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मुक्तिबोध मेरे लिए -अच्युतानंद मिश्र

अच्युतानंद मिश्र
फ़िराक ने अपने प्रतिनिधि संग्रह ‘बज़्मे जिंदगी रंगे शायरी’ के संदर्भ में लिखा है, जिसने इसे पढ़ लिया उसने मेरी शायरी का हीरा पा लिया .इस तरह की बात मुक्तिबोध के संदर्भ में कहनी कठिन है. इसका बड़ा कारण है कि मुक्तिबोध का समस्त लेखन किसी भी तरह की प्रतिनिधिकता के संकुचन में फिट नहीं बैठता. मुक्तिबोध सरीखे लेखकों को जब हम प्रतिनिधि रचना के दायरे में रखकर देखने की कोशिश करते हैं तो एक बड़ा आयाम हमसे छूटने लगता है.
यही वजह है कि स्वन्तान्त्रयोत्तर हिंदी लेखन में मुक्तिबोध संभवतः अकेले लेखक हैैं, जिन्हें पूरी तरह समझने के लिए आपको उनकी रचनावली से गुजरना होगा. मैं नहीं जानता कि यह बात तथ्यात्मक रूप से कितनी सही या गलत है लेकिन मेरा अनुमान है कि तमाम रचनावलियों में मुक्तिबोध रचनावली सबसे अधिक पढ़ी जाती होगी .कई बार ऐसा भी लगता है कि मुक्तिबोध ने सिर्फ नेमीचंद जैन के नाम पत्र भी लिखा होता है तो भी वे इतने ही महत्वपूर्ण होते.
मैंने जब मुक्तिबोध की कविताएं पढनी शुरू की तब हिंदी साहित्य से मेरा परिचय बहुत गहरा नहीं था. स्वातंत्र्योत्तर कविता के नाम पर तब तक मैंने रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की ही कुछ कविताएं पढ़ रखी थी. मुक्तिबोध की कविताएं इनसे भिन्न मिजाज़ की थी और वे धैर्य की मांग करती थी. लेकिन उस वक्त मुक्तिबोध का प्रभाव मेरे ऊपर बहुत गहरा पड़ा. मैंने महसूस किया कि मुक्तिबोध की जटिलता महज़ संरचनात्मक उलझन नहीं है, वह पाठकों से एक आन्तरिक तादात्म्य की मांग भी करती है .
थोड़े समय बाद कॉलेज की लाइब्रेरी से मैं मुक्तिबोध रचनावली खंड 6 लेकर आया और उसे पढ़ने लगा. उसमेंं मुक्तिबोध की इतिहास और संस्कृति वाली पुस्तक और उनके पत्र थे . मुक्तिबोध के पत्रों को मैंने कई बैठकों में किसी उपन्यास की तरह पढ़ना आरम्भ किया.वहां निजता का एक बेहद पवित्र आख्यान मौजूद था . पत्रों के रास्ते मुक्तिबोध का आंतरिक संसार मेरे समक्ष खुला . मुक्तिबोध का आन्तरिक जगत एक बीहड़ की तरह था , वहां एक घना अँधेरा था . लेकिन उस अँधेरे में रास्ता टटोलते मनुष्य की खटपट मौजूद थी. यह ध्वनि मेरे लिए मुक्तिबोध को समझने की पहली कोशिश थी. मुझे महसूस होने लगा कि पाठक के तौर पर मैंने कुछ ठोस अर्जित किया है. पत्रों को पढ़कर मैंने यह भी जाना कि लेखक के जीवन का उसकी रचना से उसकी कल्पना और विवेक निर्माण से कितना गहरा सम्बन्ध हो सकता है.
विज्ञान में हर स्थिति के संदर्भ में आदर्श स्थिति की परिकल्पना को विकसित किया जाता है. ऐसे में वास्तविक व्यवहार में विचलन को समझ पाना और उसे गुणात्मक रूप से व्यक्त करना आसान हो जाता है .इस तरह सिद्धांत और व्यवहार के मध्य एक उबड़-खाबड़ ही सही रास्ता विकसित होने लगता है. मुक्तिबोध को मैं उसी आदर्श स्थिति के तौर पर देखता हूँ. वे मुझे मेरे अवचेतन तक ले जाते हैं यह सिर्फ मेरा अवचेतन नहीं है मेरे भीतर मौजूद मेरे समाज का अवचेतन भी है.
मनुष्य का आन्तरिक संसार बेहद जटिल है, लेखक एक चाभी का गुच्छा है जिनसे उन जटिल दरवाज़ों के खुलने की संभावना निर्मित होती है. एक सच्चा लेखक यही करता है. मुक्तिबोध ने मेरे लिए कई दरवाज़ों के ताले खोलें.
लेखक आत्मा का डॉक्टर है –यह बात मुक्तिबोध को पढ़कर ठीक-ठीक समझी जा सकती है .मैंने मुक्तिबोध को जब जब पढ़ा मेरा स्व के साथ नये स्तर पर संवाद स्थापित हुआ. जब आप खुद से बात करने लगते हैं तो गिरहें खुलने लगती है. निजी का एक सार्वजनिक स्वरुप विकसित होने लगता है.
मुक्तिबोध के संदर्भ में अक्सर कहा जाता है कि वे कठिन हैं , दुरूह हैं. तो क्या दुरुहता या कठिनाई को दुर्गुण की तरह देखा जाना चाहिए .फिर जीवन को हम किस तरह देखें ? उसकी जटिलताओं का क्या करें. इस दुनिया और इस समाज का क्या करें ? लेखक जटिलता या दुरुहता की खोज नहीं करता , वह सच्चाई की तलाश करता है . वह अपनी आत्मा के बीहड़ से समाज के बीहड़ तक लगातार आवाजाही करता है.
मुक्तिबोध लगातार जीवन को लिखते हैं . मुक्तिबोध के लिए लिखना और जीवन जीना दो भिन्न क्रिया नहीं है. वह एक दूसरे की प्रतिक्रिया भी नहीं है .मुक्तिबोध लेखन को और जीवन को एकमेक करते हैं. उनके यहाँ साहित्यिक –गैर साहित्यिक जैसी कोटि नहीं है . उनकी डायरी और उनकी कविता, उनकी आलोचना और उनकी कहानी सब एक दूसरे से गहरे जुड़े हैं. डायरी का सार्वजानिक स्पेस और कविता का निजी स्पेस एक दूसरे में घुल मिल जाते हैं.
मुक्तिबोध को बहुत योजनाबद्ध तरीके से नहीं पढ़ पाता, आप उनकीं कविता के किसी टुकड़े के साथ कहानी का कोई अंश पढ़ सकते हैं. वहां निष्कर्षों का होना न होना कोई बहुत अनिवार्य शर्त नहीं है. जरूरत है सतत गतिशीलता की. मुक्तिबोध के लेखन में मौजूद यह सतत गतिशीलता पाठकों के साथ एक नया जैविक सम्बन्ध बनाती है .
मेरे लिए मुक्तिबोध का एक अर्थ यह भी है कि अपने भीतर अपने गहरे अँधेरे में जाऊं. 1964 के ‘अँधेरे में’ नहीं अपने समय के अँधेरे में. वहां खुद को टटोलकर अपने अस्तित्व को पहचानूँ और फिर आत्मा की स्लेट पर आड़ी-तिरछी इबारतों से अपने समाज को लिखूं. मुक्तिबोध को पढ़ते हुए मैंने जाना कि लेखक का काम अस्तित्व और समाज के बीच एक ऐसे पुल की तरह है जिसपर से कठिन वक्त अपने फौजी बूटों की खटखट के साथ गुजरता है. अक्सरहां तो लेखक का आत्म नष्ट हो जाता है, लेकिन मुक्तिबोध सरीखे लेखक उन बूटों से उभरे ज़माने के दाग दिखलाते हैं और चेतना बनकर समय की भाप में मौजूद रहते हैं. मैं उस भाप की संघनित एक बूँद द्रव्य होना चाहता हूँ.

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