समकालीन जनमत
शकूर साहब की पत्नी
पुस्तक

विभाजन की विभीषिका और उत्तराखंड के इतिहास की गुमशुदगी की परत में लिपटा एक बयान

यह कथा सानीउडियार क्षेत्र, जिला बागेश्वर (पहले अल्मोड़ा) उत्तराखंड के एक व्यक्ति हाजी अब्दुल शकूर की है। उनका खानदान उन्नीस सौ ईस्वी से कुछ पहले पिथौरागढ़ से आकर यहां बसा था। इनके दादा पीर बख्श यहां आए और सानीउडियार, जो टी स्टेट हुआ करता था, उसका कुछ हिस्सा लगभग 50-60 नाली (तीन- चार एकड़) जमीन उसके तत्कालीन मालिक देवी दत्त उप्रेती से खरीद लिया। इसको दाणूथल कहा जाता था।

पीर बख्श के तीन बेटे और एक बेटी थी। इनमें से दो बेटे और बेटी दाणूथल के मकान में और बड़े बेटे यानी शकूर साहब के पिता रहीम बख्श पास में ही चौपांव में रहते थे। यहां मिशनरी भी थी। जिसके दो बंगले और एक गिरजाघर था। शकूर साहब का जन्म यहीं चौपांव में 1933 में हुआ था। सानीउडियार में आसपास 5-6 घर मुस्लिम थे। जिनमें सभी पहाड़ के ही थे, सिर्फ एक परिवार को छोड़कर, जो संभवतः मेरठ का था।

अंग्रेजों से सबसे पहले इस टी स्टेट को मेरठ के जिन उमराव अली साहब ने खरीदा था, उनके साथ ही यह परिवार आया था। वह अपने को सैय्यद कहते थे और मीर साहब कहलाते थे। एक कोठारी परिवार था, जो ब्राह्मण से मुस्लिम बना था। एक कलाल परिवार, बाकी दूसरे घर धोबियों के थे। सभी की भाषा कुमाऊंनी थी। यह खेतिहर, पशुपालक, कुछ फेरी करके सामान बेचने वाले थे।

पूरे इलाके में सिर्फ देसी परिवार के मोहम्मद अली को उर्दू आती थी, जो कुछ धार्मिक मौकों पर रिवायत वगैरह पढ़ते थे। शकूर साहब के पिता और चाचा दर्जी का काम भी करते थे। जमीन सिर्फ इनके और कोठारी परिवार के पास थी। यह सब आस-पास के एक दो किलोमीटर के इलाके थे। कुल मिलाकर सब यहां के जीवन में रचे-बसे लोग थे।

1947 में जब देश को आजादी मिली, तब शकूर साहब कांडा के मिडिल स्कूल में पढ़ते थे, जो उनके घर से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर था। स्कूल में आजादी का जश्न काफी धूमधाम से मनाया गया। सभी देर शाम तक जुलूस निकालकर, नारा लगाते घूमते रहे।

लेकिन आजादी के साथ-साथ विभाजन की त्रासदी भी घटित हुई। भारत – पाकिस्तान बनने और दोनों तरफ की सीमाओं पर मारकाट, ट्रेनों में लाशें भर कर आने जैसी तमाम तरह की सच्ची खबरों के साथ अफवाहों का बाजार भी गर्म था। पहाड़ के अंदरवर्ती इलाकों में भी यह खबरें वहां से आने वाले शरणार्थियों और कभी-कभार आने वाले साप्ताहिक अखबारों से होकर आ रही थीं।

हालांकि यहां तक खबरें काफी देर से पहुंचती थीं। गांधीजी की शहादत की खबर भी चार-पांच दिन बाद पहुंची थी। अभी यहां तक मोटर मार्ग भी नहीं था। इन्हीं सबके बीच शकूर साहब कांडा के अपने एक परिचित गफूर साहब के यहां रह कर पढ़ रहे थे।

आजादी के ढाई साल बाद और 1950 में नये-नये गणतंत्र बने भारत के साथ इस पर्वतीय क्षेत्र के छोटे से कस्बे में 27 से 29 मार्च 1950 को वह भीषण नरसंहार हुआ, जिसके भुक्तभोगी और चश्मदीद हाजी अब्दुल शकूर बने। उनके परिवार के 19 लोगों में से 15 लोगों समेत कुल 21 लोग मारे गये।

अपने जीवन में घटी इस भीषण दुर्घटना, जो उनके लिए मरणांतक तो थी ही, साथ ही साथ इस देश के लिए बेहद शर्मनाक धब्बा थी।

उन्होंने इस घटना के 60 साल बाद अपनी छोटी सी डायरी मात्र 40-45 पेज की ‘सफरनामा’ में दर्ज की है। यह डायरी भी उनके बच्चों को नवंबर 2013 में उनकी मृत्यु के बाद ही मिल सकी और सन 2014 में उनके बेटे के व्यक्तिगत प्रयास से ही छप कर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में सामने आ सकी।

हालांकि, उत्तराखंड में भी कितने लोग इसके बारे में जानते हैं, मुझे नहीं पता। देश के भीतर उस दौर के विभिन्न दंगों की चर्चा हुई है, लेकिन पहाड़ के अंदरवर्ती इलाके में घटे इस जनसंहार की चर्चा मुझे कहीं नहीं दिखती। आज जबकि देश की सर्वोच्च सत्ता पर राज्य प्रायोजित भयानक जनसंहारों को रचानेवाली और पूरे जनमानस को सांप्रदायिक रूप से हिंसक बना देने वाली विचारधारा का वर्चस्व है, तब शकूर साहब के ‘सफरनामा’ को याद करने की कुछ जरूरी वजहें हैं, जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए।

घटना के पहले के माहौल के बारे में लिखते हुए लेखक बताता है, कि आजादी के दिन जुलूस के बाद कांग्रेस के नेताओं ने बताया कि देश का विभाजन हो गया है। पाकिस्तान बन गया है। सीमा पर मारकाट हो रही है लेकिन यहां हमें सबको मिल-जुल कर रहना है। ऐसी कोई गड़बड़ी यहां नहीं होने देनी है। लेकिन तमाम खबरें जो लगातार आ रही थी, उनसे माहौल में काफी तनाव था। कांडा के स्कूल में दो ही मुस्लिम छात्र थे।

शकूर साहब लिखते हैं, कि उनसे तो कोई सीधे तो नहीं कहता था, लेकिन पाकिस्तान और मुसलमानों को लेकर काफी उल्टा-सीधा कहा जाता था। कांडा में दो ही मुस्लिम परिवार थे।

इस तनाव भरे माहौल के बीच पाकिस्तान से शरणार्थी पंजाबी आने लगे थे, जिनमें से कुछ इधर भी आये। यह लोग गांव में फेरी लगाकर कपड़ा बेचते थे। इनमें से एक बेहद जहरबुझा था, जो अपने को लाहौर का बताता था। वह गांव के लोगों को पाकिस्तान में हो रहे जुल्मों की दास्तान की सच्ची- झूठी खबरें बताता रहता था।

इस बीच एक स्थानीय घटना ने तूल पकड़ लिया, जो पहले से ही सब की जानकारी में थी और सामान्य मानी जाती थी। सानीउडियार के दाणूथल में बसे देसी परिवार मीर साहब का एक निठल्ला बेटा मोहम्मद अली था। जिसके संबंध गांव की एक परित्यक्ता अधेड़ ब्राह्मण महिला से थे। एक दिन कुछ लड़कों से बहस होने पर उन सबों ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया और गांव के पटवारी को बुला लाये। पटवारी ने उन दोनों को गांव छोड़कर जाने को कह दिया। दोनों कहीं चले गये।

लेकिन जैसा माहौल था, कुछ लोग थोड़ा उत्तेजित हुए कि “मुसलमान पाकिस्तान में तो हमारी मां बहनों के साथ अत्याचार कर रहे हैं और उनकी यह हिम्मत कि यहां भी हमारी स्त्रियों का अपमान कर रहे हैं”। फिर भी स्थानीय लोग पूरा मामला जानते थे, इसलिए कोई दुर्घटना नहीं घटी। बात खत्म हुई। लेकिन इसी बीच पास के भद्रकाली मंदिर में वार्षिक मेला लगा था। इसमें आसपास के कांडा, बेरीनाग, शेराघाट आदि तमाम जगहों और पास के गांव के लोग आते थे। उस ‘पंजाबी’ ने वहां बहुत भड़काऊ भाषण दिया। उसी दिन 27 मार्च को एक हिंसक भीड़ ने शकूर साहब के घर पर हमला कर दिया, लेकिन वहां गांव के लोगों ने उनका मुकाबला किया और भगा दिया। जिसमें माधवानंद उप्रेती जी भी थे, जो इलाके के बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्होंने काफी सक्रिय प्रतिवाद किया था। अगले दिन शांति रही और सभी ने इस घटना की निंदा करते हुए सब ठीक रहने की बात की।

लेकिन भले लोगों को अंदाजा नहीं था, कि नफरत कितनी ज्यादा सुलग रही थी। माधवानंद उप्रेती और पड़ोसी केशव दत्त मिश्रा ने लेखक के पिता को अपना घर छोड़कर उनके घर में रहने को कहा, लेकिन वह नहीं माने। फिर 29 को वहां यह खबर थी, कि वही ‘पंजाबी’ लोगों को लेकर हमला करने आएगा। इसलिए उप्रेती जी कई लोगों को लेकर इस परिवार की रक्षा के लिए वहीं रूके। लेकिन नफरत से भरी हिंसक भीड़ के हमले के सामने उन लोगों की सारी कोशिशें बेकार गयीं। उप्रेती जी पर भी दंगाइयों ने भयानक हमला किया और उनको भागकर जान बचानी पड़ी।

29 तारीख का यह सुनियोजित हमला एक साथ दाणूथल, चौपांव और कांडा में हुआ। जिन लोगों ने पहले ही भाग कर कहीं दूसरे गांव में शरण ले ली थी वह तो बच गए और कुछ लोग संयोगवश ऐसी जगह सोये थे, कि जिंदा बच गये। जिसमें कांडा में शकूर साहब और दाणूथल में उनके दादा। बाकी लोग मारे गए।

चौपांव में शकूर साहब के पिता और एक बड़ी बहन को मरा समझकर दंगाई छोड़ गये। उनके बड़े चाचा की 3 बरस की बच्ची दाणूथल में बच गई थी।

शकूर साहब की पत्नी अख्तरी बेगम

इस कथा में माधवानी उप्रेती के अलावा दो और जबरदस्त चरित्र सामने आते हैं। एक खेतिहर मजदूर भीम सिंह बोरा, जिन्होंने लेखक की घायल बहन को आउट हाउस में शरण दी और दूसरे जूनियर हाई स्कूल के हेड मास्टर बद्री दत्त पंत।

पंत जी ने अगले दिन सुबह गांव वालों को धिक्कारा और धमकाया भी कि सब जेल जाओगे इसलिए जो लोग घायल हैं, उन्हें लेकर कांडा के अस्पताल चलो। गांव से डोलियों का इंतजाम करके इन लोगों को कांडा ले आया गया। कांडा का अस्पताल गोसाई लाल वर्मा के घर में दूसरी मंजिल पर चलता था। जब इस नफरती भीड़ को पता चला कि बच गए लोगों को यहां लाया गया है और उनका इलाज हो रहा है, तो उस हिंसक भीड़ ने घायलों की हत्या के लिए अस्पताल को घेर लिया। कोई रास्ता न देख बद्रीदत्त पंत अस्पताल की सीढ़ी पर खड़े हो गए और कहा कि “पहले बद्री दत्त को मारो फिर जो मर्जी आए करना”। अंततः भीड़ को पीछे हटना पड़ा।

लेखक को उसी रात दाणूथल से चलकर उनके दादा कांडा से बागेश्वर, फिर गरुण होते हुए अल्मोड़ा ले आये।

इस ‘सफरनामा’ में आजादी की लड़ाई में हासिल किए गए राष्ट्र निर्माण के मूल्यों के लिए जीवन तक पर दांव लगा देने वाले उप्रेती जी और बद्रीदत्त पंत जैसे लोग तो हैं ही, लेकिन एक खास बात और दिखती है, इस विभीषिका को झेल कर भी लेखक की एक पंक्ति में भी सांप्रदायिक नजरिये की झलक तक नहीं मिलती। यहां तक कि उस ‘पंजाबी’ शख्स का वह नाम तक नहीं लेते, जिसके नेतृत्व में उनके परिवार के 15 लोगों की हत्या कर दी गयी। एक जीता जागता परिवार पूरी तरह उजड़ गया। एक मेधावी छात्र को कचहरी में चपरासी की नौकरी करनी पड़ी। बाकी हमलावर कई नौजवानों को तो वह जानते ही थे, जो साथ के ही थे। इसके उलट उसने इस पर अपने बच्चों से कभी- कभार बात तो जरूर की लेकिन ऐसे कि उनके भीतर किसी समुदाय या व्यक्ति के प्रति द्वेष की कोई भावना पैदा न हो। इसकी बानगी उनके बेटे प्रोफेसर सिराज अनवर द्वारा इस प्रकाशन को लेकर लिखी गयी अपनी बात में भी नजर आती है।

दूसरी एक महत्वपूर्ण बात, उस दौर की ब्यूरोक्रेसी की नजर आती है। ऐसे भीषण सांप्रदायिक नफरत के माहौल में भी तत्कालीन ब्यूरोक्रेसी संविधान और कानून के प्रति प्रतिबद्ध नजर आती है। अल्मोड़ा में प्रशासन को सूचना मिलते ही कलेक्टर श्री मुसद्दीलाल आई. सी.एस. तत्काल घटनास्थल की ओर रवाना हो जाते हैं। वहां लोगों का अंतिम संस्कार करवा कर इस परिवार के पालतू जानवरों और बाकी बचे-खुचे सामान को बेचकर सारा पैसा भुक्तभोगी परिवार को न सिर्फ भिजवाते हैं, बल्कि लेखक को मानवीय आधार पर तुरंत ही अल्मोड़ा कोर्ट में ₹  5 माहवारी पर चपरासी के पद पर नियुक्त कर दिया जाता है।

आज के समय में ब्यूरोक्रेसी जिस कदर विवेकहीन और अपने राजनीतिक आकाओं के स्वार्थ-पूर्ति का साधन बनी हुई है, उसमें  इस बात की कल्पना करना भी संभव नहीं है। बाद में लेखक हाईस्कूल का इम्तिहान पास कर और फिर इंटर करके अपनी मेधा और कार्यनिष्ठा के दम पर एसडीएम के पद तक पहुंचते हैं, यह अलग बात है।

अपने जीवन में घटित भीषण दुर्घटना के बाद भी सब्र करने की क्षमता और जिंदगी में आगे बढ़ने की ताकत का स्रोत का पता भी वह इस ‘सफरनामा’ में देते हैं।

अल्मोड़ा में उनका तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर में आना- जाना था। वहां की लाइब्रेरी में कृष्न चंदर, मंटो, यशपाल, ख्वाजा अहमद अब्बास आदि की किताबें पढ़कर और सोशलिस्ट पार्टी कार्यालय में आने वाले नौजवानों के साथ घुल-मिल कर ही यह हासिल हुआ था।

अल्मोड़ा जिले के सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए नंदन सिंह बिष्ट जी से आजीवन उनका संबंध बना रहा। बाद के दिनों में अल्मोड़ा में उनको जानने वाले बताते हैं, कि वह सामाजिक-राजनीतिक सभाओं में निरंतर सक्रिय रहे और धार्मिक होने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के उसूलों से उनका विश्वास कभी डिगा नहीं।

सांप्रदायिकता पर भी बात करते हुए उन्होंने कभी भी अपने ऊपर बीती घटनाओं का कभी जिक्र तक नहीं किया। बचपन की घटना के बाद सिर्फ एक बार वह अपने गांव गये। वहां की तीन-चार एकड़ जमीन पर भी उन्होंने यह कहते हुए दावा छोड़ दिया, कि जिन गांव वालों ने उनके परिवार को बचाने की कोशिश की, वह जमीन उन्हीं गांव के लोगों के पास रहे।

इन चीजों से अलावा ‘सफरनामा’ में पहाड़ के दुर्गम जीवन, उस समय के व्यापार और संस्कृति के बारे में कई चीजें पता चलती हैं।

उन्होंने अल्मोड़ा से निकलने वाले अखबार ‘शक्ति’ और कुछ पत्रिकाओं में हिंदी और कुमाऊंनी में लेख भी लिखे। जो इस किताब के परिशिष्ट में संकलित हैं।

वन पंचायतों पर उनका लेख आज भी काफी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। इसमें उनकी जनपक्षधरता का पता चलता है। इतिहासविद और ‘पहाड़’ के संपादक प्रोफ़ेसर शेखर पाठक ने बहुत आत्मीयता और संजीदगी से इस ‘सफरनामा’ की भूमिका लिखते हुए इसके कई पहलुओं को उजागर किया है।

इस घटना के 70 साल बीतने के बाद जब उसकी कथा मैं आज पढ़ रहा हूं, तो यह सोचने पर विवश हूं कि आखिर घटना के 60 साल बाद, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लेखक ने इसे क्यों दर्ज किया होगा!

हालांकि उन्होंने पहले सफे पर लिखा है, कि आने वाली पीढ़ियों को मैं जितना जानता हूं, उतना बता दूं ताकि, जब कभी वह अपनी जड़ों की तलाश करें तो इसे देख सकें। वरना कम से कम अपने दिल का बोझ हल्का कर सकूंगा। अपने जीवन काल में ही उन्होंने ऐसे ही उन्माद और उससे भी तक अधिक खतरनाक, जिसमें पूरे राज्य मशीनरी की हिस्सेदारी थी, चाहे वह ’84 के सिख विरोधी दंगे हो, ’92 में बाबरी मस्जिद का गिराया जाना या फिर 2002 में गुजरात का जनसंहार देखा। कई बार लगता है, कि इन घटनाओं ने इस आजीवन धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध रहे बुजुर्ग को अपनी कथा कहने पर विवश कर दिया होगा।

शायद उन्हें लगा हो, कि जिस हिंसा का शिकार वह और उनका परिवार बना उसका दर्द बयान कर, वह आने वाली नस्लों को यह समझा पाएं कि यह इंसानियत को शर्मसार करने वाली और देश को तोड़ने वाली बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।

आठवीं क्लास में पढ़ने वाले जिस बच्चे ने गांधी की शहादत की खबर सुनकर खाना ना खाया हो, आखिर वह इसे लिखे बगैर दुनिया से जा भी कैसे सकता था।

प्रोफेसर सिराज अनवर

आज जब इस पतली सी मगर बड़ी किताब पर बात कर रहा हूं, तो इसे अपने प्रयास से प्रकाशित करने वाले लेखक के बेटे और एनसीईआरटी में प्रोफ़ेसर रहे सिराज अनवर भी इस दुनिया में नहीं है। प्राकृतिक और कुप्रबंधन के कारण फैली महामारी ने उन्हें भी अप्रैल 2021 के अंत में हमसे छीन लिया है। उनकी पत्नी, उनके भाइयों का परिवार और लेखक शकूर साहब की पत्नी अभी अल्मोड़ा में टमटा (बर्तन बनाने वाले शिल्पकारों की बस्ती ) मोहल्ले के अपने मकान में रहते हैं।

किताब पर किसी प्रकाशन का नाम या मूल्य नहीं लिखा है। इसका मतलब ही है, कि यह निजी खर्च पर छपी और सीमित हाथों तक ही पहुंची होगी। कल को शायद कोई इसे पुर्नप्रकाशित करे, तो उसे तत्कालीन सरकारी दस्तावेजों और अखबारों को भी पलट कर देखना चाहिए, कि उस समय इस घटना को लेकर क्या कुछ कहा-सुना गया है।

सांप्रदायिक नफरत और हिंदुत्व की राजनीति के उन्माद के इस दौर में इस किताब को याद करना केवल इतिहास के पन्नों को पलटना नहीं है, बल्कि माधवानंद उप्रेती, बद्री दत्त पंत, भीम सिंह बोरा, हाजी अब्दुल शकूर और सिराज अनवर जैसे लोगों को याद करना, हमारे संविधान, लोकतंत्र और और देश की धर्मनिरपेक्ष परंपरा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना भी है।

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