समकालीन जनमत
पुस्तक

समकाल की आवाज़ – कुछ कवि, कुछ नोट्स

कुमार मुकुल


 

आँखें आशंकित थीं
हाथों ने कर दिखाया

अजेय की कविताएँ ठोस ढंग से विवेक की ताकत को अभिव्‍यक्‍त करती श्रम की संस्‍कृति को लेकर हमारे संशयों का निवारण करती श्रम की चेतना को स्‍वर देती हैं। ‘बुद्ध न हो पाना’ अजेय की एक महत्त्‍वपूर्ण कविता है जिसमें वे मानव मन की उधेड़बुन को सामने रखते हैं और दिखलाते हैं कि कैसे हमारे भीतर बैठा सुविधावाद हमारी वासनाओं के अनुरूप तर्क गढ लेता है और हमारे भीतर का पाखंडी और कमजोर मनुष्‍य बड़ी आसानी से हार मानता खुद को एक लकड़बग्‍घे में तब्‍दील होता देखता है। तुर्रा यह कि अपने लकड़बग्‍घा अवतार में भी वह बुद्ध को नहीं भूलता। बुद्ध ना हो पाने की इस बेबसी को हम आज के तमाम राजनेताओं की कारगुजारियों में देख सकते हैं जो परमाणु विस्‍फोट में भी बुद्ध की हंसी ढूंढ लेते हैं।

तुलसीदास लिखते हैं – शास्‍त्र सुचिंतित पुनि-पुनि देखिए। मतलब देखे-भाले विषय पर भी फिर से विचार करें कि उसकी प्रासंगिकता आज बची भी है या नहीं। नवनीत पाण्‍डे की कविताओं में परंपरा पर विचार- पुनरविचार दिखता है। वे परंपरा से मुठभेड़ करते हैं और देख पाते हैं कि कैसे कई जगह परंपराएं गहरी विडंबनाओं में बदल जाती हैं –

शिव सो रहे हैं
जाग रहे हैं सांप
जाग रहा है नंदी
जाग रहा है शिवलिंग
शिव सो रहे हैं …।

अव्‍यक्‍त को व्‍यक्‍त करने की कसमकस और पीड़ा नवनीत के यहां दिखती है। वर्तमान मनोवृत्तियों को अपने विवेक की कसौटी पर परखने की कोशिश भी करते हैं वे। इन कोशिशों में कई बार कविता सपाट हो जाती है और कुछ जगह ऐसा भी लगता है जैसे कविता हो नहीं रही तो बनाई जा रही हो। यूं कविता के नाम पर जो कुछ चल रहा है आजकल, उसपर निगाह है कवि की –

बच्‍चे ने लिखे
सुलेख की अभ्‍यास पुस्तिका में
लिखावट सुधारने के लिए कुछ शब्‍द
गर्व से घोषत कर दिया गया
बेटे ने लिखी है कविता।

शिरोमणि महतो की कविताएँ पढ़ते लगा कि ये हमारे समय की नयी कविताएँ हैं जैसे असम के कवि चंद्र की कविताएँ। ये मानवीय विवेक को प्रेरित करती कविताएँ हैं कि शाब्दिक बाजीगरी से बाहर आ वे जीवन के त्रासद पक्ष की ओर भी झांकें –

 

जो मारे गए
वे इस धर‍ती के सबसे सरल जीव थे
बिल्‍कुल सीधे चलते थे वे
मुंड गाड़कर भेड़ों की तरह…।

निम्‍न वर्ग के जीवन की त्रासदी को जिस तरह शिरोमणि महतो कविता में लाते हैं वैसा बहुत कम दिखता है। शिरोमणि की ‘कभी भी आना’ कविता पढते मैथिली कवि महाप्रकाश की पंक्तियां याद आती हैं – जूता हम्‍मर माथ पे सवार अैछ। शिरोमणि लिखते हैं –

जूतों की आदिम आदत है
लाशों के ढेर पर चलना
और उग रही फसलों को कुचलना।
सभ्‍यता के विमर्शकार
क्‍यों नहीं गढ़ पाए
नारी सौंदर्य का कोई
वैवेकिक प्रतिमान ?

 

जैसा कि उपरोक्‍त पंक्तियाँ दर्शाती हैं, आलोचना की परवाह किए बिना अजय कुमार पाण्‍डेय कुछ मौलिक और मौजू सवाल उठाते हैं और यह भी एक जरूरी काम है कविता में।

जैसे हर आदमी की अपनी एक कहानी होती है उसी तरह हर आदमी की अपनी कविताएं भी होती हैं जहां उसका देखा हुआ अजगूत अभिव्‍यक्‍त होता है, ‘बड़ अजगूत देखलौं … गौरी तोर अंगना’ – विद्यापति।

तो अजय कुमार पाण्‍डेय के देखे गये अजगूत का भी अपना एक रंग है। पिता कविता में वे लिखते हैं –

पहले उनके भाईयों ने
उनको बांटा
बाद में हम भाईयों ने
ता-उम्र
और …
संपूर्ण नहीं
हो पाए पिता।

 

कई जगह कवि फौरी तौर पर छुटपुट विचारों को कविता के फार्मेट में रख भर देता है, पर यह काफी नहीं है।

अरूण शीतांश को पढते लगा कि जैसे उन्‍होंने कवि होने के तमाम टोटके आजमा लिए हों पर बात है कि बनते-बनते रह जाती है –

जंगल में प्रेम बहुत पाया जाता है
इसलिए जंगल में हत्‍याएं बहुत होती हैं।

उपरोक्‍त पंक्तियों का कोई सिर-पैर मुझे नहीं दिख रहा सिवा कोरी भावुकता के प्रदर्शन के। इस तरह के तमाम शिगूफे संग्रह में भरे हैं।

अब पृथ्‍वी पर नहीं
चलो! जंगल में पौधे लगाएं…।

अब इसका क्‍या किया जा सकता है कि कवि जी जंगल में पौधे लगाना चाहते हैं, क्‍या वे पानी को पानी से धोने जैसा कुछ अनोखा करना चाहते हैं। मोटामोटी अरूण की कविताएं कवियश:प्रार्थी की विकट और विफल कोशिशें हैं। इसके अलावे भाषा की गलतियों के मामले में तो जैसे वे नया प्रतिमान ही गढ़ना चाहते हैं जैसे –

 

तुम पृथ्‍वी में समेटे बीज
हो
चांदनी की रोशनी में
सोने की ताबीज ….।

 

कुल‍ मिलाकर न्‍यू वर्ल्‍ड प्रकाशन की कविता को लेकर यह एक ज़रूरी पहल है, जो अकादमिक और पारंपरिक जड़ता को तोड़ेगी और भविष्‍य की कविता पीढ़ी को नयी ज़मीन मिलेगी।

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