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‘औरत ही रोती है पहले’- रोशनी में अंधेरे की पड़ताल करती कविताएँ

लखनऊ, 12 जून। मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताओं का तीसरा संग्रह है ‘औरत ही रोती है पहले’। यह पिछले दिनों परिकल्पना प्रकाशन, दिल्ली से आया। लिखावट की ओर से इसका विमोचन तथा इस पर परिचर्चा का कार्यक्रम ऑन लाइन आयोजित हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि व आलोचक डॉ जीवन सिंह ने की। उनका कहना था कि मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएं आधुनिक लोकतंत्र के अधूरेपन की कथा कहती हैं। इनमें लोकतंत्र के क्षरण की अनेक छवियां हैं। नौकरशाही पर हिन्दी में कम कविताएं हैं। मिथिलेश श्रीवास्तव इसमें सत्ता से लेकर नौकरशाही के चरित्र को सामने लाते हैं।

डॉ. जीवन सिंह का आगे कहना था कि अंधेरा मिथिलेश श्रीवास्तव की कविता के मूल में हैं। यह मुक्तिबोध के अंधेरे से अलग है। यह सामाजिक बुराई का प्रतीक है। बुद्ध के समय से यह है। पांच हजार साल पुराना है। ईश्वर के एक होने की बात कही जाती है। पर वह धर्म के माध्यम से समाज को सबसे अधिक विभाजित करता है। धर्म व जाति लोगों को बांटने व लड़ाने के औजार हैं। इन सबके बावजूद कविता में निराशा नहीं है। वह उम्मीद, स्वप्न और विकल्प की बात करती है। वे कहते हैं ‘अंधेरे में दूर से दीये की लौ की झिलमिलाहट/साफ साफ दिखती है/…लोग जो अंधेरे में रहते हैं सपने देखते हैं/दुनिया को रहने लायक बनाते हैं’।

कवि और आलोचक प्रो चन्द्रेश्वर ने कहा कि मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएं मार्मिक, मारक और महत्वपूर्ण है। इसके केन्द्र में देश, समाज, भूख, गरीबी, सत्ता, उसकी निरंकुशता के साथ गहरी बेचैनी, व छटपटाहट का भाव है। अंधेरा शब्द बहुलता में आता है। मंगलेश डबराल के संग्रह ‘आवाज भी एक जगह है’ में ‘आवाज’ की तरह ‘अंधेरा’ केन्द्रीय रूपक है। वे पूर्ववर्ती अंधेरे से इसे अलगाते हैं। यह रोशनी से पैदा हुआ अंधेरा है। मतलब बाहर खूब चकाचौंध और अन्दर आम आदमी बदहाल व परेशान। मिथिलेश श्रीवास्तव इस रोशनी को प्रश्नांकित करते हैं ‘इस रोशनी में इतना अंधेरा क्यों है/लोकतंत्र है पर दम घुटता क्यों है/दोस्ती है पर खंजर क्यों दिखते हैं/गोदाम भरे पड़े हैं अनाज से पर इतनी भूख क्यों है/घर है पर घर के लुट जाने का भय क्यों है/रोशनी है पर इस रोशनी में इतना अंधेरा क्यों है’। महानगर में रहते हुए मिथिलेश श्रीवास्तव का कवि अपनी जड़ों को नहीं भूलता है। वह लौटता है और वहां आ रहे बदलाव को अभिव्यक्ति देता है।

‘औरत ही रोती है पहले’ पर परिचर्चा का आरम्भ कवि व चिंतक कौशल किशोर ने किया। उनका कहना था कि मिथिलेश श्रीवस्तव की कविताएं भारतीय जनतंत्र के क्षरण, आम आदमी की पीड़ा, उसका जद्दोजहद तथा मुक्ति का आख्यान रचती है। ये समकाल के मुक्कमल दस्तावेज की तरह हैं। ये समय की आंखें हैं जो स्त्री-यातना को देख गहरे संवेदित होती हैं। यहां स्त्रियों का अव्यक्त दर्द है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने उनकी नियति बना दिया है। कविता ‘रोशन में अंधेरा’ की पड़ताल है। मिथिलेश श्रीवास्तव की विशेषता है कि कविताएं हताशा की नहीं संघर्ष की बात करती है – ‘हंसने का समय नहीं है/एकजुट होने का है/इस मुंह चिढ़ाने वाली गरीबों की सरकार के विरुद्ध/चाय बेचन वालों की सरकार के विरुद्ध/गायें चराने वालों की सरकार के विरुद्ध/मुझे नहीं चाहिए बीपीएल कार्ड/मुझे एक नागरिक का सम्मान चाहिए’।

कवि व समीक्षक प्रशांत जैन का कहना था कि मिथिलेश श्रीवास्तव मनुष्य के मनोभाव को सूक्ष्म तरीके से पकड़ते और व्यक्त करते हैं। आम आदमी की उम्मीदें किस तरह कुचली जा रही हैं, बहुत साफ तरीके से इनकी कविता में वयक्त हुआ है। इनकी भाषा धारदार और तीक्ष्ण है। इसे सपाटबयानी नहीं कह सकते हैं। यह तंज और उलटबांसी की तरह है। जीवन की परिस्थितियों का प्रभावी चित्रण तो है ही, इनमें विचार और संवेदना के विविध रंग और स्तर हैं। अंधेरे को चकाचौंध में खोजते हैं।

इस मौके पर मिथिलेश श्रीवास्तव ने ‘इंसानियत की पुकार’ आौर ‘जुगलबंदी’ कविताएं सुनाईं और सभी के प्रति आभार प्रकट किया। उन्होंने रघुवीर सहाय को उद्धृत करते हुए कहा कि उनका कहना था कि संभव है जो कविता मैंने नहीं लिखी, उसे आपने लिखी हो और जो आपने न लिखी हो, उसे किसी अन्य ने लिखी हो। यह सहकार का दौर है। चुनौतियां बड़ी हैं। हमें मिलकर काम करने की आवश्कता है। कवि डीएम मिश्र, भास्कर चौधरी, विमल किशोर, सुनीता कुमारी आदि की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।

लिखावट की ओर से जारी

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