समकालीन जनमत
कविता

प्रिया वर्मा की कविताएँ शुचितावादी धारणाओं को धता बताती हैं

जोशना बैनर्जी आडवानी


“आम्रपाली की कथा बांचो परिव्राजक!
और अब कहो
कि तुम्हारे डर को मिट जाना चाहिए।

उस गलफंद को कहूँ मैं धन्यवाद?
मुझे इतना उदार मन भी नहीं चाहिए।
आषाढ़ में मुझे बसंत गीत क्यों गाने चाहिए

होना तो यूँ चाहिए कि वर्तमान को निर्लिप्त और भविष्य को स्वार्थी हो जाना चाहिए

समझ आना चाहिए कि
जो भी बीता वह आखेट था।
और आखेटक को कैसा धन्यवाद!”

चित्रगंध की तरह ही एक गंध जो मन तक पहुँचती है किसी सुंदर कोमल कविता को पढ़कर, या यूँ कहें कि कवितागंध, जो मनरंध्रों को छूती है और कहती है आपसे असंख्य गंधों के मध्य कवितागंध ही तुम्हें सुख देगी। ऐसी ही एक मनभावन गंध प्रिया की कविताओं से उठकर सीधे मन तक पहुँचती है। प्रांजल भाषा और भावकहन से बनी, एकांत में पकी, एक ठसक लिए, एक संतुष्टि लिए जैसे मांगल्यगान के गाने पर मिलती है, प्रिया की कविताओं का संसार बहुत समृद्ध है।

प्रेम, प्रकृति, विरक्ति ही नहीं अपितु प्रिया की कविताओं में निदा फाज़ली भी मिल जायेंगे आपको, यह निदा फाज़ली फिल्मी दुनिया के निदा फाज़ली से बिल्कुल अलग हैं, प्रजातंत्र के किस्से हैं और सर्वोच्च न्यायालय का सत्य है।

प्रिया अपनी कविताओं में अपना आपा नहीं खोती, वे बहुत शालीनता से सत्य को सत्य और झूठ को झूठ लिखते हुए इस प्रकार के बिंबों का प्रयोग करती हैं, जिसे पढ़कर पाठक संतुष्ट होता है और सोचता है यही तो मैं भी व्यक्त करना चाहता था। कविताओं में खेलती, गिरती, ऊठती प्रिया अपने कहन का उद्देश्य पूर्ण करती हैं चाहे इसके लिए उन्हें भट्टी का तापमान कविता में लिख देना पड़े या झोलाछाप आदमी की जुगत लिखनी पड़े। वे छिपने के पक्ष में नहीं। वह प्रत्येक चीज़ों को उघाड़कर उसका सत्य लिख देती हैं, यही आज की कवयित्रियों से समय की माँग है।

कुछ बिंब जो मुझे बहुत मज़बूत लगे, मैं यहाँ लिख रही हूँ जैसे “देवदूत की घनघनाहट को पकड़ने के लिए बुना गया जाल”, “एक यही बात मुझे मध्ययुगीन बना रही थी”, “मान्यताप्राप्त सौन्दर्य”, “एक अपमानजनक सम्मान”, “मेरा कैसपन रोमियोपना इस बर्तन में बचा रहे”, “आम्रपाली की कथा बाँचो परिव्राजक”, “आश्चर्य मर गये हैं” और “निर्धारित दण्ड से दया के लिए याचिका लिखना।” यह सभी बिंब मात्र इसलिए नहीं लिखे गये कि मात्र पढ़ लिए जायें अपितु यह बिंब एक आरसी के समान समाज को समाज का चेहरा दिखाते रहेंगे, यह याद दिलाने के लिए कि विष्टाओं का अंत हो, यह अतिआवश्यक है। सह लेने की एक पीड़ा अथवा सह सकने की अबाध इच्छाशक्ति एक अस्त्र की तरह कविता में कार्य करता है और कवयित्री के कांतिमय मुख पर एक कोमल मुस्कान पसरी रहती है।

अभी इस साहसी कवयित्री का बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। कविताएँ मात्र पाठकों का पक्ष नहीं माँगती, मुमानियत के लिए भी जगह छोड़ देती हैं, अपक्ष की जगहें बनाना साहस का कार्य है। हम सभी अपने पक्ष के लिए लड़ते हैं परंतु यह आवश्यक है कि हमें अपने पढ़ने वालों के लिए अपक्ष के लिए भी जगह बनानी चाहिए।

यह कार्य प्रिया वर्मा बखूबी करती हैं। वे कतई नहीं चाहती कि उनकी कविताओं पर सब वाह वाह करें, वे कविताओं पर आपत्ति पर भी शालीनता से बात करती हैं। इससे निरंतर सीखतीं हैं। उनकी कविताओं में स्त्रियाँ मात्र सौंदर्य का प्रतिमान नहीं अपितु उनकी कविताओं की स्त्रियों को सत्य कहना आता है, जतलाना आता है, सत्य और असत्य में फर्क करना आता है। उदाहरण के तौर पर ये पँक्तियाँ पढ़िए –
“मैं इस बात पर कविता लिख रहीक्षहूँ कैसे पढ़ते हैं
इस बात पर लगातार बोले जा रही हूँ कि महसूस कैसे करते हैं
जल्दी भूलते कैसे हैं और सालों तक याद कैसे रखे रहते हैं
कैसे जागते हैं और कैसे जागते ही जाते हैं
कैसे सपनों से दूर भागते हैं
कैसे ख़्याल रखते हैं
इस एक जीवन में सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे
प्रचारित सार्वभौमिक सत्य भी पूर्ण सत्य नहीं होते।”

यह पँक्तियाँ हमारा हाथ पकड़कर हमसे कहती हैं कि कह देना अत्यंत आवश्यक है। यही प्रिया की कहनशैली अन्य कवियों से प्रिया को भिन्न दर्शती है और मुझे यहाँ यह लिखने में कतई गुरेज नहीं कि वर्तमान समय में हमें भयहीन कवियों की आवश्यकता है। कोमलता, माधुर्य, शक्ति, शैली की लाक्षणिकता, सत्य कहन, प्रेम और भावभाषा प्रिया की कविताओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। मृत्यु के सौंदर्य को बहुत बारीकी से प्रिया पाठकों के सामने रख देती हैं, पढ़िए यह पँक्तियाँ –

“काले करघे बनाते हैं कपासी मुख को भीषण आकर्षक
वैधव्य नहीं करता एक मास से अधिक का विलाप
फिर प्रेमी क्यों रोता है प्रति चतुर्मास?
समझी नहीं, रोती रही मृत्यु पर प्रेम की।
मेरी कल्पना में मृत्यु किसी तरह की नहीं।
हत्या थी। अपनी हत्या।

कामना करो ऐसी मृत्यु की कि मेरी कामना से भी आ मिले
न मिले त्रिवेणी, दुख नहीं।
कोई है नहीं तो मैं भी तो अमर नहीं।

जब मुझ से उकताओ
करो तुम मेरी मृत्यु की कामना।”

इतनी कलात्मकता कविता में एक कवि के कारण ही संभव हो सकती है। प्रिया की कविताएँ हमें इतना साहस तो देती है कि हम उनकी कविताओं पर आश्रित हो सकते हैं। आशा का स्थापत्य है यहाँ, रोबि ठाकुर की मृणाल है, बचाई गयीं चीज़ों को दर्ज़ कर सकने की प्राथमिकता है, सीमावर्ती क्षेत्र से आगे भी अपना ही देश है, काव्य की विशाल सम्पदा और एक संतुष्टि है और इस एक संतुष्टि से ही हम सभी मुक्ति पायेंगे। प्रिया की कविताएँ मात्र कविताएँ नहीं एक महमह है जिसमें पाठक सुवासित होते रहेंगे। प्रिया वर्मा को अनेक अनेक मंगलकामनाएँ और उनके प्रथम कविता संग्रह की हमें प्रतिक्षा है।

 

प्रिया वर्मा की कविताएँ 

1.
इस एक पल में,
जाने कितने बच्चे अलग-अलग पलंगों पर जन्मे होंगे!
कितने गर्भों में लाल नीले अंकुर फूटे होंगे!
कितने जोड़ों ने रतिक्रिया में अभी तय किया होगा नया नाम
कितनों के जीवन खत्म हो रहे होंगे, होने को होंगे या हो गए होंगे!

इस एक पल में
कोई तालाब किसी कंकड़ के डूबने से ठीक अभी ही तरंगित हुआ होगा
कहीं बर्फ़ गिरी होगी और सफ़ेद मौन पसर गया होगा
कहीं कोई पत्ता पीला पड़कर भी मोहवश अपनी डाली से चिपका होगा
इस इन्तज़ार में कि अलग होने का सारा दोष मढ़ दे तेज़ हवा के माथे पर

कहीं किसी स्त्री का कहीं किसी बच्चे का अलग-अलग दीवारों के पार शोषण हुआ होगा
कोई अंतड़ियों में चाकू की घोंप लिए, छाती में या टांग पर तमंचे की गोली खाए या रोडवेज बस से टक्कर खाए अस्पताल के गेट पर कर रहा होगा स्ट्रेचर का इन्तज़ार
जबकि उसे अपनी मौत का पक्का यक़ीन हो गया होगा
कोई कतार में खड़ा होगा दूर की यात्रा के टिकट के लिए
कहीं विद्रोह की रणनीति कच्ची/पक्की हो रही होगी
किसी दफ़्तर में नियुक्ति की नोटिस नत्थी हो रही होगी
कोई सेवानिवृत्त हुआ होगा
कहीं गठबंधन के लिए सांठ-गांठ/जोड़-तोड़ हो रही होगी
कहीं कसाई ने मुर्गे की गरदन रोज़ी रोटी की खातिर दी होगी मरोड़
किसी ने फूल को देखकर तोड़ने का इरादा पहले बनाया होगा, फिर एकाएक एक नया मनुष्य जन्म आया होगा
और फूल मुस्कराया होगा
कहीं कोई रिश्ता टूटा होगा तो कहीं कोई रूपमोहित होकर ‘हाँ’ बोला होगा
भूल कर कि भंगुर होता है देह का सम्मोहन और गुणों का आश्वासन
साथ-साथ चलने पर भी नहीं होता कभी दो किनारों का मिलन

कोई भूल गया होगा मिट्टी के गर्भ में रत्न ही नहीं, रहस्य और आग भी हैं
इतिहास में हुई छेड़छाड़ के साक्ष्य इसी भूमि पर कहीं आज भी हैं

किसी नाव ने ठीक अभी ही किसी किनारे को भरोसे से छुआ होगा
कोई कोलम्बस को गूगल करते हुए वास्को डी गामा के ज़रिए मैप में कालीकट तक पहुंच गया होगा।
किसी ने अभी पहला अक्षर सुना, बोला या पढ़ा होगा।
कोई बच्चा इसी पल में पिता के पंजों पर धरकर अपना पहला कदम चला होगा
ऑपरेशन के बाद मोतियाबिंद के मरीज़ ने इसी पल आँखों को खोला होगा।
उसने शुक्रिया बोला होगा।

किसी को लग रहा होगा कि सुबह होने को है।
कहीं सूरज छिपने तक काम ख़त्म करने का दबाव बन रहा होगा।
कहीं कोई अपह्रत, कोई तिरस्कृत और कोई उपेक्षित हुआ होगा।
कोई पीड़ा से मुक्ति पाने को आत्महत्या का सरलतम तरीका खोज रहा होगा।
कोई निर्धारित दण्ड से दया के लिए याचिका लिख रहा होगा।

कोई आस्था से भरा ईमानदार कसमें उठा रहा होगा, तो कोई घर से गाली देता हुआ मूर्तियों को बाहर फेंक रहा होगा
समग्र में कितनी क्रियाएं एकसाथ सम्पन्न हो जाती हैं
फिर भी, हम से कोई न कोई टकरा जाता है हमारी तरह का
वह एक पल का षड्यंत्र होता है।
तो इस एक पल के षड्यंत्र में मैं कहाँ हूँ?

मैं इस बात पर कविता लिख रही हूँ कैसे कहते हैं!
इस बात पर लगातार बोले जा रही हूँ कि महसूस कैसे करते हैं!
जल्दी भूलते कैसे हैं और सालों तक याद कैसे रखे रहते हैं!
कैसे जागते हैं और कैसे जागते ही जाते हैं!
कैसे सपनों से दूर भागते हैं!
कैसे ख़्याल रखते हैं
इस एक जीवन में सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे
प्रचारित सार्वभौमिक सत्य भी पूर्ण सत्य नहीं होते!

इस एक पल में
कहीं कोई सकुचाहट भरे यत्न से
अपने जीवन की पहली कविता भी तो लिख रहा होगा।
और लिखे हुए को संशय से देख रहा होगा
क्या यह वही है, जो मुझे कहना था!

2.
और मेरे पास मात्र देह है?

चूंकि कोई नहीं है दूध का धुला हुआ
इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि
तुम्हारे पास है आत्मा
और मेरे पास मात्र देह है
यह भी नहीं कि तुम्हारे पास है प्रगाढ़ प्रेम
और मेरे पास मात्र देह है
यह भी नहीं कि तुम्हारी आस्था में है सत्यता
और मेरे पास मात्र देह है

चूंकि कोई नहीं है दूध का धुला
मेरे अनुसार इसका अपना एक अर्थ यह हो सकता है
कि मेरे बारे में तुम्हारा विचार यदि तुम्हारी जिह्वा पर सत्य होता है फिर भी, तुम्हारा प्रेम
जीवन-प्रमेय में सिद्ध नहीं हो जाता

मेरे लिए मेरा प्रेम क्या है?
मेरे लिए मैं क्या हूँ और मेरे लिए तुम क्या हो?
क्या है देह और आत्मा मेरे लिए?
क्या है आस्था और सत्यता?
क्या है देहभोग मेरे लिए?
मेरे लिए आत्मा का क्या आस्वाद है?
मन का देह के स्पर्श का सहसम्बन्ध क्या है?
दिन क्या है और रात क्या है? संध्या गोधूलि क्या है?
मेरा सुख-दुख, मेरा निज, मेरा अतीत, मेरा भय, मेरा मान क्या है?
मेरी देह के पृथक मेरे स्वप्न क्या हैं? मेरी कल्पनाएं क्या हैं?
मेरी भग्न आशाएं क्या है?
ज़मीन समग्र में मैं क्या हूँ? कौन रंग हूँ
कितनी वर्णान्ध हूँ?
यह मेरी दृष्टि से तुम्हें नहीं है पता।
और न मेरे लिए
यह सब तुम्हें सोचना है।

इस देह का संसार यह नहीं है कि इसका ईश्वर मरणशील है।
यह है कि यहाँ स्पर्श जीवित हैं
आश्चर्य मर गए हैं।

3.
मुझे इतना उदार मन नहीं चाहिए

*

जिस प्रेमी ने जाते हुए कहा तुम्हें वेश्या
उसे कहना चाहिए धन्यवाद
आगे बढ़कर पड़ जाना चाहिए
नए प्रेम में नए प्रेमी के साथ

धता बताना चाहिए आसमानी शुचितावाद को। जो तुम्हारे हिलोर भरते समुद्र को
एक पोखर समझता
रेत किनारे बिच्छू-सा रेंगता रहा
दंश के अभिमान से होता रहा भारी उसका गर्वित डंक

उस सूर्य की ओर खुलने वाली खिड़की को बन्द कर दो
जो तुम्हारे पानी को सोखने के लिए उतर आया ज़मीन पर एक दिन

तुम्हें बता कर गया चखकर तुम्हारी देह
कि इतना नमक है इसमें
जिस से संसार के सब अन्न का भंडार पकाया जा सकता है

एक अधीर प्रेमी के कामुक संस्करण से गुज़र जाने के बाद
स्वादिष्ट हुई है जितनी यह देह।
पानी में छवि देखकर तो बताओ।
वही पुरानी नगरवधू की रीति। फूलों से इस मण्डप को सजाओ। कोई ऋतु हो, बसंत के गीत लिखो और गाओ। झूमो और पुनः लजाओ

आम्रपाली की कथा बांचो परिव्राजक!
और अब कहो
कि तुम्हारे डर को मिट जाना चाहिए।

उस गलफंद को कहूँ मैं धन्यवाद?
मुझे इतना उदार मन भी नहीं चाहिए।
आषाढ़ में मुझे बसंत गीत क्यों गाने चाहिए

होना तो यूँ चाहिए कि वर्तमान को निर्लिप्त और भविष्य को स्वार्थी हो जाना चाहिए

समझ आना चाहिए कि
जो भी बीता वह आखेट था।
और आखेटक को कैसा धन्यवाद!

 

4.
मृत्यु-कामना पर ‘किमाश्चर्यम्’

.
पृथक कामनाओं के मध्य है लय में डोलती
तरह-तरह से तरह-बेतरह की मृत्यु
जबकि है प्रत्येक कामना में भरा अधजला शव बनकर रहने का वरदान
कहाँ से आती हैं ये अतिरिक्त विनाश की कामनाएं
क्या इस पर ज़ाहिर करूँ आश्चर्य ?
या अपनी दीवानगी को पियूं?

कमाल कि स्वयं में मृत्यु की कामना
सिद्ध है। वरद है। सुन्दर है।
आत्महत्या/हत्या नहीं-
विशुद्ध मृत्यु : तत्काल हो जाए वह
शब्द में
कैसी एकमुख सुस्पष्ट वेध्य द्रुतगामी बेधड़क
बेलाग और नग्न कामना

सुपरफास्ट रेल की कानफोड़ू गति से तीव्र
कि टूट पड़े आसमान, उठे लपट, फट जाए धरती
या समंदर घुस आए रक्त में पूरे अंकभर खार के साथ
बढ़े दाब और हृदय फट जाए
स्मृति के कागज़ पर गिरे अम्ल की बूंद
गल जाए रत्ती-रत्ती आत्मा
संसार नृत्यरत। रक्स अनवरत।

ता थेई थेई तत आ थेई थेई तत नहीं
साँसों के तार पे नाचता एक यार
जिस्म से बेजार
थाप बिना नृत्य संगीत बिना

मैं कैस वो लैला/जूलियट या जो भी है उसका मर्दाना नाम
ज़बान से कहता रहे बार-बार मुझे
-जाओ, मुँह में गिर जाओ
मृत्यु के।

मेरा कैसपन रोमियोपना इस बर्तन में बचा रहे,
मैं बाहर गिर जाऊँ
समय मुँह बाए है अहर्निश
भूख कोमलता चबा रही है

क्या सहज कामना है जैसे संतरे की मीठी गोली
चूसना, और अधीरता में कट् से तोड़कर चबा लेना
थोड़ी देर मीठा मन लिए घूमना
धुर अकेले फिरना संतुष्ट शब्दविहीन

देखती हूँ दस दिशा से समवेत दौड़ती हैं
राग-रागिनियाँ
आरोह अवरोह में स्वर ऊंचा लगे कि मन्द्र
दुख नहीं

दुख नहीं कि साँस रुकी रहे दाह किए जाने तक
किन्तु, मृत्यु की कामना, आह!

बड़ा रोई हूँ
एक नहीं कई बार रोई हूँ
एक जैसे प्रेम की अनुभूति के टूटने पर
दूर जाने पर, बचाने के प्रयासों के सुख तक पर रोई हूँ
समझाने पर भी रोई हूँ
कि कब तक रोऊंगी
रोने से क्षीण होती है दृष्टि
रोने से सुन्दर होते हैं नयन
काले करघे बनाते हैं कपासी मुख को भीषण आकर्षक

वैधव्य नहीं करता एक मास से अधिक का विलाप
फिर प्रेमी क्यों रोता है प्रति चातुर्मास?

समझी नहीं, रोती रही मृत्यु पर प्रेम की।
मेरी कल्पना में मृत्यु किसी तरह की नहीं।
हत्या थी। अपनी हत्या।

कामना करो ऐसी मृत्यु की कि मेरी कामना से भी आ मिले
न मिले त्रिवेणी, दुख नहीं।
कोई है नहीं तो मैं भी तो अमर नहीं।

जब मुझ से उकताओ
करो तुम मेरी मृत्यु की कामना।

5.
रबीन्द्रो ठाकुर से

पृथ्वी की आकृति क्या है? बताने चले आते हो न!

रक्त से भी गाढ़ी हो चली
सूख चुकी साहित्य की स्याही के ज़रिए
अगर मैं न जानना चाहूं
फिर भी फूंकते हो कान में मेरे सम्मोहन
तुम कौन हो ? क्या हो?

कहते हो कि नायिका हूँ।
तुम्हारी अनन्य कथाओं की।
तुमने कब का लिख कर रख लिया था मेरा प्रारब्ध मेरा भाग्य
तुम न ब्रह्मा न भाग्यविधाता
मात्र एक दृश्य नहीं समस्त कथानक का वितान
मेरी अनुभव पीठिका पर ही क्यों रचा?

मेरा जीवन कैसे बिना जाने मुझे मेरे नाम को
सौ बरस पहले
बिना मेरी अनुमति लिए! बग़ैर मुझे श्रेय दिए!

मेरी जीवन-कथा को छूते ही छेड़ देते हो टीस
कथाकार नहीं संगीतकार हो
मैं पीड़ा के अनुराग से भरा एक सितार हूँ
तुम्हारे भरे पूरे कक्ष में
जिस पर तुम हवा का राग कुशलता से साधते हो
रचते हो शब्द-अट्टालिकाएं
इतनी विशाल इतनी भव्य कि स्तब्ध होती हूँ!
मानो यह मेरी भूमि नहीं, पुराकाल का बंगाल है।

तात की धोती लपेटे
एक कोई ‘मृणाल’ है जो थैला लटकाए
समुद्रतट की रेत पर चलती मिटाए चली जाती है पीछे लहर उसके पगचिह्न,
मेरी पीड़ा के उपचार की राह दिखाए जाती है
समुद्रस्तम्भ की भांति अंधेरे में दृष्टि को देती है विस्तार

तुम्हारी मृणाल तुम ही हो ठाकुर!
तुम्हारी मृणाल मैं ही हूँ ठाकुर!
हम दोनों एक ही नाम में विलीन होते हैं सौ सालों के अंतराल पर

ठीक-ठीक वह कहते हो तुम
जो मैंने तुम्हें बिना सुने, कल रात ही कहा एक स्त्री से।

“मुझे अपने आत्म सम्मान तक पहुंचने में सोलह साल लग गए”
बस एक बरस ही तो आगे है तुम्हारी मृणाल मेरी मृणाल से

मुझे रचा है तुमने अपनी कथाओं में
अनेक नामों में पुकारा है मुझे तुम्हारे नायकों ने

कि मृणाल, कि कोई सुचरिता
कि बिनोदिनी कि कोई चारुलता।

कोई नाम पुकारोगे- पुकारोगे तुम मुझे ही।

 

6.
जिस जगह बैठकर लिखने का उपक्रम करती हूँ
भूलने का अभिनय
याद रखे रहने का अभ्यास
शान्त दिखने की शर्म को छिपाती हूँ जहाँ

जहाँ मैं वह नहीं होती, जो वाक़ई में मैं सब के साथ होती हूँ
या जहाँ मैं वह होती हूँ जिसे मैं बाक़ी सब से बचाए रख पाती हूँ
बचे-बचाए को दर्ज़ करना या बहते हुए क्षणों की तरलता में सिराना
द्वार के तोरण, देव अर्चन के पुष्पों, दूल्हे की मोरी की तरह

मैं जब इस जगह नहीं होती, इसे याद करती रहती हूँ
जब मैं इस जगह नहीं होती, मेरी लय टूट जाती है

जैसे कोई नामचीन नर्तकी किसी नए तबलची की संगत में
चार ताल की दुगुन तिगुन पे अपना पांव बिठाने का करती है कुछ कम सफल प्रयास
कहती कुछ और है, चीन्हती कुछ और
वह नहीं कहती, जो सोचती है

वह सोचती है कि पुरानी संगत वाला तबला यही है
क्या उन पुराने अभ्यासी हाथों की थपकी को आती होगी उस लय की याद!

क्या इस फर्श की देह को हिचकी आती होगी
पांवों के दूर चले जाने के बाद !

7.
थोड़ी कमतर

थोड़ी कम सुन्दर हूँ,
कम हूँ दृष्टि में, विचार में और व्यवहार में भी, मान्यताप्राप्त सौन्दर्य में भी
कम हूं व्यावहारिक होने में भी
अति भावुकता की आदत से दूर होने के लिए भी
थोड़ी कम संघर्षरत हूं

पर इतनी भी कमतर नहीं
कि वह मुझे न चुने
एक दिन के साथ और एक रात सहवास के लिए

उस के पास ढेरों औरतों को प्यार करने की वैकल्पिकता होती है,
पर इतनी भी कमतर नहीं हूं मैं
कि वह मुझे छोड़कर किसी दूसरी को कहता उसका
प्यार, एक क्षण के लिए

ये और बात है कि जिस स्त्री पर उसका दिल रीझ रहा था, उसके लिहाज़ से वह मुझसे पीछे थी- दिखने में

अपनी मूढ़ता में इस बात पर खुश हो रही थी कि कम से कम कुछ तो बात थी मुझमें।
कम से कम किसी से तो मैं बेहतर थी।
कम से कम इतना तो था कि उस की दृष्टि की कृपा मुझ पर हो रही थी।

इतनी कमतर भी क्या होना चाहिए था मुझे !
-कि मैं इस बात पर खुश हो लेती कि औरतों के भी होते हैं स्तर।

जबकि मेरे आधुनिक होते हुए भी,
एक यही बात मुझे मध्ययुगीन बना रही थी
और मैं
सारा कमरा छोड़कर केवल दर्पण में किसी बेहतर को खोज रही थी।

 

9.
यह पहला पृष्ठ है

कितने अर्थ हैं एक वाक्य के!
वाक्य में छिपी कितनी व्यंजनाएँ!
कितने मर्म! सुख भी दुःख भी निर्वात भी!

और अपना अहंकार लिए डोलती हूँ
इस सपाट दुनिया के एक भूभाग पर।
मेरा हृदय मेरे साथ समझ कर

सपाट क्योंकि मेरी आँखों के देखने की सीमा है

सीमावर्ती क्षेत्र से आगे निकल देखती हूँ
अस्तित्व का भूगोल।

और अभी तो यह पहला ही पृष्ठ है!

पृष्ठ जिसकी कोई भूमि नहीं
जहाँ पाँव पड़ते ही धंस गई हूँ मैं
अनेक भाषाओं के मायाजाल में

यह गुलाब-बाड़ी
विशाल सम्पदा है काव्य की
मैं पँक्ति के एक शब्द पर ही अटक कर रह गई हूँ।
कच्चा पक्का पढ़ रही हूँ
दिन को दिन, रात को रात
कला को कला और वाद को वाद

और यह पहला पृष्ठ है कि सम्पन्न नहीं होता
पूरी पुस्तक छूट जाएगी अधूरी
पुनः कर बैठूंगी न जानने का अपराध

यह कोई पत्र नहीं है
जो पढ़कर रख लूँ आजीवन

यह उस देवदूत की घनघनाहट को पकड़ने के लिए
बुना गया यह एक गहरा जाल है
जिसके बारे में कहते हैं वह पीठ पीछे से देखता है, अब भी
सब जानता है
हरदम साथ रहता है, पर दिखता नहीं
वह लिखता है जीवन के बारे में
मृत्यु के अथाह पल तक लिखता ही रहता है

‘हृदयहीन’
वह अदृश्य मुझे क्या बचाएगा!
कैसे ले जाएगा मुझे अमर्त्य की ओर!

 

10.
‘झोलाछाप आदमी पर छापे’

किसी गाँव कस्बे के दिखते
उस आदमी ने एक बार बीच में शायद
‘झोलाछाप वालों पर छापे’ कहा
फिर एक लम्बी चुप्पी के बाद
फोनकॉल काट दिया।

बस में तापमान इतना था
कि भट्टी जलती हुई लग रही थी।
पर संवाद का एक हिस्सा सुन लेने के बाद
उस पिता के चेहरे पर, और अब
मेरे चेहरे पर भी
(जिसे मैंने खिड़की के काँच में उस समय के अभी में देखा था)
किसी पहाड़ी चढ़ाई से लौटने का श्रम पिघलता दिख रहा था।

जो बह रहा था, वह उस ठण्डी न होती रात का
फ़क़त पसीना नहीं था। कुछ और था
शायद वक़्त या शायद आदमी का झोला या शायद झोले का जुगाड़

एक झोलाछाप आदमी
किस तरह ज़िन्दगी गुज़ारता है?
कम पढ़ा, कम सोचता और कम बुरी हैंड राइटिंग वाला
किस्मत का मारा कोई आदमी
अपनी लम्बी उम्र पर्चियाँ लिखने में काट देता है
एक नाज़ुक तार पर संतुलन बनाए
एक अपमानजनक सम्मान पर
जो कब सम्मान और अपमान की अदल-बदल कर लेगा
वह नहीं जानता- वह इसे जानने से भी डरता है।

कमाई के ज़रिए के लिए एक झोले की आड़ में
बहुत कुछ छिपा लेता है कुटुंब-परिवार से।
कुछ न कुछ दिखा लेता है बाहर समाज को
जिसे वह इज़्ज़त आबरू का नाम देता है
जो उसकी जेब को कभी पूरा नहीं भर पाती

क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ता है
कि वह गली गली सूनी दोपहरों में भटकता
आवाज़ लगाता कोई फेरी वाला है
या नुक्कड़दरी में किराए की अंधेरे से भरे
गुमनाम दवाखाने का कथित डॉक्टर

दोनों ही के घर के बच्चों में भूख है।
इसी से झोलाछाप आदमी क्रांति की बात नहीं करता।
वह समय नहीं गंवा पाता बदलाव की बातों में

उसके सीले हुए अंगोछे में पसीने की गन्ध कम
एक छिपे हुए जीवन के अदृश्य आँसू ज़्यादा थे
बोझ के उतरने जैसा एक स्वीकार था-
कि ग़लत काम तो आख़िर ग़लत होता है।

उसके नेपथ्य से बाहर निकल कर मैं
कैसे कहती थी यह
कि इस में कुछ ग़लत नहीं था।
जब बच्चों को भूख लगती है
तो कुछ बापों को फेरियाँ लगाना
तो कुछ को सस्ती दवाइयाँ बेचना होता है
इन बापों को बच्चों के बचपन में
अपने झोले से ही अवकाश नहीं मिलता

इनके बच्चों का
रोटी, बिस्तर, तारे, बादल और धूप सधा आकाश सब इनके झोले में रहता है

क्रांति की बात सोच ही कहाँ पाता है
झोलाछाप आदमी

 

11.
एक चेहरे की वकालत

निदा फ़ाज़ली मुझे क्यों प्रिय हैं, मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं है।
ठीक इस तरह जैसे मैं हिन्दू क्यों हूँ?
ठीक जैसे मैं हिन्दू औरत क्यों हूँ?
ठीक जैसे मैं कई सालों से शादीशुदा हिन्दू औरत क्यों हूँ?

निदा फ़ाज़ली बरसों पहले कुछ नया नहीं लिख गए
वे उन्हीं मनोभावों की लकीर पर अपनी कलम घिसते रहे, जिन को भटकाव का रास्ता समझ कइयों ने उलाँघ जाना पसन्द किया

यह लोकतांत्रिक देश है
यहाँ एक चेहरे की वकालत चलती है
गो यहाँ सर्वोच्च न्यायालय तक की नहीं चलती
यहाँ सड़कों पर घूमती छुट्टा गाय की चलती है

गाय का एक चेहरा है, यह मैंने नहीं लिखा था गाय के निबंध में
अलबत्ता लिखा था उसके जिस्म, उसकी चमड़ी, उसकी खूबी और उससे पैदा बछड़ों के बारे में
‘बछियों पर क्यों नहीं लिखा था!’
“क्योंकि मुझे मेरी माँ ने नहीं लिखवाया था बछिया पर लिखना”

निदा फ़ाज़ली भी आदमी के भीतर अनेक आदमियों की शिनाख़्त करते हैं
डरते हैं शायद औरत के भीतर के आदमी से।

यह प्रजातंत्र है
यहाँ हर आदमी के पास उसका एक चेहरा है
हर दल के पास एक चेहरा है
चेहरे के पास उसका एक चेहरा नहीं है
क्या यह कोई नहीं बताएगा!

मैं तपाक से जवाब दे दूंगी अगर भरी महफ़िल में मुझसे पूछा जाएगा
मेरी पसन्द का शे’र
मेरी पसन्द का शायर
निदा फ़ाज़ली मुझे क्यों प्रिय हैं, इस सवाल पर
घर लौट कर मैं यह कविता फिर से दोहराऊंगी।

 

कवयित्री प्रिया वर्मा
अंग्रेज़ी साहित्य से परास्नातक व बी.एड.
शिक्षण कार्य, स्वतंत्र लेखन व विचार
जन्म: 23 नवम्बर 1983 बीसलपुर(पीलीभीत)
निवास सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित

पाँच से अधिक साझा-संग्रहों में विभिन्न रचनाएं शामिल
स्वतंत्र संग्रह विचाराधीन
सम्पर्क :- itspriyaverma@gmail.com
मो. नम्बर 9453388383

 

टिप्पणीकार जोशना बैनर्जी आडवानी आगरा के स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत हैं। इनका जन्म आगरा में ३१ दिसंबर, १९८३ को हुआ था। पिता बिजली विभाग में कार्यरत थे। सेंट कॉनरेड्स इंटर कॉलेज, आगरा से शिक्षा ग्रहण करने के बाद, आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद बी.एड, एम.एड और पीएचडी की। इनका पहला कविता संग्रह “सुधानपूर्णा” है। इनका अधिकांश समय कोलकाता में बीता है। बोलपुर और बेलूर, कोलकाता में रहकर इन्होंने कत्थक और भरतनाट्यम सीखा। प्रधानाचार्या होने के साथ साथ वर्तमान में ये सीबीएसई के वर्कशॉप्स कराती हैं और सीबीएसई की किताबों की एडिटिंग भी कर रही हैं। इनकी कविताओं में बांग्ला भाषा का प्रयोग अधिक पढ़ा जा सकता है। इनका दूसरा कविता संग्रह “अंबुधि में पसरा है आकाश” वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। रज़ा फाउंडेशन की ओर से इन्हें शंभू महाराज जी पर विस्तृत कार्य करने के लिए 2021 में फैलोशिप मिली है।
कविताओं का अंग्रेज़ी, बांग्ला, नेपाली, मराठी और पंजाबी में अनुवाद।

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