समकालीन जनमत
कविता

भास्कर चौधुरी की कविताएँ: यहाँ कोई सरहद नहीं है

कौशल किशोर


समकालीन रचनाशीलता दबाव में है। रचनाकार के निजी जीवन, अनुभव संसार, भाव-संवेदना,  लय-ध्वनि सभी अतिरिक्त दबाव में हैं। यह उसके अन्तर्य पर बाह्य का है। समय, समाज और जीवन की स्थितियां जिस तरह विकट हुई हैं, उसने रचनाकार को प्रभावित किया है। वह इसे इग्नोर नहीं कर सकता क्योंकि रचनाकार अपने समय का सृजनात्मक प्रवक्ता भी होता है। भास्कर चौधुरी की रचनाशीलता इसी अंतर्य और बाह्य के द्वंद के बीच अपना आकार ग्रहण करती है। इसी से उनकी रचनात्मक स्थितियां तैयार होती हैं।

भास्कर चौधुरी की कविता की दुनिया कैसी है? इसमें मां, पिता, पत्नी, मुनिया, बच्ची, काली लड़की, मजदूर, आस-पड़ोस और पलाश के खिलने का मौसम है तो वहीं रोहिंग्या, अफगानी बच्चे, गांजा पट्टी, सीरिया, इराक से लेकर राजा, तानाशाह, अमरीका और उनका साम्राज्य है। इस दुनिया से गुजरते हुए एहसास होता है कि यहां कोई सरहद नहीं है। जैसे हवा, बादल, परिंदे उन्मुक्त होते हैं, इनके लिए सरहद का कोई मायने नहीं होता, धरती का खण्डित स्वरूप नहीं होता और ये उपनिवेशों से बाहर होते हैं, यही भाव विचार भास्कर चौधुरी की कविताओं में मिलता है। यहाँ अपने व आम जन के प्रति प्रेम व आत्मीय लगाव है, वहीं दमन व परतंत्रता के विचारों और संकीर्णताओं से कवि मोर्चा लेता है और प्रतिरोध रचता है।

भास्कर चौधुरी की कविताओं में ‘सड़सठ के पिता’ हैं जो ‘आते हैं और/मेरी सात साल की बेटी के साथ/खेलने जुड़ जाते हैं’। पिता की उम्र बढ़ रही है। उनके साथ के छूट जाने का डर है। यह डर मां के संदर्भ में मूर्त होता है। इस कविता का विस्तार ‘अमरूद का पेड़’ में होता है। यह अम्मा के लिए है। उन्हें अमरूद के पेड़ से बेइंतहा प्यार था। उसकी शाखों पर सांस्कृतिक मन बसता था। आज न वह माँ है, ना अमरूद का पेड़। दोनों अपनी जड़ों से अलग हो चुके हैं या कि अलग कर दिए गए हैं। कविता में मार्मिकता छलछलाती है, कुछ यूँ:

‘पेड़ को पता है
लड़की अब जा चुकी है….
पेड़ को पता है
कि उसे कुछ नहीं पता है
कि उसे कटे बरसों बीत गए हैं
कि उसे उसकी जड़ों से अलग कर दिया गया है’

भास्कर चौधरी ने अम्मा को लेकर अनेक  कविताएं रची हैं। उनकी कविता के कोठार में ‘मुनिया की दुनिया’, ‘पत्नी भी मां की तरह’,  ‘दुश्मनी’, ‘अम्मा के हिस्से का दूध’, ‘मजदूर’, ‘प्रेम’ – जैसी ढेर सारी कविताएँ हैं जिनमें जीवन के विभिन्न रंग और प्रसंग हैं। यहां आम आदमी की पीड़ा, शोषण, दुख-दर्द, दारुण स्थिति, बतौर मनुष्य उसके अवमूल्यन और व्यवस्था की क्रूरता की अभिव्यक्ति है। देखेंः

‘दरअसल वे आदमी ही हैं
जिनकी खाल खींची जा रही है
लात और घूंसे बरसाए जा रहे हैं
जिबह किया जा रहा है….
वे जीवित हैं क्योंकि जिबह से पहले
जरूरी है उनका जीवित रहना’

भास्कर चौधुरी की कविताएं यथास्थितिवादी नहीं हैं। कहने का आशय है कि स्थिति-परिस्थिति के चित्रण के साथ उन शक्तियों की स्पष्ट पहचान है जो मानवहंता हैं। ग्लोबल हो रही इस दुनिया में ग्लोबलाइजेशन के विरुद्ध कवि के पास विश्व दृष्टि है। कविताएँ सरहद के पार जाती हैं, काली ताकतों की पहचान करती हैं और उनके विरुद्ध प्रतिरोध रचती हैं। कवि की संवेदना पीड़ित लोगों के साथ हैं जो दुनिया में सताए जा रहे हैं। वह उन लोगों के दुख दर्द को महसूस करता हैं जिनका जीवन युद्ध से घिरा है और अस्तित्व कभी भी खत्म हो सकता है। सीरिया, गाजा पट्टी, अफगानिस्तान आदि में संकट से घिरे लोगों के साथ वह खड़ा है। ‘तानाशाह’, ‘राजा’, ‘अमरीका’, ‘सीरिया’, ‘यहां ठीक चल रहा है सब कुछ’, ‘गाजा पट्टी पर ईद’, ‘अफगानी बच्चों के लिए’, ‘दिल्ली भारत के नक्शे में नहीं है क्या’ आदि अनेक ऐसी कविताएँ हैं।

‘तानाशाह’ कविता को देखें। हम जिसे असाधारण समझते हैं, वह आसमान से नहीं टपकता है, अचानक भी नहीं पैदा होता है बल्कि वह भौतिक परिस्थितियों की उपज होता है। ‘तानाशाह’ इसी समझ की कविता है। हम जिन्हें मानव मूल्य कहते हैं, तानाशाह बनने की प्रक्रिया में वह उससे दूर होता जाता है। छल-छद्म, खुराफात, घृणा, चालाकी, धूर्तता से प्रेम उसे स्वार्थ के चरम पर पहुँचा देता है जहाँ लोगों की हत्या उसके लिए उत्सव बन जाता है। वह भ्रम का ऐसा जाल बुनता है जिसमें फंसकर लोग झूठ को सच और उसके कथन को देव तुल्य मान ले। इसी से जुड़ी कविता ‘मध्यवर्ग का नौ मिनट’ को देखें। इसमें तानाशाह के चाल-चरित्र को देखा जा सकता है। यह कोरोना जैसी महामारी से निपटने के व्यवस्था के तरीके तथा पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के मानस को सामने लाती है। महामारी से निपटने का तरीका वैज्ञानिक हो सकता है पर यहां व्यवस्था के द्वारा न सिर्फ अवैज्ञानिक तरीका अपनाया गया बल्कि उसके द्वारा किए गए उपाय से लाखों लोग सड़कों पर धकेल दिए गए। 9 मिनट का स्वांग रचा गया –  ‘ताली, थाली, घंटे-घड़ियाल, पटाखे फोड़े/घरों की बत्तियाँ बुझाई/घी और तेल के दीए जलाये’। जैसे ऐसा करने से महामारी का संकट टल जाएगा। विडंबना यह कि पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग इस अंधविश्वास का माध्यम बना। यह उसकी सामाजिक व बौद्धिक भूमिका का क्षरण है। कविता कोरोना काल के इस यथार्थ तथा सत्ताधारी वर्ग के राजनीतिक एजेंडे को सजीव तरीके से उजागर करती हैः

‘मध्यवर्ग ने
नौ बजकर नौ मिनट पर नौ मिनट तक कविता लिखी
नौ मिनट के गीत तैयार किए और
नौ मिनट तक गाया भी
नौ मिनट तक उल्लसित होते रहे
वंदेमातरम कहा भारत माता की जय बोले
नौ मिनट तक देशभक्ति की धारा में बहते  रहे…’

भास्कर चौधुरी की कविताएँ समय-बोध व यथार्थ-बोध का उदाहरण है। व्यंग्य कविता को धारदार बनाता है और उसकी पहुँच को बढ़ाता है। कठिन विषय को भी सहज सरल तरीके से व्यक्त करना अभिव्यक्त की सर्वाेत्तम कला है। इसका दर्शन इन कविताओं में होता है । ये कवि की अन्तर्निहित संभावना को भी सामने ले आती हैं।

भास्कर चौधुरी की कविताएँ

1. हँसी

बाबा कहते हैं
हँसना ज़रूरी है
दो वक्त खाने की तरह
तो हँसों
हँसों हँसों ठहाके लगा-लगा कर हँसों
दाँत निपोर-निपोर कर हँसों
हँसों बंद कमरे में
खुले में हँसों
कम्पनी गार्डन में
दस-बीस-तीस-चालीस मिल कर हँसों
हँसों कि लेटे हो तब भी
कि उठ कर बैठे हो
या बैठ कर उठे हो
घास में लोट-लोट कर हँसों
कीचड़ में लथ-पथ होकर हँसों
कूद-फांद कर
हाथ-पैर हवा में फेंककर
कि मुट्ठियाँ भींचकर या खोलकर हँसों
पर हँसों
हँसों कि बाबा कहते हैं
ज़रूरी हैं हँसना
कि बच्चा हँसता है माँ के पेट में
इधर से उधर, उधर से इधर तैरकर
जन्म से पहले हर बच्चा जैसे
स्वीमिंग पूल में तैर रहा हो
और हँसते हँसते लात जमाता है पानी में वैसे ही
तुम भी हँसों
हँसों जैसे स्वीमिंग पूल हो हँसी का
और तुम लगा रहे हो हँसी के समरसॉल्ट
हँसों कि हँसने लायक ही है
बाहर की दुनिया
चार्ली चैपलिन की तरह हँसों
कि जिसके रोने में टीवी या फिल्म के परदे पर
हँसी दिखाई देती है दुनिया को
हँसों ऐसे हँसों कि तुम्हारे रोने में भी पैदा हो
हँसी की तरंगें
हँसों ऐसे हँसों कि भूल जाओ
मर रहे हैं बच्चे और नौजवान
कीड़े मकोड़ों की तरह बिलबिलाकर
किसी पेस्टीसाइड की मार पड़ी हो जैसे
हँसों ऐसे हँसों कि खो जाए तुम्हारी हँसी में
गौरी लंकेश का हँसता हुआ चेहरा
और तुम्हारी आँखों के रेटिना से पुंछ जाए
ऐसी कोई भी तस्वीर जहाँ
गौरी लंकेश गोविंद पानसरे दाभोलकर या कलबुर्गी की
खून सनी लाशें पड़ी हो फर्श पर
या धरती पर धूल में लिथड़ी
हँसों केवल हँसते रहो
कि हँसना ज़रूरी है दो वक्त के खाने की तरह
बाबा कहते हैं …!!

 

2. मजदूर

कवि ने लिखा मजदूर के माथे पर
पसीने के फूल खिलते हैंचित्रकार की कूंची ने बनाया मजदूर का
खुरदुरा हाथ
धरती सा खुरदुरा
और हाथ की रेखाएं
जैसे जड़ हों वटवृक्ष केमूर्तिकार ने गढ़ा
मजदूर की मूर्ति
जिसमें सिर्फ धड़ था
मस्तिष्क वाला हिस्सा
नहीं बनाया मूर्तिकार ने
जानबूझकरसरकारों के लिए
मजदूर माह में पैंतीस किलो
चावल का कोटा है
एक किलो शक्कर
या चंद लीटर मिट्टी का तेल
बदले में एक अदद वोट
इकहत्तर वर्षों सेमजदूर के लिए मजदूर
एक अदद मशीन
ज़रूरतें जिसकी बेहद कम
जो ज़रूरी धरती के लिए
बेहद ज़रूरी दृ
जैसे धरती के भीतर गहरी
कभी दिखाई नहीं पड़ती धरती की धुरी …बंद दरवाजे के भीतर से
मुझे दिखाई देती है
मजदूर के पैर की बिवाई
मुझे दिखाई देती है
मजदूर की तांबई पीठ
पीठ से सटा पेट
पपड़ाए होंठ
कोटर सी धंसी आँखें
आँखों से बहकर सूख चुका पानी
कौए के घोंसले से बेतरतीब बाल
समंदर के जल सा खारा पसीना
मुझे दिखाई देती है मजदूर के
हाथों की कटी-फटी रेखाएँ
चाँद के धरातल से ऊबड़-खाबड़ गाल
सैकड़ों मील चलने के बाद
मंद पड़ी सांसे या
धौंकनी सा धड़कता दिल…
मुझे सब दिखाई देता है
बंद दरवाजे के भीतर से।।
3. मध्यवर्ग का नौ मिनट
मध्यवर्ग ने
नौ मिनट लम्बी गहरी सांस ली
नौ मिनट कपाल भाती किया
नौ मिनट अनुलोम विलोम
नौ मिनट में
उत्तानपादासन, पवनमुक्तासन, वज्रासन
नौ मिनट शवासन
नौ मिनट बत्तीसी दिखा दिखाकर ठहाके लगाया…मध्यवर्ग ने नौ मिनट तक टीवी पर
लाखों लोगों को बच्चों को गोद या कंधे में उठाए और
सर पर गठरियाँ लादे
शहर से बाहर सड़क पर पैदल चलते देखा
ये वे थे जो महानगरों में दिहाड़ी कर अपना और
परिवार का पेट पेट पाल रहे थे
जो दरअसल मध्यवर्ग और उच्चमध्यवर्ग के ऐशोआराम का ज़रिया थे
वे सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गाँव पैदल जा रहे थे
वे भूखे थे और उन्हें पता नहीं था कि मंज़िल तक कब पहुँचेंगे
या पहुँचेंगे की भी नहीं
मध्यवर्ग नौ मिनट तक टीवी पर यह सब देखते रहे और
मुंह से च्चच्.. च्चच्.. करते रहे
कुछ की आँखें भी भर आई
ठीक वैसे ही जैसे –
प्रधानमंत्री का भाषण सुनते ही भर आती है और
भरी ही रहती है नौ मिनट तक..मध्यवर्ग ने नौ मिनट ताली थाली-घंटे-घड़ियाल बजाए पटाखे फोड़े
नौ मिनट घरों की बत्तियाँ बुझाई
घी और तेल के दीये जलाए
और उनके आलोक में दीप्त
दूर दूर से एक-दूसरे का चेहरा देखा
साड़ियाँ देखी, सूट देखे
कुर्ते-पजामे सलवार देखे
चुपके से लिपस्टिक का रंग देखा
मध्यवर्ग के गाल गुलाबी हो गए और आँखें चमक उठी
ठीक वैसे ही जैसे-
प्रधानमंत्री का भाषण सुनते-सुनते
चमकती है मध्यवर्ग की आँखें और गाल गुलाबी हो जाते हैं..मध्यवर्ग ने नौ बजकर नौ मिनट पर नौ मिनट तक कविता लिखी
नौ मिनट के गीत तैयार किए और
नौ मिनट तक गाया भी
नौ मिनट तक उल्लसित होते रहे
वंदेमातरम कहा भारत माता की जै बोले
नौ मिनट तक देशभक्ति की धारा में बहते रहे…
4. सीरिया
सीरिया में बच्चों को हँसना
सिखा रहे हैं पिताइधर फूटता है बम
उधर हँसता है बच्चाबच्चों का हँसना
एक सामान्य क्रिया है
जो हर किसी को आकर्षित करता है
अनगिनत कवियों ने अनगिनत बार
कहा है कविताओं में
कि बच्चों का हँसना जैसे –
फूलों का खिलना
मेमने की छुवन
जैसे पंख फैलाती तितलियां
जैसे लहलहाती फसलें
जैसे भोर का सूरज
जैसे ठंड में बारिश के बाद खिली हुई धूप..
और भी न जाने क्या क्या
जैसे हमेशा ही भरा रहा कवि..
बच्चों की हँसी का ख्याल आते ही
कवि के पिटारे में
अनगिनत शब्द अनगिनत भाषा और बोलियों के
जैसे खिलखिलाने लगते..

क्या अब भी
रचेंगे कविगण
बच्चे की हँसी पर कविता
कि जब बम फूटता है तो
बच्चा हँसता है …

 

5. बच्चे

सोचता हूँ
जब कभी देखता हूँ
उन बच्चों को
क्या सोचते होंगे वे
मेरे बारे मेंमैंने जब भी देखा उन्हें
मुस्कुरा कर
वे भी बस मुस्कुरा दिएजब कभी भी हाथ हिलाया
हाथ हिलाया बच्चों ने भीमैंने देखा गुस्से से
आंखें तरेरकर
वे देखने लगे मेमने की तरह ..
6. तानाशाह: दो कविताएँ
एक

तानाशाह भी एक दिन
एक बच्चा था साधारण
और बच्चों की तरह
खाता पीता सोता
खुराफातें करता
आहिस्ते-आहिस्ते
बड़ा हो रहा था
किशोरवय तक पहुंचते-पहुंचते
वह असाधारण होने लगा
उसने घृणा करना सीखा
अपने जैसे किशोरों को वह
हिकारत से देखने लगा
उसने चालाकी और धूर्तता सीखी
अपने आसपास से
शायद उसने प्यार भी किया कभी
किसी लड़की से
और किशोरों की तरह
पर किया प्यार
उन सभी चीज़ों से ज़्यादा
जो उसके पास नहीं थे उन दिनों
उन चीज़ों को पाने के लिए
किसी भी हद तक जा सकता था वह
कितनी भी घृणा पाल सकता था
कितनी भी जाने ले सकता था
खुद नहीं तो दूसरों से मरवा सकता था
उसने बहुत जल्दी जान लिया था
आपस में भिड़वाकर
दंगे भड़काकर
दूर बैठा टांग पर टांग धरे
तमाशा देख सकता था
अनगिनत झूठ बोल सकता था
और अनगिनत बार बोल सकता था
क्योंकि उसे मालूम था
बार-बार बोला गया झूठ
मतलब सच
उसे मालूम था
घृणा करना आसान है ज़्यादा
और उत्तेजना से भरपूर भी
और यही रास्ता है तानाशाह बनने का
कि जब चाहो तब छिपा लो घृणा
त्वचा  के नीचे चेहरे के
और पसरा लो मुसकान
कि चाहे जब छिपा लो हिकारत
और पढ़ाओ लोगों को प्रेम का संदेश
आत्मा-परमात्मा, देश और विश्वग्राम की बातें
देशभक्ति और देशद्रोह में अंतर
क्योंकि तुम्हें अच्छी तरह मालूम है
भूखे पेटों ज़रा सा अन्न देकर
और खाली हाथों में ज़रा सा लालच देकर
कुछ भी बुलवाता जा सकता है…
तानाशाह की जै भी।।दोउससे न
चीटियाँ डरती हैं
न कोई चूहा
वह स्वयं डरता है कॉकरोच से
और कॉकरोच देखते ही
बंदूक तान देता है
शह और मात के खेल का उस्ताद
तानाशाह वह
समुद्र की ओर देखकर पेशाब करता है
और डूबा देगा आधी दुनिया
समुद्र के पानी में
ऐसा सोचता है…
 
7.स्लो मोशन

स्लो  मोशन में हो रही है बारिश

हमारे कंधे झुके हुए हैं
बाजुएं लटकी हुईं हैं
सर झुका
निकली हुई तोंद

सर पर छाता ताने हम
स्लो मोशन में चल रहे हैं

थोड़े थोड़े अंतराल के बाद
ज़रा सा गर्दन हिला
इधर-उधर देख लेते हैं
नीचे फिसलती पेंट को
ऊपर खींच लेते हैं
इत्मीनान कर लेते हैं
कहीं नंगें तो नहीं हो गए हम?

हम स्लो मोशन में चल रहे हैं
कहीं दूर से
बलत्कृत लड़की की चीखें सुनाई पड़ते ही
आँखें आधी मूंद लेते हैं
दायें कान में ब्लूटूथ से चलने वाला
स्पीकर लगा लेते हैं
कोई भजन या
स्लो मोशन में चलने वाला
संगीत लगा लेते हैं..

हम स्लो मोशन में चल रहे हैं
और कल्पना में
ओलंपिक के मैदान में
देश के तिरंगे को
हिमा दास के हाथों में
तैरता हुआ देख रहे हैं…

 

8. अम्मा के लिए ...

एक 

मेरी अम्मा
अम्मा मेरी
और अम्माओं सी नहींधरती पर पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, तितलियाँ
और आसमान में चांद अम्मा की पक्की सहेलियाँअम्मा समय से सोती, समय से जागती
जीमती समय से और
अपने साथ-साथ पिता को भी
जिमाती समय से
गमले सहेजती
सींचती पौधों को
पत्तों से पतियाती
रंग डालती दीवारों को…होली के दिन
सर पर डालती चुड़ैल वाले रंगीन बाल
खुद ही गालों पर ज़रा सा रंग मलती
मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठे कर खेलती उन संग होली
पिता और बच्चों पर रंग डालती नन्ही सी पिचकारी से…अम्मा मेरी
और अम्माओं सी नहीं
पर बड़ियाँ वे भी डालती
मेरी पसंद की तरकारी वे अब भी बनाती
मन हुआ तो सन सत्तर के सुंदर गीत सुनाती
दोस्त पीयूष की बिटिया गुनगुन संग
नये गानों पर नाच लेतीं…कमर दर्द से परेशान अम्मा
थककर चूर हो जाती जब
पिता के हाथों दवा खाकर
आसमान में उनकी सहेली चांद दिखते ही
नींद के आगोश में चली जाती
अगली सुबह मोहल्ले जगे उससे पहले
बिस्तर छोड़ उठ जाती अम्मा…अड़सठ की अम्मा आठ दिन की गौरैया सी चहकती
काम वाली बाई के आगे पीछे दौड़ती खरगोश सी
आँखें गिलहरी सी दमकती
रात नींद में बुनीं थी जो कहानी
कलम काग़ज़ लेकर लिखने बैठ जाती…अम्मा मेरी
सरकारी नल से आते पानी को बूंद-बूंद सहेजती
वे चिंतित होती दिन ब दिन
हवा से गायब होती नमी के बारे में
चिंता करती हर साल दुगुनी तिगुनी रफ़तार से
सूखती नदी की
टूटते ग्लेशियर अम्मा को परेशान करते
मछली खाना अम्मा को पसंद मगर
मछलियाँ अकसर अम्मा के सपनों में विचरण करती….अम्मा के रिक्शे वाले के मुंह से
शराब का भभका आता तो अम्मा
डांटती झिड़कती उसे बच्चों और पत्नी का हवाला देती
काम वाली बाई को पीटे उसका पति तो
अम्मा ज़रूरत पड़ने पर नहीं झिझकती थाने जाने से
उसकी आँखों में आँसू देखे अम्मा तो
घर पर जो भी हो दोनों हाथों से देनें को हो जाती तैयार
बिजली चली जाए और न सुने बिजली वाले तो
खुद ही रिक्शा कर बिजली वाले को पकड़ लाती अम्मा
कुछ भी ग़लत होता देखती मोहल्ले में
अम्मा गुस्सा करती,
तब बिजली सी चमकती अम्मा की आँखें ……दो 
अमरूद का पेड़
वह अमरूद का पेड़ था
उस लड़की से प्यार करता था
लम्बें पैरों वाली उस लड़की के
हाथ भी लम्बे थे
वह उस पर कूदकर चढ़ती थीपेड़ की हरेक शाखाओं को लड़की के बारे में
पूरा पूरा पता था
पता था उसे
कि कितनी ऊंचाई पर
तीन शाखाएँ जुड़ेंगी आपस में
कि लड़की बैठ सके आराम से पीठ टिकाकर
और पढ़ सके दायें हाथ में धरकर कोई उपन्यास
गोदान, गबन, निर्मला या सेवासदन
या ताज़ा कहानी रेणु की
या रवीन्द्र नाथ की बंगला कविता
और बायें हाथ से खा सके अधपके
उजले हरे अमरूद…पेड़ को पता था
शुक्ल पक्ष में अक्सर
नीचे खड़ी होती है लड़की
तने के ठीक पास
निहारती कभी कभी तो घंटो
अलग-अलग कलाओं में
चाँदी के हँसिए से सोने की थाल तक
अलग-अलग आकार धरते चाँद को
पेड़ को पता है झुरमुट में कितनी पत्तियों होंगी
नई-नवेली, पुरानी और जवान कितनी होंगी पत्तियाँ
कि लड़की बस निहारती ही रहे चाँद
और पेड़ को सुनाई देती रहे धड़कनें
लड़की के दिल की …पेड़ को पता है
लड़की अब जा चुकी है
बड़ी हो चुकी है लड़की
लड़की ने अलग घर बसा लिया है…पेड़ को पता है
कि उसकी लड़की बूढ़ी हो चुकी है
कि वह अब भी प्यार करती है पेड़ से
कि वह अब भी देखा करती है झुरमुट से चाँद
कि वह ख़्वाबों में अब भी पढ़ती है उपन्यास या
ताज़ा कहानी कोई
उन्हीं तीन डंगालों के बीच बैठकर, टिकाकर पीठपेड़ को पता है
कि उसे कुछ नहीं पता है
कि उसे कटे बरसों बीत गए हैं
कि उसे उसकी जड़ों से अलग कर दिया गया है।तीन 
कवयित्री अम्मा
जब भी कुछ नया रचतीं
खूब खुश होतीं अम्मा
उस दिन
उनका फिलिप्स रेडियो
ज़रा ज़ोर से बज रहा होता
उनके जगाये पेड़ कुछ
ज़्यादा ही झूम रहे होते
अधखिले फूलों को तो जैसे
पहले से ही पता होता
अम्मा की खुशी का
और वे खिल जाते समय से
ज़रा सा पहले ही
जाने कहाँ से आ जातीं
तितलियां
और वे झुकीं होती फूलों पर
ठीक उसी समय जब अम्मा
झुक कर कुछ नया रच रही होतीं काग़ज़ पर …
कवि भास्कर चौधुरी, जन्म: 27 अगस्त 1969रमानुजगंज, सरगुजा (छ.ग.)
शिक्षा: एम. ए. (हिंदी एवं अंग्रेजी) बी एडप्रकाशन: काव्य संकलन ‘कुछ हिस्सा तो उनका भी है’ और ‘समकाल की आवाज़’ के तहत पचास चयनित कविताएँ प्रकाशित। बोधि प्रकाशन से यात्रा संस्मरण ‘बस्तर में तीन दिन’ प्रकाशित। एक और अन्य कविताओं का संकलन (रश्मि प्रकाशन से) प्रकाशनाधीन। लघु पत्रिका ‘संकेत’ का छ्टा अंक कविताओं पर केंद्रित। पिताजी के साथ मिलकर सुधीर सक्सेना की कोरोना केन्द्रित कविताओं का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद की पुस्तक ‘लव इन क्वारेंटीन’ प्रकाशित। कविताएँ, संस्मरण, समीक्षा आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
यात्रा: सुनामी के बाद दो दोस्तों के साथ नागापट्टिनम की यात्रा. वहाँ ‘बच्चों के लिए बच्चों के द्वारा’ कार्यक्रम के तहत बच्चों को मदद पहुँचाने की कोशिश, आनंदवन, बस्तर, शांतिनिकेतन की यात्राएँ।

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