समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-20

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

तो ऐसे हुआ मेरा विवाह

भाग-2

जिस तरह की शादी की प्लानिंग ये लोग किए थे, उसका घर समाज में विरोध भी स्वाभाविक था। ये लोग अपनी पूरी प्लानिंग किसी को बता भी नहीं रहे थे। इसलिए बहुत सारे कार्यक्रम ठीक से हो नहीं पाए। कुछ नहीं समझ में आ रहा था कि कैसे शादी होगी। कहीं मां नाराज हो रही थी कि मेरी अंतिम लड़की की शादी को गुड़िया- गुड्डा का खेल बना दिए हैं सब। कहीं भाई नाराज हो रहे थे कि पहले ही मां को बताए थे ये सब नहीं होगा, तो अब क्यों नाराज़ हो रही है।
इसी बीच नन्हें ( मेरा छोटा भाई ) दौड़ा दौड़ा आया कि दिदिया बरात आ गइल। तो मैंने नन्हें से पूछा कि- बाजा आइल बा? नन्हें बोला – हाँ, बाजा आइल बा। हमको लग रहा था कि बारात आएगी तो हो सकता है बाजा न आए कि इसकी क्या जरूरत है। बाजा के बिना लगता ही नहीं है कि बारात आई है। दरअसल नये तरह से करने में कुछ स्पष्ट ही नहीं हो रहा था कि क्या होगा क्या नहीं होगा। इसी तरह से हो रहा था कि द्वारपूजा भी नहीं होगा। द्वारपूजे में लड़की का पिता दूल्हे का पैर धोता है और ये रामजी राय नहीं करवाएंगे। शाम को द्वारपूजा देखने के लिए गांव की लड़कियां आईं थीं। कुछ पता ही नहीं लग रहा था कि द्वारपूजा लगेगा भी कि नहीं। आज गांव में ही 10 लड़कियों की शादी थी। खैर! हां-नहीं के बीच जैसे भी हो द्वारपूजा लगाने के लिए तैयार हो गए लोग। द्वारपूजा देखने आईं बहुत लड़कियां लौट भी गईं थीं।
कार दरवाजे तक तो आ नहीं पाती, इसलिए दूल्हे को दरवाजे तक लाने के लिए एक असवारी (पालकी) गई। रामजी राय ने यह कहते हुए उसमें बैठने से मना कर दिया कि किसी के कंधे पर चढ़कर मैं द्वारपूजा के लिए नहीं जाऊंगा। मैं पैदल जाऊंगा। इसपर रामजी राय के बड़े पिता जी श्री पराहू राय गुस्सा होकर पालकी में खुद ही बैठ गए। आगे आगे पालकी में वे और पीछे-पीछे बैंड बाजा। रास्ते भर पालकी में बच्चे झांकते और पिताजी को देख बोलते रहे कि – दुलहवा त बूढ़ बा। दरवाजे पर जब पालकी में से दूल्हे की जगह बड़े पिता जी उतरे तो उनको देखकर सभी लड़कियां हंसने लगीं, और वे भी शरमा गए।
द्वारपूजे पर लड़की का बाप दामाद का पैर धोता है। रामजी राय इस रस्म से पहले ही बोले कि ठीक है, बारात सहित मैं दरवाजे पर आ गया। लेकिन मैं अपने से बड़े से पैर नहीं धुलवाऊंगा। ये भी तो मेरे पिता तुल्य ही हैं। फिर यह कहते हुए कि द्वारपूजा हो गया, अब आप सब चलिए मिठाई खाइए और पानी पीजिए, खुद ही आगे बढ़ गए। फिर बाकी सबको तो जाना ही था।
पहनावे से भी दूल्हे की पहचान नहीं हो पा रही थी। रामजी राय सामान्य पैंट शर्ट पहने थे। एक रिश्तेदार तो रामजी राय से ही पूछ बैठे कि दूल्हा कौन है? रामजी राय हाथ मिलाते हुए बोले अध्यक्ष से ही मिल रहे हैं आप। मैं ही दूल्हा हूं।
द्वारपूजे के बाद लावा भुनाया जाता है। मां ने भाई से कहा कि बारात से बाजे वालों को बुला दो, लावा भुनाने जाना है। भाई  ने कहा कि लावा भुनवाकर क्या करोगी? जब उसका कोई उपयोग ही नहीं होगा तो, खाओगी? इतने पर मां चाभी फेंककर बड़की माई के घर चली गई कि “तोनिए क करस बियाह। जब बियाह हो जाइ त हमके बोला लीह जा”। जब जब मां गुस्सा होती, टुनटुन मामा उसको समझाते थे। अशोक भइया जाकर रामजी राय को बताए कि मां लावा भुनवाने को लेकर गुस्सा गई है। तो उन्होंने कहा कि लावा भुनवाने दीजिए, रखा रहेगा। उसके बाद लावा भुनवाने लोग गए। फिर नहछू नहावन होता है। नाउन लड़की को नहलाकर पियरी पहनाती है। चूंकि आज लगन बहुत तेज थी जिसके कारण नाउन को कई जगह संभालना था। इसलिए वो जल्दी करने को कह रही थी। जब उसको कहा गया कि सबकी तरह यहां नहीं होगा। ठीक से नहलाना होगा। फिर वह भी गुस्सा कर चली गई कि तब आप लोग अपने से कर लीजिएगा। हमको दूसरी जगह जाना है। दीदी लोग ही हमको नहलाईं। फिर मुझे सिंपल पियरी साड़ी पहनाई गई। उसके बाद शायद इमली घोटाने वाला कार्यक्रम भी मंडप में तखत पर ही हुआ।
पिताजी मंडप में तखत बिछवा दिए थे कि न चौका पुराएगा, न पंडित बैठेगा, न कोई कर्मकांड होगा। उस समय तक शादी में जयमाल का प्रचलन नहीं था। अशोक भइया बताए थे कि मंडप में दूल्हा दुलहन आपस में बस एक दूसरे को जयमाल डालेंगे।
इलाहाबाद पढ़ने वाले एक और लड़के की शादी भी मेरे गांव में ही हो रही थी। उसमें जितने भी इलाहाबादी लड़के बरात में आए थे, सब मेरे यहां ही आ गए। क्योंकि वो इलाहाबादी दूल्हा आज मोटर साइकिल न मिलने के कारण खिचड़ी ही नहीं खा रहा था। और ये इलाहाबादी दूल्हा दहेज लेने का विरोधी था। इस नए तरह की शादी का इतना हल्ला हो गया था कि अगल बगल के गांव के लोग भी शादी देखने आ गए थे। गांव के जो लोग कभी नहीं आते थे, वो लोग भी शादी देखने आ गए थे। मेरा आंगन तो बड़ा था ही। आंगन के चारों तरफ बरामदा भी था और बाहर बड़ा चौपाल भी था। फिर भी भीड़ इतनी थी कि लोग एक दूसरे पर गिरे जा रहे थे। मंडप के चारों तरफ लोग दोनों हाथ फैलाकर मंडप का बांस पकड़े भीड़ को रोके थे, नहीं तो तखत पर भी लोग चढ़ जाते। आंगन के कोने तुलसी के चौरा पर भी लोग चढ़े हुए थे।

मेरी हालत खराब थी। जयमाल मैंने रामलीला में ही देखा था। गांव में तो पर्दे में शादी होती थी। बारात शादी के लिए आंगन में आ चुकी थी। पहले तो मंडप में गिने चुने बाराती बैठते थे। इस शादी को तो सबको देखना था। तिलक में जैसे पूरा सामान निकालकर चौकै पर रख दिया गया था वैसे ही डालपूजे का भी सामान निकाल कर तखत पर रख दिया गया। उसके बाद मुझे मंडप में जाना था‌। आशा दी, रेनू दी, नीरजा, सुषमा और विद्यावती दी मुझे जयमाल के लिए लेकर गईं। इन्दिरा दी नाराज थीं। वो मेरे साथ जयमाल पर नहीं गईं। नाराजगी गीत गाने को लेकर थी। वो शादी के हर स्टेप का अलग – अलग गीत गाती हैं । इस शादी में केवल जयमाल होना था। इसलिए वो सभी गीत नहीं गा पाएंगी। इस कारण नाराज थीं। जयमाल के लिए मंडप में मुश्किल से 20 फीट जाना था। लेकिन वहां तक जाने में मुझे आधा घंटा लग गया। साइड से तो नहीं लेकिन सामने से चेहरा दिख रहा था। कोई रास्ता ही नहीं दे रहा था। औरतें यही बोले जा रही थीं कि लड़की का चेहरा सामने से दिख रहा है, उसे ढँक दो। कोई एक तो सामने से साड़ी खींच कर घूंघट निकाल दी। फिर नीरजा ने उसे ठीक किया। बरामदे से एक फीट नीचे आंगन का फर्श था जिसमें मंडप था।  (मैं हल्दी के दिन से तो साड़ी पहनना शुरू की थी)। दोनों हाथ से माला के साथ साड़ी भी कसके पकड़ी थी। मैं कांप भी रही थी। आंगन में उतरते ही बाराती में से एक आवाज आई -“कांप तालू, देखीह मलवा न गिर जाय”। बाद में पता चला बोलने वाले हमारे छोटे वाले जेठ थे।

खैर…जैसे तैसे मैं मंडप के पास पहुंच गई। सामने अशोक भइया हाथ फैलाए भीड़ रोके खड़े थे। मां, पिताजी को इस समय यहां रहना था लेकिन इस भीड़ में उन लोगों का आना  मुश्किल था। तब तक उधर से बड़े ससुर बोले कि -अब तक इतनी भीड़ वाली शादी मैंने देखी ही नहीं थी। मुन्ना, अब तक जवन कईल, ऊ कुल माफ। बहुत बढ़िया, अब माला डाल द। मेरी नज़र सामने अशोक भइया से मिली। उन्होंने इशारा किया कि माला डाल दो। एक आवाज आई कि ऊपर चढ़ जाओ। मेरे सामने समस्या ये थी कि बिना साड़ी थोड़ा ऊपर किए चढ़ूं कैसे। तब तक रामजी राय उठकर मेरी तरफ माला लेकर आए और मुझे ऊपर चढ़ाने के लिए झुके, तभी मैंने जल्दी से माला उनको पहना दिया कि कहीं ऊपर चढ़ते समय माला हमसे गिर न जाय। माला डालते ही लोग ताली बजाने लगे। माला डालने के बाद लगा मेरा बोझ हल्का हो गया। उस समय मुझे ये भी नहीं पता था कि लड़की पहले माला डालती है कि लड़का। बस कैसे भी माला पड़ जाय यही सोच रही थी। फिर रामजी राय ने भी माला पहना दिया। फिर तो देर तक ताली बजती रही। रामजी राय अपनी पसन्द से बेइल का माला बनवाकर लाए थे। और मंडप में सबको बेइल का फूल दिए भी थे। जिसकी खुशबू पूरे मंडप में थी। उसके बाद बड़े ससुर ने कहा कि मुन्ना सब तुम्हारे कहने के अनुसार ही हुआ है। अब इतना बात मानो, सिन्दूर  लगा दो, ताकि लगे कि शादी हुई। रामजी राय पहले तो हिचकिचाए फिर सिंदूर अंगुली में लगाकर मुझे लगा दिए। उसके बाद सभी लोग दुआर पर खाना खाने चले गए।
शादी के बाद मैंने रामजी राय से कहा कि जयमाल का प्रोग्राम तो ठीक था। लेकिन मेरे हिसाब से लड़की को मुंह ढँक के न आने वाली बात ठीक नहीं थी। रामजी राय बोले-क्यों? मैंने कहा- लड़की घूंघट में रहती है तो आंख खोलकर नीचे रास्ता देखती हुई चलती है। घूंघट में न रहने से सामने मुंह रखना था। मैं चल भी नहीं पा रही थी। इतना ही था तो जयमाल के समय पर्दा हटा दिया जाता। रामजी राय ने कहा ये बात तो आप ठीक कह रहीं हैं। दूसरी बात ये कि फोटोग्राफी करवानी चाहिए थी।
शादी में रामजी राय के मित्रों में गोरख पाण्डेय, कृष्ण प्रताप सिंह, अशोक सिंह, ओम प्रकाश राय, चितरंजन सिंह, अवधेश प्रधान, जलेश्वर उपाध्याय उर्फ टुन्ना (माहेश्वर जी के भाई) आदि आए थे। सुने कि सब लोगों के खाना खाने के बाद दुआर पर जमावड़ा हुआ। गांव के बहुत लोग इस तरह के विवाह को लेकर तरह तरह के सवाल किए जिसका ज़वाब गोरख पांडे देते रहे। उसके बाद कविता पाठ हुआ जिसमें विनय भइया, हमारे चाचा, गोरख पाण्डेय आदि ने अपनी कविताएं सुनाईं।
सुबह दुल्हा पलगवनी लेने आता है। रामजी राय भी आए। लड़कियां सवाल करने लगीं कि आप तो दहेज विरोधी हैं तो ये सब सामान क्यों ले रहे हैं। रामजी राय बोले- मैंने मांगा थोड़े था। आप लोग ही जबरदस्ती मुझे बुलवाए कि आना जरूरी है, तो आप लोगों का मन रखने और आप लोगों से मिलने मैं चला आया। मुझे कोई सामान नहीं चाहिए। सब सामान आपलोग रख लीजिए‌। थोड़ी देर बाद मेरी विदाई भी हो गई।

मैं ससुराल पहुंच गई। घर पहुंचते ही हल्ला हुआ कि शादी की खबर पेपर में छपी है। पेपर में यह खबर छपी थी कि- “कल 9 मार्च को मतसा गांव के रामजी राय पुत्र श्री राज नारायन राय का विवाह डेढ़गावां की मीना राय पुत्री श्री रामाधार राय के साथ आदर्श विवाह के रूप में संपन्न हुआ। जिसको देखने आस पास के गांव के लोग भी बड़ी संख्या में आए और सबने इस तरह के विवाह की अपने अपने तरह से प्रसंशा की”।  पेपर में छपी खबर से हमारे बड़े ससुर बहुत खुश थे। कहे कि- मुन्ना बहुत खुशी हुई कि तुम्हारे शादी के बारे में पेपर में छपा, लेकिन दुख इस बात का है कि तुम्हारे पिता का ही नाम छपा, मेरा नाम नहीं छपा। चलो सब ठीक है…..( दरअसल रामजी राय के पिता बहुत पहले ही साधू हो गए थे। बड़े पिताजी ही पिता की जिम्मेदारी में थे)। रामजी राय ने कहा कि मेरे ऐसी शादी करने से आप ही न गुस्सा गए थे, इसीलिए आप का नाम नहीं छापे सब।

मेरी शादी को 4-5 दिन ही बीता रहा होगा। मेरे चाचा रामजी राय को गांव बुलवाए। रामजी राय गए तो चाचा ने कहा कि एक अवधेश प्रधान नाम का लड़का आपकी बारात में आया था, क्या वो आप का मित्र है? रामजी राय बोले कि हां, अच्छा मित्र है मेरा। चाचा ने कहा कि ऊंचा दुआर है उसका। मैं एक बार गया था वहां। वो मेरी पकड़ के बाहर है। आप उससे नीरजा की शादी के लिए बात करिए। रामजी राय ने कहा कि ठीक है बात करता हूं।
थोड़े दिन बाद रामजी राय बनारस अवधेश प्रधान के यहां गए। वहां गोरख पाण्डेय भी थे। रामजी राय ने अवधेश प्रधान से नीरजा से शादी के लिए प्रस्ताव रखा। गोरख पाण्डेय ने कहा  वो तो ठीक है, लेकिन नीरजा जी को तो हम लोग देखे नहीं हैं, तो चलते हैं पहले लड़की देख लेते हैं। उसके बाद शादी की बात होगी। उस समय चाचा सपरिवार गांव पर ही थे तो इसी बीच लड़की देखने जाने का प्रोग्राम तय हुआ।
गोरख पाण्डेय, अवधेश प्रधान, रामजी राय इस काम के लिए गांव आ गए। पूरी तैयारी से चाचा अपनी पसन्द से खाना बनवाए थे। रात को खाना भी नीरजा ही खिलाई। खाना खाकर लोग पंपिंग सेट पर सोने चले गए। सुबह चाचा घूमते हुए पंपिंग सेट पर पहुंच गए। चाचा के साथ कुछ बात चीत होने लगी। उसी बीच बनारस लौटने की बात आते ही गोरख पाण्डेय को याद आ गया कि हम लोग तो लड़की देखने आए थे। गोरख पाण्डेय ने चाचा से कहा कि हम लोग जिस काम से आए थे वो तो हुआ नहीं। चाचा ने कहा कि कौन सा काम नहीं हुआ? गोरख पाण्डेय ने कहा कि हम लोग नीरजा जी को देखने आए थे। सो उनको देखकर हम लोग जाएंगे। चाचा बोले – नीरजा ही तो रात में आप लोगों को खाना खिला रही थी। उस समय देखे नहीं आप लोग? यह सुनकर गोरख पाण्डेय ने कहा- दरअसल ऐसा है मास्टर साहब, कि हमलोग कल जब गाजीपुर से चले तो ….. (गोरख का यह वाक्य पूरा होने से पहले ही अशोक भइया और रामजी राय वहां से सरक लिए कि अब तो ये सबके सामने भांग खाने का पोल खोलेंगे) थोड़ी थोड़ी भांग खा लिए थे। इस वजह से देख नहीं पाए। चाचा बोले ठीक है अभी नास्ते के समय देख लीजिएगा उसको।
नास्ते में कचौड़ी, भुजिया बनाया गया। नीरजा ही नास्ता दे रही थी। कचौड़ी देखते ही गोरख पाण्डेय ने कहा अरे वाह! बहुत सुन्दर बनी है। बिल्कुल एक बराबर। बाजार से मंगवाए हैं क्या? चाचा बड़े खुश होकर बोले- नहीं हमारे घर की लड़कियां बनाई हैं। गोरख बोले-हो ही नहीं सकता। हाथ से इतना एक बराबर बन ही नहीं सकता। इसमें मशीन का प्रयोग जरूर हुआ है । चाचा कहे कि नहीं हाथ से बना है। तो बताइए कैसे बना है। तो मैंने बताया कि पहले बहुत बड़ी रोटी की तरह बेल लेते हैं फिर उसमें से एक गिलास से काट लिया जाता है। गोरख बोले- देखिए मैं कह रहा था न कि इसमें मशीन का प्रयोग हुआ है। गिलास से काटना भी तो मशीन का ही प्रयोग हुआ‌। पता नहीं इस बात चीत के बीच गोरख पाण्डेय फिर नीरजा को देख पाए कि नहीं। नास्ता करके लोग बनारस लौट गए।
कुछ दिन बाद अवधेश प्रधान की तरफ से शादी की मंजूरी आ गई। दहेज की मांग के बगैर साल भर बाद 27.2.1977 को अवधेश प्रधान और नीरजा की शादी भी हो गई।

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