Friday, December 1, 2023
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फ़ासीवाद की ओर यात्रा: चौराहे पर अमेरिका

2018 में रटलेज से कार्ल बाग्स की किताब ‘फ़ासिज्म ओल्ड ऐंड न्यू: अमेरिकन पोलिटिक्स ऐट द क्रासरोड्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब इतालवी फ़ासीवाद के शिकार अंतोनियो ग्राम्शी को समर्पित है । लेखक के मुताबिक अमेरिकी राजनीति के प्रसंग में फ़ासीवाद के जिक्र से परहेज किया जाता है । लोग मानते हैं कि इसका रिश्ता किसी अन्य देश के साथ ही संभव है । लगता है कि द्वितीय विश्व युद्ध में उसे पराजित करने में इसी देश ने तो बड़ी भूमिका निभाई थी ।

असल में पुराने दौर से इस दौर का फ़ासीवाद अलग होगा । वर्तमान सदी के फ़ासीवाद में अतीत के साथ संबंध विच्छेद नहीं होगा बल्कि निरंतरता का पहलू मुखर होगा । इस नए फ़ासीवाद में कारपोरेट, राज्य, सेना और मीडिया के हितों की सेवा के लिए अल्पतंत्र, तानाशाही और युद्ध का सहारा लिया जाएगा । फ़ासीवाद के जिक्र से बौद्धिक वर्ग जितना भी बचना चाहे लेकिन बहुत पहले सी राइट मिल्स ने अपनी किताब ‘ द पावर एलीट ’  में इसकी संभावना जाहिर की थी । उनके तर्कों को बौद्धिक जगत में खारिज किया गया लेकिन अब उन पर ध्यान देने की जरूरत महसूस हो रही है ।

फिलहाल ऐसी समेकित सत्ता संरचना का उदय हुआ है जिसके तहत कारपोरेट प्रभुत्व का विस्तार हुआ है और जखीरेबाज बाजार व्यवस्था कायम हुई है, सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र मजबूत हुआ है, सुरक्षा के नाम पर राज्य की ओर से निगरानी की दमघोंटू व्यवस्था खड़ी की गई है, सभी संस्थाओं में निरंकुशता का बोलबाला बढ़ा है, राजनीति में धन का अश्लील प्राचुर्य दिखाई देता है और मीडिया भोंपू की भूमिका अदा कर रहा है । यह सब नवउदारवादी वैश्वीकरण का अंग बनकर उभरा है ।

स्वाभाविक है कि नागरिकों की भागीदारी, जनपक्षधर निर्णय और सांस्थानिक जिम्मेदारी खोखले शब्द बनकर रह गए हैं । साल दर साल लोकतंत्र कमजोर और उत्सवी होता जा रहा है । जिन चीजों पर गर्व हुआ करता था उन्हें पाना मुश्किल होता जा रहा है । लोकतंत्र, मुक्त बाजार, स्वतंत्र मीडिया, धन्नासेठों पर लगाम जैसी बातें सुनाई भी नहीं पड़तीं । जो संकेंद्रित और एकीकृत सत्ता संरचना निर्मित हुई है उसे और अधिक संपत्ति, सुविधा और भूराजनीतिक लाभ हासिल करने की रह में रंचमात्र भी रुकावट नहीं झेलनी पड़ती । ऐसे में फ़ासीवाद के उभार में बाधा कम होती जाती है ।

ऊपर से विश्व स्तर पर अमेरिका की सैनिक बरतरी कायम है । सत्ता में रिपब्लिकन हों या डेमोक्रैट इसके दुनिया भर में फैले हुए फौजी अड्डे हैं और हथियारों का सबसे विराट जखीरा है । इसके दबदबे में कमी आने की घोषणाओं के पक्ष में कोई सबूत नहीं है । आर्थिक क्षमता में गिरावट आने से भी फौजी क्षमता में कमी आने के संकेत नहीं मिल रहे । उसके सैनिक संसाधनों पर उतना खर्च होता है जितना सात देशों का संयुक्त खर्च होता होगा । इस सत्ता संरचना के खात्मे के बिना युद्धक राज्य और साम्राज्यी चाहत के अंत की कोई भी ठोस संभावना नहीं है । बहुत छोटे पैमाने पर ऐसी ही सत्ता संरचना फ़ासीवादी निजाम का नाभिक रही है ।

बड़े व्यवसायी, तानाशाह सरकार और फौजी ढांचे का यही संयुक्त मोर्चा सभी देशों में फ़ासीवादी शासन के उभार के वक्त नजर आया है । इसके अलावे चर्च, भूपति और बादशाहत जैसे शक्ति के पारंपरिक उपकरणों पर भी इसकी प्रचुर निर्भरता रही है । हां यह है कि आज के फ़ासीवाद की गतिशीलता अधिक मजबूत, विकसित और तकनीकी हो चली है । लेखक का मानना है कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच के फ़ासीवाद के कुछ तत्व इस दौर के अमेरिकी और यूरोपीय फ़ासीवाद में अभी स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रहे ।

इनमें उन्होंने नेता की व्यक्ति पूजा, एक ही पार्टी का एकाधिकार, समानांतर सैन्य टुकड़ियां, वर्दी जैसे प्रतीक और विकराल राजकीय प्रचार तंत्र आदि को गिनाया है । इसके अलावे उन्हें किसी सुसंगत फ़ासीवादी विचारधारा का भी अभाव दिखाई पड़ रहा है । संभव है भविष्य में ये तत्व प्रकट हों लेकिन लेखक इनकी मौजूदगी को अनिवार्य नहीं मानते ।

उदार लोकतांत्रिक संस्थाओं और व्यवहार के साथ भी अल्पतंत्र, सर्वसत्तावाद और साम्राज्यी हित बखूबी कायम रहे हैं और जनसमुदाय के भीतर अलगाव और अराजनीतीकरण की मौजूदगी भी छिपा तथ्य नहीं रहा है । हो सकता है कि व्यक्ति पूजा, वर्दी और हमलावर दस्ते असली काम के लिए बोझ महसूस होते हों इसलिए उनकी उपेक्षा हो रही है । इस दौर के फ़ासीवाद में उस पुराने फ़ासीवाद के मुकाबले नवीनता होनी तय है फिर भी उसने अपने अतीत की नकल करने की कोशिश छोड़ी नहीं है ।

लेखक को अमेरिका में अनेक प्रसंगों में फ़ासीवाद का उभार दिखाई पड़ा है । इसमें सट्टा बाजार की बढ़ती भूमिका, कार्यस्थल पर दमन में इजाफ़ा, समाज का सैनिकीकरण, नागरिक जीवन में हिंसा की बाढ़, चौतरफा निगरानी की व्यवस्था, अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई, प्रतिक्रियावादी लोकप्रियता का उभार, मीडिया में भोंपू संस्कृति का प्रसार आदि प्रमुख हैं और इन्हें रोजमर्रा की चीज मान लिया गया है । युद्ध विरोधी प्रदर्शन अलभग बंद हो गए हैं । अन्य सामाजिक आंदोलन उतार और बिखराव के दौर से गुजर रहे हैं । उनमें टिकाऊपन और राजनीतिक स्वरूप की कमी पहले भी थी । सत्ता संरचना इतनी संस्थाबद्ध हो गई है कि नजर ही नहीं आती । इसका प्रसार लगभग अबाध है । सत्ता के प्रयोग को लेकर कोई भी नैतिक या वैचारिक संकोच गायब हो गया है ।

उनका अनुमान है कि यदि यही प्रवृत्तियां जारी रहीं तो फ़ासीवादी निजाम का आना तय है । इसे किसी एक नेता या उसकी योजना के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता । अमेरिकी समाज में मौजूद कुछेक दूरगामी ऐतिहासिक प्रवृत्तियों के चलते ही वह दिन आएगा । युद्ध, आर्थिक बदहाली, आतंकवादी हमला या अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम आदि से जुड़े गहरे संकट की स्थिति में इन प्रवृत्तियों में त्वरण आ जा सकता है । इसके लिए उथल पुथल, क्रांति, तख्तापलट, सैनिक विद्रोह या निरंकुश शासकों का होना जरूरी नहीं है ।

इन सब कारणों से लेखक ने डोनाल्ड ट्रम्प की जीत को अमेरिका में फ़ासीवाद की ओर राजनीतिक संक्रमण का कदम माना है । वे उन लोगों की राय को सही नहीं मानते जिनके अनुसार ट्रम्प और कुछ नहीं मुसोलिनी का पुनरावतार है । दिक्कत यह है कि फ़ासीवाद की बात करते हुए अक्सर उसके चरम हिटलरी रूप की कल्पना की जाती है लेकिन उससे कुछ कम कत्लो गारत को भी उसी दिशा में प्रयाण मानना लेखक को उचित लगता है ।

तात्पर्य कि इस दौर का फ़ासीवादी निजाम इतालवी मूल रूप के समान होने की जगह उसके आस पास की परिघटना होगा । इस नई बात के लिए बहुतेरे लोग सर्वसत्तावाद की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं लेकिन लेखक ने उसका इस्तेमाल करने से परहेज किया है क्योंकि वर्तमान सत्ता संरचना को समझने के लिए उन्हें यह धारणा उचित और पर्याप्त नहीं प्रतीत होती ।

गोपाल प्रधान
प्रो. गोपाल  प्रधान अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापक हैं. उन्होंने विश्व साहित्य की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद , समसामयिक मुद्दों पर लेखन और उनका संपादन किया है
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