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हिंदी कविता में हिंदुत्व का प्रिस्क्रिप्शन

“दुर्भाग्यवश, हिंदी-साहित्य के अध्ययन और लोक-चक्षु-गोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने ऊपर लिया है, वे भी हिंदी साहित्य का संबंध हिंदू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं….(कि हिंदी साहित्य) एक निरंतर पतनशील जाति की चिंताओं का मूर्त प्रतीक है, जो अपने आपमें कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता.” – हजारीप्रसाद द्विवेदी,

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अभी ‘हिंदी कविता’ (HINDI KAVITA) के फेसबुक लाइव में चिकित्सक संजय चतुर्वेदी का व्याख्यान प्रसारित हुआ. इस व्याख्यान का विषय था – ‘साहित्य की राजनीति और कविता का वर्तमान.’ यहां कविता से आशय हिंदी कविता से था. विशेषतः हिंदी पट्टी की कविता से. पूरे व्याख्यान की तार्किक और भाषिक संरचना गर्हित शब्दावली से संपन्न है. चूंकि विषय में राजनीति शामिल थी. इसलिए उसके संदर्भ में, व्याख्या-विश्लेषण में जिस तरह के शब्द और टोन का इस्तेमाल संजय चतुर्वेदी ने किया. वह आज की राजनीति के उसी संघी शब्दकोश का हिस्सा है जिसने हिंदू संस्कृति, सभ्यता, मनीषा आदि के विकास का, न्यू इंडिया का एजेंडा फैला रखा है।

संजय चतुर्वेदी ने अपने इस व्याख्यान के द्वारा हिंदी कविता में हुनर, भाषा और पदलालित्य की वापसी के नाम पर ‘इंटेलेक्चुअल लफंगई’, ‘इंटेलेक्चुअल चाइल्ड अब्यूज’, ‘मुनरिका कलारी’, ‘देशी-कच्ची शराब’, तू-तड़ाक वाली शैली का इस्तेमाल करते हुए आचार्यत्व का दावा पेश कर दिया है।

संजय चतुर्वेदी ने इन शब्दों का इस्तेमाल जिस गर्व, निष्ठा और विजय के भाव के साथ किया. वह सोशल मीडिया पर हिंदुत्वा की राजनीति के विरोधी बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार आदि के खिलाफ रोज देखने को मिलता है. क्या इसी परिदृश्य का कमाल नहीं है कि ‘विरेचित’ (अरस्तू) व्याख्याता ने उद्घोष किया कि सारी समस्या की जड़ में हिंदी पट्टी के लेखकों आलोचकों का विधर्मी हो जाना है ! उन्होंने कहा, “ये जितने धार्मिक संभार हैं ये सांस्कृतिक संभार जब हम (इन) सांस्कृतिक संभार, इनसे अपने आपको अलग कर लेंगे तो हमारी हालत कुछ वैसी हो जाएगी…उस तीमारदार की जो जबरदस्ती अपने मरीज को, अगेंस्ट मेडिकल एडवाइज अस्पताल से भगा ले जाता है और 400 मीटर जाने के बाद उसकी पीठ में छुरा भोंकता है. दायीं किडनी निकालता है और नाली में फेंक देता है…” पता नहीं डॉक्टर साहब ने यह रूपक कहां पाया है. मैंने तो आज तक ऐसा तीमारदार नहीं देखा है. हो सकता है वह तीमारदार संजय जी द्वारा लिखे गए ‘प्रिस्क्रिप्शन’ के अनुसार धार्मिक संभार वाला न हो. तब तो उसे ऐसा होना ही है.

यहां सवाल उठता है कि क्या केवल धार्मिक संभार ही सांस्कृतिक होते हैं। गैरधार्मिक संभार की कोई भी संस्कृति नहीं होती और भारत में क्या ‘हिंदू मनीषा’ ही एक मात्र संस्कृति है जिसके क्षरण से संजय चिंतित हैं. इसी देश में बौद्ध, जैन, लोकायत मनीषा भी मौजूद रही है. क्या वह भारतीय मनीषा का हिस्सा नहीं है. इस प्रकार तो भारत में अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन भी विधर्मी के खांचे में आएगा क्योंकि हिंदू धार्मिक संभारों का विरोध, भारत के अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन के मूल में रहा है. अतएव यह कहना कि समस्या की जड़ हिंदू मनीषा के विरोध की है – एक दम गलत बात है. अगर इसे मान लिया जाए तो पूरा का पूरा दलित समुदाय ही अभारतीय हो जाएगा. यहां विधर्मी की परिभाषा में पेंच है। दरअसल विधर्मी होना अभारतीय होना है। यही कारण है कि संजय भारत के वर्तमान दलित और स्त्री आंदोलन के स्वरूप व विकास को ही खारिज कर देते हैं। (जबकि ये आंदोलन अपने वैश्विक नजरिए की वजह से ही आज इस मुकाम तक पहुंचे हैं.) संजय इनके देशीपन पर बल देते हैं। वास्तव में देशीपन का नजरिया उस अभारतीयता के विरोध पर फलता-फूलता है जो हजारो-हजार साल वाली संस्कृति से नाभिनालबद्ध तथाकथित भारतीयता को नष्ट कर रहा है।

इस संजय-दृष्टि से यह स्थापित किया गया है कि देश में जो कुछ है वह ‘हिंदू बनाम हिंदू’ है या हो सकता है। दूसरे किसी विचार, संस्कृति की उसमें कोई जगह ही नहीं है। इसमें कोई शक नहीं इस विमर्श की जड़ में बहुसंख्यकवाद है। भारत में हिंदू बहुसंख्यकवाद के एक प्रवक्ता गोलवलकर ने भगत सिंह और उनके साथियों को भटका हुआ कहा क्योंकिं ये साम्यवादी विचार के समर्थक थे। जो गोलवलकर के लिए, संजय जी की ही तरह, एक विदेशी विचार था. हिंदुत्वा के सिद्धांतकार सावरकर इसी अभरतीयता को ही पितृभूमि संबंधी अपनी अवधारणा से व्यक्त करते हैं जो पुण्यभूमि के मुकाबले दोयम दर्जे का है।

सावरकर की पितृभूमि और पुण्यभूमि की अवधारणा के पीछे इस्लाम का धुर सांप्रदायिक विरोध है। गोलवलकर और सावरकर की दोनों बातों को मिलाएं तो निष्कर्ष यही निकलता है कि मुसलमान और वामपंथी भारतीयता के शत्रु हैं। ये अभारतीय हैं। विदेशी हैं। अतएव हिंदू मनीषा के लिए खतरा हैं तथा हिंदू मनीषा के उत्थान के लिए इनका शिरोच्छेद जरूरी है। इसके लिए लड़ाई का जो मैदान तैयार किया गया है वह जेएनयू है. मैदान भी जेएनयू है और शत्रु भी. कैसा अद्भुत पदलालित्य है!

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इसी हिंदू मनीषा के इस कांसेप्ट से संजय न केवल हिंदी कविता को देखते हैं बल्कि भाषाओँ के ऐतिहासिक विकास को नजरंदाज कर देते हैं. उनका कहना है कि “हिंदू मनीषा को हटा दीजिए हिंदी कविता से तो संस्कृत कविता गई. पालि-प्राकृत बिना कुछ हाथ-पैर के रह जाएगी. भक्तिकाल लगभग गया. कबीर भी चले जायेंगे. रीतिकाल और छायावाद तक गया. और विचार करिए निराला और मुक्तिबोध भी चले जाएंगे अगर हिंदू मनीषा चली गई. मुक्तिबोध का जो पदलालित्य है, आपको शायद आपत्तिजनक लगे यह शब्द, मुक्तिबोध में एक पदलालित्य है जिस पर मुक्तिबोध चलते हैं, वह हिंदू मनीषा का रहस्यवाद है. निराला से अगर तुलसीदास हटा देंगे आप, तो एक निराला एक औसत कवि रह जाएंगे. छोटे मुंह बड़ी बात कह रहा हूं….हिंदू मनीषा को हटाकर आप क्या नींव हटा रहे हैं अपने घर की? क्या बचेगा फिर?” इस कथन से ऐसा लगता है कि संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाएं एक ही मनीषा – हिंदू मनीषा की अभिव्यक्ति हैं क्योंकि ये हिंदू मनीषा के संभारों की वाहक हैं. लेकिन क्या यह सच है! पालि-प्राकृत तो क्या स्वयं पूरा का पूरा संस्कृत साहित्य भी हिंदू संभारों का संवाहक नहीं है.

जैन रचनाकार द्वारा संस्कृत में लिखा गया ‘धूर्तोपाख्यान’ इसका बहुत रोचक उदाहरण है. जिसमें जैन रचनाकार पौराणिक धूर्तता को इस तरह रेखांकित करता है, “हम सब धूर्त इकठ्ठे होकर जिसने जो सुना और अनुभव किया, उसे बताएँ. हममें से प्रत्येक के किस्से पर जिसे विश्वास न हो, जो असत्य वचन माने, उसे हम सबको भात-पानी देना पड़ेगा. जो पुराण, महाभारत और श्रुति के वचनों के आधार पर उस किस्से को सही सिद्ध करके सबको सबसे अच्छी तरह उसकी सत्यता का विश्वास दिला देगा, वह हम धूर्तों में सबसे बली और बुद्धिमान कहा जाएगा, उसे किसी को कुछ भी नहीं देना होगा.” फिर सभी धूर्त मिल कर पुराण, महाभारत और श्रुति सम्मत प्रमाणों से अपनी धूर्तता को प्रमाणिक साबित करने के उपक्रम में लग जाते हैं.

पालि तो घोषित रूप से बौद्धों की भाषा रही है. संस्कृत साहित्य में संस्कृत पुरुषों और प्राकृत स्त्रियों और सेवकों की भाषा है. अपभ्रंश भाषा का इस्तेमाल करने वाले वज्रयानी बौद्ध सिद्ध तो हिंदुओं की जाति-पांति, आचार-विचार संबंधी नैतिकताओं से न केवल मुक्त रहे हैं बल्कि उनके प्रबल विरोधी भी रहे हैं. कबीरदास भी हिंदू मनीषा के कवि नहीं हैं. कमाल की बात है कि अब भी कबीर के प्रेत को जलाने या दफ़नाने का झगड़ा जारी है. मुक्तिबोध की कविताओं में पदलालित्य संबंधी नवीन रहस्यवाद की खोज एक अद्भुत खोज है.

आचार्य शुक्ल ने जायसी के रहस्यवाद पर विचार करने के क्रम में स्पष्ट किया है कि रहस्यवाद अद्वैतवाद को बरतने की पद्धति है. जबकि मुक्तबोध अद्वैतवाद के चिंतक नहीं हैं. वे मार्क्सवादी पद्धतियों के हामी हैं. आचार्य शुक्ल ने “भूत प्रेत की सत्ता मानकर चलनेवाली भावना” के रहस्यवाद का उल्लेख किया है (आचार्य शुक्ल की रहस्यवाद संबंधी मान्यताओं को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वे इसे कोई अच्छी चीज मानते रहे होंगे). यदि मुक्तिबोध के द्वारा कविताओं में इस्तेमाल किए गए – भूत, प्रेत, ब्रह्मराक्षस – जैसे शब्दों के आधार पर उन्हें रहस्यवादी कहा जा रहा है तो मुक्तिबोध का बेड़ा गर्क ही समझिए. संजय का निराला संबंधी वक्तव्य फिजूल है. इसे फतवेबाजी से अधिक नहीं समझना चाहिए.

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संजय चतुर्वेदी अपनी हिंदू मनीषा के विचार को कविता में आरोपित करने के लिए हुनर, भाषा, छंद, पदलालित्य जैसे काव्यशास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावलियों का सहारा लेते हैं. उन्होंने हिंदी कविता के उत्थान का एक आसान नुस्खा सुझाया है कि हुनर और भाषा की वापसी हो. दरअसल हुनर और भाषा की वापसी की बात कहते हुए वे कथ्य अर्थात् विचार तत्त्व को हकाल देते हैं. मतलब यह है कि भले ही संजय चतुर्वेदी सांप्रदायिक कविता लिखें लेकिन अगर उसमें हुनर है. भाषा का उक्तिवैचित्र्य है. लालित्य पदावली है. तो उसे हिंदी कविता में समादृत कर लिया जाए. भले ही वह कविता प्रतिक्रिया वादी हो.

वैसे भी वापसी का उनका यह मुहावरा नया नहीं है. वह अशोक वाजपेयी के लेख ‘कविता की वापसी’ से लिया गया एक पिटा हुआ मुहावरा है. आशोक वाजपेयी ने इसका प्रयोग साम्प्रदायिक अर्थ में नहीं किया है. लेकिन उसमें नया बढ़ाव यह है कि संजय जी ने साम्प्रदायिकता को जोड़ दिया है. हुनर और भाषा की वापसी की प्रस्तावना इसलिए भी है कि खुसरो और इकबाल को कैसे हिंदी पट्टी की कविता में फिट किया जाए क्योंकि ये ‘मुस्लिम मनीषा’ के कवि है. संजय जी यह भी प्रस्तावित करते हैं खुसरो सेक्युलर (वामपंथी) लोगों के पेशवा कवि हैं. चूंकि खुसरो ने पांच मुसलमान राजाओं की तेगजनी, गर्दनजनी की प्रशंसा की है. इसलिए ये सब हिंदी कविता की मूल चेतना ‘हिंदू मनीषा’ के खिलाफ है. मजेदार बात यह है कि वे सूफी परम्परा के प्रमुख कवि जायसी को रेखांकित नहीं करते क्योंकि जायसी का प्रमुख ग्रंथ पद्मावत में हिंदू जीवन का चित्रण है. इसलिए संजय का एजेंडा वहां फिट नहीं हो सकता.

आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ के प्रकरण चार में खुसरो के बारे में कहा है कि उनकी कविता में “जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे-सुने जानेवाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है.” यहां सिर्फ भाषा की ही बात नहीं है बल्कि उस लोक संवेदना पर भी बल है जिसे खुसरो ने दर्ज किया था. उनका लोक रंजन ही उन्हें हिंदी कविता के भीतर समादृत करता है. न कि सुलतानों की प्रशंसा में लिखी गई पुस्तकें. खुसरो एक दरबारी थे. वे अपनी सरकार के मुलाजिम थे. ठीक उसी तरह जिस तरह भूषण, बिहारी इत्यादि अन्य रीतिकालीन कवि थे. अतएव उनको अपने स्टेट/आश्रयदाता की प्रशंसा में तो लिखना ही था. वे चाहे जैसे हों. अभी तो लोग खुसरो के जमाने के मुकाबले इतने तरक्कीपसंद दौर में भी आवाज नहीं उठा सकते हैं.

इक़बाल की शायरी को भी संजय इसी नज़रिए से देखते हैं. इक़बाल की शायरी को वे मात्र पदलालित्य की दृष्टि से कविता की परिधि में उपयोगी पाते हैं. प्रेमचंद ने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के मंच से दिए गए ‘साहित्य का उद्देश्य’ शीर्षक भाषण में तीन बार इकबाल को उद्धृत किया है और इक़बाल पहला उद्धरण है साहित्य के कर्म क्षेत्र में उतरने के लिए, न कि साहित्य में लालित्य की खोज के लिए. जिन लोगों ने प्रेमचंद का यह भाषण देखा है वे जानते हैं कि यह पदलालित्य के लिए नहीं बल्कि मानव जीवन में बदलाव के अर्थ में साहित्य के समाजवादी सौंदर्यशास्त्र की प्रस्तावना है. अगर हम संजय जी के प्रतिमानों के आधार पर तुलसीदास, जो उनके लेखे हिंदू मनीषा के श्रेष्ठ कवि हैं, को लालित्यवादी  प्रतिमानों से पढ़ने की कोशिश करें तो तुलसी को नहीं पढ़ सकते. तुलसी की निम्नलिखित पंक्तियों के आशय को क्या सिर्फ पदलालित्य, भाषा और छंद  के आधार पर हृदयंगम किया जा सकता है – “खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि / बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी / जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस / कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?”

आज महामारी के इस दौर में ये पंक्तियां इसलिए हमारी अपनी बात लगती हैं क्योंकि कवि ने वर्ग सत्य को जगह दी है. संजय जी की गैरऐतिहासिक, आदर्शवादी पद्धति से  अगर हम तुलसी को पढ़ने लगें तो या तुलसीदास को राममंदिर आंदोलन के कवि की तरह पढ़ेंगे अथवा ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ (विश्व विजय प्राइवेट लिमिटेड प्रकाशन, नई दिल्ली) की तरह. साहित्य की इसी प्रतिगामी पढ़ंत की वजह से नाजियों ने शेक्सपीयर के नाम की माला जपी थी क्योंकि शेक्सपियर ने अपने नाटक ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस’ में शायलाक ( Shylock), जो यहूदी है और क्रूर सूदखोर है, का जो चित्रण किया है वह नाजियों के एजेंडे में फिट बैठता है. क्या शेक्सपीयर को पढ़ने का यह सही तरीका है ? क्या शेक्सपीयर की प्रशंसा सिर्फ इस लिए होने चाहिए कि वह अंग्रेजी को गोरों के अंग्रेजीदां अंदाज को बरत सकते हैं और हिंदी का कवि वैसी अंग्रेजी का चार शुद्ध वाक्य भी नहीं लिख सकता अतः उसकी कविता बेकार है. वस्तुतः संजय जी एक गैरऐतिहासिक नजरिए से साहित्य को व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए उनके पूरे व्याख्यान में एक गोल दृष्टिकोण मिलता है जिसका न कोई ओर है या छोर.

संजय चतुर्वेदी ने पूरे व्याख्यान में ‘गोल-गोल चक्करदार’ घूमते हुए साहित्य में हुनर, भाषा, छंद की घर वापसी अभियान के बहाने हिंदूवादी नुस्खा तैयार किया है. उनका हुनर व ललित इसी वाद का संवाहक है. उनकी चिंता यह है कि येनकेन प्रकारेण विचार तत्त्व को कविता से निकाल बाहर किया जाए. हिंदू मनीषा के पुरातन बरगद तले मुस्लिम और इसाई मनीषा के पौधे को भी दिखावटी जगह दे दी जाए; जिससे वे स्वत: मर जाएंगे. संजय अनुष्टुप छंद के महत्त्व का उल्लेख ऐसी गलदश्रु भावुकता के साथ करते हैं कि बाल्मीकि से ओमप्रकाश बाल्मीकि तक अनुष्टुप ही अनुष्टुप होना चाहिए. लेकिन मराठी दलित विमर्श ने साफ कहा है कि दलित साहित्य ललित साहित्य के विरोध में है. विचार को, कथ्य को चाहे कितना ही नकारा जाए, वह एक्झिस्ट करता ही करता है. संस्कृत में एक श्लोक है – “आचारहीनं न पुनन्ति वेदा ,यद्यप्यधीता : सह षड्भिरडेः / छन्दांस्येनं  मृत्युकाले त्यजन्ति ,नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा:|” मतलब आचारहीन मनुष्य का छंद (वेद) भी साथ छोड़ देते हैं.

अंत में यह बात कह देना उचित समझता हूं कि संजय ने अपनी भाषा में जिन अरबी-फारसी, वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावलियों (मसलन- मालीक्यूल, निहारिका, प्रकाशवर्ष वर्महोल, रिबूट आदि) का प्रयोग किया है वे भाषा की हुनरमंदी का एक अच्छा उदहारण हैं. जिससे बात सेक्युलर और वैज्ञानिक लगे. आखिर हुनर की वापसी का यही तो मतलब है.

(लेख में प्रयुक्त पेंटिंग प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक की है)

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