समकालीन जनमत
कविता

सरिता संधू की कविताएँ व्यवस्था की आँखों में झाँकती संवेदनाएँ हैं

हीरालाल राजस्थानी


सरिता संधू पिछले दो सालों से दलित लेखक संघ से जुड़ी हुई हैं। उनकी विशेषता है कि संगठन के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन निष्ठा, कर्मठता और पूरी प्रतिबद्धता के साथ करती रही हैं। वे एक अर्से से कविता लेखन कर रहीं हैं। इनकी कविताओं का क्षेत्र घर की चार दिवारी में रसोई और परिवार के मध्य केंद्रित सदियों से चली आ रही पारंपरिक जीवन शैली और आये दिन स्त्री उत्पीड़न की सुर्ख़ियाँ है इन्हीं विषयों पर इनकी कलम की स्याही शब्द उगलती है।

वे सामान्य स्त्रियों के मन के कोने को टटोलने में कामयाब हैं। सरिता संधू पेशे से दिल्ली प्रशासन में लगभग 17 सालों से अंग्रेज़ी की प्रवक्ता के रूप में कार्यरत हैं। समाज की बारीकी में झांकती इनकी संवेदनाएँ, जब देखती है तो स्त्री जीवन को बहुत सीमित और फँसा हुआ पाती हैं।

इनकी कविताओं में तल्ख़ तेवर नहीं है लेकिन अपनी बात कहने का विनम्रभाव सरिता की क़ाबिलियत है। सरिता उन स्त्रियों में से नहीं है जो अपने काम को दूसरों पर धकेलती हैं वे अपने कार्यों को बहुत शिद्दत से पूरा करती हैं और अपने जूझते हुए व्यक्तित्व को समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए पूर्णरूप से तैयार रखती हैं।

वे समाज से काटकर नहीं जुड़कर कर बदलने में विश्वास करती हैं। वे शिकायती हैं तो समाधान भी खोजती हैं। मूल रूप से इनका व्यक्तित्व चिंता को चिंतन में देखता है। उनकी कविताओं में पुरुष खल नहीं है बल्कि वे व्यवस्था को इसका दोषी मानती हैं। जिसनें उनके लिये स्थाई रूप से घर कि चार दीवारी तय कर रखी है। अपनी कविता ‘ये औरतें’ में …गीत गाती गुनगुनाती ,
रसोई घर के बर्तनों के साथ
धो देती हैं ये औरतें ,
अपने दिल का दर्द ,

अपनी आंखों की उदासी… में यही साबित हो रहा है, बहुत सहजता से स्त्री का दर्द बयान किया गया है। इसी कविता में वे आगे स्त्री के अलेकेपन को भी बयां करती हैं-
…खुली आंखों से देखे
सपनो में ।
कभी कभी बहुत अकेली
होती हैं ये औरतें अपनों में…।

‘हमें भी कुछ कहना है’ कविता में सरिता से स्त्री के शोषण की जड़ पर प्रहार करते हुए, व्यवस्था से सवाल करती हैं। पुरुष से ठुकराए जाने के दुख के पीछे की पुरुषप्रधान सोच पर तीखे सवाल करती हैं। इन पंक्तियों में देखें- पुरुषोत्तम माना था हे राम तुम्हें,
धारण किया था अपने मन में ,
पर दोष बताओ मुझको मेरा ,
गर्भावस्था में किया निष्कासित ,
तुमने मुझको निर्जन वन में…।

सविता संधू स्त्रियों के दर्द से ही वाक़िफ़ नहीं है बल्कि अपने छोटे भाई के रूप में पुरुष की उदासी देखकर उसके दुख को भी भाँप लेती हैं उसे पहला मित्र कहती हैं- ‘मेरा पहला मित्र’ कविता में…खोल दे गिरह परेशानी की ,
तू मेरे सम्मुख मेरे वीर ,
कुछ तो हल्की हो जाएं भईया ,
शिकन माथे की, हृदय की पीर…।

सरिता संधू उपेक्षित जीवन को बहुत बारीकी से देखती हैं। रोजी रोटी कमाने के लिए रस्सी पर चलते हुए एक बच्ची को देख कवि की संवेदनाएँ ‘रस्सी पर जिंदगी’ रचना में देखें-
मेले की रौनक से हटकर,
अपने कर्म क्षेत्र में डट कर,
पेट की आग बुझाने को ,
रस्सी पर चलती है जिंदगी…।

कश्मीर की आसिफा के साथ बलात्कार की भयावह घटना के विरोध में मनुष्यता पर सवाल करती कविता ‘क्यों’ में वे लिखती हैं- अभी तो नापना था
अपने नन्हे परों से
सारा आकाश ।
नन्हे कदम रखने थे
जीवन की हरियाली में
महसूस करना था
अभी उस खुशबू को
जो बिखरती है
देश की हवाओं में ।
दरिंदों ने क्यों नोच डाले

पंख नन्ही परी के?…। इसी पीड़ा को सरिता आगे अपनी कविता ‘नारी जीवन’ में स्त्री की नियति को जबरन गर्त में पहुँचने वाली मानसिकता पर लिखती हैं- नारी जीवन
जैसे धान का पौधा ,
एक आंगन बोया,
दूजे आंगन रोपा ।

अभी हाल ही में उनके जीवन साथी अनिल संधू जी की अकस्मात् मृत्यु पर उनकी एक रचना ‘मुस्काती नदी’ जो उनके भीतर बहती अभिव्यक्ति है ये निजता उनके अभाव को प्रकट करती है देखें- मेरे मन के भीतर कहीं ,
इठलाती मुस्काती थी एक नदी ,
उछलती, यदा-कदा छलकती ,
पलकों के बीच रुकी रुकी ।
…डरती हूं मन के आंगन में ,
सूनापन कोहरे सा ठहर न जाए ,
मीठे पानी की वह निर्झरा ,
खारा समंदर ना बन जाए ।

सरिता अपने विवाह तय होने पर जीवन साथी से जो चाहती है उसको ” सुखद कल्पना ” नामक कविता में उड़ेलती हैं- चाह नहीं है मुझको नभ की ,
मेरे लिए क्षितिज बन जाना तुम ।
मैं धरा तुम्हारे स्पर्श को आतुर ,
जरा करीब झुक आना तुम ।
…बहुत करीब आ जाना तुम…।

यूँ देखा जाये तो सरिता संधु अपनी कविताओं में स्त्री जीवन के कटु सत्य से समाज को सोचने पर मजबूर करती हैं। वे स्त्री रूप में अपने छोटे छोटे सपने अपनी कविताओं के माध्यम से बिना शब्दों के भ्रमजाल में फ़सकर बहुत ही सरल भाषा में अभिव्यक्त करती हैं। वे कठोरता से नहीं प्रेम से समाज का दृष्टिकोण बदलने में विश्वास करती हैं। इस अन्दाज़ से वे सामान्य जीवन में सब कुछ नष्ट नहीं हुआ की सकारात्मक सोच को पोसती हैं।

सरिता संधू की कविताएँ

1. ये औरतें

‘अबके बरस भेज ,
भईया को बाबुल ‘
ये गीत गाती गुनगुनाती ,
रसोई घर के बर्तनों के साथ
धो देती हैं ये औरतें ,
अपने दिल का दर्द ,
अपनी आंखों की उदासी।

छोटे छोटे लम्हों में
ढूंढ लेती हैं
बड़ी बड़ी खुशियां ,
और भूल जाती हैं
जहान भर की परेशानियां
जब मिल जाती हैं किसी मोड़ पर
बचपन की सखियां।

नारी सशक्तिकरण के
परचम तले
भरती हैं उड़ान
खुली आंखों से देखे
सपनो में ।
कभी कभी बहुत अकेली
होती हैं ये औरतें अपनों में।

पति व बच्चों की
अनबन के बीच पिसती हुई ,
करती हैं न जाने
कितने समझौते जिंदगी से ।
सेतु बनकर कैसे
जोड़ती हैं परिवार को
कोई तो पूछे कभी इन्ही से।

अपनी भाभी , ननद या
फिर बहन से बतियाती ,
ऑफिस की विपरीत परिस्थितियों
में भी हंसती खिलखिलाती ,
अपनी अभिन्न सखी को
थमा देती हैं ये औरतें
अपने अंतर्मन की चाभी।

बस कुछ इसी तरह ,
सुलझा लेती हैं ये औरतें
परेशानियों के उलझे से धागे ।
फक्र कीजिए इन पर
छूने दीजिए आसमान
सहयोग अपेक्षित है आपका
क्या कहूं अब इसके आगे ।

 

2. हमें भी कुछ कहना है

पुरुषोत्तम माना था हे राम तुम्हें,
धारण किया था अपने मन में ,
पर दोष बताओ मुझको मेरा ,
गर्भावस्था में किया निष्कासित ,
तुमने मुझको निर्जन वन में ।

सदियों से हूं क्रोधित सुन लो ,
मैं अपने ही राम से ,
तजे जाने की पीड़ा लेकर ,
घुटती रही मैं यूं ही प्रतिपल ,
जी नहीं सकी आराम से ।

नहीं मानती तुमको भी मैं ,
‘ धर्मराज’ हे युधिष्ठिर ,
अपने पुरुषत्व पर गर्वित होकर ,
वस्तु समझ दांव पर खेला ,
कैसे बने रहे तुम निष्ठुर ।

कहीं कैसे माने यह मन ,
भीष्म पितामह को भी वीर ,
फेर ली आंखें जिसने मुझसे ,
और हरण होता ही रहा ,
अपने ही के हाथों चीर ।

नहीं स्थापित होना मुझको ,
मूरत बनकर तुम संग श्याम ,
प्रीत भुला कर चले गए क्यों ,
मैं तो कहूं तुम्हें निर्मोही ,
दुनिया भले कहे भगवान ।

बन पाषाण जिया था जीवन ,
क्षमा करूंगी कैसे तुमको ,
लाज नहीं आई क्यों बोलो ,
गुरु पत्नी को भोग्या समझा ,
‘ देवराज ‘ कहते तुम खुद को ।

कैसे चाहे उन पुरुषों को ,
जो रक्षा का दम भरते रहे ,
नारी को अबला बतला कर ,
रीति धर्म की आड़ में छुपकर ,
हर युग में शोषण करते रहे।

जाने कितने और युगों तक ,
हम यूं ही सताई जाएंगी ,
त्याग मान की बलिवेदी पर,
कब तक यूं ही भेंट चढ़ेंगी,
और अपमानित की जाएंगी।

 

3. मेरा पहला मित्र

खोल दे गिरह परेशानी की ,
तू मेरे सम्मुख मेरे वीर ,
कुछ तो हल्की हो जाएं भईया ,
शिकन माथे की, हृदय की पीर।

तू नहीं कहता पर कहे बिन,
उदासी तेरी जान हूं जाती ,
बेशक दूर हूं तुझसे लेकिन ,
दिल से जुदा हूं मान न पाती।

तेरे माथे पर जब उस दिन ,
मैंने हाथ फिराया था ,
आंख छलकने से रोकी थी खुद की ,
तेरा मन भी तो भर आया था।

चाहती हूं तू छीन के खा ले ,
मेरे हाथों से चीजें खाने की ,
फिर से बैठे मिलकर एक दिन,
बातें हो बचपन के जमाने की।

जब से जन्म लिया हम साथी हैं,
तू क्यों है इतनी हैरानी में ,
चल कागज की नाव चलाएं,
बारिश के बहते पानी में।

 

4. रस्सी पर जिंदगी

मेले की रौनक से हटकर,
अपने कर्म क्षेत्र में डट कर,
पेट की आग बुझाने को ,
रस्सी पर चलती है जिंदगी ।

नन्हे पैरों से डगमग चलती,
गिरती और फिर संभलती ,
सुबह से शाम हुई जाती है ,
रंग अनेक बदलती है जिंदगी।

दिनभर की थकी नन्हीं को ,
मिठाई और खिलौनों के ,
लारे लप्पों से ललचा कर ,
आए दिन छलती है जिंदगी ।

 

5. क्यों

अभी तो नापना था
अपने नन्हे परों से
सारा आकाश ।
नन्हे कदम रखने थे
जीवन की हरियाली में
महसूस करना था
अभी उस खुशबू को
जो बिखरती है
देश की हवाओं में ।

दरिंदों ने क्यों नोच डाले
पंख नन्ही परी के ।
कुचल डाला क्यों
एक पिता की लाडली को
खामोश कर डाला क्यों
एक सीने की धड़कन को ?
खून कर डाला क्यों
एक मां के अरमान का
नहीं पसीजा दिल क्यों
तथाकथित भगवान का ?

 

6. माँ का आंगन

कुछ सुहाने प्यारे पल,
मां के आंगन में जो बिताए।
जब जब याद करूं मैं उनको
आंखें कुछ नम सी हो जाएं ।

नैनो का सागर खाली कर दूं ,
उदासी की कुछ गर्द धुल जाए ।
और धुली हुई धरती पर ,
मुस्कानों के रंग खिल जाएं ।

 

7. नारी जीवन

नारी जीवन
जैसे धान का पौधा ,
एक आंगन बोया,
दूजे आंगन रोपा ।

उसने भी छोड़ा ,
घर अंगना अपना ।
अकेली आई आंखों में
लिए सुनहरा सपना।

तुम्हीं ने तराशा ,
तुम्हीं ने ढाला ,
जीवन के हर मोड़ पर
तुम्हीं ने संभाला ।

तुमने जो सोचा ,
चाहा था जैसा ,
उस में था पाया
सब कुछ ही वैसा।

तुम्हारे साथ बीता,
उसका हर एक पल है
मन में तुम्हारे फिर ,
कैसी यह हलचल है ?

कहां कमी रही बोलो,
सेवा में सत्कार में ,
या फिर कोई भूल
हुई उसके प्यार में ?

प्रेम नदी बनकर
सागर तुम्हें बनाया अपना
फिर क्यों नहीं बन पाई
वह तुम्हारी प्रियतमा ।

8. आँचल लहरा दूं 

जीवन में जिस राह चलो तुम,
आओ उस पर फूल बिछा दूं ।
कुदरत के रंगों को चुनकर ,
जीवन को रंगीन बना दूं ।

गर्म हवा का एक झोंका भी ,
तुमको छू ना पाए कभी ,
तुम पर साया कर दूं आओ ,
मैं अपना आंचल लहरा दूं।

तुम्हें सताती है जो बातें ,
उनको तुम तक आने ना दूं ।
तुम्हें डराने आए सपनों को,
आंख दिखाकर मैं धमका दूं ।

 

9. सुखद कल्पना 

चाह नहीं है मुझको नभ की ,
मेरे लिए क्षितिज बन जाना तुम ।
मैं धरा तुम्हारे स्पर्श को आतुर ,
जरा करीब झुक आना तुम ।
बहुत करीब आ जाना तुम ।
अपनी भीगी सी अलकों से ,
शबनम के मोती बिखराती ,
और नयनों में स्नेह लिए ,
बदली बंद जब रिमझिम बरसूं,
तो आंगन बन मुस्काना तुम ।
जीवन की सोंधी माटी में ,
अपनी कोमल पलकें खोले ,
फूटेंगे जो नन्हे अंकुर ,
प्राण दायिनी हवा बनूंगी ,
उनका संबल बन जाना तुम ।
सपनों की कुछ कोमल कलियां ,
लिए उमंगे मन में सजना ,
सुखद कल्पना का साकार रूप बन ,
आऊंगी जब तेरे अंगना ,
तो बंदनवार सजाना तुम ।
रही अनभिज्ञ आजतक जिनसे,
होगा ऐसे प्रश्नों से परिचय ,
अपने जीवन की सरिता के,
पथ प्रदर्शक बनकर बंधु ,
पल पल साथ निभाना तुम।

 

10. शायद कोई 

जब भी पलटती हूं पन्ने ,
पुरानी किताबों के ,
उंगलियां छूने को ,
नाम मचल जाता है ,
शायद कोई …
महसूस होती है एक
खुशबू से इन हवाओं में ,
बरसों से मन ही मन
मुझे चाहता है शायद कोई ।

शायद गुजरूं कभी ,
उस राह से किसी दिन ,
यही सोच हर शाम को,
दीप जलाता है शायद कोई ।

मेरे जीवन में खुशियों
और सुकून की उम्मीद लिए
दूर कहीं मन्नत का
धागा बांधता है शायद कोई ।

उबार लेती हूं जाने कैसे
हर मुश्किल से खुद को ,
मेरे लिए आज भी ,
दुआ मांगता है शायद कोई ।

 

11. प्यार हुआ 

बिना दिवाली दीप जले ,
मस्त हवा से हम चले ,
जीवन देखो गुलजार हुआ ,
जब से तुमसे प्यार हुआ ।

सूना सूना सा जीवन था ,
ठहरा ठहरा सा पतझड़ था ,
फिर से खिला बहार हुआ ,
जब से तुमसे प्यार हुआ ।

पर्वत से झरना ज्यों फूटे ,
ऐसी कुछ झंकार समेटे ,
मन वीणा का तार हुआ ,
जब से तुमसे प्यार हुआ ।

मन यह देखो कहां उड़ चला ,
जोगी बनकर घूमे पगला ,
लो सरहद के उस पार हुआ ,
जब से तुमसे प्यार हुआ ।

 

12. याद तुम्हारी

याद तुम्हारी …
जैसे सोंधी माटी की
खुशबू ,छूकर गुजरे ,
तन मन मेरा महकाए ।

जैसे निर्जन निशब्द
वातावरण को भेद ,
पायलिया कोई छनक जाए ।

जैसे बौराई अमराइयों में
छिपी हुई कोयलिया ,
कुहू कुहू सा गीत सुनाए ।

जैसे कोई सरफिरा बादल ,
तपती हुई मरूभूमि को ,
फिर से मरुद्यान कर जाए ।
याद तुम्हारी ……।

 

13. मुस्काती नदी 

मेरे मन के भीतर कहीं ,
इठलाती मुस्काती थी एक नदी ,
उछलती, यदा-कदा छलकती ,
पलकों के बीच रुकी रुकी ।

पूरे आवेग पर है इन दिनों ,
नाकाम है कोशिशें रोकने की,
बह रही है निरंतर झर झर ,
तोड़कर नैनो के तटबंध सभी ।

कुछ आधा सा जीवन जो ,
छोड़ गए हो तुम अपना ,
आधे काम अधबुने सपने ,
पूरे कर पाऊंगी क्या कभी ।

जाते वक्त भी मन में तुम्हारे ,
रहा होगा कुछ तो जरूर ,
कुछ कांपता कुछ अनकहा ,
कैसे भला मैं समझूं अभी ।

डरती हूं मन के आंगन में ,
सूनापन कोहरे सा ठहर न जाए ,
मीठे पानी की वह निर्झरा ,
खारा समंदर ना बन जाए ।

 


 

कवयित्री सरिता संधू, जन्म 04/03/1971, गांव शाहपुर पानीपत हरियाणा,जन्म स्थान पुलगांव , महाराष्ट्र, प्राथमिक शिक्षा खड़की पुणे महाराष्ट्र, बाकी 12th तक दिल्ली कैंट से अंग्रेजी ऑनर्स स्नातक , एम ए अंग्रेजी एस डी कॉलेज पानीपत से, इस समय स्कूल ऑफ एक्सलेंस सेक्टर 23 रोहिणी दिल्ली में अंग्रेजी प्राध्यापिका ( Lecturer)। मुख्यत कविता लेखन । नवभारत टाइम्स में विभिन्न विषयों पर लेख व कविता प्रकाशित। कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। अंतराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों में भागीदारी।

सम्पर्क: saritasandhu67@gmail.com

 

मूर्तिकला के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित टिप्पणीकार हीरालाल राजस्थानी, पूर्वअध्यक्ष : दलित लेखक संघ, दिल्ली.
जन्म : 9 जून 1968, प्रसाद नगर, दिल्ली.
शिक्षा : बी एफ ए (मूर्तिकला विशेष), फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली.
कार्यक्षेत्र : कलाध्यापक दिल्ली प्रशासन.
उपलब्धि : भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद (ICCR) के 10 श्रेष्ठ मूर्तिकारों के पैनल में सम्मिलित.

कविता संग्रह : मैं साधु नहीं
संपादन : गैर दलितों की दलित विषयक कहानियां
संपादन : ‘प्रतिबद्ध’ दलित लेखक संघ की मुखपत्र पत्रिका व दलित कविताओं की तीन पीढ़ियाँ एक संवाद.)
फोन नं. 9910522436
ईमेल : hiralal20000168@gmail.com

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