समकालीन जनमत
कविता

डॉ ज़रीन हलीम का कविता संग्रह ‘ आठ पहर ’: ‘परवाज की आदत है ….उड़ जाएंगे ’

‘कविता के बीज नहीं होते/जो बाजारों में हों उपलब्ध/जो किसी एक ऋतु के हो बंधक/और घर-घर यूं ही पड़े मिलें/जो सबके हाथों मसले जाएं/जिनका कोई भी मोल न हो’

ये पंक्तियां डॉक्टर ज़रीन हलीम की ‘कविता की उत्पत्ति’ शीर्षक कविता की है। उनके संग्रह ‘आठ पहर’ की यह पहली कविता है जिसमें एक तरफ वह बताती हैं कि कविता बाजार की वस्तु नहीं है जिसकी खरीद-फरोख्त हो। वह परजीवी भी नहीं है। इसके विपरीत वे कविता की खूबियों को सामने लाती हैं और कहती हैं कि इसके लिए जीवन संघर्ष, असहनीय पीड़ा और संवेदनशीलता की भूमि आवश्यक है। यहीं ये अंकुरित होंगे और ‘जननी नये समाज’ का बनकर जीवन व समाज में नयी संभावना को पैदा करेंगे। संग्रह की इस पहली कविता के माध्यम से डा जरीन हलीम जो व्यक्त करती हैं, उनकी कविताओं की मूल भूमि इसी भाव-विचार की है।

डॉक्टर ज़रीन हलीम पेशे से चिकित्सक हैं और एक चिकित्सक के रूप में उनकी प्रतिबद्धता आठों पहर अपने कर्तव्य के निर्वहन की है। इसी तरह कविता भी उनके लिए कोई बैठे ठाले या मनोरंजन की चीज नहीं है। उसका रिश्ता जीवन से है। वह एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता है। वे कविता से ऐसा ही रिश्ता मानती है। ‘आठ पहर’ की कविताएं कवि के सरोकार और सजगता को सामने लाती हैं। कहीं न कहीं दिल में दर्दाे गुबार है जो व्यक्त होता है। ‘लिखने का शौक’ में कहती हैंः

‘हमको लिखने का कोई शौक नहीं था/मगर जब तुम हंस दिये तो कलम चल गई/ मैं ना लिखती तो तुम्हें कैसे बताती हाले दिल /कोई तूफान था जो आंखों से मेरे बह गया’

डॉक्टर ज़रीन हलीम की कविता के केंद्र में स्त्रियां हैं। संग्रह में इस संदर्भ की अनेक कविताएं हैं। इनसे गुजरते हुए स्वाभाविक एहसास होता है कि यहां स्त्री जीवन का एक संसार है। यह कल्पना में नहीं है बल्कि यथार्थ है। इस  संदर्भ की अनेक कविताएं हैं जैसे – ‘बेटियां’, ‘बेटी दिवस’, ‘औरत एक रचना’, ‘अंतर्मन का युद्ध’, ‘दोहरे मापदंड’, ‘मां की दुआएं’, ‘पंखों की उड़ान’, ‘मां विहीन बचपन’, ‘स्त्री का अस्तित्व’, ‘वजूद’, ‘मर्यादा’, ‘सशक्त नारी’, ‘खिली कलियां’, ‘अधूरा ख्वाब’, ‘जीने का हुनर’ आदि। ये शीर्षक स्वतः स्पष्ट है। क्या कहना चाहते हैं स्वयं बताते हैं।

बात शुरू करते हैं संग्रह की दूसरी ही कविता ‘बेटियां’ से। डा ज़रीन हलीम बेटियों को तितली की तरह उड़ते और चिड़ियों की तरह चहकते देखना चाहती हैं। वे बताती हैं कि ये तमाम खूबियों और संभावना से भरी हैं। कामना है कि वे सुरक्षित रहें, आगे बढ़े। उनका जीवन रोशन हो। इसी भाव विचार का विस्तार ‘बेटी दिवस’ में है। इसमें मानवता के धर्म पर चलने की सीख है और उनके लिए बेखौफ आजादी की उड़ान की कामना है। मां बेटी के लिए ऐसी कामना तो कर सकती है परंतु सच्चाई यह है कि उसे ‘दोहरे मापदंड’ में जीना पड़ता है। उसे देवी का रूप दिया जाता है और वहीं उसकी स्वतंत्रता को रौंदा जाता है। अपेक्षा और उपेक्षा के बीच जीने के लिए बाध्य है। वे कहती हैंः

‘हर उस स्त्री को/जो जमीन पर खड़ी है/जीती जागती हाड़ मांस की/काली दुर्गा सरस्वती और लक्ष्मी के गुणों से संपन्न/जो निंदनीय है कर्मभूमि में/परंतु पूजनीय है चुप रहने पर/जहां से अपेक्षा अधिक है/परंतु उपेक्षा असहनीय/क्योंकि तब वह देवी से/बन जाती है जीती जागती नारी’

डॉ ज़रीन हलीम पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष प्रधानता को सामने लाती हैं। अनेक कविताओं में स्त्री और पुरुष का भेदभाव व्यक्त हुआ हैः ‘वह आसमान तो देते हैं मगर पैरों की जमीन छीन लेते हैं’। वे इस सामाजिक सच्चाई को सामने लाती हैं कि जब भी स्त्रियों ने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, वजूद को तलाशा और अपने अधिकार के लिए तन कर खड़ी हुई, उन्हें अनेक सामाजिक विडंबना से गुजरना पड़ा। डॉक्टर हलीम इस सामाजिक व्यवस्था को प्रश्नांकित करती हैंः ‘क्या स्त्री केवल एक प्रेम का नाम है/या केवल ममता का रूप है/या फिर सुंदरता की देवी/या कर्तव्य का प्रतीक?’। मर्यादा को लेकर भी उनका सवाल है ‘किसने तय किया पैमाना मर्यादा का/क्या यह है हम सभी के लिए एक जैसा?’

इस तरह कविता बराबरी की बात करती है और जानना चाहती है कि यह गैर बराबरी कब से है? कविता में पुरजोर तरीके से आता है कि चाहे जब से हो लेकिन अब इसे बर्दाश्त करने के लिए स्त्रियां तैयार नहीं हैं ‘नहीं अब और नहीं बदल दीजिए इसकी परिभाषा’। डॉ हलीम औरतों के वजूद और बेखौफ आजादी को पुरजोर तरीके से उठाती हैं ‘मैं भी हूं और मेरा भी वजूद है/हम सब का वजूद है/मैं ना तो तुम्हारी गुलाम और ना ही हूं/तुम्हारी शान में कसीदे करने तक सीमित’। वे ‘सशक्त नारी’ को सामने ले आती हैं।

डॉ जरीन हलीम जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से आती हैं, उसे लेकर उनमें गहरा एहसास है। दया,  करुणा, मित्रता, संवेदना, सहानुभूति, भाईचारा आदि मानवीय पूंजी है। इसका क्षरण हुआ है। ये शब्द हमारे जीवन के शब्दकोश से बाहर किए जा रहे हैं। मजहब अलग थे, पर दिलों में दूरियां नहीं थीं। राम और रहीम को लेकर शत्रुता नहीं थी। होली और ईद लोगों ने मिलकर मनाया। माहौल में ज़हर घोला गया। विषाक्त बनाया गया। अलगाव, विभाजन, नफरत, हिंसा, आतंक, अविश्वास जिस तरह बढ़ा है, वह ‘बेचैनी का सबब’ है। डॉ हलीम कहती हैं:

‘गो की एहसासों का बवंडर चुप है कब से/गोकि बेचैनी का सबब ढूंढे से नहीं मिलता है/गोकि एहसासों की स्याही अभी थम सी गई हो जैसे/आने वाला हर रोज बद से बदतर है/गोकि  सितम सहने की जैसी आदत हो/इतनी तेजी से हालात के बदलते सफ़हे पर/गोकि बहुत मुश्किल से कलम चलती है’

डॉ हलीम ‘हमसे कहा गया कि तुमने सैकड़ों वर्षाे पहले हमें मारा था’, ‘वतन परस्ती’, ‘खुदा से इल्तिजा’, ‘अपना-अपना खुदा’, ‘नफरत का गणित’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ आदि अनेक कविताओं में आज के हालात, अनुभूतियों और एहसास को सामने लाती हैं। उन्हें मनुष्य विरोधी शक्तियों की पहचान है। वे उनके आगे समर्पण नहीं करती हैं बल्कि भाईचारा और अमन का पैगाम देती हैं। कवि और कविता का यह काम  है कि वह मनुष्य विरोधी शक्तियों के खिलाफ मनुष्यता  का पक्ष पोषण करें। ज़़रीन हलीम की कविताएं यह काम  करती हैं।

‘आठ पहर’ की अधिकांश कविताएं अनुभवजन्य है।  यह समझा जा सकता है। डॉक्टर ज़रीन हलीम के डॉक्टर होने की वजह से इनकी एक सामाजिक दुनिया बनती है। उससे जो अनुभव मिलते हैं, उसे वे अपनी कविता की विषय-वस्तु बनाती हैं। ऐसी अनेक कविताएं हैं जिनमें निजी अनुभव है। समस्याएं, स्थितियां, प्रसंग आदि जिनसे गुजरना पड़ता है, उन पर अपने को व्यक्त करने से वे रोक नहीं पाती हैं। कविता प्रतिक्रिया, बयान, भावोच्छास, बेचैनी बनकर फूट पड़ती है। इनमें काल्पनिक उड़ान कम है, जीवन जगत के अनुभव और सच्चाई अधिक है।

डॉ हलीम का सामाजिक सरोकार है कि देश में हाल के दिनों में जो न्यायपूर्ण संघर्ष चले हैं, कविताएं उनके साथ खड़ी होती हैं, उनके साथ चलती हैं। एक कविता है ‘शाहीनबाग के जांबाज औरतों को समर्पित’। सीएए के विरोध में जो आंदोलन चला वह ‘शाहीन बाग’ के नाम से मशहूर हुआ। इसकी गूंज दुनिया में सुनी गई। इनके साथ अपने भावनात्मक जुड़ाव को डॉक्टर हलीम ने अपनी कविता में कुछ यूं व्यक्त किया है-

‘तू सबसे अलग तू सबसे जुदा/जज्बात है तू एक आग है तू/इंसाफ की एक आवाज है तू/शाहीन की एक परवाज है तू/नाजुक भी है फौलाद भी है’

औरतों के अदम्य साहस, जुझारूपन और मजबूती कविता में सामने आती है।

इस संग्रह में किसान आंदोलन के समर्थन में तथा कोरोना महामारी से जनजीवन पर जो संकट आया, उसे लेकर भी कई कविताएं हैं । किसान आंदोलन पर लिखी कविता की व्यंजना गौरतलब है। वह सरकार के झूठ, पांखण्ड को उजागर करती है। चिकित्सक होने के नाते डॉ हलीम ने कोरोना के दौर को काफी करीब से देखा। संग्रह में ‘कोरोना की बेबसी’, ‘कोरोना का कहर’, ‘करोना काल में ईद की दुआ’, ‘कोरोना का सन्नाटा’, ‘उधार की पीड़ा’, ‘प्रवासी मजदूर’ जैसी कविताएं जीवन और मृत्यु के बीच के जंग, प्रवासी मजदूरों के प्रति बरती गई उपेक्षा, शहरी मध्यवर्ग का चाल-चरित्र, सरकार की लापरवाही और अव्यवस्था आदि को सामने लाने के माध्यम से उस दौर को सजीव कर देती हैं। इनमें गहरी मार्मिकता है, वहीं संदेश और सबक भी है। ये पंक्तियां गौरतलब है:

‘आज बदला है वह दस्तूर गले मिलने का/मगर कायम है भरोसा फिर भी/कि उठेगा शोर हवाओं में मोहब्बत का/तो एहसास गले मिल लेंगे/घरों में रहकर भी दीदार करेंगे सबके/उठेंगे हाथ हवाओं में दुआ यह मांगेंगे/ईद के बाद भी फ़िज़ाओं में सबकी ईद रहे’

डॉक्टर जरीन हलीम का संग्रह ‘आठ पहर’ उनकी 104 कविताओं का खूबसूरत गुलदस्ता है। इसमें अनेक रंग और तरह-तरह की खुशबू के फूल हैं। इसकी विषय वस्तु हमारे आसपास के परिवेश, जीवन और माहौल की है। इनसे हमारा हर वक्त सामना पड़ता है लेकिन वह अनदेखा रह जाता है । हम उस पर बहुत गौर नहीं करते हैं। डॉक्टर हलीम उसे कविता के माध्यम से हम तक पहुंचाती हैं, जीवन जगत को दृश्यमान करती हैं और  समय की सच्चाई से रूबरू कराती हैं। अभिव्यक्त में गूढ़ता नहीं है बल्कि सहजता और सरलता है। डॉ हलीम जो कहना चाहती हैं, उसे सपाट तरीके से कहती हैं। शब्दों को भी ज्यादा खर्च करती हैं । यह काव्य कला की दृष्टि से उचित नहीं है। इस पर उन्हें ध्यान देने की जरूरत है।

डॉ हलीम की काव्य भाषा उर्दू व हिंदी से मिलकर बनी है। इसे हिंदुस्तानी जबान कह सकते हैं। इनकी निर्मिति में मां व पिता की बड़ी भूमिका है। इनकी भाषा, सांस्कृतिक संस्कार और सामाजिकता का स्रोत भी वे हैं। कविता का शिल्प हिंदी की समकालीन कविता से अलग उर्दू के नज्म के अधिक करीब है। इसमें लय, तुक, मुक्त छंद आदि का जिस तरह इस्तेमाल हुआ है, उससे कविता की पठनीयता, प्रवाह और अपील बढ़ जाती है। सार रूप में हम कह सकते हैं कि डॉक्टर जरीन हलीम की कविताएं विपरीतताओं के बीच अनुकूलता और नाउम्मीदी के बीच उम्मीद पैदा करती हैं। यह परवाज की तरह हैं जो बार-बार गिरती है पर उड़ने की चाह खत्म नहीं होती, कुछ इस तरहः

‘कैद से निकलेंगे कफस को तोडेंगे/आजाद पंछी है हवा को तोलेंगे/दर्दे शिद्दत में जुबां पर यह आया/मर्ज बढ़ता है तो खुद ही दवा बन जाता है/ना कुचलो मेरे पंखों को तुम/परवाज की आदत है/फिर भी उड़ जाएंगे।’

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