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मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ: ज़िंदगी मुख़्तसर सी मिली थी हमें, हसरतें बेशुमार ले के चलें !

यह ‘लैला'(कल्कि कोचलिन)की दुनिया है।लैला यानी ‘सेरेब्रल पॉल्सी’ की शिकार।वह शतरंज खेलती है।फेसबुक चलाती है। संगीत सुनती है। धुने बनाती है। डांस भी करती है। ज़माने भर की नज़र में वह ‘एबनॉर्मल’ है,लेकिन अपने दोस्तों के लिए ‘रॉकस्टार’ है।
कहते हैं, प्रतिभा अक्षमता और सक्षमता में भेद नहीं करती।सोनाली बोस निर्देशित ‘मार्गरिटा विद ए स्ट्रा’ एक ऐसी ही लडकी की कहानी है,जो जिंदगी को जीने में यकीन रखती है। ठीक उसी तर्ज पर कि ‘ जिंदा तो बहुत लोग होते है पर जीते बहुत कम लोग है।
लैला एक आज़ाद ख्याल लड़की है। वैसे, उसका परिवार भी बहुत छोटा है। ‘पैरेंट्स’ और एक भाई। प्रगतिशील विचारों की ‘आई'(रेवती) मां की भूमिका में है। वह एक विचारवान महिला है। उनमें अपनी बेटी के प्रति कोई हीनभावना नहीं है। फ़िल्म में वह लैला की मां कम,दोस्त ज्यादा लगती हैं। अपने इस किरदार में रेवती ने प्रतिश्रुत स्त्री-चेतना को न केवल प्रतिबिंबित किया है, बल्कि यह बताने का प्रयत्न भी किया है कि अब स्त्री उपेक्षिता नहीं रही।
दिल्ली के रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली लैला निर्भीक एवं बोल्ड है। रचनात्मक कौशल और विचारों से परिपक्व। प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करने वाली। एक दृश्य में, कॉलेज फंक्शन के पुरस्कार वितरण समारोह में लैला का परिचय ‘शारीरिक रूप से अक्षम’ बताकर दिया जाता है, तो वह संकेतों में इसका प्रतिरोध करती है और ट्राफी लेने से मना कर देती है। तो क्या लैला सामान्य लड़की नहीं है?
समाज उसे ‘व्यक्ति विशेष’ की श्रेणी में लाकर क्यों खड़ा करता है? मैं लैला को सामान्य मनुष्य की तरह देखता हूँ। सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं से लैस। विचार और तर्क से बुने।
इस फ़िल्म की नायिका स्वयं को खांचे में बांटकर देखने की आग्रही नहीं है। कोई भी स्त्री अपने व्यक्तित्व को मुल्तवी करके देखना पसंद भी नहीं करती है। वह केवल ‘मनुष्य’ है और तथाकथित समाज से उसे यही अपेक्षाएं भी होती है। लेकिन अपनी गझिन बुनावट में समाज के महीन धागे खुली आंखों से भी दिखाई नहीं देते। चूंकि,लैला एक स्त्री है, तो कामनाएं और तरंगे उसके देह में भी उभरते हैं। वह बाज़ार से ‘वाइब्रेटर’ खरीदना चाहती है। अपने अंतरंग दोस्त को चूमना चाहती है। अपने देह के उताल ताप को महसूस करना चाहती है। स्त्री-देह का भी अपना एक मनोविज्ञान होता है। निर्देशक ने बड़ी खूबसूरती से इसका चित्रण किया है।
लैला की जिंदगी में जबरदस्त मोड़ न्यूयार्क जाने पर आता है। उच्च शिक्षा के लिए वह विदेश जाती है। यहां उसकी मुलाकात पाकिस्तानी लडकी ‘खानुम'(सयानी गुप्ता)से होती है। खानुम लेस्बियन है। उसके भीतर का समंदर हिलोरे मारता है और वह अपने देह की अतृप्ति को लैला के माध्यम से पूरा करना चाहती है। यहीं से लैला के चरित्र का एक नया अध्याय शुरू होता है। उसे पता चलता है कि वह ‘बाई सेक्सुअल’ है।
लैला अपने बाईसेक्सुअल होने को सेलिब्रेट करती है। उसके भीतर रंच मात्र भी हीनभावना नहीं आती है। प्रकृति प्रदत्त अपनी सेक्सुअलिटी के साथ जीना उसे रास आता है। खानुम के साथ पनपे संबंध को वह शिद्दत से महसूस करती है। हद से बेहद तक की यात्रा तय करती है। मुझे यहां इस्मत चुग़ताई की कहानी ‘लिहाफ’ और ‘डेढ़ इश्किया’ की मुनिया और ‘बेगमपारा’याद आ रही हैं।
बहरहाल! लैला के लिए ये समय खुद को समझने का मौका है। कबीर के शब्दों में कहूं तो ‘स्वसंवेद ज्ञान’। लैला अपनी देह को समझती है और मां से सवाल करती है क्या ‘बाई सेक्सुअल’ होना अक्षमता का प्रतीक है? क्या सृजन के लिए उत्कण्ठित क्षणों में स्त्री वह सब कुछ हासिल करती है, जिसकी वह हकदार है? मां खामोश है।आखिर,वह भी तो एक स्त्री है।फिल्म अपने लय और गति से आगे बढ़ता है। सन्नाटों का सफ़र।
उपन्यास सरीखी यह फिल्म अब तीन स्त्रियों पर केन्द्रित होती है। लैला, आई और खानुम। कोलोन
कैंसर अपना दूसरा स्टेज पार कर चुका है। ‘आई’ हॉस्पिटल में है। अब बेटी मां की भूमिका में आ गई है। लैला के जीवन से आई की रुखसती। दुःख की लंबी घड़ी। मां-बेटी के नायाब रिश्तों और स्वस्थ संवादों के लिए इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए। संबंधों में लोकतांत्रिकता और पारदर्शिता के लिए भी।
हिंदी सिनेमा में कथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने वाले निर्देशकों को इस फिल्म से सीखना चाहिए। मां की मृत्यु पर लैला स्वयं के द्वारा गाया शास्त्रीय संगीत सुनती है अर्थात सुरों के द्वारा श्रद्धांजलि।
बेशक! जिंदगी में खालीपन है। संघर्षों की लंबी दास्तान है। गम और खुशी की जद्दोजहद है, लेकिन राग-विराग, रंग-बेरंग, रोशनी-अंधेरा उसे भरने की कोशिश भी करते हैं। जीवन और मृत्यु का अबूझ भय आखिर कब समाप्त होता है? क्या मृत्यु जीवन को परिभाषित करती है? क्या सिनेमा भी दुःख की महागाथा है? कई सवाल जेहन में एक साथ दस्तक देते है। सकारात्मकता एवं ऊर्जा से भरपूर यह फिल्म नए ढंग से जीवन को देखने के लिए प्रेरित करती है।
अन्तिम दृश्य में लैला ‘डेट’पर जाती है, मगर किसी के साथ नहीं।अकेले खुद को सेलिब्रेट करने के लिए। अपने स्त्री होने का उत्सव। स्त्रीत्व की तमाम परिभाषाओं से परे। शायद, जिंदगी भी ‘मार्गरिटा’ की तरह ‘कॉकटेल’ है। गम और खुशी के खुशनुमा स्वाद जैसा। वह ‘मार्गरीटा’ का ‘स्ट्रा’ से धीमे- धीमे स्वाद लेती है। बेख़ौफ और जिंदादिली के साथ।जीवन के खट्ठे -मीठे अनुभवों की तरह ।

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