समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते न कोय-6

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

किराये का कमरा नं0-5


राजापुर पोस्ट ऑफिस के बगल से सीढ़ी उतरकर पीछे गली में कमरा था। मकान मालकिन बहुत नेक महिला थीं। मेरा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर पीछे था। आगे की तरफ एक पुलिस वाले का परिवार रहता था। ऊपर आने की सीढ़ी इनके कमरे से होकर आती थी। सीढ़ी जहां खत्म होती थी वहीं दरवाजा लगा था। दरवाजे के बाद से मेरा पोर्शन शुरु होता था। करीब आठ फीट लम्बी और तीन फीट चौड़ी गैलरी से होकर कमरे में जाना होता था। नीचे आंगन था। सो गैलरी 6 फीट ऊंची दीवार से घिरी थी। पानी के नाम पर कमरे के बाहर गैलरी के कोने में एक नल था। बर्तन धोना, कपड़ा धोना सब यहीं होता था। कोई बाथरुम और शौचालय नहीं था। सीढ़ी का दरवाजा बंद कर नल के पास ही नहाना पड़ता था और शौच के लिए मकान के पीछे पब्लिक शौचालय में जाना पड़ता था। वैसे तो कोई दिक्कत नहीं होती थी, हां कभी-कभी जब प्रेशर बनने के बावजूद लाइन में लगना पड़ता था तो दिक्कत तो होती थी। लेकिन ऐसा कभी कभी ही होता था।

कमरा तो एक ही था, लेकिन बहुत बड़ा था। उसके दीवार में बिना दरवाजे के ही सही लेकिन पांच आलमारियां थीं। लगभग सारा सामान इनमें एडजस्ट हो गया। एक तखत, एक चारपाई के बाद आधे से ज्यादा जगह बचती थी। कोने में खाना बनता था। वहां की आलमारी में किचेन का सामान रखा था। कमरे में ही साइड में एक और दरवाजा था जो आंगन की सीढ़ी में खुलता था। जिससे नीचे आंगन में भी जाया जा सकता था और ऊपर छत पर भी। यह दरवाजा सुरक्षा की दृष्टि से मकान मालकिन बंद रखती थीं। छुट्टी वाले दिन मकान मालकिन इस दरवाजे को खुद खोलकर बता देतीं थीं कि दरवाजा खुला है छत पर जा सकती हो।

यहां से मेरा स्कूल लगभग 8 कि.मी. की दूरी पर था। समता का स्कूल यहां से भी नजदीक ही था। मकान मालकिन की लड़कियों का आना जाना लगा रहता था। एकदम घर जैसा माहौल था। सामने जो पुलिस का परिवार रहता था वो लोग भी बहुत अच्छे थे। सिपाही जी बस एक ही बात अक्सर कहा करते थे कि राय साहब आपकी पर्सनाल्टी तो पुलिस विभाग लायक है पर आप टीचर हो गईं।

अंकुर होने वाले थे और ऐसी स्थिति के अंतिम समय में रात बिरात शौचालय जाना पड़ता था तो डर लगता था। इसलिए दूसरे कमरे की तलाश जारी थी। लगभग दो साल हम यहां रहे होंगे। मकान मालकिन की तरफ से एक बार भी कमरा खाली करने को नहीं कहा गया। बल्कि यही कहती थीं कि हम हैं न! सब संभल जाएगा। लेकिन शौचालय के कारण तुम्हें दिक्कत हो रही है तो जाओ, मैं यही कह सकती हूं कि उसके बाद जब भी तुम्हें कमरे की जरुरत होगी, और मेरे यहां कमरा खाली रहेगा तो तुम्हें दे दूंगी। वैसे तो मैं तुम्हारे लिए कमरा रोके रहती लेकिन बेटा तुम जानती हो कि बाबूजी के दुनिया से चले जाने के बाद आमदनी का कोई जरिया नहीं है और किराए से ही हमारे घर का खर्च चलता है। इसलिए न चाहते हुए भी मुझे ये कमरा किराए पर उठाना ही पड़ेगा।

शिवकुमार मिश्रा पी.एस.ओ. के कार्यकर्ता थे, जो कटरा में रहते थे। उनसे इस संबन्ध में डिटेल बात हुई। शिवकुमार ने कहा कि अच्छा ही है आप कटरा आ जाइए, हम लोगों को भी ठीक रहेगा। उसके बाद मैं सामान सहित कटरा वाले कमरे में आ गई।

किराये का कमरा नं0-6


शिवकुमार मिश्रा से बात करके मैं कटरा रहने आ तो गई लेकिन इस कमरे में और लोग भी रहते थे। शिवकुमार के रिश्तेदार सदाशिव त्रिपाठी और तीरथराज त्रिपाठी ही इलाहाबाद पढ़ने के दौरान ये कमरा किराए पर लिए थे। बाद के दिनों में इसमें शिवकुमार और रोहिताश्व राजपूत ही रेगुलर रहते थे। सदाशिव त्रिपाठी और तीरथराज त्रिपाठी जब कभी इलाहाबाद आते थे तो यहीं रुकते थे। चारों लोग मिलकर कमरे का 120/- महीना किराया देते थे। तब भी किराया बाकी ही रहता था। सदाशिव त्रिपाठी और तीरथराज त्रिपाठी को मेरा यहां रहना अच्छा नहीं लगा। अंकुर के होने के बाद 15 दिन तक तो मैं यहां रही फिर मेटरनिटी लीव में अपने घर चली गई। घर से मैं दो महीने बाद 4-5 दिसम्बर 1984 को इलाहाबाद लौटी। उस समय सदाशिव त्रिपाठी आए हुए थे और वे मुझे दूसरा कमरा लेने के लिए शिवकुमार पर लगातार दबाव बनाने लगे (और जब तक हम कमरा ले नहीं लिए वो यहीं टिके रहे)। रोज-रोज यही बात होती थी और शिवकुमार कुछ कह नहीं पा रहे थे। शिवकुमार की स्थिति देख मुझे दूसरा कमरा देखना ही पड़ा। लेकिन मैंने शिवकुमार से कहा कि पहले ही ये पता चल गया होता कि मुझे यहां से जाना पड़ेगा, तो हम जहां से आए थे वहां कमरा खाली न किए होते। वहां अकेले रहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। अब तो दो बच्चे भी हैं। वहां एकदम घर का माहौल था। अब नई जगह पर पता नहीं कैसा माहौल होगा। अकेली औरत की वजह से कोई कमरा भी नहीं मिल रहा था। अगर किसी के साथ रहना होगा तो फिर किराए का दो कमरे का घर खोजना पड़ेगा। और किराया भी ज्यादा देना पड़ेगा। कैसे करुंगी ? खैर…

फिर उदय मेरा साथ दिये और राजापुर में ही ढलान के तुरंत बाद अंदर गली में मुहम्मद अनवर के यहां 200/- में किराए का घर मिल गया और जनवरी- 85 से उदय के साथ हम वहां शिफ्ट भी कर गए। वहां दो कमरा, एक छोटा बरामदा, आंगन में एक खपरैल का छोटा कमरा किचेन के लिए और उसी के सामने उठउवा शौचालय जिसमें दरवाजे की जगह बोरे का पर्दा टंगा था। बाथरूम नहीं था और न पानी का कनेक्शन था। सामने मकान मालिक रहते थे। जो सुबह शाम पाइप सीढ़ी की तरफ लगाकर पानी भरवा देते थे। एक गंदा सा ड्रम मकान मालिक का ही था जिसमें कपड़ा धोने आदि के लिए पानी भर देते थे। पानी रखने का बड़ा बर्तन भी तो नहीं था मेरे पास। मकान अभी बनने की प्रक्रिया में ही था। आगे वाले कमरे से पीछे 5-6 सीढ़ी बरामदे में उतरने पर बगल में दूसरा कमरा था। जिसकी दीवार दरवाजे से बस ज़रा सी ऊंची थी, बाकी खुला था। उसे फांदकर कोई भी कमरे में आ जा सकता था। इस दशा में कमरे में ताला बंद करने का कोई मतलब ही नहीं था। सारा सामान आगे वाले कमरे में ही रखना पड़ता था। बरामदे के बगल में सीढ़ी थी। एक ही अच्छी बात थी कि रात को छत पर सोने पर कछार की हवा आने से गर्मी कम लगती थी। लेकिन रात में बहुत डर लगता था- पीछे खंडहर जैसा था और उसके पीछे कछार एरिया था।

20 मई को स्कूल बंद होने के बाद मैं बच्चों को लेकर गांव चली गई। उदय यहां रह रहे थे। जून में मकान मालिक कमरा खाली करने को कहने लगे कि मुझे मकान में काम करवाना है। उदय ने कहा कि भाभी जी गांव गई हैं, आने दीजिए तब खाली कर देंगी। मकान मालिक नहीं माने। उन्होंने कहा कि कमरा देते समय ही मैंने कहा था कि मैं जब मकान में काम लगाऊंगा तो आपको कमरा खाली करना पड़ेगा। अब मुझे मकान में काम लगवाना है। उन्होंने बगल में ही एक कमरा दिया कि भाई साहब आप सब सामान इसी में रख लीजिए और जब भाभी जी आ जाएंगी तो दूसरी जगह चले जाइएगा। सब सामान उस कमरे में रखकर उदय कमरा ढूंढ़ने लगे। हम लोगों के गांव से लौटते-लौटते उदय राजापुर में ही थोड़ी दूर पर प्रताप बनिया के यहां एक कमरा 200/- मेंं देख लिए थे और कह आए थे कि 25 जून तक भाभी जी आ जाएंगी और उनके देखने के बाद ही हम एडवांस दे पाएंगे। 25 जून को हम लोग घर से आने के बाद अगले ही दिन प्रताप बनिया वाला कमरा देखकर मकान मालिक को किराया एडवांस जमा कर दिए कि पहली जुलाई को हमलोग सामान सहित यहां शिफ्ट हो जाएंगे।

किराये का कमरा नं0-7


पहली जुलाई 1985 को प्रताप बनिया के यहां किराये के इस सातवें मकान में हम शिफ्ट हो गए। एक तो प्रताप बनिया का घर ही गली में था। उसी में आगे दुकान थी और पीछे उनका परिवार रहता था। दुकान के बगल से बहुत संकरी गली अंदर गई थी। उसी में इनके घर के पीछे इन्हीं के मकान का पिछला हिस्सा था लेकिन अंदर जगह काफी और खुली हुई थी। मेन दरवाजे से आंगन में, फिर बरामदा और उसके बाद कमरा था। कमरा और बरामदा दोनों ही बड़े थे लेकिन दोनों में एक भी खिड़की नहीं थी लेकिन आंगन की वजह से रौशनी रहती थी। आंगन में ही दरवाजे के बगल में शौचालय भी था और उसके बगल में पानी का पाइप था। जहां पर्दा डाल देने पर बाथरूम बन जाता था।

यहां से समता का स्कूल भी थोड़ा और पास हो गया। समता को स्कूल छोड़ते हुए मैं अपने स्कूल निकल जाती थी। छुट्टी के बाद समता पैदल घर आ जाती थी। दस्ता नाट्य मंच के साथी अंदर कमरे में कभी कभी रिहर्सल भी कर लेते थे। दस्ता नाट्य मंच के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण नाटक “इतिहास गवाह है” की स्क्रिप्ट यहीं लिखी गई थी। जिसमें उदय, विमल वर्मा, अमरेश मिश्रा, प्रमोद सिंह, सेवाराम और अनिल सिंह रहते थे। रात में लोग स्क्रिप्ट आगे बढ़ाते और दिन में रिहर्सल होता था। बाहर आवाज जानी ही नहीं थी। पार्टी का सेल्टर होने के कारण पार्टी की बैठक भी होती थी। पार्टी की बैठक चल रही थी। बैठक में मुझसे कहा गया कि शिवकुमार मिश्रा से बात हो गई है, आप कल कटरा वाले मकान में चले जाइए। अब आपको वहीं रहना है। अब यहां ईश्वरी प्रसाद (वर्तमान में भाकपा माले के सी सी मेम्बर हैं ) के छोटे भाई सत्यदेव रहेंगे। एक हफ्ते से सत्यदेव यहां रह रहे थे।

थोड़ा बहुत सामान लेकर मैं सुबह कटरा चली आई। फिर मैं स्कूल चली गई। लेकिन दिन भर मैं सोचती रही कि कहीं फिर न शिवकुमार के रिश्ते के भाई सदाशिव त्रिपाठी आकर कमरा खाली कराने लगें। इसलिए मैं शाम में सामान सहित फिर लौट आई। यहां मीटिंग चल रही थी। उसमें उदय और शिवकुमार भी थे। जब बैठक का इंटरवल हुआ तो लोग पूछने लगे आप लौट क्यों आईं। मैंने कहा मुझे आप लोगों से कुछ कहना है और अच्छा है कि शिवकुमार यहां हैं। आपलोग मुझे भेज तो दिये कटरा और मैं चली भी गई। लेकिन मुझे डर है कि शिवकुमार सदाशिव त्रिपाठी के कहने पर मुझसे फिर न कमरा खाली कराने लगें। आप लोग शिवकुमार से तय कराके भेजिए कि मुझे अब कटरा में ही रहना है, मुझे कटरा वाले कमरे से नहीं हटाया जाएगा तब तो मैं कटरा जाऊंगी नहीं तो हम यहीं ठीक हैं। शिवकुमार ने कहा कि अबकी बार ऐसा नहीं होगा, आपसे कोई कमरा खाली नहीं कराएगा। मैं फिर रात में ही कटरा चली आई और प्रताप बनिया वाले मकान में उदय और सत्यदेव रहने लगे। इस प्रकार हम कटरा में रहने लगे। और आज तक हम वहीं हैं।

इन मकानों में रहते हुए कुछ सुविधा संबन्धी दिक्कत भले रही लेकिन मकान मालिक हमारे सहयोगी रहे और यह अनुभव हुआ कि दुनिया इतनी बुरी भी नहीं है, मुश्किलों के बीच भी राहें निकल आतीं हैं।

प्रताप बनिया भी जब तक हम रहे कभी हमें किसी चीज के लिए टोका टोकी नहीं किए। बल्कि उनकी दुकान से सामान भी उधार मिल जाता था। और जब पैसा हो जाता तो उधार चुकता कर देती थी।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion