समकालीन जनमत
कविता

मौमिता की झकझोरती कविताएँ : सीधी, गहरी और सवाल करती हैं

अमिता शीरीं


‘इस वक्त जब दुनिया लहूलुहान है
ऐसे में
चाँद की खूबसूरती पर कवितायें लिखना
गुनाह है….’

मौमिता आलम पूरी ज़िम्मेदारी से कविताएँ लिखती हैं. मौमिता से मेरी मुलाकात कोलकाता पीपुल्स लिटरेरी फेस्टिवल में हुई थी. एकदम से मेरे पास आयीं और बातें करने लगीं. न जाने क्या था कि हम झट दोस्त बन गए. हालांकि बहुत विस्तार से बात करने का वक्त नहीं मिला. एकदम सरल हँसता चेहरा. लेकिन जब मंच पर अपनी बात रखने लगीं तो बातों की गंभीरता ने उनका आकर्षण और बढ़ा दिया .
बिलकुल उनके जैसी ही हैं उनकी कवितायेँ. बेहद सरल भाषा में कही गई बहुत गहरी कविताएँ. बानगी देखिये

मैंने उसके हाथ पर तीन सौ रुपए धरे
और कहा नमस्ते!
बदले में उसने कहा जै श्री राम…
मैं अपने नाम को लेकर सतर्क हो गई!
एक कबूतर
दीवाने ख़ास में सम्राट के
उस टूटे हुए सिंहासन पर बीट करते हुए
पंख फड़फड़ा रहा था.
मुझे कुछ इत्मीनान सा हुआ!
300 या 15 साल
ये महज़ संख्याएं हैं
हरेक राज सिंहासन का हश्र यही होना है!

मौमिता बेंतहां संवेदनशील कवि हैं. उनकी कविताओं को पढ़ते हुए रीढ़ की हड्डी में सिहरन होने लगती है. ख़ासतौर पर देश में बढ़ते सांप्रदायिक और ज़हरीले माहौल में उनकी कविता हमारी चेतना को झकझोरने लगती हैं. हमारे देश में जब ट्रेन में चुन चुन कर मुसलमानों को मारा जा रहा हो, ऐसे में एक मुस्लिम औरत की यात्रा कैसे बीतती होगी, हम इस कविता से अंदाज़ा लगा सकते हैं.

मैं हौले से फुसफुसाती हूं अपना पहला नाम
‘मौमिता’.
ग़ैर ज़रूरी अपना सरनेम नहीं बोलती उस वक्त
‘आलम’!
बंद करके अपनी आंखें मैं दुआ करती हूं
के जल्दी से मेरा स्टेशन आ जाए!
लेकिन भाइयों!
मुझे किस भाषा में दुआ करनी चाहिये ?

मौमिता मुस्लिम भी हैं और एक औरत भी हैं. ये दोनों ही पक्ष उनकी कविताओं में बेहद बारीक़ी से उकेरे गए हैं. उनकी कविताओं को पढ़ने के बाद थोड़ी देर तक आप सामान्य नहीं रह सकते. याद करिए बुली ऐप जिसपे अपने-अपने क्षेत्र में प्रसिद्द मुस्लिम औरतों की बोली लगाई गई थी. देखिये उनकी एक और कविता

मैं एक मुस्लिम औरत हूं
और मैं बिक्री के लिए नहीं हूं
मैंने आजादी की लड़ाई के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया
मैं ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ी रही
मैं शाहीन बाग हूं
मैं वह आवाज हूं जिससे तुम आतंकित हो
कश्मीर में, मणिपुर में
मैं दमन के खिलाफ हूं

बेशक उनकी कविताओं में समाज की तल्ख़ हकीक़त है. वे हमें मजबूर करती हैं कि हम इन ज़मीनी यथार्थ से आँखें मिलाएं और उनसे सतत संघर्ष करें, लेकिन उनकी कवितायेँ निराश नहीं करती. आज देश के जो हालात हैं, जहाँ सत्ता मुसलामानों से बुलडोजर की भाषा में बात करती हैं फिर भी मौमिता बुलडोज़र से ढहाए जा रहे मलबों में उम्मीद की किरण खोज कर ले आती हैं

हमारी दृष्टि पर बुलडोजर चलाओ
बीस करोड़ लोगों पर बुलडोजर चला दो
लेकिन फिर भी हम यहीं हैं, यहीं रहेंगे
मस्जिदों से उठ रही अज़ान को सुनो
यह तुम्हें अभी भी प्यार से पुकार रही है
और
जेल की अंधेरी कोठरियों में
उमर, इमाम और मीरान
गा रहे हैं
एक नई सुबह का गीत!

अपने जन्मदिन पर वह एक कविता रचती हैं. इत्तेफाक़ से उनका जन्मदिन देश की आज़ादी की तिथि के अगले दिन ही पड़ता है. जब देश में चारों और छद्म देशभक्ति का बोलबाला हो, ऐसे में उनकी कलम से निकले शब्द कुछ इस तरह कहते हैं

कागज़ों में मैं
अगस्त में पैदा हुई.
मां भूमि से
चीर कर निकाला गया मुझे.
कमज़ोर और कम वज़न वाली.
मेरी मां का बहुत सा खून बह गया.
मां का खून
आज भी बह रहा है!

कविता के बारे में – (यह कविता मेरे जन्मदिन के बारे में है, मेरे देश के जन्मदिन के बारे में है, झंडे की राजनीति के बारे में है और उस घाव के बारे में है जो कभी नहीं भरता! – मौमिता)

ऐसे ही वह औरतों की आज़ादी को भी आंकती हैं. अपने अनुभव से हम जानते हैं कि हम सभी को अपनी आज़ादी की भरपूर कीमत चुकानी पड़ती है. मौमिता लिखती हैं –
आज़ादी की कीमत
अगर तुम चुनती हो आज़ादी
तो वे कहते हैं के
तुम्हें उसकी क़ीमत अदा करनी होगी.
मैं अदा करती हूं इसकी क़ीमत
गालियों के रूप में!
मेरे पिता मुझे
बाग़ी बुलाते हैं.
मेरी मां मुझे
एक खराब लड़की कहती है.
समाज मुझे
गिरी हुई लड़की क़रार देता है.
मेरा पूर्व प्रेमी मुझे
दंभी कुतिया बोलता है.
मेरी बहन मुझे नाकाम कहती है
अपने पति को रिझाने में नाकाम.
मेरा देश मुझे
देशद्रोही कहता है.
लेकिन मैं,
मैं ख़ुद को एक आज़ाद औरत पुकारती हूं!

मौमिता ज़मीन की कवि हैं. मौमिता अपनी कविताओं में इतनी धार दार हैं कि कोई उन्हें शब्दाडम्बर से फुसला नहीं सकती. उनकी कविताओं में शब्द कई बार नुकीले होकर चुभते हैं तो कभी धारदार बनकर कलेजे को चीर देते हैं –

मैंने अपने निप्पल और झाड़ियों में
सेफ्टी पिन उगा लिए हैं.
अब मेरी नाभि, कोहनी, नाखूनों
हर जगह सेफ्टी पिन लटकती रहती है!
अगली बार जब कोई मर्द
अपने समूचे बदन पर पिन से किए हुए छेद
लेकर घर लौटे
तो उसे मरहम देने से पहले यह तय कर लेना के
वह मेरी राह में तो नहीं आ गया अनापेक्षित!
अब मैं
सेफ्टी पिनों की मलका हूं…

पिछले दिनों जब NIA ने हमारे घर छापा डाला तो उन्होंने बगैर किसी हिचकिचाहट के हमारे जैसों के लिए कविता लिखी –

वह ऐसे लोगों की ज़िंदगी में पैठ बनाता है
जिन्हें राज्य इंसान ही नहीं मानता.
एक खतरनाक देशद्रोही!
वह नारा लगाता है
आज़ादी!

मौमिता केवल शब्दों से कविता नहीं लिखतीं. उनकी कविताओं में दिल, दिमाग और विचार का शानदार मिश्रण रहता है. इतने सरल शब्दों में ऐसी बातें कह देती हैं कि हैरत से आँखें खुली रह जाती हैं कि इस बात को ऐसे भी कहा जा सकता है. मौमिता अंग्रेज़ी और बांग्ला में कवितायें रचती हैं. हाल ही में उनका एक कविता संग्रह आया है – ‘Musings of the Dark’.

इस किताब में मौमिता की दुःख, पीड़ा, प्रतिरोध, एकजुटता और प्रेम की अद्भुत कविताएँ हैं. ये किताब चार मुख्यतः चार भागों में बंटी है.
1- The Lost Paradise इस हिस्से में कश्मीर के लोगों के ग़म और संघर्ष को समर्पित 27 कविताएँ हैं. पहली कविता देखिये

5 अगस्त

एक सफ़ेद कपड़ा
जिसपर कोई सफ़ेदी नहीं बची
सीने पर छेद हैं
काला खून जमा है.

उस दिन कपडा गायब हो गया
हमने अपनी चेतना से
देखना बंद कर दिया.

इस भाग की अंतिम कविता का एक अंश देखिये

विकास

‘वे’ नहीं जानते
‘विकास’ एक विशाल शब्द है.
यह मांगता है
AFSPA, आधी विधवाएं, अनाथ लोग,
भग योनियाँ, क्षत-विक्षत स्तन
समूचे शरीर पर चित्रकारी है
तुम्हारे नाखून तुम्हारा एकमात्र ब्रश है..

2- Shaheen Bagh Poems – एक कविता का अंश देखिये
इस वसंत हम मेरे गर्भनाल के रक्त में तरबतर होंगे
इस वसंत हम अपनी प्रसव वेदना में उल्लासित होंगे
इसी वसंत हम जन्मेंगे ‘क्रांति’….हमारी बच्ची…
इसी भाग से एक और कविता देखिये –
ख़मोशी वह हथियार है
जिसे तानाशाह थोपना चाहते हैं
ज़िन्दा रूहों के होठों पर
ताकि वे छीन सकें उनकी इच्छाएं
उनके विश्वास.

ओह! शासक भूल जाते हैं
के केवल शब्दों में ही आवाज़ नहीं होती
ख़मोशी की भी आवाज़ होती है.
क्रांतिकारियों और स्वप्नदर्शियों के कान
निराशा और गद्दारी की रातों में भी वे
ख़मोशी के नगाड़ों की ताल सुन सकते हैं

उम्मीद के गीत सब तक पहुँचाने के लिए वे
उन्हें जागती रूहों पर
अपने शब्दों को ख़ामोशी में गूंथते हैं
समर की और आगे बढ़ने के लिए.
ओह शासकों
गिरती हुई सूखी पत्तियां
तय करती हैं बहुत सी दूरियां
अंतिम सांस लेने से पहले

3- I Can’t Breath
इस भाग में कोविड काल की 39 कवताएँ हैं. एक अंश
मौत से एक बातचीत
केवल एक ही संगीत
अब मैं लगातार सुनती हूँ
मौत का संगीत.
रात दिन बिना रुके यह
बज रहा है हमेशा
मैं अपने कान अपने हाथों से बंद करना चाहती हूँ
तभी संगीत मेरे दिल में बजने लगता है
मैं अपने दिल को भींच कर बंद नहीं कर सकती
हर पल मैं क्रूर मौत के ख़िलाफ़
जंग लड़ती हूँ…..

4- Love, Lost and Lust Poems
किताब के इस हिस्से में कुल 18 कविताएँ हैं.

मुझसे मेरी कविताओं में मिलना
प्रिय
मुझसे मेरी कविताओं में मिलो
मेरे शब्दों को चूमो
यह सबसे प्रगाढ़ चुम्बन होगा.
उस गर्माहट का स्वाद लो
जो उन शब्दों में खदक रहा है
एक एक करके शब्दों को
निर्वस्त्र करो.
वहां तुम्हें मेरे सारे टुकड़े मिलेंगे
शब्दों के छिलके उतारो
मेरा ह्रदय वहां धड़क रहा है
शब्दों का गले से लगाओ
शब्दों को कस कर थामो
शब्दों के भीतर जाओ
मेरे किले की कुजियाँ
वहीँ छिपी हुई हैं…

 

मौमिता आलम की कविताएँ

1. युद्ध कभी ख़त्म नही होता

युद्ध किसी दिन ख़त्म होगा
खत्म होगा किसी दिन युद्ध
लेकिन श्मुलऔर ब्रुनो की जली हुई लाशो से निकलती गंध कई दिनो तक उनकी माता के स्मृती मे इर्द गिर्द मंडलाती रहेगी
और फिर दुनिया ये सब भूल जायेगी

हम इंसान की याद् बहुत कम होती है और हवस अंतहीन होती है

शायद कल् ही युद्ध ख तम हो जाये !
और नेता गण वहि गोलमेज पर रात्री भोज कर रहे हो बडे चाव से.!
लेकिन वह लडकी ,केवल वह लडकी…..
खडी होगी खाली उदास आँखो से अपने पिता का आखरी चुंबन पकडे हुए,
और याद करते हू ए उनका आखरी प्रेम भरा स्पर्श.!

युद्ध कभी खत्म नही होगा!
हमारा आज बीते कल् के गर्म जोशी मे खो जायेगा,!
और आनेवाला कल प्रेतआत्मा की आक्रोश मे खो जायेगा!
हमारा जन्म एक पौराणिक कथा होगी!
हमारा मृत्यू एक नई खोज होगी!
दिन महिने साल गुजरते रहेंगे
हम वही के वही रहेंगे!
जसे हिटलर या पुतीन या बुश या गुजरात के शासक.!

हर दिन समंदर के किनारे बच्चे की लाश मिलेगी, कुछ सरहद पार करते हुए डूब कर मर जायेंगे,
फेलानी नाम की लडकी नुकीले तार से लटकती पायी जायेगी!

क्या वहशिपन ही दुनिया की सारे मर्ज की दवा है?
इतिहास मरा हुआ विषय बनेगा!
मानवता का दुसरा नाम कब्रिस्तान होगा.!

 

2. एक ग़ैरक़ानूनी कवि

पिछली रात उसे गिरफ़्तार कर लिया गया!
पुलिस ने उस पर आरोप लगाया है के
वह एक ग़ैरक़ानूनी कवि है.

उसकी चार्जशीट में उसे कहा गया –
एक ग़ैरक़ानूनी घुसपैठिया!

वह ऐसे लोगों की ज़िंदगी में पैठ बनाता है
जिन्हें राज्य इंसान ही नहीं मानता.

एक खतरनाक देशद्रोही!
वह नारा लगाता है
आज़ादी!
जबकि राज्य उसे ‘ पूंजीवाद माता की जय ‘
गाने को कहता है!

एक आतंकवादी!
जो बीफ़ खाता है और
लिंच कर दिए गए आदमी के लिए
लहू रोता है!

एक षड्यंत्रकारी
जो उस वक्त जंगलों की ओर देखता है
जब सरकार वहां बॉक्साइट ढूंढती है.

एक प्रेमी जो हर रोज़ बोसे लेता है?

और एक लहूलुहान रूह!
जो ‘ ईश्वर की जय हो ‘ की जगह
नारा लगाता है
‘क्रांति ज़िंदाबाद!’

उसे सज़ा दी गई
और उसके हाथ काट दिए गए!

अब वह अपनी ज़ुबान से लिखता है!

 

3. साम्राज्य का पतन तय है!

ये लाल क़िला है!
गाइड
उस हॉल के बारे में बता रहा था
जहां औरंगज़ेब ने क़ैद किया था
अपने अब्बा हुज़ूर को.
और जालियों के झरोखों से ताज
चांदी से चमकीले सूर्य में
जगमगा रहा था.
मैंने उसके हाथ पर तीन सौ रुपए धरे
और कहा नमस्ते!
बदले में उसने कहा जै श्री राम…
मैं अपने नाम को लेकर सतर्क हो गई!
एक कबूतर
दीवाने ख़ास में सम्राट के
उस टूटे हुए सिंहासन पर बीट करते हुए
पंख फड़फड़ा रहा था.
मुझे कुछ इत्मीनान सा हुआ!
300 या 15 साल
ये महज़ संख्याएं हैं
हरेक राज सिंहासन का हश्र यही होना है!

 

4. ट्रेन में मुसलमान

मेरे अब्बा तलाश कर रहे हैं अपनी बेटियों को
वह अपनी बेटियों को भूल गए हैं!
उनकी बेटियां अब उन्हें बाबा पुकारती हैं,
अब्बा से बाबा
यह स्थिर मन से अस्थिर मन की एक यात्रा है!
एक भारतीय की ‘भारतीय’ बनने की बेहद कठिन कोशिश!
देने से पहले मिरी अम्मी
कई बार चेक करती है
भईया का लंचबॉक्स.
और वह
डब्बे पर बड़े बड़े अक्षरों में
मार्कर से लिख देती हैं
अंडा करी और ब्रैकेट में लिखती हैं (डीम-भात).
सुन्न पड़ जाती है वह जब कोई गलती से
अंडा करी को गोश्त समझ लेता है!
मेरा भईया
रोज़ लोकल ट्रेन में आना जाना करता है.
मेरी मां को नहीं पता
वे पालक साग को भी गोश्त समझने की
भूल कर सकते हैं!
मेरी भाभी उनकी दाढ़ी से खींच निकालती है हरेक बाल, इस क़दर के
मेरा भाई दर्द से चीखने लगता है.
वह खौफ़ में है के
किसी को उसके पति के नाम की
ख़बर न हो जाए!
खिड़की वाली सीट पर बैठे बैठे
मैं हरेक सहयात्री का करती हूं मुआयना
हर बार इंजन की तीखी आवाज़
मुझे सहमा देती है!
टीटी जब पूछता है मेरा नाम
मैं हौले से फुसफुसाती हूं अपना पहला नाम
‘मौमिता’.
ग़ैर ज़रूरी अपना सरनेम नहीं बोलती उस वक्त
‘आलम’!
बंद करके अपनी आंखें मैं दुआ करती हूं
के जल्दी से मेरा स्टेशन आ जाए!
लेकिन भाइयों!
मुझे किस भाषा में दुआ करनी चाहिये ?

 

5. मैं एक मुस्लिम औरत हूं
और मैं बिक्री के लिए नहीं हूं
मैंने आजादी की लड़ाई के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया
मैं ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ी रही
मैं शाहीन बाग हूं
मैं वह आवाज हूं जिससे तुम आतंकित हो
कश्मीर में, मणिपुर में
मैं दमन के खिलाफ हूं
मैं तुम्हारा नाम लेती हूं
जामिया में, अलीगढ़ में
मैं इतिहास हूं
जिसे तुम धो-पोंछ देना चाहते हो
मैं भूगोल हूं
जिसे तुम निगल जाना चाहते हो
मैं बहन हूं
जो सभी सताए भाइयों के लिए खड़ी होती है
मैं मां हूं
जिसके बेटे गायब हो जाते हैं
मैं बीबी हूं
जो तुम्हारी बीमारी में तुम्हें आराम देती है
मैं देखभाल करने वाली हूं
मैं प्रेमिका हूं
मैं भूमि में हूं
मैं अग्नि में हूं
मैं आकाश में हूं
मैं आवाज हूं
क्रूर शासन के खिलाफ
मैं नर्स, डॉक्टर, फाइटर, रिपोर्टर हूं
और भी बहुत कुछ
मैं बुर्के में हूं, बिना बुर्के भी
मैं बेजुबानों के लिए आवाज हूं
मैं अयूब हूं, मैं खानम हूं
मैं सिदरा हूं, मैं आजिम हूं,
मैं इस्मत हूं, मैं राना हूं
मैं असंख्य रोशनी हूं
सिंघु में जुगनू की तरह चमकती हूं
मैं एक मुस्लिम औरत हूं
मैं अपनी आंखों में रोशनी लिए हूं
तुम्हारे लिए
ओ कायर, ओह स्वेच्छाचारी अंधों।
हां
मैं एक मुस्लिम औरत हूं
और मैं नीलामी के लिए नहीं हूं।

 

6. बुलडोजर

बेशक,
हमारे ऊपर बुलडोजर चलाओ
हमारे घरों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी बस्तियों पर बुलडोजर चलाओ
बसों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी मस्जिदों पर बुलडोजर चलाओ
हमारे सपनों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी हड्डियों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी आयतों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी मांओं पर बुलडोजर चलाओ
हमारी बहनों पर बुलडोजर चलाओ
स्मारकों पर बुल्डोजर चलाओ
खनिकों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी जमीनों पर बुलडोजर चलाओ
हमारे बच्चों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी सांसों पर बुलडोजर चलाओ
हमारी दृष्टि पर बुलडोजर चलाओ
बीस करोड़ लोगों पर बुलडोजर चला दो
लेकिन फिर भी हम यहीं हैं, यहीं रहेंगे
मस्जिदों से उठ रही अज़ान को सुनो
यह तुम्हें अभी भी प्यार से पुकार रही है
और
जेल की अंधेरी कोठरियों में
उमर, इमाम और मीरान
गा रहे हैं
एक नई सुबह का गीत!

 

6. अगस्त- मृत्यु का महीना

कागज़ों में मैं
अगस्त में पैदा हुई.
मां भूमि से
चीर कर निकाला गया मुझे.
कमज़ोर और कम वज़न वाली.
मेरी मां का बहुत सा खून बह गया.
मां का खून
आज भी बह रहा है!
उसके पेट पर मौजूद प्रसव चिन्ह की उस क्रूर रेखा
का घाव सदियों पुराना है.
इसे उदासीन निर्दयी कल्पनाओं द्वारा
औचक काटा गया था.
हालांकि यह रेडक्लिफ़ रेखा की तरह
बिल्कुल नहीं थी.
जब अपनी मां की कोख से
कतरी जा रही थी मैं,
उस नौसिखिए ऑपरेटर ने मेरी रूह भी चीर दी!
मेरी जुड़वा बहन अपनी बीमारी का इल्ज़ाम
मुझ पर धरती है,
मैं भी उसे गरियाती हूं जी भर.
सलीम सिनाई की तरह
हम आधी रात की पवित्र संताने नहीं हैं.
मैं पैदा हुई 16 अगस्त को
बग़ैर किसी जादू के
बल्कि
मौत के बोझ के साथ!
मुझे सुनाई देती है
अपनी मां की कराह.
घाव उसके मांस में
फैल गया है.
क्या वह अभी भी ज़िंदा है?
या मुझे विभ्रम हो रहा है!
वह जवाब नहीं दे सकती
उसके गले में एक झंडा फंस गया है!

 

7. सेफ्टीपिनों की मलका

मेरी मां ने मुझे सिखाया
सेफ्टी पिन रखना.
जिससे मेरी साड़ी की प्लेटें सधी रहें और
मेरा आंचल मेरे पेटीकोट से एकदम पक्का खुंसा रहे.
जिससे मेरी कमर
उनकी फिसलती हुई ललचाई नजरों के सामने
रत्ती भर भी न उघड़े.
वह हमेशा चौकस रहती है
और इस बात के लिए हमेशा चिंतित भी के
मेरे पुष्ट वक्ष
पुरुषों के भोले भाले कालेजों में तूफ़ान ला सकते हैं.
मैंने यह नाम अक्षरशः लिया है.
मैंने अपने निप्पल और झाड़ियों में
सेफ्टी पिन उगा लिए हैं.
अब मेरी नाभि, कोहनी, नाखूनों
हर जगह सेफ्टी पिन लटकती रहती है!
अगली बार जब कोई मर्द
अपने समूचे बदन पर पिन से किए हुए छेद
लेकर घर लौटे
तो उसे मरहम देने से पहले यह तय कर लेना के
वह मेरी राह में तो नहीं आ गया अनापेक्षित!
अब मैं
सेफ्टी पिनों की मलका हूं…

 

 

(सारी कविताओं का अंग्रेज़ी से अनुवाद अमिता शीरीं ने किया)


 

कवयित्री मौमिता आलम पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं। उनका कविता संग्रह, द म्यूज़िंग्स ऑफ द डार्क 2020 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण, दिल्ली दंगों और शाहीन बाग आंदोलन से लेकर कोविड के दौरान प्रवासी मजदूरों की असहनीय पीड़ाओं तक, मानवीय संकट के विरोध में लिखी गई लगभग सौ कविताएँ हैं.

सम्पर्क: alammoumita63@gmail.com

 

 

टिप्पणीकार अमिता शीरीं, लेखक, अनुवादक, शिक्षक, राजनीतिक -सामाजिक कार्यकर्ता. दिसंबर 1967, शिक्षा पीएचडी इतिहास। अनुवाद की तीन किताबें प्रकाशित, पत्र पत्रिकाओं में लेख कविता कहानियां प्रकाशित

सम्पर्क: amitasheereen@gmail.com

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