समकालीन जनमत
कविता

पायल भारद्वाज की कविताएँ स्त्री-विमर्श के अनेक पक्षों को बेबाकी के साथ उजागर करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


पायल भारद्वाज की कविताएँ स्त्री-विमर्श, इन्सानी रिश्तों और समाज के दोहरे मानदंडों पर मुखर और जागरूक अभिव्यक्ति हैं।

वे अपने कहन में जहाँ साहसिक हैं कथ्य और शिल्प में उतनी ही सहज और संयमित! जहाँ वे अपने कथन में ‘बोल्ड’ दीखती हैं वह दरअसल स्त्री की युगों से चली आ रही परवशता और दमन का बोल्ड प्रतिरोध हैं।

‘दोष’ कविता में स्त्री-पुरूष के दैहिक सम्बंधों की अप्राकृतिकता, पुरूष की यौन कुंठाओं और एक बार फिर स्त्री की विवशता का बयान है। कविता के चरम में यह विवशता एक विद्रोह में तब्दील होती नज़र आती है-भले ही एक सीख के रूप में।

‘मुखर स्त्रियाँ’ कविता एक स्त्री के साहस और स्वातंत्र्य के प्रति समाज के रूढ़ रवैये को आख्यायित करती है। नारी को ‘देवी’ का दर्ज़ा देकर उसे मनुष्यमात्र के पद से च्युत कर देना भारतीय समाज का सदा का शगल रहा है। समाज में स्त्री की मानवीय उपस्थिति के स्वीकार के बजाय उसकी स्थापित छवि पुरूष द्वारा स्त्री शोषण का पुराना और कारगर हथियार है। इस कविता में कवि इसी ‘देवी’ पद से मुक्ति चाहती है।

‘दुःख बाँटते हुए’ कविता अपने दुःख के साथ अकेले होते जाते मनुष्य की व्यथा-कथा है। ‘किसी का दुःख बाँटने से कम होता है’ जैसी उक्ति वास्तविक धरातल पर कितनी असंभव-सी प्रतीत होती है। कई बार हमारी समवेदनाएँ औपचारिक-सी हो जाती हैं क्योंकि किसी की वेदना को वास्तविकता में बाँटा नहीं जा सकता। जब दुःख बाँटना किसी कला में तब्दील होने लगे तो हमें अपनी संवेदन प्रणाली की पड़ताल करना होती है।

‘मेरे लिखे में’ एक मार्मिक कविता है जिसमें स्त्री-पुरूष के परस्पर सम्बंधों को रेखांकित किया गया है। जाहिर है ये सभी सम्बंध सुखद नहीं होते। कविता अपने फलक में व्यापक है और यह बताती है कि एक स्त्री के बनने में कई पुरूषों का होना होता है। ‘मेरा लिखा’ स्त्री का यही अन्तर्व्यक्तित्व है।

‘गर्व का विषय’ कविता में रिश्तों को बचाए रखने की औपचारिक प्रक्रिया का विवरण है। दरअसल यह रिश्तों को बचाने के बजाए ढोने को ही इंगित करती कविता है। कई प्रसंगों में हम पाते हैं कि हम ही नहीं लिथड़ते जा रहे, हमारे साथ ही कथित रिश्ते भी लिथड़ रहे हैं। दरअसल ये रिश्ते कभी जीवंत होते ही नहीं। वे केवल सम्बोधनों में विसर्जित हो जाते हैं।

‘कविता छूट रही है’ स्त्री मन का वह जीवन है जिसमें वह कई स्तरों पर जीती है। उसके जीवन में मानो कविता और आटे की लोई गड्ड-मड्ड हो गए हैं। उन्हें पृथक करना एक दुष्कर कार्य है। इस कविता में कवि ने रसोई और काव्य के उपादानों की घालमेल को खूबसूरती से चित्रित किया है। यह व्यावहारिक तथ्य भी है कि इस संघर्ष में अक्सर कविता ही पीछे छूट जाती है। वह भी इसलिए कि हमारे समाज की भी प्राथमिकता कविता नहीं है।

‘घृणा’ में शब्दों को खंगाला गया है। यहाँ संभावनाओं की तलाश है। यह उस कवि-संघर्ष को भी बयाँ करती है जो प्रतिकूलताओं के बड़े और भारी पत्थर के नीचे अनुकूलताओं की थोड़ी-सी नमी को बचा कर रखना चाहता है।

‘धर्म’ कविता में कथित धर्म से दो टूक सवाल हैं। धर्म का उपयोग जब स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है तो यह ‘कथित’ शब्द सहज ही उससे जुड़ जाता है। धर्म की ढाल फिर चाहे वह वर्ण-व्यवस्था की यथास्थिति बनाए रखने के लिए हो या फिर किसी राजनीतिक स्वार्थ के लिए, वह अपना मूल स्वरूप खोकर अमानवीय हो जाता है। ऐसे उदाहरणों से हमारा समाज अटा पड़ा है। कविता में उभरी टीस धर्म के मनुष्य के सहचर होने की आकांक्षा का ही एक रूप है।

‘मजदूर’ कविता वंचित और हाशिए के एक वर्ग की दास्तान है। यह विडम्बना ही है कि समूचा राजनीतिक तंत्र जिस मजदूर-किसान वर्ग का घोषित हितैषी बना रहता है, उसी को पायदान बना कर सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ जाता है। वंचित वर्ग फिर विस्मृति की खाई में धकेल दिया जाता है।

‘महाकलंक’ भी समाज के दोहरे मानदंडों पर प्रहार करती कविता है। कवि प्रश्नाकुल मन से पूछती है कि बुद्ध का गृहत्याग यदि ‘महाभिनिष्क्रमण’ है तो फिर स्त्री के लिए ‘महाकलंक’ कैसे? ‘चुप्पियाँ’ एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें स्त्री-देह पर हो रहे अनाचार की व्यथा को रेखांकित किया गया है। दरअसल समाज में स्त्री के शोषण के कई आयाम हैं जिसमें देह-मर्दन प्रमुख है। संस्कारों और रूढ़ियों में जकड़ा समाज कभी भी इस ‘सेक्सुअल एब्यूज़’ के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं सुनना चाहता क्योंकि अपने मूल में वह पितृसत्तात्मक है। स्त्रियाँ भी इसे औरत जात की नियति मानकर चुप्पी ओढ़े रहती है। यह कविता दरअसल ऐसी ही चुप्पियों का शोर है।

‘बहिष्कृत’ कविता में कवि ने उत्तम पुरूष शैली में भारतीय समाज में स्त्री की नियति को उकेरा हैै। दरअसल पुरूष सत्ता भी यही चाहती है कि स्त्री को दिये गए तमाम अधिकार औपचारिक भर हों फिर वह चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति में हिस्सेदारी। ‘अब्दुल पंक्चर बनाता है’ अल्पसंख्यक वर्ग पर लिखी एक मार्मिक कविता हैै। ‘ग्रैण्ड रोड शहरों तक जाती थी/ पर अब्दुल कहाँ जाता था’ जैसे सुलगते सवाल पूछती यह कविता इस समय अत्यधिक प्रासंगिक है।

पायल भारद्वाज स्त्री-विमर्श के अनेक पक्षों को बेबाकी के साथ उजागर करने वाली मुखर कवि है जिसे संवेदनों के साथ समकालीन समाज के यथार्थ की खासी पहचान है।

 

पायल भारद्वाज की कविताएँ

1. दोष

लड़का अन्तर्वासना पढ़ रहा था और लड़की आसारामायण
लड़का सीख रहा था संभोग के प्रयोग
लड़की रोटी के किनारे पतले करने की कला
लड़का शरीर के सुख का विज्ञान जान रहा था
और लड़की गर्भ ठहरने, ना ठहरने का
लड़का गुन रहा था ‘ना’ न सुनना
और लड़की ‘ना’ न कहना

लड़की रोते हुए पूछ रही है
‘शरीर के पश्च भाग से संभोग कौन करता है?’
वह जानना चाहती है-
यह सामान्य है या असामान्य!
वह जानना चाहती है
पति को खुश रखना
चूँकि पत्नी की सामान्यता है
और पति की इच्छा में असामान्य कुछ भी नहीं
सो इस सामान्यता में अक्षम रहना कहीं उसी का तो दोष नहीं ?

मुझे लड़की से कहना है-
ज़रूरी यह जानना नहीं
कि कौन करता है
ज़रूरी यह जानना है
कि तुम्हें करना है या नहीं
मुझे लड़की से कहना है-
अक्षमता दोष नहीं है
दोष है ज़बरदस्ती की सक्षमता को ढोना।

 

2. मुखर स्त्रियाँ

मुखर स्त्रियाँ डायन होती हैं
लम्बे नाखून और नुकीले दाँतों वाली
लील जाती हैं
घर की तथाकथित शांति
क्लेश उनका पसंदीदा शगल है
मोस्ट वांटेड क्रिमिनल्स हैं वे स्त्रियाँ
जो जानती हैं
अपनी ज़रूरतें, अपने अधिकार
अपनी पसंद-नापसंद

वे कहते हैं स्त्री देवी स्वरूप है
देवियों के मुँह में ज़बान नहीं होती
उनके होंठ हिलते और खुलते हैं
शालीनता से मुस्कुराने के लिए
सुमधुर,कर्णप्रिय,आयुवर्धक भजनों और वचनों के लिए

देवियाँ मार दी जाती हैं
मर जाती हैं
फाँसी लगाकर, ज़हर खाकर
पानी में डूबकर, धरती में समाकर
निश्चय ही वे स्वर्ग को प्राप्त होती हैं
लाल जोड़े में सजी
सौभाग्यपूर्वक भस्म होती हैं
पति अथवा पुत्र द्वारा दी गई मुखाग्नि में

डायनें मरती नहीं
मारती हैं
निगल जाती हैं लोथ के लोथ
वे शापित हैं
आजीवन अपनी मुखरता का त्रास झेलने के लिए।

 

3. दुःख बाँटते हुए

किसी का दुःख जानते हुए मैंने जाना
कितनी खोखली है
दुःख बाँटने की अवधारणा
गले के अंतिम स्वर से निकलने वाली चीखें
सीने से उठती हूक
रोम-रोम पिराती टीस और कराहटें
क्या सच में बाँट सकते हैं हम
किसी की बेचैनियाँ

हम नहीं रोक सकते उन स्मृति तरंगों को
जो नाभि से संचारित होकर झकझोर देती हैं
मस्तिष्क के तंतुओं को
दिन में बहत्तर बार

नहीं सुखा सकते
हृदय के भीतर उमड़ता भाव सागर
जिसमें उठता ज्वार भाटा बार-बार तोड़ देता है
आँखों के तटबंध

या फिर दुख बाँटना भी
एक कला है शायद

जिसके ‘क’ से भी अनभिज्ञ हूँ मैं
मैं चाहकर भी नहीं बदल पाई
अपनी मुस्कुराहट से किसी के आँसू
किसी की जागती आँखों से
अपनी उबासियाँ।

 

4. मेरे लिखे में

मेरी आँखों में झाँककर जिसने माँ से कहा था
‘इसकी आँखें देखीं आपने, हल्की भूरी हैं…आकर्षक’
मेरे लिखे में वो पुरूष डॉक्टर है

खुद से पाँच साल बड़ी दोस्त का
उससे पाँच साल बड़ा प्रेमी है
जिसे प्यूबर्टी की उम्र में चूमा था मैंने

एक लड़का है
जिसने सारे मोहल्ले में अफ़वाह उड़ाई थी
कि उसका चक्कर है मुझसे

एक वो लड़का है
जिसने महीनों साइकिल से मेरा पीछा किया

वो डरावना पुरूष है
जिसने राह चलते मेरे सीने पर हाथ मारने की कोशिश की थी

एक वो लड़का भी
जिसने बिना कुछ कहे
सालों चोर नज़र से देखा मुझे

एक वो पुरूष दोस्त है
जिसकी दोस्ती ने अनजान शहर को अपना बनाया

मेरे लिखे में पति बन चुका एक प्रेमी

एक छूटा हुआ प्रेमी है
जिसका छूट जाना ही बेहतर था

एक छूटा हुआ दोस्त है
जिसे कभी नहीं छूटना था
कोई एक नहीं अनेक पुरूष हैं मेरे लिखे में
तुम किसे ढूँढ रहे हो दोस्त??

 

5. गर्व का विषय

हम रिश्ते बचाए रखने में माहिर थे
हमारी सभ्यता में गर्व का विषय था-
इन्सानों को बचाने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण

हम रिश्ते बचाने की प्रतियोगिता के प्रतिभागी थे
तमाम पतिकूलताओं के बावजूद
एक दूसरे से बढ़-चढ़कर कोशिशें करते रहे

इस रस्साकशी में
प्रेम, आत्मीयता, सम्मान, स्वाभिमान
कब धीरे-धीरे छिटक गए
हमने परवाह तक न की
हम…एक महान संस्कृति के वाहक थे!

हम सर्वश्रेष्ठ रक्षकों के पास बचे हैं
खोखले सम्बोधनों की सिकुड़न लिए
रिश्तों के खाली रैपर
बची हैं द्वेष, चिढ़, कुंठा और गुस्से से भरी ज़हरीली देहें
जो ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में
एक दूसरे के विरूद्ध विषवमन करती रहती हैं
और रिश्तों को बचाए रखती हैं
क्योंकि रिश्तों को बचाए रखना गर्व का विषय है
और हम रिश्ते बचाने में माहिर हैं।

 

6. कविता छूट रही है

आटे की लोई और कविता की भूमिका
दोनों साथ-साथ बनते हैं
बेलन की चोट से लोई बढ़ती है
कविता नहीं।

विचारों और भावों को आग में झोंककर
सेंकी जाती हैं रोटियाँ
(पेट की दुनिया में रोटियों का जलना वर्जित है)

सालन की तरी में डूबकर मर जाते हैं शब्द
रसोई को तारीफें मिलती हैं
कविता को उपेक्षा!

स्वाद-ग्रंथियों को नागवार गुजरती है-आत्मप्रवंचना
आत्महनन से सिकुड़ती जाती हैं आँतें
जैसे-तैसे निगल ली जाती है
आखिर में बनाई गई एक बेढब रोटी।

जीने की प्रक्रिया में चलते रहना ज़रूरी है
पर शरीर के साथ मन भी चले…
ज़रूरी नहीं।

डूबते सूरज और छूटती कविता के साथ
मन भी डूब जाता है कई बार…
(सूरज डूबता है, छूटता नहीं!)

कविता छूट रही है-
जैसे छूटता है घर के कामों में समय
जैसे छूटती है उम्मीद
जैसे छूटता है जीवन।

 

7. घृणा

घृणा एक कट्टरपंथी शब्द है
एक कठोर संकरा अनुदार शब्द

असहमति में शेष रहती है सम्भावना सहमति की
अप्रियता में प्रियता की
अमित्रता में मित्रता की

प्रतिकूलताओं के बड़े और भारी पत्थर के नीचे
बची रह जाती है
अनुकूलताओं की छटाँक भर नमी

परन्तु घृणा में कुछ नहीं बचता
प्रतिकूलता भी नहीं
बचती है तो केवल घृणा
जिसे बोलते वक़्त तुम ‘र’ को जितना घुमाओगे
वह उतनी ही गाढ़ी होती जाएगी।

 

8. धर्म

धर्म बताएगा
कि किस भाषा में रखा जाए तुम्हारा नाम
परंतु कागज़ और कलम नहीं देगा
उसे लिखना सीखने के लिए

धर्म बताएगा
तुम्हें पानी के प्रयोग के ढंग
दैहिक पवित्रता हेतु
परंतु पानी नहीं देगा
अनुपलब्धता की स्थिति में

धर्म बताएगा
तुम्हें प्रार्थना का तरीका
परंतु ज़मानत नहीं देगा
प्रार्थना स्वीकार होने की

धर्म बताएगा
कि क्या सलूक करना है
तुम्हारी मृत देह के साथ
और तमाशा खत्म होने पर
खींसे निपोर कर बजाएगा ताली
अपनी जीत की खुशी में…।

 

9. मज़दूर

दोनों हथेलियों में दस शंखों को कसे जन्म हुआ मेरा
ब्रम्हा भूल गए मेरी उंगलियों पर चक्र बनाना
भयमाता भूल गई सुनहरी स्याही लाना
छठवीं के दिन
मेरी आँखों में लगे मोटे-मोटे काजल से लिखे गए
मेरी किस्मत के दस्तावेज़

पिता भूल गए मेरे भविष्य के लिए गुल्लक बनाना
बिल्कुल वैसे ही जैसे उनके पिता भूल गए थे
या सम्भवतः ना भूलकर भी याद न रख पाए हों

मुझ, सीढ़ी के पहले पायदान पर अपना सारा भार रखकर
ऊपर चढ़ते हुए…ये समाज भूल गया
मुझे सिद्ध और समर्थ बनाना
मेरा नाम रट-रटकर बनी सरकारें भूल गईं
मेरे हित में योजनाएँ बनाना
केवल एक मृत्यु है जो सब याद रखेगी
जो याद रखेगी कि कब और कैसे सुधारना है
इन सबकी भूलों को
वो आएगी और फिर सब ठीक हो जाएगा।

 

10. महाकलंक

अठारह की उम्र में
मैं घर से भागना चाहती थी
इक्कीस की उम्र में शहर से
पच्चीस की उम्र में समाज से भागना चाहती थी
और तीस की उम्र में दुनिया से

भागना चाहती हूँ
चौंतीस की उम्र में अपने आप से
पर नहीं भाग पाती
कभी नहीं भाग पाई
क्योंकि जानती हूँ
स्त्री का भागना
‘महाभिनिष्क्रमण नहीं
महाकलंक कहलाता है।

(महाभिनिष्क्रमण- महात्मा बुद्ध का गृहत्याग)

 

11. चुप्पियाँ

एक माँ ने कभी नहीं बताया
क्यों दूर रहना चाहिए
उसकी बड़ी होती बेटी को
अपने फूफा से
क्यों उसे फूटी आँख नहीं सुहाता वह घिनौना आदमी

क्यों बहुत गंदे हैं पड़ोस के चाचा
नहीं बता सकी एक बड़ी बहन अपनी छोटी बहन को
‘कई दिन इसी उधेड़बुन में रही थी वह भी
कि लकड़ी जैसा सख़्त क्या है
चाचा की जांघों के बीच
जिसका स्पर्श कराया गया था उसे
खेल-खेल में’
नहीं बता सकी कि उसने दोबारा छूकर देखा था उस चीज़ को
दिमाग़ पर छाए मकड़जाल से निकलने के लिए
जिससे फिर कभी वह निकल ही नहीं पाई

एक सहेली ने कभी नहीं कहा दूसरी सहेली से
‘गली में रोककर मेरे सीने पर हाथ मारा था
तेरे भाई ने सांझ के झुटपुटे में’
नहीं कहा कि तुझसे जन्म-जन्मान्तर के हवाई वायदे करने वाले इस लड़़के ने
इसी तरह डोरे डाले थे मुझ पर भी
नहीं बताया कैसे छोड़ दिया था
उस घाघ लड़के ने उसे भी
साथ सोने से मना करने पर

क्यों चली जाती है भैयाजी के आने से पहले ही
एक काम वाली ने कभी नहीं बताया
अपनी मालकिन को
न बताया मालकिन ने ही
कि क्यों चली गई थी पुरानी बाई काम छोड़कर

नौकरी से निकालने की धमकी देकर
टेबल के नीचे से जांघों पर हाथ फेरना
बॉस का पसन्दीदा शगल है
एक सहकर्मी कभी बता नहीं पाई अपनी नई सहकर्मी को

वे औरतें थीं
उन्हें घाव दिखाने की मनाही थी
उनके घाव, घाव नहीं इज्ज़त थे
जिन पर पड़ा था चुप्पियों का पर्दा

 

12. बहिष्कृत

मुझे कंडे ही पाथने थे
बनानी थी बस रोटियाँ
दूध दोहना था
दूध पिलाना था
दबे स्वर में गानी थी लोरियाँ
धोनी थी तिकोनियाँ
आधी उम्र तलक

बदन ढाँपकर चलनी थी मयूरी चाल
हौले-हौले भरने थे डग

क ख ग से भी दूर ही रहना था
किताबें छूनी थीं
धूल हटाने को
रद्दी कागज़ों से सुलगाने थे चूल्हे
अँगूठे से करने थे केवल तिलक
अँगूठे और तर्जनी को मिलाना वर्जित ही अच्छा था मेरे लिए

हर रात छुपन छुपाई के खेल में
धप्पा खाना था
चुपचाप बँधे रहना था खूँटे से
बिना सींग वाली गाय की तरह
धार निकालते वक़्त लात नहीं मारनी थी

अपने सिर लेनी थीं सारी बलाएँ
आँखें मूँदकर करने थे
व्रत और प्रार्थनाएँ
नज़रें झुकाकर पलकें उठानी थीं
आदेश पर

कितने ही ‘सुख’ हो सकते थे मेरी झोली में
मैंने भर लीं कितनी पीड़ाएँ

प्रकृति का तोहफ़ा थे इंसान को
बुद्धि,विवेक ज्ञान और तर्क
परन्तु मेरे लिए अभिशाप
इंसानों की श्रेणी से बहिष्कृत
मैं एक स्त्री थी।

 

13. अब्दुल पंक्चर बनाता है

अब्दुल पंक्चर बनाता था
गाँव के सिवाने पर चार बल्लियों के सहारे टिका था उसका छप्पर
गड्ढों में दुबकी ‘ग्रैंड’ ट्रंक रोड के किनारे

ग्रैंड रोड ग्रैंड शहरों तक जाती थीं
पर अब्दुल कहाँ जाता था?

रोज़ सवेरे सात बजे झाड़ू लगाकर
बल्लियों पर गड़ी कीलों पर टाँगता था टायर
ट्यूब में हवा भरकर
तसले में भरे पानी में उसे डुबा-डुबाकर ढूँढता था पंक्चर
किसी पुराने बेकार ट्यूब में से काटता था चौकोर टुकड़े
सिर झुकाकर पूरी तल्लीनता से
करता था उन्हें गोल
बिल्कुल वैसे जैसे माँ करती थी पूजा
जैसे मैं छीलती थी पेंसिल

ट्यूब के गोल टुकड़े पर
वह वैसे ही गोंद लगाता था
जैसे अपने नवजात शिशु की छाती पर तेल लगाती है
एक माँ
कितनी कमाल की है अब्दुल की गोंद
मैं हमेशा सोचती थी
जब दोबारा बनाने के लिए
अब्दुल खोलता था
कोई पुराना लीक हुआ पंक्चर

‘अब्दुल! ये गोंद कहाँ मिलती है?’
‘क्या करोगी मुन्नी, आपके काम की नहीं’
‘पर मुझे चाहिए’
‘ठीक है, मैं ला दूँगा’
हर बार गोंद लाना भूल जाता था
वह जानता था
गोंद मेरे काम की नहीं
मुझे काले ट्यूब नहीं सफेद कागज़ चिपकाने थे
पर वह ये नहीं जानता था
कि मन ही मन मैं भी बनाना चाहती थी पंक्चर
काटना चाहती थी ट्यूब की काली कतरनें
मगर वह मेरा काम नहीं था
अब्दुल्लाह ख़ान उर्फ़ अब्दुल मेरा नाम नहीं था

अब्दुल तो उसका नाम था
जो पंक्चर बनाता था
लगाता था मेरी साइकिल की चेन में ग्रीस
ताकि मैं स्कूल जा सकूँ
कागज़ काले कर सकूँ1
और एक दिन ठट्ठा मारकर कह सकूँ
कि अब्दुल पंक्चर बनाता है
अब्दुल ही पंक्चर बनाएगा।

 


 

कवयित्री पायल भारद्वाज
जन्मः 26 अगस्त 1987, खुर्जा (उ.प्र.)
शिक्षाः वाणिज्य एवं हिन्दी में परास्नातक।
सृृजनः कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित

सम्पर्कः म. न. -75, प्रीत विहार, फ़ायर स्टेशन, खुर्जा
ज़िला- बुलंदशहर (उ.प्र.)

मोबाइलः 7827118554

ई-मेलः payalbhardwajsharma1987@gmail.com

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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