समकालीन जनमत
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स्त्रियाँ अब प्रेम नहीं करतीं’: पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के सवाल उठाता कविता संग्रह

राजेश पाल


मूर्तिकार, कवि, कथाकार व दलित चिंतक हीरालाल राजस्थानी का काव्य संग्रह “मै साधु नहीं” के बाद “स्त्रियाँ अब प्रेम नहीं करती” दूसरा कविता संग्रह हैं | इस संग्रह की सारी कविताएं स्त्री विमर्श पर केंद्रित है जो पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के सवाल उठाती हैं, स्त्रियों से संवाद भी स्थापित करती है और स्त्रियों के पक्ष में कुछ सवालो के उत्तर ढूढ़ने का प्रयास भी करती है।
स्त्री मुक्ति की इन कविताओं में कवि स्त्री चेतना के अभाव पर समाज के प्रति आक्रोश व्यक्त करता है | यूं तो पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर अनेक कविताएं लिखी गयी है परन्तु स्त्री विमर्श पर किसी पुरुष के नजरिये से यह सम्भवत पहला सम्पूर्ण कविता संग्रह है जिसमें कवि की छटपटाहट और पीड़ा स्त्री मुक्ति और चेतना को लेकर एक व्यापक कविता जगत रचती है।
कवि पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को लेकर सामाजिक राजनैतिक व सांस्कृतिक व्यवस्था के प्रति तल्ख़ तेवर अपनाये हुए है | इनमें से कई कविताएं अपनी संवेदना और भाषा में स्त्री विमर्श की महत्वपूर्ण कविताओं में संग्रहित की जा सकती है | संग्रह की कुछ कविताओं में विस्तार से बचकर मितव्ययी कवितत्व की आवश्यकता अवश्य लगती है |
बच्चे का सबसे पहला परिचय माँ से ही होता है इसलिये बच्चा बचपन से ही माँ के संघर्ष को देखता और महसूस करता है, बच्चे की संवेदनाएं माँ के श्रम और संघर्ष से भावनात्मक रूप से जुड़ी होती है।
‘माँ -1’ कविता में स्त्री का श्रम और संघर्ष माँ के रूप में व्यक्त हुआ है-
…तो माँ,
अपने पल्लू से
कमर कसकर
निकल पड़ती थी
पत्थर दुनिया में,
हाथ में हथौड़ी उठाये
और तोड़ लाती थी पत्थरों से रोटियाँ
किसी वीरांगना की तरह।
‘वे दोनों’ कविता में रजनी तिलक व रमणिका गुप्ता द्वारा उपेक्षितो के लिए किए गए उनके कार्यों और योगदान को याद करते हुए कवि लिखता है-
…जीवन के प्रति उनकी ये जीवटता
भला कोई केसे भूल सकता है
आज वे होतीं
तो चमक रही होती आंदोलन की दो मशालें
शाहीन बाग की औरतों पर गदगद हो
गड़ रही होती नए-नए नारे
रच रही होती जामिया, जेएनयू की लड़कियों पर
नई-नई कविताएं और उनके शीर्षक
ये हवा सी बैचेन आप हुदरियां
कभी शांत न बैठती।
इसी प्रकार जामिया की लड़कियां कविता में भोली और जहीन लड़कियों पर कविताएं ये बताना चाहती है कि लड़कियां भले ही देखने में मासूम लगे लेकिन उनके अंदर चेतना की लपटें सही अवसर पर प्रकट हो जाती हैं। लड़कियों की मासूमियत को उनकी कमजोरी समझना बिल्कुल भी उचित नहीं है।
‘स्त्री होने का अर्थ’ कविता में कवि स्त्री को वर्जनाओं से मुक्ति के लिए प्रेरित करता है, हमारे समाज में स्त्रियां पुरातनपंथी आडंबर और कर्मकांडो से मुक्त नही हो पा रही है।
स्त्री होने का अर्थ है
अपने ही ख़िलाफ़ रिवाज़ों को ढोना
अपने शरीर को मानमर्यादा का इश्तिहार समझना
धर्मग्रंथों के लिखे को
ईश्वर का आदेश मानना
स्त्री होने का अर्थ है
गर्भ में उपजाऊ ज़मीन की तरह
अंकुरित करते रहना खानदान के वारिश
चाबी की तरह खोलते रहना
पितृसत्ता की कुंठाओं के ज़ंग लगे ताले…
लड़कियाँ आधुनिक होंगी तो समाज आधुनिक होगा तभी समस्त समाज प्रगतिशील बन सकेगा।लड़कियों के लिए मुक्तिकामी और प्रगतिशील चेतना की चाह में लिखी गयी कविता है ‘संभावनाओं के बीज’
कवि हँसती हुई स्त्रियों को लोकतंत्र की प्रतिनिधि करार देता है तभी वह कहता है
…उठा लेती हैं परंपराओं के ख़िलाफ़ मुट्ठी
उन्होंने बदला हैं समाज का मिज़ाज
उन्होंने तोड़े हैं व्रत-उपवास के ढकोसले
वे हँस रही हैं मर्दों के साथ ठहाकों में ठहाके मिलाकर।
स्त्री मुक्ति के विविध आयाम इन कविताओं का मुख्य व महत्वपूर्ण स्वर है। ये कविताएं स्त्री की शारीरिक मानसिक मनोवैज्ञानिक वर्जनाओ से मुक्ति की कामना करती हैं।
…पर्दो में ढकी आधी दुनिया
अपने शरीरों की रक्षा करने पर तुली है
बाहरी आवरणों से ही आधुनिकता का दम भरते 
अंतःकरण में वही अस्मिता को खरोंच देने वाली
यातनाएं बैठी हुई हैं
मूँछों की पहरेदारी में नियंत्रित
अपनी हदों का ख्याल रखते हुए
अपने को शरीर से आगे सोच पाने में
कांप जाती हैं
और कोख को संभालने में
पल-पल के आंकड़े
उलझा देते हैं
मिथकीय धर्म ग्रंथों में स्त्री की विवशता और असहायता को आज की स्त्री के बदलते हुए स्वरूप व तेवर में “प्रतिशोध” कविता का अंश है।
…न ही तुम सरस्वती हो
जिसे अपने ही निर्माता ने लूट लिया हो
तुम अम्बा, अंबालिका भी नहीं हो
जिसे सिर्फ वारिस जनने की मशीन भर समझा जाए
तुम आज की फूलन हो
जो प्रतिशोध लेती है
अपनी अस्मिता पर लगे एक-एक ज़ख्मों का।
स्त्री को स्त्री के पक्ष में रची गई छद्म गौरव की पितृसत्तात्मक संज्ञाए वास्तव में स्त्री को गुलाम रखने की साजिशे है कवि इनसे मुक्ति के उपाय में “समृद्ध होती गई यह दुनिया” में कहता है-
...वे झोंकती रही समाज की भट्टी में अपने आप को
मर्यादाओं के नाम पर
और लाज-शर्म को पालती रही अपने आंचल में
अस्मिता को तार-तार होने तक
तुम देखती रही अपने को शरीर भर
तुम धर्म और मासिक धर्म के बोध में उलझ गई
तुम सौंदर्य की बढ़ाई में मुग्द कर दी गई
और होती गई पुरुषों के बाहुबल पर मोहित
तुम्हें नकारना होगा सोने-चांदी के पिंजरों का सुख
अब तुम्हें उठ खड़ा होना है
अपनी रीढ़ के बल पर
तुम चल सकती हो…
बलात्कार से उपजी मनोवैज्ञानिक चोट को “बलात्कृत स्त्रियां” कविता में बड़े संवेदनशील तरीके से कवि कहता है–
…बलात्कृत स्त्रियां खुलकर हँस नहीं सकती
वे प्रेम नहीं कर सकती
वे उपेक्षित कर
घृणाओं के दलदल में धंसा दी जाती हैं
हर राय-मशविरे से वंचित कर दी जाती हैं
और तो और
समाज उनसे उनकी सहजता
और सौन्दर्यबोध तक छीन लेता है
इस हेय दृष्टि के प्रकोप से
वे अब माँ, बहन, बेटी, पत्नी और दोस्त न होकर
सिर्फ बलात्कृत ही कहीं जाएंगी
क्योंकि उनका शरीर ही उनकी पवित्रता का
प्रमाण-पत्र माना गया है।
“बेटियों की नजर से” कविता में बड़ा संवेगात्मक चित्र उभरता है जो पुरुष को एक जिम्मेदारी का एहसास दिलाता है-
आओ इस दुनिया को
बेटियों की नज़र से भी देखें…
…क्योंकि अभी और जिम्मेदारी से
ये दुनियां.
संवरनी बाकी है।
“स्वप्नदोष” कविता में सामंती व पितृसत्ता पोषक पुरुष से स्त्री के पक्ष में कवि सवाल करता है-
…वे स्त्री होने को
प्रकृति के विरुद्ध
सिद्ध करने में लगे हैं
वे अनचाहे ही स्त्रियों को
बरगला रहे हैं
वे संविधान को भी स्त्री विरोधी
घोषित कर देना चाहते हैं
जो उनके अपराधी होने पर
बराबर सज़ा देने की क्षमता रखता है
ये कविताएं बिलकुल भी एक पक्षीय नही है यदि पुरुष से सवाल है तो पितृसत्ता को संरक्षित कर रही स्त्री से भी कई सवाल है। “पितृसत्ता के पक्ष में” कविता में स्त्री पर सवाल उठता है-
तुमने पितृसत्ता का विरोध
अपने पिता के आंगन में कभी नहीं किया…
…पिता को सवालों के घेरे से बाहर रखा
यही बचाव तो
पितृसत्ता के पक्ष में है।
“तीसरा पक्ष” कविता में लिंग रहित लोगों की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कविता की ये पंक्तियां महत्वपूर्ण है-
…वे जो लिंग रहित जनमते हैं
वे कमतर माने जाते हैं
लिंगी समाज में
मान-सम्मान के लिहाज़ से
कर दिये जाते हैं उपेक्षित
शिक्षा से
सुविधाओं से
रिश्तों से
नातों से
रोज़गार से
और मानवीय जीवन की अवधारणा से
मज़ाक बनाकर
दुत्कार दिया जाता है उन्हें
समाज और परिवार की चौखट से
ये पीड़ा
किसी जाति-धर्म के भेद से
कहीं ज़्यादा प्रताड़ित करती है।
स्त्री-पुरुष की यौन कुंठाओ को मार्मिक रूप से उकेरती कविता देखने लायक है-
पुरुषों को
महिला मित्र में भरपूर
कामुकता चाहिए
और पत्नी
घरेलू संस्कारी
और कामकाजी
मतलब सीधा-सीधा दासी।
स्त्रियों को पुरुष मित्र
ताकतवर और दबंग चाहिए
और पति धनाढ्य और रसूखवाला
सीधा-सीधा कहें तो पैसे वाला
मतलब-
इंसान न स्त्री को चाहिए, न पुरुष को।
मांएं बेटियों को बचपन से ही एक सांचे में ढालने की कोशिश करने लगती है किशोरावस्था तक मां उन्हें पुरुषों के प्रति सचेत होना सिखाने लगती है यही हमारे समाज का विकृत स्वरूप है जहां लड़कियां एक अलग दुनिया में जीने को अभिशप्त होती हैं।
‘दूर की कौड़ी’ कविता का यह अंश बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करता है कि हम पढ़ लिखकर किस समाज में जी रहे है-
…और मर्दों की दुनिया
अब उसे पके हुए फल की तरह देखती है
वह अपने को कहाँ और कैसे
छिपाये यही अब उसकी
असहजता का कारण है
माँ उसे ढीले कपड़ों का इतिहास समझाती है
और अपनी सीमाओं को
समेटना भी
और लड़कों से दूर रहने की सलाह…
‘काली सोच’ कविता में पुत्र की चाह पर स्त्रियों की समाज में स्थिति और मनोदशा को व्यक्त करती मार्मिक कविता है-
ये काली सोच वाली संस्कृति
स्त्रियों की कोख से
सिर्फ़ पुत्र चाहती है
उनका अस्तित्व गर्भधारण से
तय होता है
उनकी कुशलता से नहीं…
…जिस देश की संस्कृति
लड़कियों के जींस पहनने पर
ख़तरे में पड़ जाती है।
उनके घूंघट ज़रा से भी सरक जाएं तो
मर्यादा डगमगाने लगती है।
धर्म संकट के दौर से
गुज़रने लगता है।
‘स्त्रियां अब प्रेम नहीं करतीं’ संग्रह की शीर्षक कविता है जो एक लंबी कविता है ‘स्त्रियां प्रेम नहीं करतीं’ क्योंकि वह समाज की कड़वी सच्चाइयों को पहचान गई है वह समझ गई है कि पितृसत्ता के द्वारा उनको छद्म गौरव में उकसाकर उनका सदैव शोषण ही किया गया है-
…’स्त्रियां अब प्रेम नहीं करतीं’
क्योंकि
उनका विश्वास डिग चुका है
दंगों में लहराती हुई तलवारों के बीच
वे देख चुकी हैं सभ्यताओं के माथे पर सवार खून
उन्होंने देखें हैं हत्याओं पर हंसते हुए चेहरे
उन्होंने गालियों की बौछारों में
अपने आंसुओं को सोखा है
उन्होंने झूठ को सच बनते देखा है
सुरक्षा के साए
अब खुद क़ातिल हो गए हैं
धर्मस्थलों की छांव
अब उन्हें डराती है…।
…किताबों की दुनिया से
बुधिया होने का अर्थ
और साथ ही पृथ्वी के प्रारंभ का सच भी
सर्जक कौन है?
कौन है प्रकृति का पर्याय ?
उन्हें मालूम है
प्रकृति के साथ धर्म और विज्ञान का खिलवाड़
वे जानती हैं
इस खेल से बाहर हुए बिना
प्रेम दुष्कर्म है और रहेगा…।
इन कविताओं में कई बार कवि स्त्री के पक्ष में उसे सचेत करते हुए स्त्री से भी उसकी सफलताओं/ असफलताओं के बारे में सवाल करता है और ‘चूक’ कविता में पूछता है-
…तुमने ये मानव श्रृंखला पांखण्ड और पंखण्डियों के
ख़िलाफ़ बनाई होती तो
बाई फुले की परंपरा को
आगे बढ़ाने में
तुम्हारा योग जुड़ता
तुम बार-बार चूक जाती हो
इस व्यवस्था को भेदने में।
इसी तरह ‘अपने ही विरुद्ध’ कविता में एक तीखा सवाल उठता है जो सवाल भी है और संचेतना भी-
बेटों और पतियों की
लंबी उम्र के लिए
उपवास करती स्त्रियां
अनजाने ही बेटियों का उपहास
उड़ा रही होती हैं…
…यही मानसिकता
स्त्रियों के विरूद्ध
स्त्रियों द्वारा ही पाली पोसी गई है
हमारे समाज में पुरुष ही नही स्त्रियां भी कैसे स्त्रियों के विरुद्ध हो जाती हैं। यह एक बड़ा ही कटु सत्य है कि स्त्री शोषण में ज्यादा भूमिका स्त्रियों की है-
...जैसे तुम बेटों का देती आई हो
हर उस अपराध में
जो मानवता को शर्मसार करता आया है
क्यों तुम अपनी ही जाति की दुश्मन बनी हो
संस्कारों के नाम पर
पवित्रता के नाम पर
कुल की झूठी शान के नाम पर।
कामकाजी महिलाएँ किस प्रकार की यातनाओ से गुजरती हैं उसका मार्मिक रूप ‘अगर तुम’ कविता में व्यक्त हुआ है-
…घर से सलाह लेती
अपनी दफ्तरी समस्याओं
की उलझी हुई गांठों के लिए
शिकायत करती
अपने किसी सहकर्मी के दुर्व्यवहार की
अपनी किसी दुविधा को
किसी अनुभवी कारीगर की तरह सुलझाकर
तुम करती बराबरी का ऐहसास
और अपने हिस्से का आसमान
खरीद लेती बेझिझक जब तुम।
स्त्री की सीमाओं को याद दिलाती हुई कविता एक ‘सहनशील स्त्री’ को मुक्त करने की छटपटाहट है-
तुम सिर्फ माँ रहकर ही
मत खप जाना
तुम उठ खड़ी होओ
स्त्री विरोधी मानसिकता के ख़िलाफ़
अपने अस्तित्व के लिए
और साबित कर दिखाओ
अपनी क्षमताओं को
इस दोयम दर्जे की दुनिया के आगे।
इस संग्रह की कई अन्य कविताएं मार्मिक व संवेदनशील कविताएं बन पड़ी हैं जिनमें सेक्स वर्कर, एसिड अटैक, संविधान को दरकिनार करने का मतलब, लीड, इजाज़त, अगर तुम, कन्यादान आदि पठनीय है तथा इस संग्रह को एक पुरुष के नजरिए से स्त्री विमर्श को मजबूत करने में महत्वपूर्ण, सार्थक व सराहनीय प्रयास है। ये कविताएँ निश्चित रूप से पुरुष पक्ष से स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण को एक बड़ा आयाम देती है तथा अनेक नए प्रतीकों से कविता का नया संसार रचते हैं। आशा करते हैं कि कवि भविष्य में इस विषय पर और आयाम जोड़कर नई रचनाएँ पढ़ने को रचेंगे।

 

 

समीक्षक राजेश पाल, पता : लेन न. 12 , एकता विहार , सहस्त्रधारा रोड, देहरादून (उत्तराखण्ड ) सम्पर्क: 9412369876 

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