समकालीन जनमत
कविता

रवि निर्मला सिंह की कविताएँ जातिवाद की जड़ों और उसकी चोट की तल्ख़ पहचान हैं

हीरालाल राजस्थानी


ज के युवा रचनाकार मार्क्स के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी भली भांति समझते हैं और जाति के सवालों तथा समतामूलक समाज के निर्माण पर आंबेडकर के विचारों की भी गहरी समझ रखते हैं। ऐसे ही एक उभरते हुए कवि हैं रवि निर्मला सिंह जिन्हें ठहर कर पढ़ा जाना चाहिए। रवि निर्मला सिंह एक स्पष्ठवादी संजीदा कवि हैं जो 05 फरवरी 1985 में गांव अटेरना, जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश में रैदास जयंती पर जन्मा। वैसे तो इनका नाम रवि प्रकाश है लेकिन अपने माता-पिता के नाम से इन्होंने ख़ुद को एक नया नाम दिया है, रवि निर्मला सिंह।

रवि एक साहित्यिक आलोचक के साथ रचनाकार भी हैं जो उन्हीं युवा कवियों में से एक हैं। जो आदर्शों को अपने विवेक की कसौटी पर जीते हैं। रवि मानते हैं कि आंबेडकरवाद किसी भी लिहाज से मार्क्सवाद के विरुद्ध नहीं है बल्कि इन्हें एक-दूसरे का पूरक समझा जाना चाहिए जो कि कम समझा गया लेकिन रवि जैसे युवा अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हुए आगे बढ़ रहे हैं। रवि के रचनाकर्म में जातिवादी शोषण, अवसरवाद, पांखण्ड, भ्रष्टाचार और आडंबर के खिलाफ मुख्य स्वर साफतौर पर उभरते हैं। वे इस उभार को अंदर और बाहर दोनों ओर  समानरूप से देखते हैं। पक्षपात की हिमायत से दूर न्याय के पक्ष में जूझती हुई इनकी कलम बहुत सरल भाषा लेकिन तल्ख तेवर से ज़रूर अपनी ओर आकर्षित करती है और अपने इसी तेवर की अलग पहचान रखने का दम भरती है।

‘सधी हुई कविता’ शीर्षक कविता में- “एक सधी हुई कविता/ ज्यादा दुर्गम है/ किसी/ ऊबड़खाबड़ तहरीर से/ उसका सधा होना/ कर देता है/ शब्द-शब्द को नियंत्रित” कवि सधी कविता को कथनी-करनी के अंतर में देखता है। वह मानते हैं कि आज कवि मात्र सम बिठाने के लिए ही शब्दों को व्याकरण में नियंत्रित कर अपने को एक अच्छा रचनाकार साबित करना चाहता है। व्यवहार में ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिलते जो समाज हित में खरे उतरते हों। यही बेचैनी कवि की पीड़ा है जिसे इस कविता में व्यक्त किया गया है।

“मज़दूरों की संसद” नामक कविता में- “प्रयास में हूँ/ एक ऐसी कविता लिख दूँ/ जो भगत सिंह के तमंचे जैसी हो/ सामूहिक मुक्ति से लैस/ जिसके आग उगलते शब्द/ गोली की मांनिद/ धस जाए..” कवि भगतसिंह के जज़्बे को रेखांकित करते हुए कल्पना करता है कि ऐसे शब्द जो समाज के खोखलेपन में ऐसे उतर जाए जैसे गोली-बोली उतर जाती है अपने लक्ष्य के अंदर। वह विचारों की शान पर उपेक्षितों, मजदूरों के लिए शुद्ध बदलाव देखना चाहता है और इसलिए वह संसद में मजदूरों की आवाज़ बुलंदी की बात उठता है।

‘सवाल’ कविता में- …कुँए में मेढ़क की भांति/उछलते कूदते/ गाते फिरते हैं राष्ट्रगान/ राष्ट्रगान के लाउड स्पीकर
/ की तेज ध्वनि/ लील जाती है सवालों की सब संभावनाएं…”
कवि के तेवर उसी तल्खी से सवाल उठाता हैं कि धारा के साथ बहते रहना बहुत आसान होता है लेकिन उस पर क्यों सदियों से सवाल नहीं उठाए गए। हम संघर्ष का रास्ता क्यों नहीं चुनते। क्यों छद्म राष्ट्रवाद पर कुँए के मेढ़क की तरह ताउम्र नृत्य करते रहते हैं। क्यूं तेज़ आवाज़ के ढिंढोरे में सच की आवाज़ दबने दे रहे हैं। कवि जाग पैदा करता है समाज में। जिससे हक़ों-हुक़ूक़ की आवाज़ बुलंद हो सके।

‘आखिर क्यों’ में कवि-“वो लोग/लूले लँगड़े थे/या अंधे बहरे/गन्दगी उठाते रहे/झूठन खाते रहे/क्यों नहीं/छिटक कर फेंक दी झाड़ू/क्यों नहीं /स्वामियों के मुंह पर दे मारी
/उनकी गलाज़त/क्यों नहीं कर दिया/सेवा से इनकार…”
 फिर वही लताड़। कवि गुलामों को गुलामी का अहसास दिलाना चाहता है। इस कारण वो सवाल उठाता है कि आखिर क्यों नहीं तुमने वर्णव्यवस्था रूपी जातिभेद का बहिष्कार किया? क्यों स्वीकार किया गंदगी उठाना और जूठन खाना? वो चेताता है कि आज भी क्यों नहीं ठुकराया गया इस कृत्य को? इस ओर संघर्ष हुआ ही नहीं यदि हुआ होता तो स्वाभिमान की रक्षा की जा सकती थी/ की जा सकती है।

‘अकेला हो जाना’ नामक कविता में- “भीड़ भरी दुनिया में/
काबिल -ए -यकीन है ?/ इंसान का अकेला हो जाना/ वो भी ऐसे समय में/जब दुनिया भूमण्डलीकृत हो चुकी है/ पहले से कहीं ज्यादा उदार हो चुकी है…”
कवि भूमंडलीकरण के दौर में इंसान को अकेला देख रहा है। इस अकेलेपन का कारण वह निजी स्वार्थों और पूँजी की मुनाफ़ाख़ोरी को मानता है। जब दुनिया मुट्ठी की जा रही हो तब मनुष्य की भावनाएँ और सम्बन्ध उत्पादों को बेचने के साधन मात्र बन कर रह जाते हैं । सामाजिकता, आत्मीयता और मनुष्यता सिर्फ स्क्रीन पर आभासी संबंधों तक सीमित हो रही है ऐसे में व्यक्ति निरंतर अकेले होते जाने को अभिशप्त है.

‘मैं और हम’ इस कविता के माध्यम से- “…उसे/ मंज़ूर हैं/ नई दुनिया के लिए/अनुबंध की सब शर्तें/लेकिन/ मैं होने का मोह/ उसकी नसों में/ अभी भी/बहुत सारी पहचानें/ छुप लेता है/ अनूकूल हवाएं चलते ही/ पहचानें/बाहर आ जाती हैं/ मैं हूँ मैं हूँ/ चिल्लाने लग जाती हैं।” कवि वैज्ञानिकता और पांखण्ड को अलग करके देखने का आग्रह करता है और उसमें छुपे स्वार्थ को उजागर करता है। आत्मग्रस्तता की परंपरागत जीवन शैली पर तंज कसता है। इंसान अपने अनुकूल बनाने की होड़ में बड़े-बड़े समझौते करता चला आ रहा है।  इसी के चलते वह अपने हित में सही-गलत का भेद भूलकर स्वार्थपूर्ति को चुनने को अहमियत देता है। रवि की यही प्रतिबद्धता है कि मनुष्य की व्यक्तिगत बेहतरी भी समाजहित में सोचने पर है.

‘नज़र आना चाहिए’ में- “बड़े हो गए चेहरे/ जब/ पैरवी करते हैं/ खतरनाक चेहरों की/तब उनके मुंह/ भयानक जंगल की तरह/उबड़खाबड़/ अनिश्चित दुर्घटनाओं से भरे/ नज़र आने चाहियें।।”रवि निर्मल सिंह कवि के रूप में स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि हमें अपने नायकों और प्रतिनिधियों के चुनाव में भी सजग रहने की ज़रुरत है. वे कहते हैं “नज़र का धुंधला होना ही/ शिकार होने का सबब है”

‘चमार’ शीर्षक की इस कविता में- “…किसने कहा/पहली बार/हमें चमार/इसे मैं जानता हूँ/लेकिन वो नहीं जानते/
जो खुद को चमार कहते हैं/वो चमार कहते हुए/गर्व करते हैं/इतिहास में चमार नायकों की याद दिलाते हैं/गर्व की जो
व्यक्तिवादी लहर/मनुस्मृति से बह चली थी/आज/चमारों की गली में आ पहुंचीं है…”
कवि दलितों के अंदरूनी जातिवाद की भी खूब खबर लेते हैं और स्वीकार करते हैं कि जब अपनी जाति पर गर्व होने लगे तो मनु की जातिव्यवस्था को अहमियत मिलती है और यही जड़ है जातिवाद की। एक जाति दूसरी जाति को अपने से नीचा समझने दिखाने की प्रवृत्ति ही इसका पोषण है। जिसे नकारा नहीं जा सकता। रवि इस मानसिकता पर बहुत गहरे से प्रहार करते हुए कहते हैं – “मनुस्मृति से बहती यह व्यवस्था आज चमारों (दलितों) की गली में आ पहुंची है।” जिस पर कहना होगा कि कवि की चिंता वाज़िब है।

‘मैं दलित हूँ’ कविता में- “…मैं/ दलित हूँ/ जब तक अन्याय की व्यवस्था का चक्रव्यूह/ नहीं हो जाता तहस नहस/ जब तक न्याय/ नहीं बरसता मूसलाधार बारिश की तरह/ जब तक मुक्त नहीं हो जाते/ जल जंगल और ज़मीन/ हवा और ऋतुओं की तरह/ तब तक/ मैं दलित हूँ।” कवि बहुत जोखिम लेते हुए वर्णव्यवस्था के आधारों को सिरे से नकारते है. जो सदियों से उपेक्षित रहा है- शिक्षा, सम्मान, बराबरी और आगे बढ़ने के समान अवसरों से वही दलित है. जब तक हरेक उपेक्षित को बराबरी का अधिकार और  जल जंगल और ज़मीन को मुनाफाखोरों के चुंगल से मुक़्त कर उसके मूल रहवासियों का मालिकाना वापस नहीं मिल जाता तब तक इस विभेद को मिटाया नहीं जा सकता।

‘कहाँ तक’ कविता भी उसी तेवर में- “…सम्मान की लड़ाई में/ लड़ते हो अवसरवादी उपकरणों से/ ढोते हो अंधेरा/ नफरत करते हो सूरज की लाल किरणों से/ हरी घास के सांपो से/ बचते बचाते/ पहुंच जाते हो तुम कैदखानों में उन्हीं/ जिनके विरुद्ध शुरू की थी/ तुमने लड़ाई/ सामाजिक न्याय की।” कवि ने अवसरवाद को इस सामाजिक कुव्यवस्था में सबसे बड़ा रोड़ा माना है। वे बार-बार इस और मुड़ आते हैं। वे मानते हैं कि इस अवसरवाद के झांसे में आकर ही तुम अंधेरे को ढोते आये हो और समानता के सूरज से नफरत करते हो । मार्क्सवाद का हवाला देते हुए कहते हैं कि जो मार्क्सवादी तुम्हारी सामाजिक, आर्थिक न्याय की लड़ाई लड़ते हैं उन्हीं के विरुद्ध जाकर शोषण और भेदभाव की कैद में बंद हो जाना पसंद करते हो। ये लोभ-लालच, निजी स्वार्थ ही सदियों के संताप का कारण बना हुआ है।

कवि रवि निर्मला सिंह में साहित्यिक दृष्टि से अपार संभावनाएं मौजूद हैं जिसे पोषण की ज़रूरत है। जितनी सरल उनकी कविताएं हैं। उतना ही जटिल उनका दृष्टिकोण जान पड़ता है। जिसे समझने की प्राथमिकता बनी रहनी चाहिए। उनकी इन कुछ कविताओं को यहां पढ़ा जा सकता है।

रवि निर्मला सिंह की कविताएँ 

1. सधी हुई कविता

एक सधी हुई कविता
ज्यादा दुर्गम है
किसी
ऊबड़खाबड़ तहरीर से
उसका सधा  होना
कर देता है
शब्द शब्द को नियंत्रित

नियंत्रण
जी हां नियंत्रण
जिसके बदले
दे दिया उन्होंने
एक झूठा
पेज दर पेज
छलने वाला वाङ्गमय
जिसकी भाषा जितनी सधी है
उतना ही सधा हुआ है
मनुष्य

मनुष्य
जी हाँ मनुष्य
जो सधते सधते
मुड़ गया है पीठ के बल
प्रकृति विरुद्ध यह मुड़ना
कामयाबी के एक बहुत ही सुविधाजनक नुस्खे की तरह
लोग अपनी जेब में
पेन
इम्पोर्टेड चश्मे
और बटवे की तरह लिए घूमते हैं

पेन
जी हाँ पेन
जो हक़ लिखने से कतराने लगा है

चश्मा
जी हाँ चश्मा
जो सिर्फ खुद को
देखने लगा है

बटुवा
जी हाँ बटुवा
जो
आदमी होने की पहचान को
दो हज़ार के नोट की तरह
जाने कहाँ छुपा लेता है

एक कविता
जी हाँ एक सधी हुई कविता
धीरे धीरे
जैसे सुबह
दोपहर के रास्ते
शाम के बाज़ार में
रात के अंधेरे को दे आती है
दिन भर का हिसाब
ऐसे ही क्रांति की सब सम्भावनाएं
एक सधी हुई कविता
सोख लेती है
मैं कविता पढ़ कर
क्रांति क्रांति चिल्लाने लगता हूँ
लेकिन मेरी चिल्लाहट सुबह और शाम के बीच
कविता की तरह सधती चली जाती है

एक सधी हुई कविता
ज्यादा दुर्गम है
किसी ऊबड़खाबड़ तहरीर से

2.मज़दूरों की संसद

प्रयास में हूँ
एक ऐसी कविता लिख दूँ
जो भगत सिंह के तमंचे जैसी हो
सामूहिक मुक्ति से लैस
जिसके आग उगलते शब्द
गोली की मांनिद
धस जाए
जनविरोधी खद्दरियों की खोपड़ी में
संसद से सड़क के बीच लम्बी सड़क पर
वर्ग हितैषी मगज़
जाए छितर
हर कहीं
इधर उधर
जिस को मजदूर
अपनी टूटी फूटी चप्पलों
फटे पुराने जूतों से रौंदते
आखरी बार अपना पसीना
झटकर फेंकते हुए
क्रांति की मशालें
हर गली के नुक्कड़ पर हमेशा के लिए गाड़ते
हर फ़र्क़ की जलाते हुए चिता
करते हुए ज़मीदोज़
निर्माण करें
एक नया विधान
एक नई संसद
मज़दूरों की संसद।।

3.सवाल

धारा के साथ बहने वालों पर सवाल
किसी हंटर की भांति पड़ते हैं
चमड़ी उधड़ जाती है
एक तिलमिलाहट
नस नस में बिजली की मानिंद दौड़ जाती है
अपनी अपनी खोल में छुपे कछुए
जो पड़े रहना चाहते हैं
एक ही जगह पर सदियों
नई दुनिया बनाने के सवाल
उन्हें लगते हैं बाहरी
कुँए में मेढ़क की भांति
उछलते कूदते
गाते फिरते हैं राष्ट्रगान
राष्ट्रगान के लाउड स्पीकर
की तेज ध्वनि
लील जाती है सवालों की सब संभावनाएं
लोग चुप हो जाते हैं
भूल जाते हैं सवाल पूछना
चमड़ी फिर भरने लगती है
नस नस की तिलमिलाहट
सुधार सुधार
शांति शांति करने लगती है ।

4.आखिर क्यों

वो लोग
लूले लँगड़े थे
या अंधे बहरे
गन्दगी उठाते रहे
झूठन खाते रहे
क्यों नहीं
छिटक कर फेंक दी झाड़ू
क्यों नहीं
स्वामियों के मुंह पर दे मारी
उनकी गलाज़त
क्यों नहीं कर दिया
सेवा से इनकार
क्यों किसी जंगल में
पशुओं की भांति
होते रहे शिकार
क्यों नहीं तन आई मुट्ठियाँ
आदमखोर जबड़ो के विरुद्ध
एक बार ही सही
क्यों नहीं हो आई
आत्माएं क्रुद्ध।।

5.अकेला हो जाना

भीड़ भरी दुनिया में
काबिल ए यकीन है ?
इंसान का अकेला हो जाना
वो भी ऐसे समय में
जब दुनिया भूमण्डलीकृत हो चुकी है
पहले से कहीं ज्यादा उदार हो चुकी है
एक छोटी सी घटना भी
इस कोने से
उस कोने तक
बांध लेती है
एक रस्सी में दुनिया को
ऐसे समय में भी
मनुष्य लगातार
अकेला होता जा रहा है
क्यों?
नीतियों के निजी होते वक़्त
तुमने सामूहिक रूप से स्वागत किया
यही स्वागत
सामूहिकता को खा रहा है
भीड़ भरी दुनिया में भी
मनुष्य लगातार
अकेला होता जा रहा है ।।

6.मैं और हम

एक विज्ञान ने कहा
सूरज के चतुर्दिक
घूमती हुई घूमती है
धरती
दूसरे विज्ञान ने
कहा
मैं और हम के बीच
ठहरते
लड़ते झगड़ते
घूमती है
धरती

मैं
झिझकते ही सही
पहले को स्वीकार करता है
दूसरे पर वसुधैव कुटुम्बकम
का प्रहार करता है
वाकई दुनिया एक परिवार है
नहीं
बल्कि इस लिए
कि
उसके मैं होने को
खतरा जो आ ठहरा है

हम
सीनों में दबी हूक को
आवाज़ में बदल देता है
आवाज़
मैं और हम के बीच
लड़ते झगड़ते
ठहरती दुनिया को
निर्णायक
मोर्चे पर ले जाती है
सदियों से खड़ी स्याह दीवारों पर
इंक़लाब की स्याही
पोत दी जाती है
धीरे धीरे
धरती
सूरज की तरह उबलती हुई
नज़र आती है

मैं
उबलती धरती पर
छटपटाने लगता है
उसे
मंज़ूर हैं
नई दुनिया के लिए
अनुबंध की सब शर्तें
लेकिन
मैं होने का मोह
उसकी नसों में
अभी भी
बहुत सारी पहचानें
छुपा लेता है
अनूकूल हवाएं चलते ही
पहचानें
बाहर आ जाती हैं
मैं हूँ मैं हूँ
चिल्लाने लग जाती हैं।।

7.नज़र आना चाहिए

बड़े हो गए चेहरे
जब
पैरवी करते हैं
खतरनाक चेहरों की
तब उनके मुंह
भयानक जंगल की तरह
उबड़खाबड़
अनिश्चित दुर्घटनाओं से भरे
नज़र आने चाहियें ।।

नज़र आनी चाहिए
निजी मुनाफे की सियारी चमक
नज़र आनी चाहिए
कुत्ते की तरह
लटकती जीभ
या सांप की मानिन्द लपलपाती
नज़र आने चाहियें
मगरमछ जैसे मज़बूत जबड़े
ज़हर सी  टपकती लार
अजगर की जकड़ से हाथ
अपने ही कद पर उछलते पांव
लकड़बघ्घों से
जिनकी आंखे
किसी बाज़ की तरह
भांप लेती हैं शिकार की हरकत
कोसो मील दूर से
नज़र आनी चाहिए
सुविधा अनुसार
झुकी हुई रीढ़ ।।

जिनकी छाती में हृदय नहीं
रखा है
एक खाली सन्दूक
जो श्रम के लहू से
मुसलसल भरा जा रहा है
नज़र आना चाहिए
हर चेहरा उसकी हक़ीक़त के साथ ।।

लेकिन ऐसा नहीं है
लोग इन्हें
हीरो
आइकन
महानायक
भगवान
अपने अपने अनुसार न जाने
क्या क्या बुलाते हैं
इन जैसे बनो
बच्चों को
रोज़ बताते हैं ।।

नज़र का धुंधला होना ही
शिकार होने का सबब है
हक़ और बातिल के बीच
फैसला न कर पाने की जाहिली
शब्बीर को मज़लूम
जाबिर को हाकिम
बनाती है ।।

8.चमार

मुझे ढंग से सही
ये मालूम नहीं
क्यों उठाये
मरे हुए जानवर
क्यों उतारा
उनका चाम
चाम जो था
मरे हुए जानवर का
चिपक गया
एक ज़िंदा जिस्म से
वो जिस्म
अब समाज में जंहा भी जाता है
चमार कहलाता है ।

किसने कहा
पहली बार
हमें चमार
इसे मैं जानता हूँ
लेकिन वो नहीं जानते
जो खुद को चमार कहते हैं
वो चमार कहते हुए
गर्व करते हैं
इतिहास में चमार नायकों की याद दिलाते हैं
गर्व की जो
व्यक्तिवादी लहर
मनुस्मृति से बह चली थी
आज
चमारों की गली में आ पहुंचीं है ।।

गर्व करना
फ़र्क़ करने की एक तरकीब है
फ़र्क़ जो उन्होंने पैदा किया था
तुमने उसे मान लिया है
लेकिन तुमने वही बात मानी है
जिसे कहने की संवैधानिक मनाही है
तुम उनका कहा
कहते हो
लेकिन जान लो
तुम्हारे कहने से
कोई अपराध नहीं है
कोई सज़ा नहीं है
लेकिन उनको आता
मज़ा वही है ।।।

9. मैं दलित हूँ

मेरा जन्म
मेरी माँ की कोख से हुआ
किसी सर्वशक्तिमान के अंगूठे से नहीं
अगर अंगूठे से नहीं
तो
मैं शूद्र भी नहीं
शूद्र नहीं तो हिन्दू भी नहीं ।

किसी का
ब्राह्मण
क्षत्रिय
वैश्य
या
शूद्र होना ही हिन्दू होना है ।

मैं
दलित हूँ
जब तक अन्याय की व्यवस्था का चक्रव्यूह
नहीं हो जाता तहस नहस
जब तक न्याय
नहीं बरसता मूसलाधार बारिश की तरह
जब तक मुक्त नहीं हो जाते
जल जंगल और ज़मीन
हवा और ऋतुओं की तरह
तब तक
मैं दलित हूँ।।

10.कहाँ तक

मज़बूत लोग
कब्ज़ा करते हैं
बनाते हैं कानून
लागू करते हैं संहिताएं
इसी प्रक्रिया में
पैदा हो जाती है, व्यवस्थाएं
तुम स्वीकार करते हो उनके दिए हुए वर्ण
लिए फिरते हो उनकी दी हुई जाति
उछलते हो
कूदते हो
गर्व से इधर उधर लकड़बघ्घों की मानिंद
सूंघते चाटते
फिरते हो जूठी हड्डियां
पहन लेते हो सुविधा अनुसार
रंग बिंरँगी चड्डियाँ
सम्मान की लड़ाई में
लड़ते हो अवसरवादी उपकरणों से
ढोते हो अंधेरा
नफरत करते हो सूरज की लाल किरणों से
हरी घास के सांपो से
बचते बचाते
पहुंच जाते हो तुम कैदखानों में उन्हीं
जिनके विरुद्ध शुरू की थी
तुमने लड़ाई
सामाजिक न्याय की ।।


(कवि रवि निर्मला सिंह
जन्म : 05 फरवरी 1985, गांव अटेरना, जिला मेरठ, उत्तर प्रदेश।
माता : निर्मला देवी
पिता : धर्मबीर सिंह
शिक्षा : उच्चतर माध्यमिक शिक्षा सीबीएसई बोर्ड।
बीकॉम स्नातक, हिंदी स्नातकोत्तर, एम फिल हिंदी दिल्ली विश्वविद्यालय।
उर्दू सर्टिफिकेट, उर्दू अकादमी दिल्ली।
उर्दू डिप्लोमा दिल्ली विश्वविद्यालय।
उर्दू एम ए मौलाना आज़ाद विश्वविद्यालय।
पीएचडी शोधरत दिल्ली विश्वविद्यालय।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता और शोधपत्र प्रकाशित।
देश की बात कार्यक्रम में दो बार “श्रेष्ठ वक्ता” घोषित ! विषय “भगतसिंह के सपनों का भारत “
और “महिला सशक्ति करण “
सचिव : दलित लेखक संघ, दिल्ली।
निवास स्थान : गांव बांकनरे, नरेला, दिल्ली-110040
फोन : +91 88514 57263/+91 97168 44915
मेल आईडी : ravi.raviprakash11@gmail.com

टिप्पणीकार हीरालाल राजस्थानी, पूर्वअध्यक्ष : दलित लेखक संघ, दिल्ली.
जन्म : 9 जून 1968, प्रसाद नगर, दिल्ली.
शिक्षा : बी एफ ए (मूर्तिकला विशेष), फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली.
कार्यक्षेत्र : कलाध्यापक दिल्ली प्रशासन.
उपलब्धि : भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद (ICCR) के 10 श्रेष्ठ मूर्तिकारों के पैनल में सम्मिलित.
सम्मान :
◆ कला साहित्य में उत्कृष्ठ योगदान हेतु ‘राष्ट्र गौरव सम्मान’ व ‘ग्लोबल ब्रिल्लियांस अवार्ड’ द्वारा ऐंटी क्रप्शन फाउंडेशन ऑफ इंडिया, करनाल (हरियाणा)-2018.
◆ आल इंडिया आर्ट बैनाले अवार्ड इन स्कल्प्चर (कोल्ड ड्रीम) द्वारा ललित कला अकादमी, जयपुर (राजस्थान)-1997.
◆ बेस्ट परफॉर्मेंस इन स्कल्प्चर (मदर एंड चाइल्ड) अवार्ड द्वारा फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, ओखला (दिल्ली)-1993.
◆ युवा महोत्सव सम्मान द्वारा साहित्य कला परिषद, दिल्ली, 1993,1994.

कविता संग्रह : मैं साधु नहीं
संपादन : गैर दलितों की दलित विषयक कहानियां
संपादन : ‘प्रतिबद्ध’ दलित लेखक संघ की मुखपत्र पत्रिका व दलित कविताओं की तीन पीढियां एक संवाद.)
फोन नं. 9910522436
ईमेल : hiralal20000168@gmail.com

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