स्त्रियां हमारे देश-समाज का एक बड़ा हिस्सा हैं लेकिन इतिहास में उनकी हिस्सेदारी उसी तरह कम है जिस तरह अन्य क्षेत्रों में । इतिहास में स्त्री की उपस्थिति तथा कालक्रम के अनुसार स्त्री की स्थिति में होने वाले परिवर्तनों पर जानी -मानी इतिहासकार और नारीवादी विचारक तथा फ़िल्म-निर्देशक उमा चक्रवर्ती से कामिनी ने बातचीत की।
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आज आप जिस मुकाम पर हैं, अध्यापन से लेकर इतिहासकार और एक फिल्म मेकर के रूप में, इस सफर के दौरान एक स्त्री होने के नाते आपको किन विशेष चुनौतियों का सामना करना पड़ा? इस प्रश्न का जवाब देते हुए प्रो. उमा चक्रवर्ती ने बताया कि ‘‘औरत होने के नाते शुरुआत में तो मुझे कुछ खास चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि मेरे पिताजी चाहते थे कि लड़कियां पढ़ें और नौकरी भी करें। हमारे घर में इस तरह का माहौल था कि मेरे पिता जी की बहन, जो विधवा थीं, की हालत को देखकर वे चाहते थे कि हम पढ़ें। उनका मानना था कि लड़कियों को अपने हाथ किसी मर्द के सामने न फैलाने पड़ें।” उमा जी बताती हैं कि पारिवारिक-आर्थिक रूप से भी नौकरी करना बहुत जरूरी था तो पहले उन्होंने बोर्डिंग स्कूल में काम किया और फिर वीमेंस कॉलेज मिरांडा हाउस में अध्यापन किया।
आपके अध्यापन कार्य के बाद इतिहास लेखन में आने की कोई खास वजह थी? का उत्तर देते हुए वे कहती हैं कि “बचपन में दिल्ली में साइकिल से जाते समय कई इमारतें देखते थे। मेरे इर्द-गिर्द इतिहास था और मैंने आज़ादी का समय भी देखा था। अपनी जमीन के साथ एक खास तरह का जुड़ाव था जो जबर्दस्त था। गुलामी, आज़ादी, पार्टीशन, महात्मा गांधी की हत्या-इस माहौल ने मुझे इतिहास की तरफ आकर्षित किया और फिर मैंने दुबारा कुछ और नहीं सोचा। और फिर ठान लिया कि इतिहास ही पढ़ना है।”
इतिहास को परंपरागत रूप में पढ़ते हैं जहां उत्तराधिकार के प्रश्न ही दिखाई पड़ते हैं। इसके अलावा सामान्य जन का इतिहास और स्त्रियों का इतिहास भी है, उस पर लेखन के कार्य कहाँ से शुरू होते हैं? एवरी डे लाइव्स एवरी डे हिस्ट्रीज जैसी किताब को लिखते समय आपको किस तरह की कठिनाई का सामना करना पड़ा? का जवाब देते हुए उमा जी कहती हैं कि “एवरी डे इतिहास हमारी जिंदगी में आ गया था। आज़ादी के रेडियो अनाउंसमेंट में हम सब बाहर निकले थे, उसका मैंने अनुभव किया था। पार्टीशन के समय आम जनता का इतिहास हमारे इर्द-गिर्द था, भले ही हमें स्कूल में राजा महाराजाओं का इतिहास पढ़ाया जाता था। आम जनता के इतिहास को हमने देखा था। वही मेरे दिल में बैठ गया। आम जनता की ज़िंदगी में तारीख कोई मायने नहीं रखती। हम जो इतिहास पढ़ते हैं वह बायस्ड है, जो सत्ता के इर्द-गिर्द लिखा गया है। सत्ताधारी लोग अपनी ही बातों को प्रमोट करते हैं। सत्ता का इतिहास महत्त्वपूर्ण है लेकिन उसके आगे पीछे जो इतिहास है वह भी जरूरी है। सत्ता के इतिहास में स्त्री, आदिवासी, दलित, साधारण पुरुष सब गायब हैं। मैं बच्चों से हमेशा कहती हूँ कि इतिहास में हम सब हैं, हम उसे जीते हैं, देख रहे हैं; यह कोई दूर की चीज नहीं। हम सब अपना इतिहास बनाते हैं। हमें अपने इतिहास का दायरा बढ़ाना है। जो इतिहास हम पढ़ते हैं उसमें उत्पत्ति और पतन की बातें आती हैं, ऐसे बकवास को हम क्यों पढ़ते हैं। 6वीं-7वीं शताब्दी के आस पास इतिहास का दायरा खुलने लगा। जब भारत में सामाजिक इतिहास आया तो उसका दायरा बढ़ने लगा और वह रुचिकर और जटिल भी होने लगा। जब मैंने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को बनाने का काम किया, वह मेरे जीवन का सबसे रचनात्मक समय था। हम इतिहास का नया पाठ्यक्रम रच रहे थे और हमने उसे फिर कभी राजनैतिक इतिहास की तरफ नहीं जाने दिया। हमारा सामाजिक इतिहास बोल बोल कर बताया जाता है। वह लिखित नहीं है। इसलिए किताब लिखते समय स्रोत इकट्ठा करने में बहुत चैलेंज था क्योंकि आप जितना पुराने की तरफ जाएंगे उसमें चुनौतियाँ अधिक होंगी।”
वे बताती हैं कि शुरू में वे जेंडर हिस्ट्री लिखने की तरफ जा रही थीं। उन्होने गार्डन लर्नर, जो कि अमेरिका की एक विद्वान महिला थीं और फेमिनिस्ट हिस्ट्री पे काम किया था, उनकी किताब पितृसत्ता की रचना को पढ़ा और जब उनसे मिलीं तो उन्होंने कहा कि स्रोत भले न हों पर टेक्स्ट के अंदर आपको चिह्न मिल जाएंगे, नीतियाँ या नियम अचानक क्यों बादल जाते हैं जब हम उन्हें टटोलेंगे तो औरतों के लिए ‘क्या और क्यों बोला गया’ से हम उस इतिहास की पहचान कर सकते हैं। उमा जी कहती हैं कि “क्यों मनु की किताब में कलयुग की बात है। मनु ने लिखा कि औरत और शूद्र जब कहना न माने तो कलयुग आएगा, क्योंकि इसमें सत्ता को चुनौती दी जा रही है। औरत और शूद्र उनके नियम मानने को तैयार नहीं हैं। जब प्रमाण न हो तो इतिहास की पड़ताल हम उसकी नकारात्मक बुनावट से भी कर सकते हैं। इतिहास एक अखबार की तरह होता है जिसके पहले पेज में आपको सत्ता मिलेगी तो कहीं तीसरे पेज पर किसान की आत्महत्या की खबर। भूख से मरने वाले की खबर छठवें सातवें पेज पर जाकर मिलेगी। सत्ता ने कितने ही प्रकार की मजदूरों की योजनाओं और सुविधाओं का प्रचार किया लेकिन लॉकडाउन में उसकी असलियत और मजदूरों की हालत सबके सामने आ गई।”
आज के समय में जन आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी के सवाल पर वे कहती हैं कि शाहीन बाग की चुनौती से सत्ता हिल गई, इस बार औरतें अपने पूर्ण नागरिक अधिकार के लिए बाहर निकली थीं, क्योंकि सीएए और एनआरसी से सबसे ज्यादा औरतें ही प्रभावित होंगी। आम तौर पर औरतों के पास कागज नहीं होते, खासकर पुरानी पीढ़ी की औरतों के पास। शाहीन बाग की एक महिला आंदोलनकारी ने बताया कि वह अपनी सात पीढ़ी के पुरखों के नाम बता सकती है। उनके पास इतिहास है पर कागज नहीं है। जामिया आंदोलन का उदाहरण देखने से पता चलता है कि अलग अलग कास्ट और क्लास प्रोफाइल से आई लड़कियां जिस पैशन से आन्दोलम में शरीक हुईं उससे सत्ता घबराई हुई है। सफूरा जैसी लड़कियों को जेल में डालने के पीछे भी यही भय और घबराहट काम कर रही थी। शाहीन बाग और जामिया की औरतों ने राजनीति को ट्रान्स्फ़ोर्म किया और महिला आंदोलनों को भी चुनौती दी।
नारीवादी आंदोलनों के बारे में उमा जी कहती हैं कि भले ही इसकी शुरुआत शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं से हुई हो लेकिन अनेक आंदोलनों के माध्यम से गांवों तक भी पहुंचा।
धार्मिक आज़ादी के सवाल पर उन्होंने कहा कि यह कोई और नहीं तय कर सकता कि महिलाएं क्या मांगेगी। मेरा मानना है कि सभी को धार्मिक स्थलों पर जाने का अधिकार होना चाहिए। समानता के आधार पर संविधान के द्वारा सभी को यह अधिकार मिला है। हालांकि ऐसे आंदोलन प्राथमिक आंदोलन नहीं हैं, मुझे लड़ाई लड़नी है तो पहले भोजन, शिक्षा और आज़ादी के सवाल उठाऊँगी। अपनी बातचीत के आखिर में उमा चक्रवर्ती ने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। यह बातचीत इतिहास और इतिहास में स्त्रियों की उपस्थिति को समझने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण रही।
प्रस्तुति : रुचि दीक्षित