समकालीन जनमत
कविता

सुनीता ‘अबाबील’ की कविताएँ स्त्री पीड़ा की अंतर यात्रा हैं

हीरालाल राजस्थानी


बेशक ही दलित व हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को स्थान मिलता रहा है। खासतौर पर कविता विधा में, जहाँ शुरुआती दौर में स्त्री देह के सौंदर्य पर बहुत कुछ लिखा गया फिर उसके माँ पक्ष को सर-माथे बिठाया गया। आज उनके हक-हुकूक और अस्मिता को भी शब्दपक्ष मिल रहा है। ये पक्ष स्त्रियों के साथ पुरुष कवियों की कलम में भी शामिल हो रहा है। ये अलग बात है कि स्त्री चेतना व चिंतन के कवि को बतौर सहानुभूति ही देखा गया। यह भी सर्विदित है कि समाज में सबसे ज्यादा स्त्रियों की ही उपेक्षा हुई और उन्हीं से, यमराज से पति के प्राण छीन लाने की अपेक्षा भी की गई। फलस्वरूप समाज आज भी सीताओं से अग्नि परीक्षा लेना नहीं भूलता। इसे यदि एक पंक्ति में कहा जाए तो ‘स्त्री जीवन दुखों, यातनाओं और पीड़ाओं के जंगल सें गुजरता हुआ बीतता है।’ कहने में संकोच नहीं कि देश में रमाबाई होना कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि उपलब्धि है सावित्री बाई फुले बनना। रमाबाई तो हर घर की चार दिवारी में सुबकती दिख ही जाएंगी लेकिन सावित्री बाई शोषण की दीवार के उस पार बराबरी और उम्मीद लिखती हुई दिखती है। यही अंतर समाज के बोली-व्यवहार में स्त्रियों के लिए स्थापित किया गया है। उनको नियंत्रण करने हेतु ताड़न के सिद्धांत गढ़े गए। सुनीता इसी चिंतन की कवयित्री हैं जो स्त्री चेतना को अपना मुख्यस्वर मानकर समाज की दुखती नब्ज़ को बेबाकी से लिखती हैं तथा इस एक तरफा मर्यादाओं के खेल को भली-भांति समझकर स्त्री पक्ष में रच रही हैं। ज़रूर यह रूढ़िवादी और परंपरावादी समाज के लिए अमर्यादित हो सकता है उनकी कविताओं में उतर कर देखें तो किसी अवसाद की गली से गुजरने जैसा अनुभव होता है।

‘केले का पत्ता’ – …एक दिन गाँव में लोग इकट्ठा हुए/
मैंने पहली बार लंबी-चौड़ी औरत को/ थर-थर कांपते हुए देखा/…ये कांपना सामाजिक व्यवस्था को स्त्रियों के प्रतिकूल बताता है तथा तुलसी की ताड़ना इस डर को और गहराती है।

‘अबाबील’ – एक लड़की जिसका हम कुछ भी नाम रख लेते हैं/ वैसे मुझे अबाबिल चिड़िया बहुत पसंद है/ क्या लड़कियाँ चिड़िया हो सकती हैं?/ पता नहीं/ पर लड़कियों और चिड़ियों में फर्क है/ चिड़ियों को प्यार ना मिले तो कभी वापस नहीं लौटती/ हमारे घरों और आंगन में, लड़कियाँ हमेशा अपने होने की लड़ाई लड़ती हैं...ये फर्क स्वतंत्रता और अधीनता का है। स्त्रियां बिना प्यार, सम्मान के परिवार में बंधे रहने को अभिशप्त है।

‘बेजान लकड़ियों में जान फूंकती औरत’ -…पंचायत के भीड़ में हुई वह अकेली खड़ी थी/ उस पर इल्जाम था/ उसके पेट में पल रहा बच्चा किसी और का है/
उसकी कोई नहीं सुन रहा था/ सब उसका अपराध घोषित करने में लगे थे...स्त्री की यही कोख उसकी सबसे बड़ी विडंबना है। यह लांछन, स्त्री के चरित्रहनन के लिए पर्याप्त है।

‘बूढ़ी औरत’ -…मैंने तमाम बूढ़ी औरतों को/ अपने अंतिम समय में/ एकदम अकेला पाया…यही दशा स्त्रियों के बुढ़ापे का सच है। वे दूधविहीन मादा पशु की तरह अनुपयोगी समझकर नकार दी जाती हैं।

‘काश माँ पढ़ पाती‘ –अपने पिता की दुनिया को मैंने हमेशा/
दरवाजे के बाहर फैलता देखा/ माँ को हमेशा चूल्हा-चौका के आस-पास…यह सच है- मां घर की दहलीज में रहकर परिवार के सुख-दुःख संभालती हैं लेकिन पिता भी बाहर रहकर अपने परिवार के लिए धन अर्जित करता है। यह दरवाजे के बाहर फैलती आज़ादी से अलग है।…क्या पता?/ सावित्री बाई फुले, अम्बेडकर/ मदर इंडिया की कैथरीन मेयो/ ऐनी फ्रैंक, गोर्की की माँ से/ आगे की दुनिया रचती।…जब मानव इतिहास में विकास कर रहा था/ तो औरतें क्या कर रही थी?/ कुछ तो कर रही होंगी/ फिर उनके कुछ करने को/ इतिहास में क्यों जगह नहीं दिया गया?…कविता सवाल करती है इतिहास से कि बताओ जब इतिहास लिखा जा रहा था तब स्त्रियां क्या कर रही थी? वे कहती हैं कि पुरुष कहते रहे कि स्त्रियां चुप नहीं बैठती। तो बोलती हुई स्त्रियों के शब्द कहां है, वे आज इतिहास की इस रिक्ति में अपने संवाद खोज रही हैं।

‘इंतजार में है लड़कियां’ -…वे तो इंतजार में हैं/ अपने गाँव में एक स्कूल हो/ जहाँ वे बाल खोल के बिन दुपट्टा लगाये/
लहराते हुए स्कूल जायें/ जायें वे सब भाई भाड़ में/ जो बहनों के हिस्से और/ हक़ के पैसों से पढ़कर हुए अधिकारी… यहां डंके की चोट पर स्त्री पक्ष की बराबरी को से उठाया गया है लेकिन पुरुष रूप को सिरे से नकारना न्यायसंगत नहीं है।

‘बहुत अच्छी लगती हैं वे औरते’ -…तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं/ बड़े पदों पे काम करने वाली/ गोबर पाथने वाली औरतें/ यूज्ड कॉन्डम फेकने वाली/ सैलरी देने वाली/ दहेज लाने वाली औरतें…यहां बहुत बेबाकी से स्त्री के बहुपयोगी शोषण को उकेरा गया है।

‘टिहरी शहर’ -…बेटियाँ कच्ची उम्र में ब्याह दी गईं/
बेटे मजदूरी में लगा दिए गए/ और औरतों की दुनिया पहले से और भी सिकुड़ कर/ माचिस की डिबिया में समा गई... बेशक कवियत्री स्त्री के सिकुड़ते यथार्थ की ज़मीन को खोज रही हैं लेकिन यहां बेटी-बेटे के यथार्थ को समान रखकर देखा गया जो एक बेहतरीन पक्ष है।

सुनीता का कविता संसार स्त्री पीड़ा की अंतर यात्रा है। जो सामाजिक व्यवस्था पर कुठाराघात भी है। वे जहाँ स्त्रियों की मनोदशा पर एक तरफा मुखर हैं, सवाली भी हैं। भाषाई और वैचारिक स्तर पर उनसे अभी ओर आगे जाने की संभावनाएं जगती है।।

 

सुनीता की कविताएँ

 

1. केले का पत्ता

दो बच्चों की माँ को पहली बार प्यार हुआ

गाँव के किसी दूर के रिश्ते के लड़के से
वह भी अक्सर काम के बहाने
बाहर निकल जाया करती थी
लपक के मुर्गियों को दाना डाल दिया
नाद में बाल्टी – बाल्टी पानी भर दिया
घास छाँट लिया
घास-भूसा मिला दिया
नाद पर गाय गोरु को समय से लगा दिया
घारी से गोबर काढ़ के खाँची में रख दिया
इन सबके बीच अपने बच्चों को
नमक-तेल रगड़ के रोटी लपेट के दे दिया
यह उसके रोज का काम था
उसकी मोटी कलाइयों में
पक्की काँच की चूड़ियाँ
कथई रंग की बड़ी फबती थीं
देख कर मन होता था
‘नजर उतार ली जाए’

उसका काम खत्म ही नहीं होता था
लपक-लपक के सारे काम करती
घर के सामने बैठा उसका प्रेमी किताबें पढ़ता
या पढ़ने का दिखावा करता
दोनों छोटे बच्चे उसके आस-पास खेलते रहते
वह अपने बच्चों के बहाने
अपने प्रेमी को तसल्ली भर देख लेती

एक दिन गाँव में लोग इकट्ठा हुए
मैंने पहली बार लंबी चौड़ी औरत को
थर-थर कांपते हुए देखा
डर इतना कि
जैसे लगा हिमालय आज ही पूरा पिघल जाएगा
किसी ने उसका ढूका (निगरानी) लगकर पकड़ा था
गन्ने के खेत में
क्या करते हुए, इस पर कभी कोई बात ही नहीं हुई
बस दोनों पकड़े गए थे
यही बात लंबे समय तक चर्चा में रही
वैसे भी कईयों के निशाने पर थी उसकी देह
उसका जेठ उस पर बुरी नजर रखता था
और ढूका लगने वाला कोई और नहीं
उसका जेठ ही था
एक बार खाना लेने के बहाने
जेठ ने उसका हाथ पकड़ा था
डर के मारे उसने किसी से बता नहीं पाई
पर हमेशा बचती रही है
अपनी जेठ से
सबको इस बात की ज़िद थी
इसने प्यार कैसे कर लिया
वह भी किसी नीची जाति के लड़के के साथ
सबक सिखाना होगा
एक तो शादीशुदा दूसरी नीची जाति का
सबने मिलके तय किया
उसके जेठ ने उसके गुप्तांगों को दागा (जलाया)
नितंब और पीठ को भी
शादीशुदा औरतों को प्रेम करने के कारण
अक्सर दाग दिया जाता है
अधमरी हालत में ससुराल वालों ने
उस औरत को उसके गाँव के पोखरे के किनारे
केले के पत्ते पर रख कर
भाग आए रातों-रात
दिन में उसका पति गाँव में शाबासियां बटोरता रहा
बच्चे भूख से बिलखते रहे
कुछ समय बाद हुआ यह कि
‘वह तुम्हारे बच्चों की माँ है’
कुछ लोगों ने समझाया
गलती सबसे होती है
जाओ ले आओ

शारीरिक रूप से ठीक होने के बाद
फिर से ससुराल लाई गई
फिर से वह अपनी दुनिया में लौट गई
वही छांटी- पानी, मुर्गी, खाना – दाना
प्रेमी कभी गाँव में लौटा ही नहीं
जेठ की पत्नी समय से पहले चल बसी
औरत के पति को जिंदगी दगा दे गई
दोनों अपने-अपने जिंदगियों में अकेले हैं
जेठ आज सड़कों पर ठेला चलाता है
औरत ने अपने घर के आंगन के आखिरी छोर पर
केले के पौधे लगाए हैं

भले केले के पत्ते पर प्यार में दागी हुई औरतें लेटायी गयीं
लेकिन केले के झुरमुट में
आज भी प्रेमी जोड़े
के प्यार करने का इंतजार है।

*घारी = पालतू पशुओं के रहने वाला कमरा

 

2. पाँच मर्दो वाली औरत

तीन मर्दों को छोड़ने के बाद

एक औरत चौथे मर्द से ऐसे बांधी गई
जो किसी काम लायक नहीं था
बेमेल जोड़ी थी, पर वह बहुत खुश थी
अपने चौथे पति से
क्योंकि वो नहीं मारता था
तीन मर्दों को छोड़ने वाली औरत के चर्चे
गाँव के मर्दों में आम थे
उस औरत के पति से गाँव के मर्द
अंतरंगी सवाल करते
और मजे लेते
इधर सवाल बढ़ने लगे
उधर पत्नी की रोज पिटाई होने लगी
औरत को समझ में नहीं आ रहा था
उसने ऐसा क्या किया है?
कहीं जाती भी नहीं
किसी से बातियाती भी नहीं

हर बार मार खाते-खाते थक चुकी थी
अब वह पेट से थी

वह पति से सवाल करती रही
इस बार नहीं छोडूंगी इस पति को
जिसको वह लड़ना समझ रही थी
अंततः बस वो एक छल था
शादी के बाद प्रेम का होना
एक अच्छे प्रेमी की तलाश करना
कोई नई बात नहीं है

उसे भी अपने गाँव के वर्चस्वशाली मर्द से प्रेम हुआ
उस मर्द की ये पहली प्रेमिका नहीं थी
हालांकि उस औरत को भी पता था
कि गाँव में उसकी बहुत सारी प्रेमिकाएं हैं
लेकिन फिर भी उसे यकीन था
कि वह अपने प्रेम के भरोसे उसे अपना बना लेगी
उसे हर बार अपने प्रेम पर भरोसा होता था
पहले के तीन पतियों को छोड़ने से पहले
चौथे पति के साथ भी
और अब इस प्रेमी के साथ भी

पता नहीं क्यों औरतों को हमेशा अपनी इमानदारी
और अपने प्रेम पर बहुत भरोसा होता है

वो हमेशा सोचती हैं
मर्द कैसा भी हो उसे प्रेम से बदला जा सकता है
पर वे बार-बार भूल जाती हैं
कि ‘मर्द कभी किसी से प्रेम नहीं करता
वह हमेशा हासिल करने की फिराक में होता है’
बाजार की सबसे कीमती वस्तु
गाँव की सबसे सुंदर स्त्री
रिश्ते की सबसे कमसिन साली

पत्नियाँ बेवकूफ नहीं होती हैं
वो खूब समझती हैं
उनका पति किसी से प्रेम नहीं करता
पर दूसरी औरतें न जाने क्यों
उनको यकीन हो जाता है
कि फला पुरुष उनसे बेहद प्रेम करता है
अपनी पत्नी से भी ज्यादा

इत्तेफाकन एक बार पत्नी और प्रेमिका में मुलाकात हो गई
पत्नी ने पूछा प्रेमिका से
सच में ! आपको प्रेम करता है?
प्रेमिका मुस्कुरायी, उससे कोई जवाब देते न बना
पत्नी- “इनको तो पैजामा की डोरी खोलना पसन्द है”
उनको आप में क्या पसंद है?
प्रेमिका- “ब्लाउज का हुक खोलना बहुत पसंद है”।
दोनों जोर से ठहाका लगाकर हँसी

उसको तो सिर्फ देह पसंद है

दोनों औरतों को एक मर्द ने ठग लिया
प्रेमिका ने रिश्ता खत्म करना चाहा

इस बार पाँचवे मर्द ने उसे नहीं मारा
उसने औरत के शरीर के खुले अंगो को काटा
चेहरे, पीठ, कमर और हाथ पर
जिनको ठीक होने में महीनों लगे
निशान बरसों रहे
महीनों घर में बंद रही
उस औरत के लिए प्रेम हमेशा एक सा ही रहा
मर्दों के बीच चर्चा में रहा
आज-कल दिखती नहीं पाँच मर्दों वाली औरत.

 

3. अबाबील

एक लड़की जिसका हम कुछ भी नाम रख लेते हैं
वैसे मुझे अबाबील चिड़िया बहुत पसंद है
क्या लडकियाँ चिड़िया हो सकती हैं ?
पता नहीं
पर लड़कियों और चिड़ियों में फर्क है
चिड़ियों को प्यार ना मिले तो कभी वापस नहीं लौटती
हमारे घरों और आंगन में, लडकियाँ हमेशा अपने होने की लड़ाई लड़ती हैं

एक लड़की जिसको मैं अबाबिल बुलाती हूँ
उसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई
उसकी दसवीं की मार्कशीट जला दी उसके भाई ने
बहुत सी लड़कियों की तरह वह भी पढ़ना चाहती थी
हालांकि वह पढ़ने में बिल्कुल भी अच्छी नहीं थी
पर उसे विश्वास था कि वह अपनी मां और दादी से अच्छा करेगी
उसके बड़े ‘बहनोई’ ने भी उसकी बहन की बारहवीं की मार्कशीट फाड़ दी थी
बहन की ख्वाहिश नहीं थी बहुत पढ़ने की
बस वह याद रखना चाहती थी कि वह पढ़ी-लिखी है

और अपने पति से ज्यादा पढ़ी लिखी है

अबाबील की बहुत सी सहेलियां थी
जो चिड़ियों की तरह फुदकती रहती थी
स्कूल के आंगन में
वह किताबों की दुनिया से होते हुए पूरी दुनिया घूम लेना चाहती थी

अबाबील को स्कूल की खिड़की पर बैठना बहुत पसंद था
उसके सामने से एक सड़क गुजरती थी
सड़क के दूसरी तरफ बड़ा सा मैदान था
जहां लड़के क्रिकेट खेलते थे

अबाबील का क्लास टीचर उसे बहुत पसंद करता था
वो कबड्डी बहुत शानदार खेलती थी
खेलती हुई लड़कियां बहुत प्यारी लगती हैं

उसका क्लास टीचर कहा करता था
टीचर ने एक बार कोशिश की थी कि अबाबील आगे पढ़ सके
इस कोशिश को गलत समझ लिया उसके भाई बाप ने
कबड्डी के साथ ही अबाबिल बाइक बहुत शानदार चलाती थी

एक दिन उसके भाई ने दारू पीकर परिवार वालों को खूब मारा पीटा
वह अपनी मां और दादी को बाइक पर बिठा कर कहीं दूर ले आई

कुछ दिनों के लिए
बार-बार हो रही हिंसा से बचने के लिए
आबाबील ने एक दिन बाइक निकाली और चल पड़ी
मैंने बहुत से लड़कों को गियर फसने पर कहते सुना है

गियर छुड़ाना कितना मुश्किल काम है
और अबाबील गियर बहुत तेजी से बदल लेती थी
उसने खेलना छोड़ा है उड़ना सीख लिया है

पता नहीं कब लौटेगी?

 

 

4. बेजान लकड़ियों में जान फूंकती औरत

हमारी मुलाकात छोटे-छोटे कमरों वाले एक मकान में हुई थी

एक कोने में बैठी एक गवनहरु दुल्हन
जो रिश्ते में भौजाई लगती थी
हमारा परिचय इसी तरह से कराया गया
उसने मुझे देख कर मुस्कुराया
और मैंने उसे
हमारी पहली मुलाकात संवादहीन रही

हमारी दूसरी मुलाकात

पंचायत के भीड़ में हुई वह अकेली खड़ी थी
उस पर इल्जाम था
उसके पेट में पल रहा बच्चा किसी और का है
उसकी कोई नहीं सुन रहा था
सब उसका अपराध घोषित करने में लगे थे
मैं उसकी तरफ हो जाना चाहती थी
वह बार-बार लोगों से इल्तजा कर रही थी
कि उसकी भी बात सुनी जाए

मैं बहुत छोटी थी
मेरे उसकी तरफ होने से
उसके हक में कोई फर्क नहीं पड़ता
पर मुझे फर्क पड़ रहा था

वह अकेली और बहुत अकेली थी

हमारी तीसरी मुलाकात हमारे घर पर हुई
उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था
और वो मेरे पिता से कह रही थी कि अब्बा मुझे मेरा हिस्सा दिला दीजिए
पता नहीं क्यों उसे लगा कि मेरे पिता
उसका हक उसे दिलाएंगे
इसके बाद हमारी कोई मुलाकात नहीं हुई
पर लगातार खबरें आती रहीं
कभी थाने में, कभी कचहरी में
कभी पंचायत में
कुछ ना कुछ उस पर इल्जाम हमेशा लगते ही रहते

हमेशा उसके गर्भ पे सवाल उठते ही रहे
और अब उसने किसी के सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझा

आज उसकी उम्र कोई पचास होगी
क्या फर्क पड़ता है
सवाल तो हमेशा स्त्रियों के गर्भ पे उठते ही रहे हैं
दुनिया एक तरफ
और वह एक तरफ
हमेशा लड़ती रही

आज वह एक हुनरमंद महिला है
बेजान लकड़ियों में जान फूंकती है
और लोग हैं कि
सवाल करते हैं
एक औरत लकड़ी की कारीगर कैसे हो सकती है?

गवनहरु* बचपन में शादी लेकिन सालों बाद ससुराल में विदा की गयी दुल्हन

 

5. दुर्गा

मैं देवी दुर्गा की नहीं
एक लड़की की बात कर रही हूँ
भूरे बालों वाली लड़की
जिसके उम्र की लडकियाँ
उससे बड़े कक्षा में पढ़ रही थीं
उसने बहुत मुश्किल से

अपना दाखिला कराया था
जिसे मैं दूसरी कक्षा में पढ़ाती थी
हालांकि अपने कक्षा में सभी बच्चों से
उम्र में सबसे बड़ी थी दुर्गा
यही कोई दस बरस की रही होगी
जिसके कारण वो सबसे सरमाये और सकुचाये सी रहती थी
दुर्गा मु श्किल से ही

कभी-कभी ही स्कूल आ पाती थी
एक झोला जो प्लास्टिक के बोरे से बना था
बमुश्किल से ही उसमें दो किताबें एक कॉपी

और एक कलम जो रुक-रुक कर चला कर थी
वह अक्सर नागा किया करती थी
पूछने पर बोला करती कि अम्मा ने रोक लिया था
बहुत बार बताती बहुत बार नहीं भी

पर जब भी स्कूल आती बहुत मन से पढ़ा करती
वो नंगे पांव ही आ जाया करती थी
चप्पल न पहन के आने पर स्कूल में बहुत मार पड़ती
वह हर बार एक हाथ में मार खाती

और दूसरे हाथ की मुठी को जोर से बांध लेती
रोते हुए कभी नहीं देखा उसे मैंने
लेकिन हँसते हुए भी नहीं देखा कभी
मैंने उसे बोला एक जोड़ी चप्पल खरीद लो
इस बार पन्द्रह अगस्त में
लेकिन दुर्गा जानती है
चप्पल और स्कूल दोनों उसके बुते से बाहर की बात है
पर दुर्गा जब भी स्कूल आती बिना चप्पल के ही आती
स्कूल के आगे चप्पल बहुत जरूरी नहीं लगता था उसे

उसे पसन्द तो बहुत कुछ था
जैसे पेट भर खाना
आप सोच रहे होंगे कि
पेट भर खाना कोई पसंदीदा कामों में से हो सकता है ?
लेकिन उसके लिए था
उसका पेट बहुत मुश्किल से ही भर पाता था।
उसे स्कूल आना भी बहुत पसंद था

दुर्गा से सबसे पसंदीदा चीजें छीन ली गयीं थी
सालों बाद वही दुर्गा हस्पताल की सीढ़ियों पर मिली
उदास, बहुत उदास
मैं उसके पेट में तो नहीं झांक सकती थी
पर आज भी उसके पैरों में चप्पल नहीं थे.

 

6. बढ़ी औरत

मनुष्य का जन्म कैसे हुआ

इसके बहुत से सिद्धान्त हैं
हम आदम और हव्वा पर नहीं जाएंगे
और ना ही क्यों अवतार हुआ
की ढोड़ी (नाभि) से पैदा हुए लोग अवतार माने गये
हमारे यहां (पूर्वांचल) नाच नौटंकी में नचनिया को
ढोड़ी में तेल डालने के लिए ईनाम दिया जाता है

वैज्ञानिकों का मत है
मानव का जन्म स्त्री गर्भ से हुआ
स्त्री-पुरूष सम्बन्ध से

फिर मेरे गाँव की एक औरत अपने अंतिम दिनों में
क्यों अकेली रह गयी
हम उसे ईया (दादी) बुलाते थे
बुलाने का क्या था
गाँव भर कि वह कुछ ना कुछ लगती थी
एक बात जो मुझे बहुत बुरी लगती थी
वह था उनका अकेलापन
वह एक संयुक्त परिवार की सबसे बूढ़ी औरत थी
और सबसे बीमार भी
पति के जाने के बाद एकदम बदहवास हो गई
उनके बच्चे भी नहीं थे
होते तो क्या पता
उनका जीवन कुछ ठीक होता
पर मैंने तमाम बूढ़ी औरतों को
अपने अंतिम समय में
एकदम अकेला पाया
उस बूढ़ी औरत को भी

पति के रिश्तों ने उनकी जिम्मेदारी ली
जिम्मेदारी क्या ही थी संपत्ति पाने के लिए
यह तो करना ही था
पूरा दिन वह घसीटते हुए
इधर से उधर रेंगते रहती
सावला रंग बड़ी आंखें सफेद छोटे-छोटे बाल
दुःख से ज्यादा गुस्से से भरी हुई लगती
हमेशा गालियां देती
बड़बड़ाती हुई बैठी रहती
कोई उनकी तरफ देखता तो
मानो वह बिल्कुल समझ रही थीं
क्या देख रहे हैं
या क्या देखना चाहते हैं

गांधी के कम कपड़े पहनने का तर्क
और एक औरत के कम कपड़े पहने हुए का अर्थ
दोनों कितना जल्दी बदल जाता है
मैंने जवान औरतों को हमेशा घुंघट में देखा
और एक बूढ़ी औरत को अर्धनग्न

स्कूल जाते वक्त उनसे नजरें बचाकर जाती थी
और स्कूल से आते वक्त भी
गांव के बाहर ही बूढ़ी औरत बैठी रहती
उनकी योनि खुली रहती
जिस पर मक्खियां भिन्न-भिन्ना रही होती थी

रात में मुझे सपने आते
बुरे-बुरे सपने
मैं नंगी हूँ और सबसे कपड़े मांग रही हूँ
मुझे कोई कपड़े नहीं दे रहा है

पूरा गाँव कोसता रहता ढंग से कपड़े नहीं पहनाते
हमेशा योनि खुली रह जाती है
जवान होते लड़के बहुत गौर से देखते
बूढ़ी औरत की योनि
मैं कभी भी नजर भर उनको ना देख सकी
मुझे लगता कि वह कोई बूढ़ी औरत नहीं
मैं ही हूँ जिसे लगातार लोग घूरे जा रहे हैं
घूरे जा रहे हैं
और मैं अंदर ही अंदर सहमती जा रही हूँ
मैं योनि से बाहर निकलना चाहती हूँ
लोग हैं कि योनि में घुसे जा रहे हैं

उस बूढ़ी औरत के जाने के बाद
उसकी आंखें बहुत याद आती रहीं
उसमें बहुत सूनापन था
देखते ही देखते
एक गाँव की
एक रिश्ते की औरत
सिर्फ और सिर्फ योनि में बदल गई

 

ढोंडी* नाभि नचनिया* साड़ी लगाकर नाचने स्त्री चरित्र निभाने वाला मर्द

ईया* दादी

 

7. काश माँ पढ़ पाती

मैंने माँ को हमेशा माँ की तरह देखा
मैंने कभी सोचा ही नहीं
कि माँ की भी साथी, संघाती, सहेलियाँ हो सकती हैं
या रही होंगी
अपने पिता की दुनिया को मैंने हमेशा
दरवाजे के बाहर फैलता देखा
माँ को हमेशा चूल्हा चौका के आस-पास

पिता हिसाब-किताब में कच्चे थे
हमेशा कर्ज में डूबे रहते
माँ हिसाब की एकदम पक्की
पर माँ की चलती नहीं थी
हम लोगों को स्कूल भेजना
सबके लिए खाना पकाना
बीच-बीच में सुट्टा (बीड़ी) लगाना
मेरी माँ को पान खाना बहुत पसंद था
जब मैं बच्ची थी
मुझे ही पान लाने दुकान भेजती
मैं बता नहीं पाती मसाले में क्या डालना है
पर माँ बोलती थी जाओ पान वाला जानता है
क्या डालना है
मुझे देखते ही पानवाला
माँ के स्वाद का पान बना देता था
और मैं आज भी सोचती हूँ क्या सच में
पान वाला मेरी माँ के स्वाद को जानता था?

मेरी माँ के चेहरे पर हंसी बहुत सुंदर लगती थी
जब वह हंसती थी पान खाए हुए दांत चमक उठते
मैंने कई बार पूछा था
ये दांत काले कैसे हो गए?
बोली मिस्सी लगाया था
तब की औरतें दाँतों में मिस्सी लगाती थीं
ये तब का चलन था

हम बच्चों को खेलता देख अक्सर कहती
पढ़ लो, पढ़ने से ही कुछ होता है जीवन में
मेरी माँ को काम करना बहुत पसंद था
पता नहीं वो कहाँ-कहाँ से
कैसे-कैसे काम ढूँढ़ लेती थी
वो दिन भर काम में व्यस्त रहती थी
मैंने हजार दफे कहा थोड़ा आराम भी कर लिया करो

दिन भर काम-काम करती रहती हो
कहती, समय नहीं कटता है
तुम लोगों की तरह पढ़ी-लिखी होती
तो मैं भी कुछ किताबें पढ़ती

माँ के पास इतना काम होने के बाद भी

उसे हमेशा उसका खालीपन चालता रहा
और मुझसे अक्सर कहती है कि काला अक्षर भैंस बराबर

हमारे दस्तावेजों को संभाल कर रखती
आय, जाति, निवास प्रमाण-पत्र
बिना पढ़े ही इन दस्तावेजों को देखकर
पूरे आत्मविश्वास से कहती
यह तुम्हारा है, ये उसका है
हम कई बार बोलते कि ये मेरा नहीं है
माँ कहती अच्छे से पढ़ो, देखो
ठीक से देखो यह तुम्हारा ही है
और माँ बिल्कुल दुरुस्त होती
जिसका बोलती उसका ही होता

माँ की याददाश्त बहुत जबरदस्त थी
उसने रंगों और संकेतों को मिलाकर
सबके चीजों को संभालने का
तरीका इजाद कर लिया था
काश माँ पढ़ पाती
सामाज से अपने हिस्से हक़ मांग पाती
क्या पता?
सावित्री बाई फुले, अम्बेडकर
मदर इंडिया की कैथरीन मेयो
ऐनी फ्रैंक, गोर्की की माँ से
आगे की दुनिया रचती।
और दुनिया को बदलने में
अपनी दुनिया को सुंदर बनाने में
उसका बहुत योगदान हो सकता था
हालांकि उसकी दुनिया हम बच्चे थे
और हम बच्चों की दुनिया किताबों में
इन सबके बीच माँ
जो पहले एक औरत है
कही छूट गई
अपनी दुनिया बनाने से!!

 

8. इंतजार में हैं लड़कियाँ

मुझे नहीं पता

कि किसने कहा है
कि लडकियाँ इंतजार में रहती हैं
कि सफेद घोड़े पर बैठकर
राजकुमार आएगा उन्हें लेने
असल जिंदगी में लड़कियों ने
कभी राजकुमार की कल्पना की ही नहीं थी

वे तो इंतजार में हैं
अपने गाँव में एक स्कूल हो
जहाँ वे बाल खोलके बिन दुपट्टा लगाये
लहराते हुए स्कूल जायें
जायें वे सब भाई भाड़ में
जो बहनों के हिस्से और
हक़ के पैसों से पढ़कर हुए अधिकारी
लडकियाँ इस फिराक में हैं
कि कब उन्हें मौका मिले
और दुनिया की सबसे तेज घोड़ा दौड़ाने वाली बनें
लडकियाँ इस इंतजार में हैं
कि रेप करने के बाद उन्हें फांसी पर नहीं लटकाया जाएगा
उनकी आँखें नहीं निकाली जाएंगी
उन्हें जिंदा नहीं जलाया जाएगा
लडकियाँ इस इंतजार में हैं कि
उनके घर वाले जींस पहनने पर जान से न मारे
जब उनके खिलाफ हिंसा हो
और वह थाने में जाए
तो उनका चरित्र हनन न किया जाए

इतना रोज हम लड़कियों के साथ होता है
आपको अजीब नहीं लगता ?
आपको लगता है
इस दुनिया की कोई भी चीज प्यार करने लायक नहीं ?
आपको अजीब लगता है कि
एक लड़की गिटार लिए घूम रही है
गाँव और शहर के गलियों में
उसे नहीं पता
कि लोग उसका संगीत सुनना चाहते भी हैं या नहीं
पर उसे यकीन है
दुनिया प्यार, कला और संगीत से ही बदलेगी

बहुत संकरी गली में बंदूक के मुहाने पर खड़ी एक लड़की
जिसके हाथ में कैमरा है
आपके जहन से बाहर है
कोई लड़की कैमरा लिए आवारागर्दी करते मिल जाये
जो सच है सब सामने कर दे
कुछ भी इतिहास में छुपाने जैसा न हो
जैसे कुछ लडकियाँ मुँह में गुटखा भरे हुये
मिल जाएं किसी चट्टी चौराहे पर
भटके हुए राहगीरों को एकदम सही पता बताएं
नदियाँ गहरी हों तो
औरतों का झुंड तैरकर नदियों को पार लगाएं
तीसरा लिंग संविधान की नए सिरे से समीक्षा करें
कुछ कानून भी हटाए
कि प्यार करना
कभी अपराध कैसे हो सकता है
खुद से या
खुद जैसे लोगों से प्यार करना?
कौन हैं वे लोग?
जिन्हें लड़कियों का छिकना, पादना भी अजीब लगता है
लड़कियाँ जैसे जैविक ना हो कर
सांचे में ढाली हुई पत्थर की मूर्तियां हो
जिसे गुप्त काल की
सर्वोच्च कला कह के
अपने खूनी इतिहास को
सराह लेना चाहते हैं
जब एक लड़की बार्डर पर लड़ाकू जहाज से युद्ध करे देशभक्ति?
वही लड़की जब अपने हक़ के लिए लड़े अपराध कैसे? युद्ध करने और लड़ने में
हमें फर्क करना सीखना होगा
युद्ध हमेशा तबाह करता है
और लड़कियां लड़ रही
धर्म के ठेकेदारों से
मोरर्टार कंधों पर लिए
एक दिन खिंच लाएंगी बाहर
तुम्हारे मन्दिर, काबे से
पत्थर के बूत और जंजीर को
फिर एक दिन

उसी जंजीरों पर बन्दूको को धोके सुखाएंगी
और तय करेंगी
कि ज़िंदगी में धर्म और बन्दूक का कोई काम नहीं
दुनिया प्यार से चलती है डर और बन्दूक से नहीं
एक दिन इस इंतजार में।
लड़ रही है लडकियाँ।

 

9.बहुत अच्छी लगती हैं वे औरतें

तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं

वे औरतें जो बड़े पदो पे काम करते हुए
गोबर के उपले पाथती हैं

बहुत अच्छी लगती हैं

तुम्हारे माँ बाप की टट्टियाँ साफ करती हुयी औरतें
कितनी ही औरतें
तुम्हरा घर चलाने में
देह और सैलरी दोनों खपा देती हैं

बहुत अच्छी लगती हैं वे औरतें
जब वो तुम्हारे यूज्ड कॉन्डम
को कागज में लपेटकर कूड़ेदान में डालती हैं
उस वक़्त तुम स्वर्ग जाने जैसा महसूस करते हो न!
जैसे लगा कि तुमने
कॉन्डोम के साथ सेक्स करके

उस औरत पर एहसान कर दिया हो

दिया है तुमने उसे चरम सुख ?
नहीं पर, तुम्हें यौन सुख की अज्ञानी औरतें
बहुत अच्छी लगती हैं
जब तुम्हें अपनी जाति की सबसे सुंदर

और उच्च शिक्षा की डिग्री वाली औरत मिल गयी
दहेज में।
मिल गई तुम्हें थोक में
उसकी सुंदरता, कोमलता और जीवन भर की गुलामी
उस औरत के काबिल जो लड़के थे
उनको तुमने सपने में आने से भी पाबन्दी लगा दी
ऐसा नहीं है कि औरतें प्रेम नहीं रच रही हैं
उनके रचे हुए प्रेम में खुद न पाके
तुम करने लगते हो कई कारण
मशलन की तुमको जो प्रेम कर रहे है वो तुम्हारे काबिल नहीं
नहीं है उसके पास तुम्हारे इतना डिग्री
डिग्री प्रेम का पैमाना नहीं होता है
तुमने हमेशा हमारे चुनाव को भरोसमंद नहीं समझा
वो बेवकूफ लगता है
तुम्हारी पसन्द कैसी है?
कैसे-कैसे लड़को से दोस्ती है तुम्हारी
कैसे बताऊं
तुम जो स्त्री के योनि पर कुंडली मार के बैठे हो
तुम्हें लगता है स्त्रियाँ योनि हैं
है उनके पास इस दुनिया को

उथल-पुथल करने वाला एक दिमाग
जिसको तुम मान्यता देना ही नहीं चाहते
तुम कभी समझ नहीं पाए स्त्री का सम्मान
और उसके हक़ की आज़ादी
आज़ादी में प्रेम का मतलब
न तुमने प्रेम किया और न करने दे रहे हो

सदियों से तुम गढ़ते आ रहे हो
पत्नी का दुख
प्रेमिका का सुख
वेश्या का आनन्द
पागल की हुई औरतों को

तुमने घर से बाहर कर दिया
हालांकि गढ़ी गई इन औरतों के पास आज भी अपना घर नहीं
नहीं है अपना एक कमरा भी
तुम हमेशा गढ़ लेते हो
स्त्री का स्त्रिद्वेष
और इस बीच हमेशा
अपने को प्रेम करने लिए गढ़ लेते हो एक औरत
तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं
बड़े पदों पे काम करने वाली
गोबर पाथने वाली औरतें
यूज्ड कॉन्डम फेकने वाली
सैलरी देने वाली
दहेज लाने वाली औरतें
औरतें तुम्हारे बनायी दुनिया से
खुद को बाहर निकाल लेती है बार-बार
और तुम बार-बार गढ़ लेते हो
बहुत अच्छी लागती हैं वे औरतें।

 

10. कुछ सवाल बदलने हैं

मसलन कुछ सवाल बदलने हैं

जब भी सवाल करने का सोचती हूँ
तो मुझे लगता है कि
सब फिर से शुरू से शुरू करूँ
जब मानव इतिहास में विकास कर रहा था
तो औरतें क्या कर रही थी?
कुछ तो कर रही होंगी
फिर उनके कुछ करने को
इतिहास में क्यों जगह नहीं दिया गया?
वैसे आज के समय में
पुरुषों द्वारा फैलाया गया है कि
दो औरतें कभी चुप नहीं रह सकतीं

प्राचीन समय में लोग समूह में रहा करते थे
आज तक उन औरतों के बोलने के
साक्ष्य क्यों नहीं मिलते?
क्यों नहीं लिखा गया कि
बिम्बिसार की तीन सौ रानियाँ थीं
इन रानियों को यौन सुख मिला कि नहीं ?
वो तीन सौ रानियाँ
बिम्बिसार की रानियों के नाम से जानी गयीं।

इसलिए कुछ सवाल बदलने हैं
जैसे किसी से मिलो तो पूछो
उसकी माँ का क्या नाम है?
अक्सर लोग ये बोलते हैं कि
माँ का भी कोई नाम होता है!
माँ, माँ होती है
माँ पैदायसी माँ नहीं थी
उसका अपना एक नाम होगा
जो उसकी अपनी माँ ने रखा होगा
हो सकता है एक नाम उसके प्रेमी ने रखा हो
उसकी सहेलियों ने
कुछ और नाम रखा हो
पड़ोस के मनचलों ने भी
लेकिन चाहे जो भी हो
नाम तो होगा

अपने दोस्तों से मिलो तो पूछो
अब क्या वो अपनी पसंद का काम करते हैं?
या परिजनों के अधूरे ख़्वाब लिए
बूढ़े हो रहे हैं
ये पूछो कि जिससे उसने जान देने तक का
वादा किया था
उस वादे का क्या हाल है ?
लड़कियों से ये मत पूछो की वो लव या अरेंज मैरिज करेंगी
पूछो कि उनका अपना का घर कैसा होगा?
अपने घर का नाम क्या सोचा है?
उनसे पूछो की जब उनके कार्यस्थल में
यौन शोषण हुआ था
तो कहीं वो खुद को तो दोषी नहीं समझतीं?
खुद से और अपने शादीसुदा सहेलियों से
सवाल करने की जरूरत है कि
कितनी बार तुम अकेले घूमने निकली ?
कितनी बार तुमने कहा कि ये घर चलाने में
जो ऊर्जा जाती है
उसका मेहनताना चाहिए

आप सोच रहे होंगे कि
सवाल करने से कुछ नहीं होता है
होता है वैसे ही होता है
जैसे जोर-जोर चिल्लाने से झूठ सच नहीं हो जाता है
वैसे ही सवालों से भागने से
सवाल बदल नहीं जाते
और चुप रहने से किसी की सोच और
स्तिथी नहीं बदल जाती
इसलिए सवाल करना बहुत जरूरी है
जरूरी है कि
हम अपने रोज में जी रहे
लोगों से सवाल करें
कि माँ तुम्हरा अपना घर क्यों नहीं है?

अब तुम अपने पिता से सवाल करो
कि घर का काम मेरे ही हिस्से क्यों आया?
सवाल करो
कि औरतें औरतों की दुश्मन नहीं होती हैं।
दुश्मन तो उन्हे खुद का बनाया गया
ताकि वो कभी लामबन्द न हो सकें
इस स्त्री विरोधी सत्ता और समाज के खिलाफ

ये सवाल करें कि
घर और ज़िंदगी को बद से बदतर करने वाले लड़कों को
गुणवंती लडकियाँ ही क्यों चाहिए?
चाहिए लडकियाँ पलट कर सवाल करें
कि तुम्हें घर का काम आता है या नहीं
वरना घर कैसे चलेगा?
तब तक दुनिया रुक जाए मेरी बला से
जहाँ औरतों के सस्ते श्रम पे
दुनिया दिन-दुगनी प्रगति करे
प्रगति पसन्द हम भी हैं पर
बराबरी के हिस्से के दम पर

 

11. किसी दिन

कितना अच्छा होता

किसी दिन सभी औरतें
संसद में इकठ्ठा होतीं
और संसद के बीचो-बीच
एक बड़ा सा खूँटा गाड़ देतीं
और सभी छुट्टा सांड़ों को बांध देतीं
जिन्होंने देश को बाड़ा बना रखा है
और लोगों के दिमाग को घास का मैदान
संसद को जंगल
और जंगल को फैक्ट्री.

अपने गोसाइयों के कहने पर
सांडों ने घास खाना छोड़ दिया है
वे अब आदमियों का खून पीने लगे हैं
इसके बाद भी गोसाइयों की प्यास ही नहीं बुझती.

औरतों से अच्छा
कोई कारीगर नहीं होता
समान को गुथने और नाथने में भी,
एक दिन वे सभी छुट्टे सांड़ों को भी नाथें
और बताएं कि
लोगों से देस बनता है
देश से लोग नहीं
इतिहास से दर्शन बनता है
दर्शन से जीवन शैली
नहीं बनता भूगोल से इतिहास
और न इतिहास लौटता है पीछे

 

12. टिहरी शहर

मैंने पहली बार जब समंदर देखा
भर गयी उम्मीदों से
और पहली बार देखा टिहरी डैम
धक से सब डूब गया
आखरी बची उम्मीद भी
हालांकि मैंने डूबे टिहरी शहर को ही देखा था
पर न जाने क्यों ये उम्मीद थी
कि एक दिन टूटेगा यह डैम
और लौट आएंगे वे सब लोग
जो अपने लौटने की आखरी उम्मीद
डूबने के बाद ही
जबरन यहाँ से निकाले गए थे

मैं उस कुत्ते को देखना चाहती हूँ
जो अक्सर उस शराबी के पास ही सोता था
उन पंक्षियों के आने के इंतजार में हूँ
जो अपने बच्चों का घोसला बनाने के लिये तिनका लेने गए
और गुम हो गये
उस बिल्ली को भी देखना चाहती हूँ
जो अपने बच्चों को बहुत दूर तक नहीं ले जा पाई थी
उस प्यार को जो अभी स्कूल के आंगन में ऊगा ही था
और उस जोड़े को भी जो नदी के पानी में पैर डाल दूर तक साथ चलने का वादा लिया था

वह लड़की जो लड़ती रही
कि यह शहर मेरा भी घर है
मेरा स्थायी पता भी
उस पते से जाने कितने चिठ्ठीयाँ
बिन पढ़े ही लौट गईं
मैं उससे मिलकर
उसका हाल पूछना चाहती हूँ।

मैं पता पूछ रही हूँ
उन यतीम बच्चों का जो अक्सर
इन चौराहों पर मिल जाते थे

वे जिन्हें तुम हिकारत से भरकर हिजड़ा कहते थे
जिन्होंने हर वक्त जी भर

दुआ दिया तुम्हारे बच्चों को
जिन्होंने अपने सबसे मनपंसद रंगों से
रंगना चाहा होगा इस शहर को
अब उनकी दुनिया कितनी
बेरंग और उदास हो गई होगी

मैं उस लड़की को खोज रही हूँ
जो काले बादलों के बीच कहीं मिलती ही नहीं

नहीं मिलती वो लड़की जिसने घर वालों से लड़कर स्कूल में दाखिला लिया था
पहाड़ की पगडंडियों के निशान कुछ यूँ ही
बने रहे ज़हन में
उस लड़की के पाव नहीं आते सड़क पर

उन भेड़ों के झुंड भी अब मैदान में कहीं खो से गये हैं
और वो चरवाहे भी

अब बाजार का मतलब भी बदल गया है
कुछ ताजी सब्जियाँ ब्यवहार में मिल जाती थीं
और कुछ उधार में भी
मजदूर तब भी मजदूर थे

और औरतें तब भी वहीं थीं जहाँ आज हैं।
बहुत से लोगों ने घर के दरवाजे खुले ही रखे
पता नहीं क्यों ?
लेकिन ये कोई टोटका नहीं था
ताखों में दिये जलते रहे
पहाड़ के लोग मैदान में आके परेशान रहे
अपने होने की गवाहियाँ देते रहे
पर वे कहीं दर्ज न हुईं

कुछ ने चाय की दुकान खोली
पर वे कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे
तो दुकान नही चली
बेटियाँ कच्ची उम्र में ब्याह दी गईं
बेटे मजदूरी में लगा दिए गए
और औरतों की दुनिया पहले से और भी सिकुड़ कर माचिस की डिबिया में समा गई

डैम का पानी कम होने पर एक छत्त दिखता है
जहाँ लोग गुनगुनी धूप सेका करते थे
वो छत मैं फिर से गुनगुनी धूप से भरना चाहती हूँ।
एक पागल औरत जो छोटे से बच्चे को

सीने से सटाये लिये घूमती थी
उस औरत, बच्चे और पहाड़ के होने का मतलब क्या था ?
वो पहाड़ आज भी बहुत खामोश है
पर बहुत बेचैन भी

एक सड़क जो कचहरी की तरफ जाती थी
कितनों के न्याय अधूरे रह गये ।

एक बहुत ही परेशान औरत मिली
इतना ही बोली कि पति के मरने का गम नहीं है
टिहरी का गम जाता ही नहीं है सीने से
पहाड़ जो अब बस यादों में बचा है लोगों के पास
और डैम जो राष्ट्र का है
थोड़ी सी बिजली जो कुछ शहरों को जाती है
पानी पर तो कोई हिस्सेदारी थी ही नहीं कभी
वो जाती है पेप्सिकोला और दारू की कम्पनियों को

एक बच्ची मिली
उसने इतना ही कहा मुझे दादी के घर जाना है
उससे कैसे कहूँ
कि अब न वहाँ घर है
न दादी ही।


कवयित्री डॉ. सुनीता ‘अबाबील’
6 मई 1984 को उत्तर प्रदेश, जिला महाराजगंज के बड़हरा रानी में जन्म। B.A जवाहर लाल नेहरू स्मारक डिग्री कॉलेज महाराजगंज और M.A. दिन दयाल उपाध्य गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर।
M.Phil महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र 2010 में।
इतिहास में Ph.D दिल्ली यूनिवर्सिटी 2019 में।
कुछ पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
कुछ रिसर्च पेपर और कुछ आर्टिकल भी प्रकाशित है।
सम्पर्क ग्राम-रानी बड़हरा
पोस्ट व जिला महाराजगंज
पिन-273303
उत्तर प्रदेश
मो. 9266597255
sunitaws@gmail.कॉम

 

मूर्तिकला के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित टिप्पणीकार हीरालाल राजस्थानी, पूर्वअध्यक्ष : दलित लेखक संघ, दिल्ली.
जन्म : 9 जून 1968, प्रसाद नगर, दिल्ली.
शिक्षा : बी एफ ए (मूर्तिकला विशेष), फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली.
कार्यक्षेत्र : कलाध्यापक दिल्ली प्रशासन.
उपलब्धि : भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद (ICCR) के 10 श्रेष्ठ मूर्तिकारों के पैनल में सम्मिलित.

कविता संग्रह : मैं साधु नहीं
संपादन : गैर दलितों की दलित विषयक कहानियां
संपादन : ‘प्रतिबद्ध’ दलित लेखक संघ की मुखपत्र पत्रिका व दलित कविताओं की तीन पीढ़ियाँ एक संवाद.)
फोन नं. 9910522436
ईमेल : hiralal20000168@gmail.com

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