समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-7

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

किराये का कमरा नंबर-8


कटरा वाले मकान में 7-8 महीने बाद मैं दुबारा वापस आ गई और 1985 से आज तक यहीं रह रही हूं। किराए का अंतिम मकान अब यही है। इस मकान में शिवकुमार मिश्र से यह तय कराकर आई थी कि दुबारा यहां से नहीं जाऊंगी। पहली बार जब मैं यहां आई थी तब भी जब तक रही मकान का पूरा किराया 120/- मैंने ही दिया। शिवकुमार लोग का 8 महीने का किराया बाकी था उसकी भी भरपाई 80/- महीना अतिरिक्त देकर कर रही थी। मेरे जाने के बाद मात्र एक महीने का किराया लोग दिये थे। अब लगभग साल भर का किराया बकाया हो गया था। जिसे मैंने पूर्व की भांति महीने के 120/- किराए के साथ ही 80/- अतिरिक्त देकर चुकता किया। मकान मालिक विश्वकर्मा जी भी नेक इन्सान हैं, उन्होंने इसको लेकर मुझे कभी परेशान नहीं किया कि आप कैसे यहां आईं और आप क्यों किराया दे रही हैं। जबकि 200/- किराया देना मुझे भारी पड़ रहा था‌।

यहां दो कमरा, एक छोटा बरामदा, बरामदे के कोने में किचेन, छोटा आंगन और बहुत ही छोटा बाथरूम। शौचालय था तो मकान के अंदर ही पर इतना सँकरा कि आज के समय मैं उसमें अटती ही नहीं। पानी का कनेक्शन भी था। लेकिन अक्सर बाहर दरवाजे के पास से ही पानी लाना पड़ता था। कमरे के बगल में छत पर जाने के लिए सीढ़ी भी है। लेकिन उसके ग्रिल में मकान मालिक ताला लगाए रहते हैं। जाड़े के दिनों में भी छत पर जाने को नहीं मिलता। छत पर बाउंड्री न होने के कारण बगल वाले श्रीवास्तव जी का परिवार छत पर आता रहता है। मकान मालिक के लड़के गुड्डू का परिवार छत का इस्तेमाल करता है। हम लोगों को कभी जाना भी हुआ तो श्रीवास्तव जी के आंगन से जाना पड़ता है जो अच्छा नहीं लगता है। मकान में सब अच्छा था लेकिन शौचालय की टंकी आंगन में ही थी जिसे हर तीसरे चौथे महीने साफ कराना पड़ता था और आंगन की नाली से ही सारी गंदगी बहानी पड़ती थी। जिस दिन सफाई होती पूरा मुहल्ला सुगन्धित रहता। उस दिन बाहर निकलते भी शर्म लगती।

अंदर वाला कमरा बहुत ही छोटा था, उसी में पीछे दीवार में एक बिना दरवाजे की आलमारी थी। बाहर वाले कमरे में शिवकुमार मिश्र और रोहित रहते थे। सदाशिव त्रिपाठी और तीरथराज त्रिपाठी कभी कभी 2-3 दिन के लिए आते थे। रामजी राय को 1987 से पटना में ‘जनमत’ के संपादक का जिम्मा मिल गया था। इसलिए वे महीने में 2-3 दिन के लिए ही आ पाते थे। इन दिनों उदय भी यहीं रहने लगे थे। मैं अंदर वाले कमरे में ही 4-5 साल तक रही। मेरे आने के साल भर बाद रोहित की पढ़ाई पूरी हो गई और वो कहीं दूसरे शहर में चले गए। अब रिगुलर रहने वाले शिवकुमार, उदय और दो बच्चों सहित मैं। जबसे हम यहां आए थे कमरे का किराया, बकाया किराए का 80/- और सबका खाने पीने का खर्च हमीं उठा रहे थे। शिवकुमार 5-6 महीने में कभी घर गए तो एक छोटी बोरी गेहूं ( 15-20 किलो) ला देते। उस समय मुझे वेतन 697/- मिलता था। जिसमें 200 किराया, 100/- बच्चे का दूध, 100/- समता की फीस, साइकिल की मरम्मत और दवा वगैरह के लिए रखते थे। बचे तीन सौ में दो बच्चों सहित 5 लोगों का खर्च चल रहा था। लेकिन अब खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। एक दिन मैंने शिवकुमार और उदय के सामने खर्च संबन्धी पूरी बात रखी कि मेरे वेतन से खर्च नहीं पूरा हो पा रहा है, आप लोग भी एक-एक सौ रुपए खर्च में सहयोग करिए । उदय ने 50/- देने को कहा और कुछ राशन की व्यवस्था की भी कोशिश करने की बात की। शिवकुमार ने पैसा देने में असमर्थता जताई और घर जाने पर राशन ला देने की बात रखी। खर्चा किसी तरह चल रहा था।

आगे चलकर शिवकुमार को अपने ही संगठन के एक छात्र नेता ने अपने निजी स्वार्थ में दिग्भ्रमित किया और शिवकुमार हमसे कमरा खाली करने के लिए कहने लगे। लगभग साल भर इस चक्कर में लोग लगे रहे कि कमरा मैं खाली करूं तो छात्र नेता यहां रहेंगे और शिवकुमार के खाने -पीने की व्यवस्था करेंगे। (संगठन के भीतर भी ऐसी बातें हो सकती हैं, इसका अनुभव पहली बार हुआ।) उस समय यहां के पार्टी इंचार्ज अनिल अग्रवाल थे। चूंकि मैं दुबारा इस कमरे में इसी शर्त पर ही आई थी कि कमरा खाली नहीं करूंगी। 4-5 साल हम लोग साथ रहे। शिवकुमार की ‘लॉ’ की पढ़ाई भी पूरी हो गई। 1989 में मैं गोरखपुर जसम के सम्मेलन से लौटी तो शिवकुमार ससामान पार्टी आफिस शिफ्ट कर चुके थे। शिवकुमार आई पी एफ में कुछ दिन इलाहाबाद कार्य करते रहे और बाद में बांदा से वकालत करने का निर्णय लेकर घर चले गए। उदय भी बगल में ही कमरा ले लिए। आज भी शिवकुमार से हम लोगों का अच्छा संबंध है। शिवकुमार कभी इलाहाबाद आते हैं तो मुझसे मिलने जरूर आते हैं। जरा भी नहीं बदले हैं शिवकुमार। मैंने बोला कि आप इतने सरल इंसान हैं शिवकुमार, वकालत कैसे करते हैं। हंसने लगे, बोले सब हो जाता है भाभी।

आगे चलकर बिजली की बहुत दिक्कत होने लगी थी। आए दिन मकान मालिक के यहां से फ्यूज उड़ जाता था। पीछे के सभी किराएदार परेशान थे। मकान मालिक आगे मेन रोड पर रहते थे। बार बार उनके यहां जाना पड़ता था। एक बार 2-3 दिन लाइट नहीं आई। और उनकी लाइट जल रही थी तो सभी लोग मकान मालिक के यहां गए, उन्होंने कहा कि आप लोग अपना मीटर लगवा लीजिए। मैं बोली भी कि क्या कह रहे हैं आप? आप अपने नाम से मीटर लगवाकर सभी किराएदारों का सब-मीटर लगवाइए, नहीं तो आप ही को दिक्कत होगी। लेकिन वे नहीं माने, बोले कि नहीं आप लोग अपने नाम से ही मीटर लगवा लीजिए। बहुत सरल इंसान हैं मकान मालिक। मेरे कमरे के बगल वाले दूसरे कमरे में एक रायसाहब रहते थे, जो टेलीफोन एक्सचेंज में काम करते थे, जब मकान मालिक ने किराएदारों को मीटर अपने नाम लगवाने के लिए कह दिया तो रायसाहब मेरे नाम से मीटर लगवाने की कार्यवाही पूरा कर बिजली विभाग में जमा करा दिए। जब बिजली विभाग का कर्मचारी मीटर लगाने के लिए आया तो मैंने राय साहब से पूछा कि आप अपने नाम से मीटर क्यों नहीं लगवाए? मेरे नाम से क्यों लगवाए? राय साहब हंसते हुए बोले -‘लाइट आप ही की तरफ से आती है, जब मकान मालिक की तरह आप भी लाइट काट दीजिएगा तब अपने नाम से मीटर लगवाऊंगा।’ मैं नहीं जानती थी कि कुछ ही समय बाद ऐसा भी घटित हो जाएगा। राय साहब का स्वास्थ्य अच्छा था और उन्हें कोई बीमारी भी नहीं थी। लेकिन मीटर लगने के 6 महीने बाद ही हृदय विदारक घटना घटी। राय साहब की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई। जी धक हो गया। मन में रह रह कर आता कि क्या राय साहब को अंदर-अंदर इस अनहोनी का एहसास था!? क्या पता। अब भी जब तब मन में यह बात आती है और उदास हो जाती हूं।

बाद के दिनों में मैंने मकान मालिक से परमिशन लेकर आंगन, बरामदा और आगे वाले कमरे का फर्श तुड़वाकर शौचालय की टंकी आंगन में बंद कराकर 30-40 मीटर दूर सीवर से पाइप जुड़वा दिया, और पानी के लिए नई पाइप डलवा दिया। पानी तो अभी भी टुल्लू से ही आता है। 2015 में पीछे पिट्समैन वाले का मकान बनने लगा तो उनका मकान टूटते ही आंगन, शौचालय और अंदर वाला कमरा पीछे से खुल गया। तब पता चला कि मकान मालिक की पीछे की तरफ की दीवार ही नहीं बनी है। फिर मकान मालिक ने एक ईंट की दीवार उठवाई तो शौचालय की चौडा़ई इतनी कम हो गई कि कोई जा ही नहीं सकता था। उसके बाद बाथरूम और शौचालय के बीच की दीवार तुड़वाकर बाथरूम से शौचालय अटैच कर दिया गया। सुरक्षा के लिए आंगन में ऊपर से ग्रिल डालने के लिए काम लगाए तो एक ही राड अभी लगा था कि मकान मालिक के लड़के गुड्डू आ गए और काम रोक दिए और ऊपर से राड निकाल दिए, फिर नीचे आकर मिस्त्री को मारने के लिए बढ़े तो रामजी राय रोक लिए। जबकि ग्रिल लगवाकर सबसे ज्यादा सुरक्षा गुड्डू से ही करनी थी। क्योंकि ये शादीशुरदा तो हैं लेकिन नजर ठीक नहीं है उनकी, जिसकी वजह से एक किराएदार को इन्हीं के कारण इनका मकान छोड़ना पडा़। फिलहाल हम लोग काम रोक दिए। मकान मालिक की चलती तो शायद ग्रिल लग जाता, उनका स्वभाव ही कुछ अलग है।

भला हो मकान मालिक विश्वकर्मा जी का। इनके कमरे का किराया कम होने की वजह से ही हम झूंसी में जमीन खरीद पाए, और झूंसी की जमीन के कारण आज फ्लैट भी ले लिए। लेकिन अभी भी अच्छा इसी कमरे में लगता है क्योंकि इस कमरे से मेरा इतिहास जुड़ा है, खट्टा-मीठा संघर्ष जुड़ा है।

(फीचर्ड इमेज: 267,पुराना कटरा में उदय, विमल वर्मा और कथाकार सृंजय के साथ मैं, समता और अंकुर।)

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