समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-29

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

घर-परिवार


अपने पिता जी के श्रम के प्रति लगाव के बारे में पहले बता ही चुकी हूं। उनके श्रम के प्रति लगाव का असर विनय भइया को छोड़ सभी बेटे बेटियों पर है और पाखण्डों के प्रति विरोध का असर लगभग सभी बेटों पर और एक बेटी पर है। विचार से वे पक्के कांग्रेसी थे। पाख़ंड से वे बहुत चिढ़ते थे। जो कुछ नाम मात्र का था भी, वो मेरी शादी के बाद धीरे धीरे खत्म होता गया। इसीलिए मेरी शादी में कर्मकांड न होने में, उनकी तरफ से कोई विरोध न होने के कारण, मेरे यहां सब काम सहजता से हो गया। रामजी राय के घर वाले तो कट्टर कर्मकांडी थे, लेकिन कर्मकांड के विरोध में रामजी राय के दृढ़ निर्णय के आगे सबको उनकी बात माननी पड़ी। भले ही उसका दुख भी हमलोग झेले हैं। सही काम के लिए अगर आप दृढ़ हों तो घर वाले भी देर से सही लेकिन कमोबेश मान ही जाते हैं। यह भी तभी संभव है जब आप अपने बात और व्यवहार में फर्क न रखते हों।

रामजी राय जब मेरे यहां आते, इनकी बातों को ध्यान से मेरे घर वाले ही नहीं बल्कि मुहल्ले वाले भी सुनते थे। बहस भी होती थी। लेकिन सभी लोग इनको मानने भी लगे थे। इनके आने पर सब उत्सुकता से अपने आप हमारे दुआर पर इकट्ठा भी हो जाते थे। धीरे धीरे परिवार में तो रामजी राय की बातों का असर होने ही लगा था, मुहल्ले और गांव के भी कुछेक लोग प्रभावित होने लगे थे। रामजी राय को मेरे घर वाले और अन्य लोग केवल एक दामाद के रूप में नहीं मानते थे, बल्कि एक अच्छे और सही विचार का मानते थे। उससे भी अधिक इसलिए भी कि वे जो कहते थे, वही करते भी थे। उनकी यही बात लोगों को सबसे अधिक प्रभावित करती थी। मेरा छोटा भाई तो इनको सम्मान देता ही था, मेरे तीन भाई हमसे बड़े थे, लेकिन रामजी राय को अपने से बड़े होने जैसा सम्मान देते थे। पिताजी जी भी अपना बेटा ही मानते थे।

उस समय पार्टी तो अंडरग्रांउंड थी, लेकिन उसकी राजनीति का असर मेरे घर में आ चुका था। अशोक भइया तो रामजी राय के मित्र ही थे। इलाहाबाद ही पढ़ते थे और रामजी राय के साथ ही रहते थे। जो बात अशोक भइया घर में पिताजी से नहीं कर पाते, उसको रामजी राय आसानी से कर लेते थे। अशोक भइया कुछ दिन पार्टी के होलटाइमर भी थे, बहुत ही शार्प दिमाग के थे। लेकिन घरेलू दबाव के कारण भी उन्हें नौकरी करनी पड़ी। वे बड़े जीजा के माध्यम से मोहनपुरा में इंटर कालेज में पढ़ाने लगे। आज भी वे पार्टी के मेम्बर हैं। रिटायरमेंट के बाद वे गांव आ गए और उनका मन खेती में लग गया। जिस लगन से वे खेती करते हैं, उनको देखकर पिताजी की याद ताजा हो जाती है।

विनय भइया भाई बहनों में सबसे बड़े थे। वे दसवीं फेल थे। कवि थे और अच्छी कविता लिखते थे। लेकिन अब उनकी कविता की धार बदल गई थी। जब कोई उनसे उनकी शिक्षा के बारे में पूछता, तो झट से ज़बाब देते “नाइन अप टेन डाउन” । इस शीर्षक से उन्होंने एक कविता भी लिखी है। कविताएं वो भोजपुरी में लिखते थे। पहले वे जिला जवार में, फिर भोजपुरी क्षेत्र में और उससे आगे भी विनय राय ‘बबुरंग’ के नाम से चर्चित हुए। उस समय की लिखी उनकी एक कविता “माई रे माई बिहान होई कहिया, भेड़ियन से खाली सीवान होई कहिया” कोरोना के दौरान मजदूरों के घर वापसी के समय बहुत चर्चित हुई, जिसे चंदन तिवारी ने गाया। पहले वे अपनी कविताओं के बल पर मंच पर अपनी जगह बनाए, बाद को मंचीय कविताओं ने इनकी कविता में जगह बनाना शुरू किया । 2014 के बाद से तो उनका लगभग भगवाकरण हो गया। तभी से उनकी कविता की धार खतम हो गई।

विनय भइया पिताजी के साथ खेती का काम देखते थे। लेकिन उनका खेती में मन लगता ही नहीं था। इसलिए खेती संबन्धी कोई काम उनको नहीं आता था, मात्र पंपिंग सेट चलाने के। उसमें भी पंपिंगसेट चलाकर वे कविता लिखने बैठ जाते। फिर पानी सही जगह जा रहा है कि नहीं , इसको कभी चेक ही नहीं करते। इस तरह कभी कभी नाली फूटने के कारण पानी अपने खेत में न जाकर दूसरे का खेत सींच जाता। एक बार पिताजी इनसे कहे कि पोखरा में से अपनी भैंस ले आकर अंदर बरदवान में बांध दो। वे पोखरा पर गए तो लेकिन भैंसों को देख खड़े रहे कि कौन मेरी भैंस है। जब सबकी भैंस चली गई, केवल एक भैंस बची तो उसे ले आए। पिताजी पूछे कि इतनी देर क्यों किए? तो बोले कि सभी भैंसों का मुंह तो एक ही जैसा था, पहचानते कैसे कि मेरी भैंस कौन सी है। जब सब लोग अपनी भैंस लेकर चले गए तो बची भैंस मैं ले आया। पिता जी बोले- हुंह, ‘ जा तू कविते लीख’।

जो हो गांव पर मां पिताजी के साथ यही रहते थे। और इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात उनके अंदर यह थी कि मां पिता जी के वृद्धावस्था में चारपाई पकड़ने की स्थिति में श्रवण कुमार की भूमिका भी यही निभाए हैं। जबकि मेरी मां लगभग दस वर्ष बिस्तर पर रही होंगी। दूसरे नंबर पर उनलोगों की सेवा में इन्दिरा दी (हम तीन बहनों में सबसे बड़ी ) रहीं।

मुन्ना भइया भी पिता जी की तरह किसी भी काम को ठान लेते थे तो कर डालते। श्रम के प्रति लगाव होने के कारण ही अपनी मेहनत के बल पर बंबई में टिक गए। पिता जी की इच्छानुसार घर के कुछ जरूरी काम, सामान और उनकी अन्य जरूरतों में आर्थिक सहयोग यही किए हैं। पार्टी के सिम्पथाइजर भी हैं। वो बहुत व्यवहारिक भी हैं। माझिल होने का दुख झेले भी हैं और झेलाए भी।

मुन्ना भइया का पढ़ने में मन नहीं लगता था। चाचा उनको पढ़ाने के लिए अपने साथ मुहम्मदाबाद भी ले गए। वे खुद भी उनको पढ़ाते थे, लेकिन मुन्ना भइया के पल्ले कुछ पड़ता ही नहीं था। एक दिन खीझकर चाचा ने उनसे कहा कि तुम्हारा नाम भी कमलेश है- हिन्दी में ‘कम’ और अंग्रेजी में ‘लेश’ ।

छोटा भाई नन्हें चार साल पटना में पार्टी के मुखपत्र ‘लोकयुद्ध’ में काम किया। बाद में बनारस में एल. आई. सी. में नौकरी करने लगा। ये भी बहुत मेहनती है। किराए के मकान में रहता है। जब भी ये मकान बदलता, एक-दो सामान छोड़कर बाकी सब सामान धीरे धीरे साइकिल से ही ढो डालता है। शायद आज भी पार्टी मेम्बर है। इस तरह लगभग पूरा परिवार ही पार्टी का सेम्पथाइजर रहा।

पिताजी के समय से ही सभी भाई रामजी राय सहित मेरी भी बहुत इज्जत करते हैं। आज भी घर की अंदरूनी बातें हों या कोई समस्या हो तो सभी भाई अपने अपने स्तर से हमसे शेयर करते हैं और राय मशविरा भी करते हैं। ये सामान्य बात नहीं है। ऐसे समाज में लोग अमूमन मायके में लड़कियों से सलाह, मशविरा नहीं करते। न ही लड़कियों से मन की कोई बात करते हैं। लेकिन पिता जी भी अपनी इच्छा हमसे शेयर करते थे। किसी भी तरह की जरूरत हो तो मुझसे नि:संकोच कहते थे।

पिताजी कर्मकांड भले न मानते हों लेकिन उनके अंदर सामंती अवशेष तो था ही। अपने से छोटी जाति का कोई आदमी उनके सामने चारपाई पर बैठे, उन्हें बर्दास्त नहीं था। मेरी शादी के बाद धीरे धीरे उनकी यह सोच बदलने लगी। पहले घर में हमें और नन्हें को छोड़ कोई उनसे बात नहीं कर पाता था। धीरे धीरे ये दूरी भी कम हुई। जब समता की  अंतर्जातीय शादी हुई तो बोले- ठीक की। ये सब तोड़ ही देना चाहिए। हां, अभी गांव में थोड़ी दिक्कत होगी।

बाद के दिनों में तो जात-पात भी नहीं मानते थे। एक बार हमसे बोले कि फलाने की लड़की के लिए कोई लड़का बताओ। मैंने कहा कि अपनी जाति में न खोजते हैं आपलोग। बोले – नहीं, तुमलोगों की बात समझ में आ गई है, अन्तर्जातीय भी चलेगा। मैंने बोला वाह बाबू, इतना बदल गए। ये नहीं कि लड़की की शादी है इसलिए कह रहे थे। बाद में उनके पोते की शादी भी अंतर्जातीय ही हुई। इस मामले में मेरा मायका एडवांस सोच का था। उसके बाद तो छोटे भाई का बड़ा लड़का भी अंतर्जातीय विवाह ही किया। थोड़े दिन उसकी माताजी नहीं मान रहीं थीं, कुछ दिन नाराज रहीं, फिर मान गईं। उसमें भी कर्मकांड को लेकर ज्यादा नाराज थीं। तो उनके छोटे लड़के ने समझाया कि मम्मी परेशान न हो। मेरी शादी में तुम अपना शौक पूरा कर लेना। तुम जैसे करना चाहोगी वैसे ही मैं शादी करूंगा। भइया की तरह प्रेम विवाह नहीं करूंगा। जब शादी का समय आया तो छोटे मियां भी प्रेम विवाह ही किए और वो भी अन्तर्जातीय विवाह। उनकी मम्मी अब किससे कहें।

अपने बच्चों और परिवार जनों को भी आप जब आम जनों की तरह ही समझते हैं, तभी आप अपने बच्चों और परिवार जनों को वैचारिक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। ऐसा मुझे अपने अनुभव से लगता है। हालांकि ये बात आम परिवारों पर लागू हो ही, ऐसा संभव नहीं भी हो सकता है, फिर भी।

किसी किसी घर में बुजुर्ग हैं तो उनपर एकदम अपनी सोच को जबरन लादना भी नहीं चाहिए। वो पके बांस होते हैं। जो टूट तो सकते हैं, झुक नहीं सकते। वो अपनी तरह से एडजस्ट भी कर लेते हैं, ऐसा होते हुए मैंने देखा है। क्योंकि, समय के बदलाव का असर भी समाज पर पड़ता है और हमारे अपने संघर्ष का भी।

समता जिस दिन पार्टी की सदस्यता ली, उस दिन बड़ी खुशी हुई। उसके बाद जब स्टेट कमेटी में चुनी गई तो और खुशी हुई। फिर दूसरी खुशी हुई जब अंकुर ने सदस्यता ली। भले ही वो कम समय दे रहा हो, लेकिन उसकी सोच सही है। किसी अंतर्द्वन्द में नहीं है। अपने माध्यम से इसका सहयोगी ही है। संतोष चंदन तो पहले से ही सदस्य रहे हैं। आज जब रुनझुन ( समता की बेटी) ने पार्टी की सदस्यता ली, तो लगा मेरा पूरा परिवार तीन पीढ़ी (दीपंकर जी के शब्दों में ‘थ्री जी’ ) एक साथ पार्टी के लिए सोच रहा है। ऐसा बहुत लोगों का परिवार भी है/ होगा।
एक होलटाइमर ही पार्टी का जिम्मेदार साथी है, ऐसा नहीं है। अपना काम करते हुए एक सच्चा सेम्पथाइजर भी पार्टी के विकास के लिए किसी होलटाइमर से कम काम नहीं करता। कामरेड माहेश्वर तो होलटाइमर न होते हुए भी पार्टी के विकास के लिए किसी भी होलटाइमर से कम काम नहीं किए बल्कि ज्यादा ही किए होंगे। सवाल विचार का है कि आप किस तरह उसे अपने जीवन में उतारते हैं।

पाठक गण,
इसके बाद अब अगली क़िस्त संभवत: मार्च के बाद शुरु होगी….

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