समकालीन जनमत
जनमतसिनेमा

‘ चारुलता ‘ की मार्फ़त सत्यजित राय की सिनेमाई नज़र पर कुछ गुफ़्तगू

तुम उसका जिस्म जीत लो,वह मन कहीं छोड़ आएगी !’
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(संदर्भ: चारुलता की मार्फ़त सत्यजित राय की सिनेमाई नज़र पर कुछ गुफ़्तगू )
अजीब पशोपेश में हूं। महान फिल्मकार से कैसे संवाद करूं ? जमीन पर खड़ा मैं,शिखर पर सत्यजित राय और उनका सिने – संसार। काफी फासला है दर्शक और निर्देशक के बीच और फासला भी कई अर्थों में, जैसे मैं ठेठ उत्तर- भारतीय और राय मूलतः बांग्ला निर्देशक, जैसे मैं गंभीर सिनेमा से कतराता हूं, राय की ज्यादातर फ़िल्मे गंभीर है, जैसे राय समन्दर हो और मैं साहिल पर खड़ा आगंतुक। संवाद के सूत्रों की पड़ताल में सिरे नदारद हैं ।संवाद नहीं होगा तो संबंध भी नहीं पनपेंगे और संवेदना भी नहीं होगी, फिर भी एक साहित्यिक व्यक्ति के सरोकार कई दिशाओं में फैले होते हैं ।
सृजन का एक सच यह भी होता है कि वह जिंदगी के अनछुए पहलूओं और उलझनों को उजागर करता है।
सिनेमा का जिंदगी से ताल्लुकात बहुत गहरा है। मन के बंद अंधेरे कमरों में सेंध लगाना आसान काम नहीं, क्योंकि यहां सुर्ख और स्याह दोनों रंग मौजूद है। जानिसर अख़्तर ने ऐसे ही नहीं कहा होगा कि,’ समझ सको तो समझ, जिंदगी की उलझन को /सवाल इतने नहीं है, जवाब जितने हैं।’ सवालों से मुठभेड़ के इस वक़्त में सिनेमा के रवायतों और रियायतों को समझना चुनौतीपूर्ण है। ऐसे समय में मास्टरपीस फिल्मकार सत्यजित राय की ‘ चारुलता ‘ को देखना, समझना और लिखना न सिर्फ सिनेमा की बारीकियों से वाक़िफ होना है बल्कि किरदारों के अन्तर्जगत में प्रवेशकर रुमानी दुनिया से मुक्ति और आत्मसंघर्ष की पड़ताल है।
मुझे ‘चारुलता’ को समझना है। लगभग टेक्स्ट की तरह ।कथानक, अभिनय, रंग, दृश्य और संवाद से साझा रिश्ता कायम करना है। क्या संभव है ? बेशक ! पूरे आसमान को बाहों में समेटना संभव नहीं लेकिन किसी एक सिरे को पकड़कर बात जरूर की जा सकती है।तो आइए, सिने – कला की दृष्टि से ‘चारुलता’ के विविध शेडस को देखने का प्रयास किया जाए ।
                             (1)
जोखिम के बीच करती हूं प्यार का आविष्कार बनाम इश्क़, इबादत और अदब !
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इश्क़ इबादत की आवाज है । इश्क़ बहता दरिया है। इश्क़ हवा है। पानी है । लेकिन क्या प्रेम हमें आगाह करके होता है ? सत्यजित राय की फिल्म ‘चारुलता’ में चारु ( माधवी मुखर्जी ) को यह कब अहसास होता है कि वह अमल ( सौमित्र चटर्जी ) से प्रेम करने लगी है।
चारु बगीचे में है और बाइनाकुलर से आस – पास की चीजों को देख रही है ।दिन के खाली वक्त में जब कोई काम नहीं होता तो वह शौकिया बाइनाकुलर (ऑ पेरा ग्लास ) से अपना मन बहलाती है। हालांकि, सिनेभाषा में यह रूपक सत्यजित राय ने सबसे पहले सोचा है,जो त्रूफो के ‘ फॊर हंड्रेड ब्लोज ‘ से अधिक प्रभावी है ।
बहरहाल, फिल्म मेट्रो में नफीसा अली भी स्वीकार करती है कि – ‘प्रेम दस्तक देकर नहीं होता है।’  यहां चारुलता के प्रेम का कारण अमल नहीं, बंकिमचंद्र हैं। आ गए न सकते में ?हैरानी तो मुझे भी है। किताबों की दुनिया से उमड़ता प्रेम मुझे बहा लेना चाहता है।
दरअसल, अदब की दुनिया कुछ ऐसी ही होती है।यहां बंकिमचंद्र एक मार्फ़त हैं। कहीं न कहीं सत्यजित राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र में एक कड़ी जुड़ती है । सत्यजित राय ने रवींद्रनाथ टैगोर की कथा पर चारुलता, तिन कन्या और घरे – बाइरे जैसी फिल्म बनाई है ।याद कीजिए 1880 का जमाना । उस समय की आबोहवा में बंकिम की गंध पैठ गई थी ।बंगाली समाज और देश के अन्य कोनों में अपनी स्वाधीन चेतना के कारण उनकी गूंज हर जगह सुनाई देती है ।
चारुलता में भी बंकिम एक मोटिफ की तरह नज़र आते हैं । एक अलसाई दोपहर में जब चारु बंकिम गुनगुनाती, बंकिम की ही एक किताब खोज रही है और अमल जब भूपति की हवेली में प्रवेश करता है, तो बंकिम चन्द्र की एक पंक्ति को दोहराता है। चारुलता में ऐसे कई अंतर प्रसंग हैं,जिससे चारुलता के बौद्धिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
वह जहीन है और पारखी भी ।प्रेम भी करती है और दाम्पत्य को सहेजकर रखना भी चाहती है ।तमाम पत्र – पत्रिकाएं भी पढ़ती है । पति के ख्याल का भी उसे पूरा भान है ।लेकिन फिर वही बैतालिक सवाल ! आखिर कितने दिनों तक अमल और अपने रिश्तों की पोटली वह सुरक्षित रख सकेगी? जब स्मृतियों की घटाटोप छाएगी, तो वह किस सहारे अपनी शख्सियत को बचा पाएगी? अमल उसके लिखने की कला पर फ़िदा है ।वह उसे किताबों के नाम भी सुझाता है। चाहता है कि चारु का सरोकार निरंतर पढ़ने – लिखने की दुनिया से बना रहे ।सवाल यह है कि आखिर कितने पुरुष है ,जो स्त्री को ज्ञान की दिशा में ले जाते हैं ?
इस त्रिकोण में अमल अपने प्रति चारु आकर्षण से भयभीत है ।अब वह भूपति – चारु के घर ठहरना नहीं चाहता और एक रात ख़त लिखकर चुपचाप चला जाता है । भूपति (शैलेन मुखर्जी ) चारु के दुख को समझ जाते हैं और उस अनाम रिश्ते को महसूस कर लेते हैं । उनके सपनों का महल जैसे भरभराकर ढह जाता है।कथा में मोड़ एक और तरीके से भी आता है। जब चारु के रिश्ते का भाई और उसकी पत्नी,जिसे भूपति ने अपने प्रेस का मैनेजर बनाया था, तिजोरी से सारा पैसा निकालकर गायब हो जाता है। यहां भी विश्वास टूटने पर भूपति की तरह चारुलता भी टूटती है । ‘नष्टनीड ‘ यही है । छोटे – छोटे ताजमहलो में टूट – फूट । फिर भी, जेहन में यह खटक रहा है कि अमल ने पहले ही हथियार क्यों डाल दिया ? क्या संजीदगी और पाकीज़गी के साथ पनपे रिश्तों को निभाना इतना कठिन होता है ?
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शीर्षक कात्यायनी की किताब,कुछ जीवंत,कुछ ज्वलंत से साभार।
                            (2)
जितना बड़ा होता है घर, उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना उर्फ़ कैद से मुक्ति की तड़प !
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क्या अपने बनाए गए इमेज में कैद हो जाना मनुष्य की नियति है ? क्या नियति का नियंता अपनी तकदीर को बदल सकता है ? क्या मनुष्य सिर्फ़ नाम होता है ? ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले’ भले ही आप्तवचन की तरह मुझे झरोखों से सपने दिखा रहा है, मगर सच तो यह है कि मेरी दशा ‘ त्रिशंकु ‘ की तरह हो गई है । जीने की जिद, सपनों की ऊंची उड़ान और खुद ही थक हार कर बैठने का नाम तो ज़िन्दगी कतई नहीं है।
जिंदगी खुले आसमान का नाम है। सच है सपने देखने की हसरत सबके अंदर मौजूद है। चाहे स्त्री हो या पुरुष।स्त्री है तो रास्ते थोड़े कठिन हो सकते हैं। गर विवाहिता स्त्री ने कुछ ख़्वाब बुन लिए तो ? जाहिर है पति रेफरी नहीं बन सकता ।साथी नहीं बन सकता । हां, मालिक जरूर बन सकता है। भूपति मालिक की भूमिका में नहीं मगर हमदर्द, हमनवां भी नहीं है । अख़बार की नौकरी से उसे फ़ुरसत ही कहां है कि पत्नी की इच्छाओं को समझ सके और उसके भीतर लहर भरते उत्ताल हवा को पहचान सके ? शानो – शौकत में जी रही चारुलता का ठसका मालकिन सा जरुर है,लेकिन सच तो ये है कि वह अपनी जिंदगी काट रही है।उसकी तन्हाई, बाइनाकुलर से चीज़ों की पड़ताल,बंगाली पहनावा, केश विन्यास (खासतौर से सजाने का तरीका) मेरे जैसे दर्शक को चकित करता है।मन करता है पूछ लूं, चारु तुम ऐसी क्यों ? विवाह – संस्था के टूटने भय लगातार बना हुआ है।अमल उसका देवर है मगर स्त्री मन को चीन्हना बखूबी जानता है। प्रश्न उठता है कि ऐसे मर्द समाज के किस हिस्से में फिट किए जायेंगे ? परिणीताओं के सहयोग, समभाव और सामाजिकताओं की कसौटी को तय करने का हक़ पितृ सत्ता की निजी थाती है क्या ?
—————————————————————–शीर्षक मदन कश्यप के कविता संग्रह ‘ नीम रोशनी में ‘ से साभार ।
                              (3)
 मौन भी अभिव्यंजना है यानी संवादों के बीच फंसे सच का संधान !
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‘ चारुलता ‘ में सिनेमा की भाषा मुखर है। दरअसल,सिनेमा की भाषा निर्देशक के विचार होते हैं ।जिसे वह कैमरा,दृश्य और संगीत के द्वारा बयां करता है।जहां बिना संवाद व्यक्त किए विचारधारा, संवेदना और दृष्टिकोण व्यक्त किया जाता है। हकीकत तो यह है कि जब तक सिनेमा खामोश था,उसकी सोच भी सुघड़ थी।बकौल,गौतम चटर्जी, ‘ जाने क्या जरूरत थी आलमआरा को बोलने की,या निर्देशक से लेकर दर्शक तक को  आलमआरा को रजत पट पर बोलते देखने की,बोलने के सेल्यूलाइड शोर में फिल्मों ने अपना विषयगत या शिल्पगत मौन तो खो ही दिया, स्त्री भी महज सतह पर आकर बैठ गई। मगर चारुलता सतह पर नहीं, शिखर पर है ।इस बात को समझने के लिए चारुलता के सिनेरियो को समझना जरूरी है । आइए, इस तस्कीद के लिए एक दृश्य पर गौर फरमाते हैं – ‘ फिल्म की शुरुआत में चारुलता रुमाल पर  ‘भ ‘ अक्षर काढ़ रही है।
यह फिल्म का प्रमुख प्रतीक है।आगे चलकर यही प्रतीक चारु और उसके पति के बीच बातचीत का केंद्र बनता है,जिसमें भूपति को चारु के अकेलेपन का बोध होता है ।और अकेलापन भी कैसा ? लगता है,हम निर्मल वर्मा की लतिका (परिंदे कहानी )के इर्द – गिर्द हैं। ऐसा महसूस होता है चारु के साथ हम भी घुट रहे हैं । हमारी सांसे फूल रही है कि चारु एक झटके से इस बंधन से आजाद क्यों नहीं हो जाती है ? यह निर्देशकीय क्षमता का कमाल है कि कैमरे के हर एंगल ने बड़ी सूक्ष्मता से अभिनय के रेशे – रेशे को पकड़ा है।
सत्यजित राय की पारखी नज़र से कोई भी वस्तु ओझल नहीं है।चेहरों के मनोविज्ञान और सूक्ष्म मनोभावों को पकड़ने में राय बेजोड़ हैं । इस संदर्भ में  बड़ी मानीखेज बात कुंवर नारायण ने अपनी किताब लेखक का सिनेमा में कहा है – ” मुझे ऐसा लगता है कि बांग्ला उपन्यासों के चरित्रों और वातावरण को राय की फ़िल्मे जिस खूबी और विश्वास से पकड़ती है, अ – बांग्ला कृतियों के साथ उतनी सहज नहीं हो पाती या शायद उतनी आत्मीय नहीं हो पाती। टैगोर की कृतियों पर बनी चारुलता या तिन कन्या जैसी उत्कृष्ट फिल्मों में बराबर यह लगता है कि वह अपनी जमीन पर हैं ।”
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अज्ञेय के कविता की एक पंक्ति ।
                              (4)
तंग आ गई हूं खिड़की से आसमान देखते – देखते मतलब कैमरा है या तीसरी आंख !
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कुछ फिल्मों में संवाद का नहीं होना भी अपना वजूद रखता है।मूक फिल्मों का ज़माना ऐसा ही था । चारुलता भी इसका अप्रतिम उदाहरण है।वैसे,खामोशी की भी अपनी भाषा होती है।इससे तो आप सभी इत्तेफ़ाक रखते ही होंगे।मुझे इस संदर्भ में याद आ रहा है बहुचर्चित उपन्यास ‘ मुझे चांद चाहिए ‘ का वह हिस्सा, जहां नायक और नायिका के अभिसार का प्रसंग है। वहां सुरेन्द्र वर्मा की भाषा देखिए – ‘ वर्षा पहले मुखर थी,अब मौन है।’
सिनेमा की भाषा और साहित्य में जमीन -आसमान का अंतर होता है।सिनेमा में कैमरे के हर एंगल पर ध्यान देना होता है।वहां मौन में भी गहराई होती है।यही कारण है कि गंभीर सिनेमा को समझने के लिए हमें एक से अधिक बार फ़िल्म को देखना होता है। मेरे जैसे नौसिखिए को कई मर्तबा देखना होता है।यह देखना भी चौकन्ना होकर होता है। चारुलता में अकेलेपन, ऊब और उदासी की पीड़ा को दिखाने के लिए निर्देशक ने कई दृश्य दर्ज़ किए हैं,जिसमें भूपति और चारु के बीच कोई संवाद नहीं है।
ऐसा ही एक सीन उल्लेखनीय है – ‘ चारु तल्लीनता से उपन्यास के एक पृष्ठ को पढ़ रही है, तभी डुगडुगी की आवाज़ सुनाई देती है। आवाज़ सुन चारु खिड़की खोल बाहर झांककर एक मदारी को देखती है। उसे अच्छी तरह देखने के लिए वह बाइनाकुलर का सहारा लेती है। मदारी चला जाता है और चारु खिड़की के दूसरी तरफ़ जाती है।इस बार चारु को एक पालकी दिखाई देती है,जिसके पीछे एक मोटा आदमी मिठाई लटकाए चला जा रहा है।
इस दिलचस्प पात्र को देखकर चारु खुश हो जाती है।वह एक के बाद एक तीन खिड़कियों से उसका पीछा करती है,जब तक वह आंखो से ओझल नहीं हो जाता है,फिर कुछ देर सिर झुकाए सोचती है और खिड़की से बाहर सूने आसमान को देखती है।मानो उसका जीवन ही सूनेपन से भरा हो।’
तो देखा आपने किस तरह बिना संवाद के पूरा दृश्य भीतर के अन्तर्द्वंद को उजागर कर देता है। ‘चारुलता’
इस बात की पुष्टि करती है कि फ़िल्म का अपने भाषा-समाज से भी गहरा रिश्ता होता है। चारुलता के रंग,शब्द, पात्र,मकान, सड़के बांग्लाभाषी समाज के इतने अपने है कि कई बार लगता ही नहीं कि हम फिल्म देख रहे हैं,यही लगता है कि हम उस घर में है।फिल्म इतनी यथार्थपरक है कि हमें इस बात का गहरा अनुभव होता है कि यथार्थ जब अपने आईने को तोड़कर किसी कृति में तब्दील होता है,तो हमें बेकरार
और बेचैन करता है। यही सिनेमेटोग्राफी की खूबी भी है।
इब्तिदा फिर वही कहानी
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मुख्तसर यह कि,रचना की मूल आत्मा को अक्षुण्ण एवं अपराजेय रखते हुए सत्यजित राय साहित्य और सिनेमा के बीच एक संवादधर्मी पुल बनाते हैं। मद्धिम गति से क्रमशः अपने को परत दर परत खोलती उनकी फिल्मों को देखना कालजयी साहित्य को पढ़ने जैसा आस्वाद देती है।वास्तव में,राय की दृष्टि लिरिकल है।उनकी कला अपने होने को छिपाती नहीं,यथार्थ के साथ – साथ अपनी भी एक स्पष्ट पहचान बनाती चलती है। चारुलता जीवन के तमाम पक्षों को हमारे रखती है और कई तरह के प्रश्न भी उठाती है। नष्टनीड पर आधारित चारुलता की समस्या भले ही पुरानी हो,लेकिन है वह आज भी प्रासंगिक।वैसे तो त्रिकोणात्मक प्रेम – संबंधों पर बनी फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है,लेकिन जब भी पति और प्रेमी के मध्य एक स्त्री के बाहरी और भीतरी झंझावातों का ज़िक्र होगा, चारुलता अपनी साफ़ – शफ़्फ़ाक इमेज के कारण याद की जाएगी।क्लासिक फिल्मों का जब ‘ शाहनामा ‘ लिखा जाएगा, चारुलता की गिनती ठीक बीचों – बीच में की जाएगी, हाशिए पर नहीं ।शायद, पढकर और देखकर खुश होने के लिए ही फरहत एहसास ने लिखा है – 
‘ चांद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है,
अक्स किसका है कि इतनी रोशनी पानी में है ।’ 
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