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सामंती प्रतीकों से नहीं, लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती से मिलेगा सामाजिक न्याय को बल

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सीधी-पेशाब कांड के पीड़ित दशमत रावत का पैर धोकर सम्मान किया और मीडिया-सोशल मीडिया पर इस पॉलिटकल स्टंट की खूब चर्चा हुई. इस ऑन-कैमरा ‘सम्मान समारोह’ के दो-तीन बाद ही मध्य प्रदेश से ही एक और वीडियो सामने आया जिसमें कुछ बदमाश कथित तौर पर एक मुस्लिम युवक को चप्पल से पीटते और तलवे चटवाते दिख रहे हैं. उसी हफ्ते इंदौर से एक वीडियो सामने आया जिसमें दो कुछ लोग एक आदिवासी व्यक्ति को बेरहमी से पीटते दिख रहे हैं. इस बीच उत्तर प्रदेश के सोनभद्र का भी एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें कथित तौर पर एक दबंग लाइनमैन बिजली का तार जोड़ने पर एक दलित युवक को पीटते और चप्पल चटवाते दिख रहा है. हजारों सालों से जातिवाद और सामंती मूल्यों के साथ कंडीशंड हुए हमारे भारतीय समाज में वंचित-शोषित समुदाय के लोगों के साथ उत्पीड़न की ऐसी घटनाएं कोई नई बात नहीं है. अगर कुछ नया हुआ है तो यह कि आजादी और लोकतंत्र के सात दशक बाद भी ऐसा करने वाले अपराधी खुद अपना वीडियो बना रहे हैं और ज्यादातर मामलों में सोशल मीडिया पर एक गर्व-भाव के साथ शेयर भी कर रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि अपने अपराध को छुपाने की बजाय खुद ही उसे रिकॉर्ड कर सार्वजानिक करने के पीछे वह निडरता या मनोबल कहां से आ रहा है?

ऑन-कैमरा ‘सम्मान समारोह’ के अगले ही दिन सीधी-पेशाब कांड के पीड़ित दशमत रावत और उनकी पत्नी के बयान में इस सवाल का जवाब बिलकुल साफ-साफ देखा जा सकता है. कई न्यूज़ वेबसाइट्स और सोशल मीडिया पर शेयर हो रहे इस वीडियो में दशमत और उनकी पत्नी आशा मीडिया के सामने अपील कर रहे हैं कि उनके उपर पेशाब करने के आरोपी प्रवेश शुक्ला को छोड़ दिया जाय. द क्विंट की एक रिपोर्ट में दशमत और उनकी पत्नी साफ तौर पर अपने और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित दिख रहे हैं. क्विंट ने दशमत की पत्नी आशा को कोट करते हुए लिखा है, “सरकार ने हमारे लिए न्याय सुनिश्चित किया है. हम सरकार की मदद से आरोपी तक भी पहुंच गए, लेकिन गांव में हम सब बराबर नहीं हैं. हम कभी एक बराबर नहीं होंगे और इसलिए मैं अपने, अपने पति और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हूं।” दोनों ने आशंका जताई है कि मामला शांत पड़ते और उनके घर से पुलिस-प्रशासन के हटते ही दबंग आरोपी और उसके समर्थक उनपर कभी भी हमला कर सकते हैं. मीडिया में शेयर हो रहे वीडियो में उनके बेबस चेहरे पर सालों की यह गैर-बराबरी और इस आतंक साफ दिख रहा है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस घटना का वीडियो सामने आने के बाद आनन-फानन में आरोपी को पकड़ा गया और बुलडोजर से उसका घर गिरा दिया गया. फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने आवास पर बुलाकर आदिवासी समाज से आने वाले पीड़ित व्यक्ति के पैर धोकर ‘सम्मान किया’ और आर्थिक मदद दी. इस बीच आरोपी के पकड़े जाने के एक दिन बाद ही पीड़ित की तरफ से तथाकथित तौर पर दायर एक हलफनामा भी सामने आया जिसमें आरोपी को छोड़ देने की बात लिखी है. इसके साथ ही एक और वीडियो शेयर हो रहा है जिसमें तीन-चार पुलिसवाले आरोपी को पकड़कर उसकी पीठ पर हौले-हौले धौल जमाते हुए गाड़ी में बैठा रहे हैं. इस वीडियो में पुलिसवालों का बार-बार कैमरे में देखकर “गाड़ी में बैठाओ, गाड़ी में बैठाओ” दुहराते सुनकर कोई बच्चा भी बता देगा कि यह सब कैमरे के लिए एक प्रायोजित स्टंट है. इस पूरे घटनाक्रम के एक-एक कदम पर स्थानीय सरकार और पुलिस-प्रशासन का व्यवहार दशमत दंपति के भय को और पुख्ता करते हैं. और उनका भय हमारे समाज में मौजूद गैर-बराबरी की गहरी खाई के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं की लगातार हो रही घनघोर उपेक्षा को भी उजागर करते हैं.

किसी के सर पर पेशाब करना या किसी से अपना चप्पल-जूता चटवाने जैसे कई कुकृत्य किसी को प्रताड़ित करने या नीचा दिखाने के लिए हमारे सामंती समाज में प्रचलित हैं. ऐसे ही किसी के प्रति सम्मान या आदर प्रकट करने के लिए भी पैर धोना भी एक सामंती प्रतीक है. प्रताड़ना या सम्मान के ऐसे सभी सामंती प्रतीकों में ऊंच-नीच, श्रेष्टता और हीनता यानी की गैर-बराबरी का भाव अन्तर्निहित है जो कभी भी बराबरी की जमीन नहीं तैयार कर सकते. और गैर-बराबरी किसी भी आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों के खिलाफ है. ऐसे ही बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किये किसी के घर पर बुलडोजर चला देना हक और न्याय के आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है. इसके इतर देखें तो हक, न्याय और बराबरी दुनियाभर में राजनैतिक, सामाजिक, लैंगिक, भाषाई, क्षेत्रीय और अन्य तमाम पहचानों को लेकर चले या चल रहे सारे आंदोलन और संघर्षों में ये तीन बातें बीज-मंत्र रहे हैं. हमारे देश का संविधान और कानून भी सभी नागरिकों को एक बराबर मानते हुए ही हक़ और न्याय सुनिश्चित करते हैं. ऐसे में उसी संविधान की शपथ लेकर और संविधान-प्रदत शक्तियों की बदौलत सत्ता में बैठे लोग अगर आए दिन संविधान एवं कानून की अवहेलना करते हुए सिर्फ प्रतीकात्मक उठाते रहे तो दशमत-दंपति का के मन से वह भय कभी दूर नहीं होगा.

यह सही बात है कि एक भारत जैसे विविधता वाले लोकतांत्रिक देश में प्रतीकात्मक राजनीति के महत्त्व को इनकार या नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन मुश्किल तब खड़ी होती है जब संविधान और तमाम नियम-कानून को ताक पर गंभीर से गंभीर मुद्दे पर प्रतीकात्मक राजनीति ही होने लगे. और ऐसी राजनीति को सहज स्वीकार्यता मिलने लगे तो लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर होने लगती हैं और कमजोर संस्थाएं हमेशा ताकतवर लोग या समाज के पक्ष में काम करती हैं. एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन उस देश और समाज के लोगों को के हक़-हकूक को लोकतांत्रिक संस्थाएं ही सुनिश्चित करती हैं. और किसी भी देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं मजबूत होती है वहां के लोगों के विश्वास से. पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन को कोविड के दौरान लॉकडाउन के नियमों के उल्लंघन का आरोप लगा उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी. फिर उनके तमाम इनकार के बाद भी जब आरोप साबित हो गया तो सांसदी भी छोड़नी पड़ी. ऐसे ही अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प के पद पर रहे हुए ही उनपर मतगणना के दौरान दंगा फैलाने के आरोप लगे और अब पद छोड़ने के बाद से उनके खिलाफ लगभग चालीस केस दर्ज हो चुके हैं. अभी पिछले महीने उन्हें कोर्ट में पेश भी होना पड़ा था.

संक्षेप में कहा जाए तो लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत किए बिना सामाजिक न्याय और बराबरी सुनिश्चित नहीं की जा सकती. अगर न्याय के नाम पर सरकारें सामंती प्रतीकों का ही सहारा लेंगी तो उस समाज में सामंती सोच को ही मजबूती मिलेगई. सामंती हथकंडों से सामाजिक न्याय और बराबरी सुनिश्चित नहीं की जा सकती. ऐसी प्रतीकात्मक राजनीति किसी घटना पर तात्कालिक लीपापोती तो कर सकती है, लेकिन समाज में दीर्घकालिक बदलाव नहीं ला सकटी. इसके उलट पुलिस-कानून और न्याय-व्यवस्था को दरकिनार कर कोई ऐसा कोई भी राजनैतिक स्टंट और लोगों में उसकी सहज स्वीकार्यता देश लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करता है जिसका असर बहुत दूरगामी होता है. क्योंकि कमजोर संस्थाएं हमेशा ताकतवर का साथ देती हैं.

( अखिल रंजन युवा पत्रकार हैं. बीबीसी, एएफपी और ट्विटर में काम कर चुके हैं.)

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