समकालीन जनमत
स्मृति

असाधारण का वैभव और साधारण का सौंदर्य : बासु चटर्जी

अनायास नहीं, कुछ संबंध सायास भी जुड़ते हैं । मुकम्मल याद नहीं मुझे, लेकिन पहली बार टेलीविजन पर ‘रजनीगंधा’ देखा था। उस समय तक मैं साहित्यिक संस्कार में दीक्षित नहीं था ।
जेहन में मूरत की तरह एक चेहरा बसा था और होंठो पर गुनगुनाती पंक्ति ‘ रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके मेरे जीवन में ‘। हाथों में सफेद फूल लिए सीढ़ियों से चढ़ता नायक और मुस्कुराती इंतजार करती नायिका । सदियों तक यह चित्र मन पर अंकित रहा।
वह अस्सी का दौर था । कुछ चीजों को भूलना मुश्किल होता है । किसी को क्या पता था भविष्य के गर्भ में सृजन के बीज छिपे हुए हैं । जब अदब की दुनिया से मुखातिब हुआ तो जिस रचना ने मुझे भीतर तक भिगोया, वह ‘यही सच है’ था । लेखिका मन्नू भंडारी ।
फ़िल्म रजनीगंधा और निर्देशक बासु चटर्जी । कुछ तो इस फिल्म में था जो मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा था । शायद विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर या बासु चटर्जी ? मैं ख़ुद से प्रतिप्रश्न करता हूं ऐसा क्या था जिस मोहपाश में गिरफ्त होता चला गया ? मैं देखता हूं वहां ‘साहित्य ‘ की उपस्थिति है । जिससे मेरी जुगलबंदी है । अब तो जित देखूं तित लाल । एक नम कोना जो मुझे ‘सिली हवा’ की तरह छूकर निकल जाती है । एक अंतर्द्वंद्व जो अमूमन उस दौर के हर युवा मन को बेचैन कर देती है। कुछ इस तरह की बेकरारी और तड़पनों के बीच मेरा परिचय बासु चटर्जी से हुआ।
मुझे इसका बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि इस अशांत और उजड़े समय में बासु दा को कुछ इस तरह याद करना होगा । वह मध्यवर्गीय विडंबनाओं के चितेरे थे । साहित्य और सिनेमा के पुल थे । अपनी फ़िल्मों के मार्फ़त आम जन के नब्ज़ पर हाथ रखने वाले बासु दा अपने समय को रचना बखूबी जानते थे । चाहे वह सारा आकाश, छोटी सी बात, चितचोर, प्रियतमा, शौक़ीन या चमेली की शादी जैसी फिल्में रही हों ।
मुझे बासु दा निर्देशित ‘एक रुका हुआ फैसला’ बेहद पसंद है । कारण यह कि अपने निष्पक्ष तार्किकता और जिरह के कारण यह फिल्म आकर्षित करती है । भले ही यह ट्वेल्व एंग्री मैन का रूपांतरण किया गया है ।
अब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी, बासु दा के एक और रूप का मैं मुरीद हूं, जो उन्हें एक अलग पेडस्टल पर खड़ा करती है । रजनी और व्योमकेश बख्सी जैसे सीरियलों से बनी उनकी एक ख़ास इमेज अलहदा बनाती है । कामकाजी रजनी अपने मजबूत इरादों के कारण सरकारी व्यवस्था पर सवाल और प्रतिरोध का नारा बुलंद करती है।
शुक्र है, स्त्री-विमर्श का जिन्न तक तक बोतल में कैद था । धार-फाड़ फार्मूलाबद्ध तरीको के अलग रजनी छोटी लड़ाइयां खुद लड़ती है । जो उसके किरदार को बड़ा और लोकप्रिय भी बनाती है । न जाने कितनी महिलाओं की प्रेरणा बनी रजनी आज भी स्मृतियों में जिंदा है । व्योमकेश बख्शी महज़ एक रोल नहीं था बल्कि समूची बंगाली संस्कृति का जीता-जागता नमूना था । संस्कृतियों को समझने का सलीका भी बासु चैटर्जी की निर्देशकीय क्षमता का कमाल है ।
कुछ छोटी – छोटी बातें और करूंगा, क्योंकि अपनी रौ में बह जाना खासा आसान होता है । बासु दा भी छोटी बातें बड़े फलक पर करते हैं । कभी गौर कीजिए उनकी बारीक पर्यवेक्षण कौशल । स्त्री – मन के मार्फ़त भावों की अभिव्यक्ति । यहां वह मुझे रेणु के बिल्कुल करीब नज़र आते हैं ।
मन की बारीक परतों को खोलकर रख देने वाला निर्देशक । मामूली नायक और नायिकाओं का निर्देशक । देखिए विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर और जरीना वहाब जैसे कलाकारों को । अपने अभिनय की बदौलत साधारण होते हुए भी असाधारण काम कर जाते हैं । ये निर्देशकीय क्षमता से गढ़े गए चरित्र है, जहां वे मौन में मुखर हैं ।
मुख्तसर, यह कि साहित्य और सिनेमा के बीच आवाजाही करते बासु दा की फिल्में कोलाज रचती हैं । जीवन के सच और साधारण के सौंदर्य को रचते इनकी फिल्में मध्यवर्ग की विडंबनाओं को बखूबी दिखाती हैं ।
जहां साधारण छींटदार साड़ी में किताब को सीने से दबाए डबल डेकर बस में सफ़र करती नायिका का सौन्दर्य भी ध्यान खींचता है। कविता की तरह दिल में उतरने वाली उनकी फ़िल्मों का एक ख़ास सिग्नेचर ट्यून है। कहते हैं, एक साथ बजते साजों में किसी एक राग को गुनना काफ़ी मुश्किल होता है, लेकिन जब सिर्फ एक ही धुन बज रही हो, तब सब कुछ आसान हो जाता है।
भीतर-बाहर के शोरगुल में ‘प्रेम के राग’ को सुनने और समझने की ताकत बासु दा की फ़िल्मे हमें देती हैं। ऐसा लगता है, मानो हम घोर अंधेरे से घिरे हैं और कहीं दूर उम्मीद का छोटा सा दीया जगमगा रहा है। उसकी रोशनी से हमारा तन – मन शीतल हो रहा है। हम निरंतर नए हो रहे हैं । अपनी नासमझी को दरकिनार कर मै बासु चैटर्जी की फ़िल्मों को टेक्स्ट की तरह पढ़ने के लिए आमंत्रित करती हैं।
यही उनके सिनेमा की ताकत है। वैसे, हर साहित्य और सिनेमा जिंदगी को समझने के सूत्र ही देता है लेकिन उनका क्या जो जिंदगी से हार गए ? दरअसल, वो हारे नहीं, मुकम्मल बाज़ी जीत कर गए हैं । यह साल हादसों का है। तमाम प्रतिभाशाली धरोहरों और शख्सियतों से बिछुड़ने का है । इतिहास में इसे भी याद रखा जाएगा ।
अलविदा बासु दा !
अन्तिम सलाम आपको !

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