समकालीन जनमत
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साहित्य-संस्कृति

साहित्य का सन्नाटा टूट रहा है

साहित्य समाज से निरपेक्ष नहीं होता है। समाज में होने वाली हलचलों, घटनाओं-परिघटनाओं आदि का उस पर असर होता है। 2021 के साल में जहाँ एक तरफ कोरोना की दूसरी लहर की भयावहता थी, इसे लेकर सरकारी अव्यवस्था का आलम था, वह ‘आपदा में अवसर’ तलाश रही थी, राजनीतिक उठापटक का जोर था तो दूसरी तरफ यह साल किसानों की जीवटता व अदम्य संघर्ष का साबित हुआ।

कोरोना की दूसरी लहर ने जनजीवन को तबाह किया। लोगों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ा। ऐसे समय में सरकार से आमलोगों की अपेक्षा थी, पर वह आमतौर पर अनुपस्थित दिखी। सरकार चुनाव में व्यस्त रही। जीवन बचाने से अधिक उसे कुर्सी की चिंता थी। इसका नतीजा सामने आया। लोगों को अपने जीवन के सबसे बुरे दिनों के बीच से गुजरना पड़ा। हमने अपने बहुत से प्रिय जनों को खोया। लेकिन एक सकारात्मक बात यह रही कि तीन कृषि कानूनों को लेकर किसानों ने अपने संघर्ष में जिस समर्पण व संघर्ष क्षमता का प्रदर्शन किया, उसने मोदी सरकार के गुरुर को तोड़ने का काम किया। यह मिथ भी खंडित हुआ कि मोदी सरकार आंदोलनों के आगे झुकती नहीं है। आखिरकार किसान आंदोलन से यह मिथ खंडित हुआ। सरकार तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए बाध्य हुई। किसान आंदोलन भारतीय समाज की जीवंतता का प्रमाण साबित हुआ। स्वाभाविक है कि इसका असर साहित्य में और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में देखने में आया। साहित्यिक गतिविधियां जो 2020 में कोरोना की वजह से प्रभावित हुई थी, वह बहुत कुछ पटरी पर आई।

यह हिंदी के कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म शताब्दी का साल रहा है। 4 मार्च 1921 को उनका जन्म हुआ था और 11 अप्रैल 1977 को निधन। रेणु के साहित्य, जीवन और कर्म को लेकर विविध आयोजन हुए। सोशल मीडिया से लेकर डिजिटल माध्यम पर उन पर चर्चा हुई। इस दौर की महत्वपूर्ण बात यह थी कि गांव से लेकर महानगर तक रेणु की गूंज रही। कथाकार शिवमूर्ति के गांव कुरंग में 4 मार्च को आयोजन हुआ, तो वहीं पटना, भागलपुर से लेकर दिल्ली तक रेणु साहित्य पर अनेक कार्यक्रम हुए। पत्रिकाओं ने रेणु पर केंद्रित विशेष अंक निकाले। उनमें कथादेश, मुक्तांचल, सृजन सरोकार, सृजनलोक, जनपथ, माटी, संवेद, बनास जन, प्रयाग पथ आदि प्रमुख थे। दिल्ली के आयोजन में 11 पत्रिकाओं का एक साथ विमोचन हुआ। विपरीत स्थितियों में हिंदी समाज द्वारा रेणु को याद करना इस साल की विशिष्ट साहित्यिक परिघटना रही है।

यह साल कला, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, शिक्षा, राजनीति, समाज आदि क्षेत्रों से दिवंगत हुए लोगों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। इन्हें दिवंगत कहना सही नहीं है। ये सभी कोरोना महामारी और सरकारी बदइंतजामी के शिकार हुए। इनसे समाज व साहित्य को बहुत कुछ मिलना था। इसलिए इन्हें शहीद माना जाना चाहिए। इनकी सूची बनाई जाए तो सैकड़ों में नहीं, हजारों में होगी। उनका नाम उल्लेख करना संभव नहीं है। याद किया जाना चाहिए कि यह वक्त था जब ‘‘सत्ता में ऐसे ‘हम भारत के लोग’ थे/जिनकी आंखों में सेकुलर भारत/शूल की तरह चुभता था’’ और ‘यही समय है/जब कोरोना सबसे ज्यादा हमलावर था/उसका हमला जानलेवा था/पर उनकी तुलना में/कोरोना कहीं ज्यादा सेकुलर था।’ त्रिलोचन कहते हैं ‘जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया’। और ‘यह जो उम्मीद है इसमें कोई उम्मीद नहीं/यह आदमी को लाश में बदलने की फैक्ट्री है/यहां जीना कठिन है, मरना आसान/हिंदुस्तान में फैल रहा है, श्मशान और कब्रिस्तान।’ कोरोना की दूसरी लहर के दौरान की यही हकीकत है। साहित्य इस हकीकत से कैसे मुंह मोड़ सकता है ?

कहते हैं ‘मुसीबत में क्या कविताएं साथ होंगी?’ कहा भी जाता है कि दुख कहने से वह हल्का होता है। करोना के दौरान बड़े पैमाने पर साहित्य सृजन हुआ। रचनाकारों के अन्दर का उद्वेलन उनके सृजन में अभिव्यक्त हुआ। कविताओं के कई साझा संकलन आए। पिछले साल ‘दर्द के काफिले’ का प्रकाशन हुआ तो वहीं इस साल ‘तिमिर में ज्योति जैसे’ (संपादक – अरुण होता) छपकर आया जिसमें हिन्दी के 43 कवियों की कविताएं हैं। इसमें अशोक वाजपेई व राजेश जोशी जैसे वरिष्ठ कवि हैं तो गोलेन्द्र पटेल जैसे युवा कवि शामिल हैं। कवि व आलोचक श्रीप्रकाश शुक्ल की किताब ‘महामारी और कविता’ भी इस दौरान आई। श्रीप्रकाश शुक्ल ने इसके माध्यम से कोरोना काल की कविताओं को ‘कोरोजीवी’ नाम दिया और इसकी अवधारणा प्रस्तुत की।

कई पत्रिकाओं ने कोरोना केन्द्रित अंक निकाले। इसके द्वारा न सिर्फ इस समय की पड़ताल की गयी व इस दौर की रचनाशीलता को सामने लाने का काम हुआ बल्कि मानव इतिहास की त्रासदियों पर भी चर्चा की गई। ‘अभिनव कदम’ (संपादक – जयप्रकाश धूमकेतु) और ‘जनपथ’ (संपादक अनंत कुमार सिंह) ऐसी ही पत्रिकाएं रही हैैं। यह साहित्य द्वारा त्रासदी में जीवन और मनुष्यता की तलाश है, उसकी प्रतिष्ठा है। इस बात का भी रेखांकन है कि चाहे जैसी भी विकट स्थितियां-परिस्थितियां हों, वे जीवन की राह में अड़चनें पैदा करती हैं, फिर भी अड़चनों के पार जीवन की धारा सतत बहती रहती है। साहित्य इसी धारा को प्रवाहमान करता है। इस दौर का साहित्य इस बात का प्रमाण है।

हिन्दी कवि व गद्यकार मंगलेश डबराल का कोरोना संक्रमित होने से बीते साल 9 दिसम्बर को निधन हुआ। इस साल उन पर पाखी, परिकथा, पहल, दुनिया इन दिनों, आधारशिला आदि अनेक पत्रिकाओं ने स्मृति लेख प्रकाशित किए। उनकी पहली बरसी पर समकालीन जनमत, लिखावट आदि ने कार्यक्रम आयोजित किए। 9 दिसम्बर रघुवीर सहाय का जन्मदिन भी है। दिल्ली प्रेस क्लब में दोनों रचनाकारों को लेकर कार्यक्रम आयोजित हुआ। इसमें फासीवाद विरोधी सांस्कृतिक अभियान का प्रस्ताव भी लिया गया। कोरोना की दूसरी लहर में जनवादी कथाकार रमेश उपाध्याय का निधन हुआ। वे ‘कथन’ पत्रिका के संस्थापक संपादक भी रहे हैं। उन पर केन्द्रित इसका नया अंक उनके रचनाकार के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षो को अनावृत करता है। सुरेंद्र मनन, जवरीमल्ल पारख, हबीब कैफ़ी, जितेंद्र भाटिया, नछत्तर, हरियश राय, प्रियदर्शन, प्रेम जनमेजय आदि के संस्मरण रमेश जी के बहुआयामी व्यक्तित्व को जानने-समझने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

यह भारतीय स्वाधीनता का अमृत महोत्सव वर्ष यानी 75 वां वर्ष है। संजीव, राजेश जोशी, दिविक रमेश आदि साहित्यकारों ने भी इस साल अपने जीवन के 75 साल पूरे किए। ‘सहयोग’ पत्रिका का प्रवेशांक संजीव के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित विशेषांक के रूप में हमारे सामने है। इस पत्रिका के प्रधान संपादक कवि-कथाकार शिव कुमार यादव व संपादक कवि निशांत हैं। आसनसोल (पश्चिम बंगाल) में इसका विमोचन तथा संजीव के रचना कर्म पर विशद चर्चा हुई। इसी तरह का आयोजन संजीव के गृहनगर बांगरकलां तथा सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) में भी हुआ। लखनऊ से नलिन रंजन सिंह और ज्ञान प्रकाश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘कविता बिहान’ ने राजेश जोशी और संतोष श्रेयांश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘सृजनलोक’ ने दिविक रमेश पर विशेषांक निकाला।

राजेश जोशी और दिविक रमेश पर सोशल मीडिया और डिजिटल मंच के माध्यम से उनके 75 वें जन्म वर्ष में कार्यक्रम आयोजित किए गए। दिविक रमेश पर लिखावट की ओर से आयोजन हुआ। उद्भ्रांत हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि, गीतकार और गद्यकार हैं। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘नागफनी’ ने उन पर विशेषांक निकाला। इसमें संस्मरण, साहित्य समीक्षा, पुस्तक समीक्षा, साक्षात्कार जैसे स्तंभ के माध्यम से रचनाकार के व्यक्तित्व को उकेरा गया है। इस तरह कई पत्रिकाओं ने रचनाकारों पर केंद्रित अंक निकाले।

2020 का वर्ष लॉक डाउन का वर्ष था। सामाजिक व साहित्यिक गतिविधियां ठप सी हो गई थीं। पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन बुरी तरह प्रभावित था। कहते हैं जब एक राह बंद हो जाती है तो नए रास्ते की तलाश होती है। कोरोना त्रासदी से रचना और विचार की जमीन तैयार हुई। सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यम इन्हें सामने लाने के मंच बन गये। अधिकांश पत्रिकाएं प्रिंट फार्म में न होकर डिजिटल रूप में सामने आईं। लेकिन 2021 में इस दिशा में गुणात्मक परिवर्तन देखते हैं। पत्र पत्रिकाएं अपने सामान्य रूप में आने लगी हैं। वहीं, पुस्तक प्रकाशन की दिशा में तेजी देखने को मिली है। लखनऊ समेत अनेक शहरों में पुस्तक मेले का आयोजन हुआ।

हाल में कविता, कहानी, आलोचना, संस्मरण, विचार की अनेक किताबें छप कर आई हैं। कह सकते हैं कि २०२० ने रचनात्मकता को उद्वेलित किया तो २०२१ प्रकाशन के लिए। प्रकाशकों के पास पाण्डुलिपियों का ढ़ेर एकत्र हो गया है। बड़ी मात्रा में किताबें छपकर आ रही हैं। सबकी चर्चा करना संभव नहीं है। बस, उनकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है।

हाल के वर्षों में अनेक नए प्रकाशन केंद्र उभरे हैं। इन केंद्रों की सक्रियता रेखांकित करने वाली है। बड़े प्रकाशकों का एकाधिकार और वर्चस्व टूटा है। इस साल कविताओं के कई साझा संकलन आए। अगोरा प्रकाशन ने ‘प्रतिरोध में कविता’ प्रकाशित किया जिसका संपादन कवि रंजीत वर्मा ने किया है। इसमें हिंदी समेत बारह भारतीय भाषाओं की कविताएं शामिल हैं। मंगलेश डबराल ने इसकी भूमिका लिखी है। इसी प्रकाशन से सीमा आजाद का जेल संस्मरण ‘औरत का सफर – जेल से जेल तक’ प्रकाशित हुआ। सृजनलोक प्रकाशन ने कवि संतोष श्रेयांश के संपादन में ‘मेरे पिता’ शीर्षक से पिता विषयक कविताओं का संकलन निकाला। इसमें 160 कवियों की कविताएं शामिल हैं।

रुद्रादित्य प्रकाशन की ओर से ‘कसौटी पर कविताएं’ संकलन आया। इसमें 25 कवियों की कविताएं और उन पर आलोचना है। संपादन निलोत्पल रमेश का है। जगदीश नलिन हिंदी के वयोवृद्ध कवि हैं। इस कोरोना काल में उनकी सृजनात्मक सक्रियता देखते ही बनती है। वह हर रोज हिंदी के एक कवि की कविता का अंग्रेजी में अनुवाद करते हैं और उसे फेसबुक पर पोस्ट करते हैं। ऐसी ही कविताओं का संकलन सृजनलोक प्रकाशन ने ‘इन नो टाइम’ शीर्षक से छापा है। इसमें 101 कवियों की कविताएं शामिल हैं।

वरिष्ठ कवि रामकुमार कृषक कोरोना काल में रचनात्मक रूप से काफी सक्रिय रहे। लोकोदय प्रकाशन ने उनकी कोरोनाकालीन कविताओं का संकलन ‘साधो, कोरोना जनहंता’ नाम से प्रकाशित किया। कवयित्री शुक्ला चौधुरी का निधन कोरोना से लड़ते हुए हुआ। उनकी कविताओं का संकलन ‘अनछुआ रह गया आकाश’ न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। इस प्रकाशन ने हिंदी के 17 कवियों की चयनित कविताओं का संकलन भी प्रकाशित किया। इसी प्रकाशन से मीना सिंह का कथा संग्रह ‘अंधेरी सुरंग’ भी आया। उनके दो कविता संग्रह ‘काली कविताएं’ और ‘अशुभ बेला की शुभ कविताएं’ भी इस साल आए।

चंद्रेश्वर हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि और आलोचक हैं। उनका तीसरा कविता संग्रह ‘डुमरांव नजर आएगा’ और भोजपुरी गद्य कृति ‘हमार गांव’ रश्मि प्रकाशन से आया। इस प्रकाशन ने आशाराम जागरथ की चर्चित अवधी काव्यगाथा ‘पाहीमाफी’ का भी प्रकाशन किया। परिकल्पना की ओर से चर्चित कवि मिथिलेश श्रीवास्तव का तीसरा कविता संग्रह ‘औरत ही रोती है पहले’ प्रकाशित हुआ। यह भारतीय जनतंत्र के क्षरण का काव्यात्मक दस्तावेज है। नवारूण प्रकाशन ने किसान आंदोलन को केंद्र कर कई किताबें प्रकाशित कीं। बलवंत कौर और विभास वर्मा के संपादन में प्रकाशित ‘किसान आंदोलन – लहर भी, संघर्ष भी, जश्न भी’ प्रमुख है। इसी प्रकाशन से उर्मिलेश के संस्मरणों का संकलन ‘गाजीपुर में क्रिस्टोफ़र कॉडवेल’ और शीर्षस्थ कथाकार शेखर जोशी का ‘मेरा औलियागांव’ आया। इस साल इन दोनों की काफी चर्चा रही। इसी तरह कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की ‘भील विद्रोह – संघर्ष के सवा सौ साल’ ने भी जनइतिहास में रुचि रखने वालों को आकर्षित किया।

इस साल सेतु प्रकाशन, प्रलेक प्रकाशन, सर्व भाषा ट्रस्ट, बोधि प्रकाशन, भावना प्रकाशन आदि काफी सक्रिय रहे। बड़ी संख्या में यहां से किताबें आई हैं या आने वाली हैं। विश्व पुस्तक मेला को ध्यान में रखकर तैयारी है। सेतु प्रकाशन ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें छापी हैं। आनन्द स्वरूप वर्मा की ‘पत्ऱकारिता का अंधायुग’, ज्ञानरंजन की ‘जैसे अमरूद की खुशबू’, संजीव की ‘पुरबी बयार’ आदि प्रमुख हैं। प्रलेक प्रकाशन से कवि व पत्रकार सुभाष राय की गद्यकृति ‘अंधेरे के पार’ आई है। यह कई रचनाकारों पर लिखे आलेखों का संग्रह है। रणेन्द्र का उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ इस साल आया और काफी चर्चित हुआ। वरिष्ठ कवयित्री शोभा सिंह का दूसरा कविता संग्रह ‘यह मिट्टी दस्तावेज हमारा’ गुलमोहर ने प्रकाशिात किया। ममता कालिया की ‘जीते जी इलाहाबाद’ पर केन्द्रित संस्मरणात्मक कृति है जो इस साल आई।

वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन की आलोचना पुस्तक भी इसी साल आई। उनके संपादन में ‘गजल सप्तक’ आया। वहीं, जनवादी गजलकार डी एम मिश्र के संपादन में ‘गजल एकादश’ गजल के पाठकों के बीच चर्चा में है। बोधि प्रकाशन ने कई कविता संग्रह प्रकाशित किए। उनमें शैलेंद्र शांत का ‘सुने तो कई’, राजकिशोर राजन का ‘जीवन जिस धरती का’, विशाखा मुलमुले का ‘पानी का पुल’ आदि प्रमुख है। वरिष्ठ प्रगतिशील उपन्यासकार राजेन्द्र राजन का उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’, सुरेश कांटक का कथा संग्रह ‘अनावरण’ जितेंद्र कुमार का कथा संग्रह ‘अग्निपछी’, युवा कथाकार प्रद्युम्न कुमार सिंह का कथा संगह ‘जबरापुर’ उषा राय का कहानी संग्रह ‘हवेली’ इसी साल प्रकाशित हुआ। शिव कुशवाहा, दिलीप दर्श समेत अनेक युवा रचनाकरों की कृतियां आईं।

सार रूप में कहा जा सकता है कि 2021 का वर्ष साहित्य की दृष्टि से काफी उत्पादक और सृजनात्मकक रहा है। सैकड़ों की संख्या में नहीं हजारों की संख्या में कृतियां आईं हैं। वे विविध संदर्भों को लेकर हैं। यहां उनकी महज एक झलक है। 2020 में जब साहित्यिक गतिविधियां और सृजन का मंच सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यम बन गया था। वहीं, 2021 में हम इस दिशा में गुणात्मक परिवर्तन देखते हैं। साहित्य के कार्यक्रम, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है। पुस्तक मेले आयोजित किये जा रहे हैं। यह साहित्य का पटरी पर लौटना है और सन्नाटा का टूटना है।

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