समकालीन जनमत
कविता

रेखा चमोली की कविताएँ हाशिए की आवाज़ हैं

आशीष कुमार


कविता अपने बचाव में हथियार उठाने का विचार है
साहस की सीढ़ियां है
कविता उमंग है उत्साह है
खुद में एक बच्चे को बचाए रखने का प्रयास है।”
(‘कविता‘ शीर्षक से)
कविता के संदर्भ में उपर्युक्त पंक्तियाँ एक कवयित्री के बेचैन मन का प्रमाण है। जिसके लिए कविता लिखना अपने समय की सच्चाईयों से साक्षात्कार करना है। अपने समय और समाज से संवाद करना है। यह सच है कि साहित्य की राजधानियों से दूर हाशिए पर पड़े हुए शहरों एवे कस्बों से महत्वपूर्ण साहित्यिक हस्तक्षेप होते रहे हैं। ऐसे ही एक दूर-दराज पहाड़ की रहने वाली महत्वपूर्ण युवा कवयित्री का नाम है – रेखा चमोली।
मैं उनके काव्य – संग्रह ‘पेड़ बनी स्त्री‘ से संवाद करना चाहता हूँ। कविता के पात्र ‘दीपाली‘ और ‘राजशेखर‘ से उनकी समस्याओं और संघर्ष को सुनना चाहता हूँ। वास्तव में, किसी भी कृति से तादात्म्य तभी स्थापित हो सकता है, जब आप व्यक्तित्व को त्यागकर सचेत पाठक के रूप में संवाद की पहल करें।
रेखा चमोली की कविताओं को पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि कविता लिखना और कवि कर्म का निर्वाह करना दो अलग-अलग स्थितियाँ हैं। रेखा के कविताओं की दुनिया में संघर्ष और संकल्प हैं। इन कविताओं में उपेक्षित व अलग-थलग पड़े मानव-समूहों के हकों की लड़ाई में मजबूती से उनका पक्ष रखने की ललक हैं। रेखा अपने समय के नब्ज़ को गहराई से पकड़ने वाली प्रतिबद्ध कवयित्री हैं। जिन्हें अपनी कविता में चमत्कार दिखाने या विचारों की बारीक कताई करने की अपेक्षा अपने समय के जरूरी प्रश्नों से मुठभेड़ करना ज्यादा जरूरी लगता है। वैसे,यह कोई आसान काम भी नहीं है। इसके लिए संवेदना के साथ-साथ विचारधारा एवं अपने समय और समाज की गइरी समझ होना अनिवार्य है।
रेखा की कविताएं हाशिए पर पड़े उन तमाम लोगों की आवाज़ है, जिनमें स्त्री, मजदूर, स्कूली बच्चे आदि शामिल हैं। रेखा के कविताओं की एक खासियत यह भी है कि वे ‘ग्रासरुट‘ के तह में जाकर सच से सामना करती है।
सामंतवादी समाज की स्वार्थपरकता  में सर्वहारा वर्ग के श्रम का मूल्यांकन इनके कविताओं की विशेषता है।
सृजन की प्रक्रिया स्वयं का संधान है और यही अनुसंधान रेखा चमोली की कविताओं का मूल स्वर है। अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व के पहचान के कई रूप उनकी कविताओं में मौजूद है।
“अपने मनुष्य होने की संभावनाओं को
बचाए रखना
दुनिया के सौन्दर्य व शक्ति में
वृद्धि के लिए
दुनिया के अस्तित्व को
बचाए रखने के लिए।” (‘अस्तित्व‘ शीर्षक से)
उन्हें स्त्री का पराधीन रूप पसंद नहीं है। वे विचारशील स्त्री की प्रवक्ता हैं। उन्हें स्त्री की सहानुभूति नहीं वरन् स्वानुभूति की भाषा अधिक पसंद है। इसलिए वे कवियों को सावधान करते हुए कहती हैं –
“ओ कवि मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैंतियों को याद करती चिट्ठियाँ
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे-धीमे जलाती हैं।
हमारे हाथों में थमाओं कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगी क्रांति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो।” (‘आओ हमारे साथ‘ शीर्षक से) 
अर्थात् अपनी परम्परा में जहाँ स्त्री को दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त है, उससे अस्वीकार का साहस और अपने समय में स्त्री की मुकम्मल तस्वीर गढ़ने का प्रयत्न है। रेखा की स्त्री केन्द्रित कविताओं को पढ़ते हुए मैंने देखा कि वे स्त्री को ‘मनुष्य‘ के रूप में देखने की पक्षधर हैं।
उनकी कई कविताएं स्त्री को समाज में सम्मानित जीवन जीने का पाठ प्रस्तावित करती है। एलेन शोवाल्टर ने भी कहा था कि स्त्री साहित्य को जब भी पढ़ा जाना चाहिए उसमें सामाजिकता की खोज करनी चाहिए।
इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में स्त्री-मन की बेचैनी, छटपटाहट और अंतर्द्वन्द्व व्याप्त है। उनकी कविताओं की एक बड़ी विशेषता है कि वे समकालीन स्त्री-विमर्श के तहत् पुरूष को नकार कर नहीं चलती। उनका स्त्री-विमर्श साझी दुनिया का स्वप्न है।
रेखा की कविताओं में प्रेम और लोकजीवन का अपना एक खास स्थान है। प्रकृति से उनका खासा लगाव है। वह पहाड़ के उस जीवन की रचनाकार हैं, जो कविता में चित्र उकेरती है।
दरअसल उनकी कविता गहराती पहाड़ की रात में स्वयं से संवाद की कोशिश है। दरअसल रेखा की कविताएँ उस जमात की कविताएँ है, जो मुख्यधारा में शामिल होने के लिए निरन्तर प्रयासरत हैं।
रेखा लोकधर्मी कवयित्री हैं, वे कविता की मार्फ़त जीवन को देखने का प्रयास करती हैं। इनकी कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि दुःख और संघर्ष के साथ रेखा अद्भुत जीवट की भी कवयित्री हैं-
“फिर से कोंपलें
फूटने लगी हैं
उसने हार नहीं मानी
और ढूंढ़ ली
जीवन की संभावनाएँ।” (‘कोंपले‘ कविता से)
कविता और रचनाकार का पूरा दायित्व है कि वह स्थितियों के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज करें। रेखा की कविताओं की यह प्रमुख विशेषता है कि दुख, निराशा, भूख और गरीबी की स्थितियों को बयान करते वक्त स्थितियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करती है और इन सबके बीच प्रतिरोध की भूमिका को भूलती नहीं है।
इन कविताओं  से गुजरते हुए यह विश्वास दृढ़ होता है कि ‘उम्मीद और जिंदगी से भरी यह शब्दयात्रा‘ निरन्तर प्रवाहित होता ही रहेगी।

 

रेखा चमोली की कविताएँ

1. पेड़ बनी स्त्री 

एक पेड़ उगा लिया है मैंने
अपने भीतर
तुम्हारे प्रेम का
उसकी शाख़ाओं को फैला लिया है
रक्तवाहिनियों की तरह
जो मज़बूती से थामे रहती हैं मुझे

इस हरे-भरे पेड़ को लिए
डोलती फिरती हूँ
संसार भर में
इसकी तरलता नमी हरापन
बचाए रखता है मुझमें
आदमी भर होने का अहसास

एक पेड़ की तरह मैं
बन जाती हूँ
छाँव, तृप्ति, दृढ़ता, बसेरा ।

2. कोंपले

छोटी-छोटी चींटियां
सरपट दौड़ रही हैं
यहां से वहां

चिड़ियां चहचहाकर
बना रही है घोंसला

कभी धीरे कभी तेज
चलती बसन्ती हवा के
स्पर्श से

रोमांचित है सारा बदन
छोटे-छोटे हरे धब्बों
से सजा

गर्व से खड़ा
उपस्थिति का भास
दे रहा है ठूंठ

फिर से कोपलें
फूटने लगी हैं
उसने हार नहीं मानी
और ढूंढ ली
जीवन की संभावनाएं।

3. अस्तित्व

दुनिया भर की स्त्रियो !
तुम ज़रूर करना प्रेम
पर ऐसा नहीं की
जिससे प्रेम करना उसी में
ढूँढ़ने लगना
आकाश, मिटटी, हवा, पानी, ताप

तुम अपनी ज़मीन पर रोपना
मनचाहे पौधे
अपने आकाश में भर लेना
क्षमता-भर उड़ान
मन के सारे ओने-कोने
भर लेना ताज़ी हवा से
भीगना जी भर के
अहसासों की बारिश में
आवश्यकता भर ऊर्जा को
समेट लेना अपनी बाँहों में

अपने मनुष्य होने की संभावनाओं को
बनाए रखना
बचाए रखना ख़ुद को
दुनिया के सौन्दर्य व शक्ति में
वृद्वि के लिए
दुनिया के अस्तित्व को
बचाए रखने के लिए ।

4. प्रेम

क्या कोई रोक पाया है कभी
हवा का बहना
बीज का अंकुरित होना
फूलों का खिलना
फिर कैसे रोक पाएगा
कभी कोई
संसार की श्रेष्टतम भावना
प्रेम का फलना-फूलना

5. आओ हमारे साथ 

हम पहाड़ की महिलाएँ हैं
पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक
हम नदियाँ हैं
नसें हैं हम इस धरती की
हम हरियाली हैं
जंगल हैं
चरागाह हैं हम
हम ध्वनियाँ हैं
हमने थामा है पहाड़ को अपनी हथेलियों पर
अपनी पीठ पर ढोया है इसे पीढ़ी दर पीढ़ी
इसके सीने को चीरकर निकाली है ठंडी मीठी धाराएँ
हमारे कदमों की थाप पहचानता है ये
तभी तो रास्ता देता है अपने सीने पर
हमने चेहरे की रौनक
बिछाई है इसके खेतों में
हमी से बचे हैं लोकगीत
पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या
संस्कृति की वाहक हैं हम
ओ कवि मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियाँ
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे-धीमे जलाती हैं
हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगे क्रांति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो।

 

6. मुक्त

लकीरें
एक के बाद एक
फिर भी छूट ही जाता है
कोई न कोई बिन्दु
जहाॅ से फूटतीं हैं राहें
चमकती हैं किरणें
इन्हीं राहों से होकर
इन्हीं किरणों की तरह
निकल जाना तुम
लकीरों से बाहर
रचना अपना मनचाहा संसार
जिसमें लकीरें
किसी की राहें न रोकंे
न ही एक-दूसरे को काटें
बल्कि एक-दूसरे से मिलकर
तुम्हारे नये संसार के लिए
बनें आधार।

7. बस एक दिन

नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहंे चीजें यूं ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाये
फर्ष पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाये अधखाये
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देखकर खीजूं नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कम्बलें, रजाइयां
साबुन गलता रहे, लाईट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुंझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब
के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूं।

 

8. प्रेम में लड़की

प्रेम करना किसी लडकी के लिए
ऐसा ही है
जैसे हथेली पर गुलाब उगाना

हथेली बन्द कर
काॅटों की मीठी चुभन
सहन की जा सकती है
पर खुशबू
उसकी तो हवाओं संग पक्की यारी है

और खुशबू फैलते ही
फूलों के शौकीनों की भीड लगते
देर नहीं लगती

कई विकल्प तत्पर रहते हैं

धार्मिक उत्सवों , मंगल कार्यो में
स्वागत समारोहों ,घर सजाने ,रस्मों रिवाजों में
सूर्ख फूलों की रंगत बिखरती चली जाती है
और हथेली हो जाती है लहूलूहान

इस पूरी प्रकिया में
लडकी के कुशल अभिनय पर
किसी का ध्यान ही नहीं जाता
जो सारा रक्त खुद में ही
सोख लेती है
बिना कहीं टपकाए।

9. कविता

कविता नहीं है सिर्फ कुछ शब्द या पंक्तियाॅ
कविता
सहमति और असहमति जताती दृढताएॅ हैं
रुॅधे हुए गले में रुकी हुई पीडाएॅ हैं
सच्चाई को हारता देख
बेबस लागों का बिलाप हैं
तो बार बार गिरने पर
फिर फिर उठने का संकल्प भी हैं
कविता अपने बचाव में हथियार उठाने का विचार हैं
साहस की सीढियाॅ हैं
कविता उमंग हैं उत्साह हैं
खुद में एक बच्चे को बचाए रखने का प्रयास हैं।

 

10. चुप्पी की संस्कृति

चुप्पी की संस्कृति
पढ़े लिखे समझदार लोग
सीधे सीधे न नहीं कहते
न ही उंगली दिखाकर दरवाजे की ओर इशारा करते हैं
वे तो बस चुप्पी साध लेते हैं
आपके आते ही व्यस्त होने का दिखावा करने लग जाते हैं
आपके लायक कोई काम नहीं होता उनके पास
चुप्पी समझदारी है हमेशा
आप पर कोई आरोप नहीं लगा सकता ऐसा वैसा कहने का
ज्यादा पूछने पर आप कह सकते हैं
मैंने क्या कहा?
ये चुप्पी की संस्कृति जानलेवा है।

 

 

(2013 के समकालीन सूत्र सम्मान से सम्मानित कवयित्री रेखा चमोली । जन्म : 8 नवंबर 1979, कर्णप्रयाग, उत्तराखंड
कविता, कहानी और निबंध के क्षेत्र में सक्रिय। देश की प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। ‘पेड़ बनी स्त्री’ के नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित। मेरी स्कूल डायरी “ नामक स्कूली अनुभवों पर आधारित पुस्तक प्रकाशित।संप्रति: रा0 प्रा0 वि0 गणेशपुर , उत्तरकाशी में अध्यापन।

पता: जोशियाडा निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान, उत्तरकाशी-249193, उत्तराखंड. ई-मेल
chamolirekha08@gmail.com

टिप्पणीकार आशीष कुमार युवा आलोचक हैं। संप्रति: सहायक प्रोफ़ेसर
सुधाकर महिला पोस्ट -ग्रेजुएट कॉलेज,खजुरी, पांडेयपुर, वाराणसी ।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion