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यूनिफ़ार्म सिविल कोड: मामला नीयत का है

जी.एन. देवी

एक अनीश्वरवादी के लिए जो विचार ईश्वर का है, वही भारत के लिए यूनिफ़ार्म सिविल कोड के प्रस्ताव का है। स्वयं में यह विचार बहुत शानदार है। लेकिन ज्यों-ज्यों  इसे संदर्भों के साथ देखना शुरू करते हैं, त्यों-त्यों इसकी चमक फीकी पड़ती जाती है।

नागरिक एकरूपता में समान संहिता एक चीज है। विविधता के संदर्भ में यह उसके एकदम उलट है। मैं कई दशक से आदिवासियों के साथ काम कर रहा हूँ। उनमें से कुछ के यहाँ रिवाज है, कि विवाह के बाद पति को अपनी पत्नी के घर में जाकर रहना पड़ता है और पत्नी को यह अधिकार होता है, कि साथ रहने के दौरान यदि वह चाहे तो अपने कुनबे के लोगों से परामर्श करके पति को घर से बाहर निकाल सकती है।

मुझे विवाह के बाद लड़की को लड़के के घर जाकर रहने को कहे जाने की तुलना में यह प्रथा अधिक उचित जान पड़ती है। क्या प्रस्तावित यूनिफ़ार्म सिविल कोड इन दोनों प्रथाओं का निष्पक्ष तुलनात्मक परीक्षण करने पर विचार करेगा?

कुछ भारतीय समुदायों में संपत्ति की विरासत बेटियों को जाती है, बेटों को नहीं। मेघालय के खासी समुदाय में महिला को ही परिवार का मुखिया माना जाता है और समस्त कानूनी कार्रवाइयों में उसकी यह भूमिका स्वीकार्य होती है।

क्या यूनिफ़ार्म सिविल कोड इस अद्भुत व्यवहार का संज्ञान लेगा? मुझे कुछ ऐसे समुदायों के विषय में जानकारी है, जहां घर के पशु भी पारिवारिक सदस्य माने जाते हैं।

हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में यह प्रथा है, कि किसी महिला के पाँच तक पति हो सकते हैं। भारत में ऐसे समुदायों के ढेरों उदाहरण दिये जा सकते हैं, जहां जन्म, विवाह, मृत्यु और उसके बाद की परम्पराओं को लेकर अलग-अलग अधिकार, संस्कार तथा कुछ और वास्तविक कर्मकांड होते हैं, जो अपने को हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई या सिख नहीं मानते। क्या विचारार्थ प्रस्तावित यूनिफ़ार्म सिविल कोड ऐसे समुदायों के कानून, उनके परंपरागत व्यवहारों और पुरुष-महिला, मानव-पशु और मानव एवं प्रकृति के सम्बन्धों को लेकर उनके स्थापित दृष्टिकोण का संज्ञान लेगा? या, क्या यह मान लिया जाय कि चूंकि 𝟪0%  भारतीयों को सरकारी कागजात में “हिन्दू” कहा गया है, इसलिए यही विधिक रूप से निर्मित हिंदुओं की नागरिकता है और इस कोड के अंतिम रूप में नागरिकता के नाम पर यही यूनिवर्सल होकर उभरेगा? इसके अलावा क्या प्रस्तावित सिविल कोड उस परंपरागत यज्ञोपवीत के अधिकार का भी संज्ञान लेगा जिसका अधिकार केवल कुछ हिन्दू समुदायों को है, बाकियों को नहीं?

सवाल केवल उन परंपरागत विविध व्यवहारों का नहीं है, जिन्हें विधिसम्मत माना जाता है। यह पूरे देश में मौजूद विभिन्न असमानताओं का भी है। जैसे, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एक मौलिक अधिकार है। कोई भी व्यक्ति (विस्थापन, व्यवसाय, आजीविका या अन्य सामाजिक संदर्भों को छोड़कर, जिनमें किसी दूसरी भाषा में बात करना अपरिहार्य हो जाय) अपनी ही भाषा में बात करना पसंद करता है।

भारत में बोली जानेवाली सैकड़ों भाषाओं में से केवल 𝟤𝟤 को आठवीं अनुसूची में रखा गया है और उन्हीं का संरक्षण एवं प्रतिपालन किया जाता है। क्या कॉमन सिविल कोड किसी व्यक्ति को “दीवानी” मामलों में गैर-अनुसूचित भाषा में अपनी बात कहने को मान्यता देगा और उस भाषा को गैर-मान्यताप्राप्त श्रेणी से निकाल कर उसका उद्धार करेगा?

यहाँ जो बातें मैं उठा रहा हूँ वे अप्रासंगिक और यहाँ तक कि ओछी (फ्रिवोलस) भी लग सकती हैं (हांलकि ऐसा है नहीं)। मैं इन्हें आर्थिक असमानता से एकदम अलग नागरिक असमानता के रूप में चिन्हित करना चाहता हूँ।

सामाजिक असमानताओं में से सबसे अधिक शर्मनाक है जाति संबंधी असमानता और उससे उत्पन्न भेदभाव। क्या प्रस्तावित सिविल कोड के प्राविधान निर्धारित करते समय उसकी एकरूपता में, जाति-असमानता के कारक को ध्यान में रखा जाएगा?

उदाहरण के लिए क्या सभी जातियों के नागरिकों के लिए सभी मंदिरों में प्रवेश का समान अधिकार होगा और क्या किसी पवित्र-स्थल में प्रवेश के पहले किसी महिला या किसी जाति या कबीले के व्यक्ति को वर्तमान में लागू “शुद्धिकरण” की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा?

निश्चित रूप से यह कोई ओछा मसला नहीं है। दूसरे शब्दों में कानून के किसी भी सिविल कोड में किसी एकरूप और अबाधित नागरिक स्वातंत्र्य के शासन की पूर्वकल्पना भी होती है।

यूनिफ़ार्म सिविल कोड का सर्वाधिक समस्याग्रस्त पहलू है, व्यक्ति की धार्मिक और नागरिक पहचान में संभावित टकराव। चूंकि विवाह जैसे फैसलों से पवित्रता का तत्व जुड़ा होता है और चूंकि धर्म और पंथ से जुड़ावों की इस तरह के फैसलों में एक अहम भूमिका होती है, इसलिए लोगों से यह कहना पूरी तरह अव्यावहारिक होगा कि वे विवाह को शुद्ध रूप से धर्म-निरपेक्ष (धर्म से असंपृक्त) कार्य मानें।

खास तौर से उस दौर में जब सार्वजनिक जीवन में सबसे ऊँची कुर्सी पर बैठे तथाकथित जिम्मेदार लोग अपने धार्मिक जुड़ावों का प्रदर्शन खुलेआम करते हैं, सामान्य नागरिकों से यह आशा करना बेमानी होगा कि अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय वे अपनी धार्मिक मान्यताओं का परित्याग कर देंगे। यदि ऊँची कुर्सी पर बैठे लोगों ने धर्म-निरपेक्षता (अर्थात धर्म से असंपृक्तता) के सिद्धांतों का सम्मान किया होता तो यूनिफ़ार्म सिविल कोड की बात वास्तव में विचारणीय होती।

अंत में, सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न विचार से नहीं बल्कि नीयत से जुड़ा है। यदि नीयत उन सभी धार्मिक और जातीय समुदायों, जातियों और कबीलों के प्रति उत्तेजना फैलाना है जो विवाह, भरण-पोषण, तलाक, गोद लेना और विरासत की स्थापित प्रथाओं और नियमों को नहीं मानते और उन्हें “कम राष्ट्रवादी” प्रदर्शित करना है तो यूनिफ़ार्म सिविल कोड के इर्द-गिर्द जारी सारी बहस को कुत्सित माना जाना चाहिए।

भारत के लोगों को वास्तव में जरूरत है, राष्ट्र का तथाकथित निर्माण करनेवाले और नागरिकों को राष्ट्रभक्त बनानेवाले बहुसंख्यकों की सनक के चलते की जानेवाली किसी काट-छांट के बिना, संविधान में वर्णित पूरी-पूरी समानता की।

उन्हें ऐसी सरकारों की जरूरत है जिनमें चुनावों में जीत से अलग हटकर भी कुछ सोचने की चाह और सलाहियत हो। उन्हें ऐसे राजनीतिक दलों की जरूरत है जो विभिन्न समूह के लोगों को राष्ट्र समझें न कि उनमें एक ऐसे राष्ट्र का अदूरदर्शी स्वप्न हो जिसमें देश के समस्त लोगों को “वफादार और अव्वल शहरी” के एक साँचे में ढाला जाय और “संदिग्ध गद्दारों को दोयम शहरी” सिर्फ इस आधार पर माना जाय कि इन लोगों के पुरखे एक हज़ार साल पहले भारत में घुस आए थे।

कॉमन सिविल कोड आधुनिक जीवन की एक शर्त है। यह स्थायी तभी हो सकता है, जब शासकों को भी आधुनिकता, तर्कसंगतता, वैज्ञानिक सोच और विविधता के प्रति सम्मान स्वीकार हो! संवाद और सहिष्णुता सामाजिक समन्वय और विविधता को जारी रखने के लिए आवश्यक हैं । अन्यथा कॉमन सिविल कोड के रूप में जो भी प्रस्तावित किया जाना है वह असामान्य नागरिक कलह का कारण बन सकता है। यह अस्वाभाविक नहीं होगा कि जब उनके चुनिन्दा भगवान ही उन्हें फेल करने लगें तो भारी संख्या में लोग अनीश्वरवादी हो जाएँ।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार।

अनुवाद- दिनेश अस्थाना

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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