता के संसार को दर्शाता है।

‘सबसे सुंदर’ और ‘एक चित्र’ जैसी कविताएँ एक नए सौंदर्य चिंतन और बोध की ओर ले जाती आपको, एक शून्‍य में ढकेलती हैं, जहाँ सौंदर्य चेतना का दबा हुआ बीज अपने लिए उपयुक्त नमी पाता है और राग-रंग फूटते हैं भीतर से और इस सब के बाद जब दृश्य पूरा होता है तो फिर एक सवाल कोंधता है कि सबसे सुंदर क्या है? यहां ‘उर्वशी’ के दिनकर याद आते हैं –

फिर वही उद्व‍िग्‍न चिंतन
फिर वही पृच्‍छा चिरंतन …

‘युद्ध’ एक अच्छी कविता है जो अनमने ढंग से आरंभ होती युद्ध के यथार्थ के दर्शन करवाती है और अंत में उसकी विडंबना को जाहिर करती है।

जब हमें लगा कि उस पर सब कुछ
लिखा जा चुका है
उसके न होने के समझ आ चुके थे जब
कितने ही कारण
तभी हुआ एक और युद्ध
पिछले युद्धों से ज्यादा बचकाना

सुंदर की ‘डर’ कविता ज्ञान की विभीषिका को जाहिर करती है। ऐसा ज्ञान जिसने हमारे डरों को नष्ट किया पर उसका कोई सकारात्मक विकल्प नहीं ढूंढा। ऐसा विकल्प जो हमें मशीनी पशु होने से बचाता।
कुल मिलाकर यह सचमुच का प्रतिनिधि संकलन है जिसे आप धीरे-धीरे पढ़ते जा सकते हैं पूरा, बीच-बीच में ठमकते, विचारते खुश व परेशान होते।

सुंदर चंद ठाकुर की कविताएँ

 

1. असमय मृत्यु पर कविताएँ
एक
अस्पताल में हम उससे मिलने गये
मैं और मेरी माँ
लापता मामा के तीस साल के बेटे से
जो एक दुर्घटना में जल गया था

जले हुए कई और पीड़ितों की कराहों के बीच
हम उससे मिले
माँ को बताता रहा वह
शरीर के किस किस हिस्से से उठ रहा है दर्द
मुझसे इस हाल में भी वह एक पक्की नौकरी की दरियाफ्त करता रहा

लौटते हुए रास्ते भर सुबकती रही माँ
मैं उसे नौकरी न दिला पाने के अवसाद में डूबा रहा

अगले दिन मिली उसकी मौत की खबर
बेहद अचानक, जैसे वह अमूमन मिलती है
माँ ने विलाप करना शुरू किया
मैं सोचता रहा नौकरी की उसकी इच्छा के बारे में

क्या ईश्वर के दफ्तर में उसे मिलेगी नौकरी ?
वह दसवीं पास था और ईमानदार भी
हमेशा ओवरटाइम के लिए लालायित ।

दो

वह मर गया असमय
छोड़ पीछे चौबीस की पत्नी और सालभर की बेटी
एक दिन तो सबको मरना है
इस सनातन सत्य के गहरे आभास के बावजूद
उसकी मौत मेरे भीतर ठहर गयी

उसका मरना वैसा मरना न था
जैसा ‘मरना’, ‘एक दिन तो सबको मरना है’ के सत्य में है
वह आत्महत्या करता तो दुख न होता
क्योंकि ऐसा वह करता तभी
जब ‘अच्छे दिन आएँगे कभी’ जैसी
उसमें न रहती कोई उम्मीद बाकी
और तब वह जीता भी तो एक मरा हुआ जीवन जीता

वह मरा अधूरा
जैसे कुम्हार चाक पर पूरा न कर पाये
आकार लेती कोई कलाकृति
अपने भविष्य को लेकर भरा हुआ उम्मीद से
उसके बुरे और अच्छे दिनों में
एक पक्की नौकरी का फासला था

मेरी आँखों से दूर नहीं होता
उसकी पत्नी का बिलखना
ठंड से फटे गालों वाली उसकी एक बरस की बेटी का
आँगन में आ बैठी एक चिड़िया की ओर लपकना।

तीन

वह अब सशरीर नहीं बचा था
सिर्फ हवाओं में उसके होने की सम्भावना थी
उनके लिए
जो उसे बेहद प्यार करते रहे होंगे।

चार

आठ घंटे की मशक्कत के बाद हमें मिल पायी उसकी लाश
शवगृह के कर्मचारियों को घूस दी गयी
पुलिसवालों की खुशामद की गयी
एम्बुलेंस वाले ने लिये दोगुने पैसे

इस क्रूर दौड़भाग के बीच
लोगों से निपटता मृतक का छोटा भाई
बगावत में बीच-बीच में रो पड़ता था।

 

2. परिवार 

परिवार-1

दुनिया में उतनी ही घटनाएँ
उतने ही उत्सव शोक संवेदनाएँ

देख रहा हूँ
तारों की बढ़ती टिमटिमाहट
समय को आकाश में कपड़े बदलते
बहुत लम्बी है आज की रात

बाहर रह-रहकर चमकती बिजली में
घर की नींव काँपती हैं
भीतर माँ से चिपटी हुई
सो रही है बीमार बेटी

चिड़िया-सी बेटी
घोसले-सा
यह नश्वर परिवार
बाहर कितना विकराल
अजर-अमर संसार ।

परिवार – 2

दूर कहीं से आ रही है
कुत्ते की भौंकने की आवाज
बेटी को तेज खाँसी उठी है

बगल के कमरे में
माँ सो गयी है टीवी खुला छोड़
नींद में माँ का चेहरा बच्चे जैसा
उसका रक्तचाप ठीक लगता है।

सोचता हूँ पत्नी के बारे में
लकवा पीड़ित उसके पिता भर्ती हैं अस्पताल में

मैं सोचते-सोचते सो जाऊँगा
सो जाएगा यह घर

सिर्फ चाँद होगा
पेड़ों पर अटका
मैदान पार करता…

 

3. एक चित्र

समय की कोमल शाख पर
पकती है एक खालिस मिठास

कटार माँगती हैं आँखें
होंठ माँगते हैं धनुष
सादगी की गुजारिश करता है चेहरा
गर्दन जरा-सी लचक माँगती है

कन्धों के पठार पार करते-करते
ठिठकता है चित्रकार
उरोज माँगते हैं एक वक्र वितान
दो तिर्यक धार
एक व्यग्र उठान ।

 

4. गणित

मनुष्य को जब मिलने लगा होगा भूख जितना भोजन
जब चीजें फालतू होने लगी होगी
खुली होंगी जब पृथ्वी पर दुकानें

वे गणितज्ञ नहीं दुकानदार रहे होंगे
जिन्होंने उँगलियों पर शुरू की होगी गिनती
गणना की एक अनन्त सीढ़ी पर
सभ्यता ने अपना पहला कदम रखा होगा

गणित के गिने चुने आकारों में कैद हैं वस्तुएँ
उनका वजन है क्षेत्रफल और आयतन है
कुछ सूत्र हैं चाबियों की तरह समस्याओं के भीमकाय ताले खोलते
क्रय विक्रय मूल्यों में छिपा लाभ हानि का प्रतिशत
वृत्त और गोले हैं अपनी त्रिज्याओं से लिपटे हुए
हजारों चीजों में रचे-बसे अपनी धुरियों पर घूमते विच्छिन्न होते
एक अनन्त है जहाँ समानान्तर रेखाएँ भी मिल जाती हैं
एक बिन्दु रेखा होने की शर्त पूरी करते हुए भी बिन्दु बना रहता है

जितना फैलता उतना सिकुड़ता
वैज्ञानिकों से ज्यादा व्यापारियों गृहणियों के काम आता
गणना को सरल बनाता
एक कैलकुलेटर में उतर चुका है गणित
जैसा भी है बच्चों के लिए अनिवार्य है गणित
उबाऊ होते हुए भी सबसे जरूरी
वे फूलों को देखते हैं गणित उनसे संख्या पूछता है
वे किलकारियाँ उड़ाते दौड़ते हैं वह पूछता है गति
वे प्रेम के बदले हँसी बेचते हैं वह लाभ का प्रतिशत पूछता है
वे सौन्दर्य से अभिभूत देखते हैं चाँद और तारे
वह उनसे दूरियाँ पूछता है

बच्चे कोसते हैं उन्हें जिन्होंने इतने प्रश्न बनाये
और उनके उत्तरों के बीच विछाया इतना जटिल गणित
थोड़ी देर के लिए वे निकलते हैं मैदानों में
खेलकूद में गुम होते हैं
ताप से भरे वे चहकते चिड़ियों की तरह
थोड़ी देर के लिए वे भूल जाते हैं गणित
धीरे-धीरे ही समझ पाते हैं वे
खेल का भी एक गणित होता है।

 

5. युद्ध

युद्ध पर नया क्या लिखा जाए
इसमें मरते हैं नौजवान

एक हारता दूसरा जीतता है
कभी-कभी कोई नहीं हारता कोई नहीं जीतता
दोनों कपड़े झाड़ते खाली हाथ लौट जाते हैं

क्या लिखा जाए युद्ध पर
जब हमें लगा कि उस पर सब कुछ
लिखा जा चुका है
उसके न होने के समझ आ चुके थे जब
कितने ही कारण
तभी हुआ एक और युद्ध
पिछले युद्धों से ज्यादा बचकाना

 

6. इंडिया

न निगल सकता हूँ न थूक सकता हूँ
भूख और तृष्णा का खंजर है इण्डिया
मेरे हलक में फँसा हुआ
धर्म यहाँ फालतू रेजगारी है
स्त्रियाँ जिसे अच्छे दिनों में
लँगड़े भिखारियों की ओर उछालती हैं
पुण्य एक टुच्चा मजाक है यहाँ
पूँजीपतियों कहकहों से छलकता हुआ

इस तिलिस्म से निकल रहे हैं जो रास्ते
वे इलाहाबाद या साबरमती की ओर नहीं जाते
लन्दन और न्यूयॉर्क की तरफ जाते हैं वे
वहीं बोया जा रहा है भविष्य का इतिहास
काटी जा रही है उम्मीद की फसल

कहीं होती थी मेरे बचपन की जगह
पहाड़ों से उतरती थी एक नदी
छायादार रास्तों पर
खिलखिलाती चलती थी लड़कियाँ
लड़के आदमी की उम्र तक
समझदार होने से बचे रहते थे

वहीं से आ रही हैं सड़कें
ढुँसे पड़े हैं रेलों के डिब्बे
इण्डिया के प्लेटफॉर्म पर
अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों का समय है अभी
लड़कियाँ गा रही हैं मेहर जेसिया
लड़के माइक्रोसॉफ्ट बजा रहे हैं।

 

7.शहर

जेब में बची थी जो सिगरेट
उसे अनर्गल सोचते हुए
धुआँ बना उड़ा चुका हूँ
दो रुपए के सिक्के की
गटक चुका हूँ चाय
अब भीड़ भरे रास्ते पर
दोनों हाथ जेब में डाल
सीटी बजाता
कहीं जा रहा हूँ मैं।

 

8. सबसे चालाक आदमी

एक चीखता हुआ आदमी है
चुप्पी के बारे में बताता हमें
धर्म की सफेद चादर पर
हत्यारा खून से लिख रहा है प्रार्थना
मंच पर मुस्कुराता खड़ा है मसखरा
सबसे चालाक आदमी केसरिया मायूसी ओढ़े
अपनी समझ पर रीझता मन ही मन
हमारे भोलेपन की खिल्ली उड़ा रहा है

सभ्यता के निविड़ एकान्त में
खदेड़ लायी गयी हैं स्त्रियाँ
शिष्ट भेड़िये खँगाल रहे हैं
उनकी आत्मा के ठीकरे में बचा हुआ प्रेम

सिंहासन पर आरूढ़ है दूरदर्शी सम्राट्
हत्यारों, मसखरों, चतुरजनों की बन्दरटोली के बीच
उनकी बुद्धि और चतुराई से
पूरी तरह आश्वस्त।

 

कवि सुंदर चंद ठाकुर जन्म उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बी.एससी. मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा

पांच साल भारतीय सेना में अफसर। सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना अभियान में शामिल। सेना से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद नवभारत टाइम्स, दिल्ली में।

2010 से नवभारत टाइम्स, मुंबई स्थानीय संपादक। कविता संग्रह : 1. किसी रंग की छाया (2001) 2. एक दुनिया है असंख्य(2013)
कहानी संग्रह : डिपलवाली लड़की और बौद्धिक प्रेमी (2016)
उपन्यास पत्थर पर दूब (2012)

अनुवाद : एक अजब दास्तां (रूसी कवि येगिनी येक्तुशैंको की जीवनी ‘अ प्रिकोसियस बायोग्राफी’ का हिंदी अनुवाद)

पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का युवा पुरस्कार उपन्यास पत्थर पर दूब के लिए इंदु शर्मा कथा यूके इंटरनैशनल अवॉर्ड।

बहुआयामी व्यक्तित्व : अनुभवी मैराथन रनर। दक्षिण अफ्रीका में 90 किलोमीटर की कॉमरेड मैराथन समेत लगभग 50 मैराथनों में दौड़ चुके हैं। दौड़ की इसी यात्रा पर हिंदी में अपनी तरह की पहली किताब ‘खुद से जीत’ अध्यात्म, मोटिवेशन और समसामयिक विषयों पर नवभारत टाइम्स, मुंबई में पिछले 6 सालों से दैनिक स्तंभ ‘अंतर्ज्ञान’ और साप्ताहिक स्तंभ ‘अंतदृष्टि’का लेखन।

अपने यूट्यूब चैनल Mindfit के जरिए युवाओं को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान की राह पर जाने को प्रेरित कर रहे हैं।

 

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने माने कवि और स्वतंत्र पत्रकार हैं सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)

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