समकालीन जनमत
स्मृति

“मैं ज़िंदगी सिर्फ़ अपनी शर्तों पर जीना चाहती हूँ, और यह हो कर रहेगा।”-सरोज ख़ान

कनुप्रिया झा


बात उन दिनों की है जब मैं आठ या नौ साल रही हूँगी। हर शाम क़रीबन चार बजे टेलीविज़न की आवाज़ न्यूनतम कर के मैं टक लगाए बैठा करती थी। यह भारतीय माँओं के हिसाब से पढ़ने या बाहर निकल कर ताज़ी हवा में खेलने-कूदने का समय होता है। एक दिन पकड़ी गई और हुआ कुछ ऐसा जो मेरे अंदाज़े के ठीक उलट था। माँ ने देखा कि मैं एन डी टी वी इमैजिन चैनल पर चल रहे सरोज ख़ान के एक शो ‘हम-तुम नचले वे’ को देख कर डांस सीखने की कोशिश कर रही हूं। माँ ने बड़े प्यार से कहा कि इसमें छिपकर करने जैसी कोई बात नहीं, तुम अच्छा कर लेती हो, मन से और बिना छिपे सीखा करो। बस अब क्या था! ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है‘ से ले कर, ‘बरसो रे मेघा‘ तक जितने गीतों को सरोज ख़ान ने अपने जादुई स्टेप्स से संजोये, मैं सभी को सीखती रही। उन कुछ दिनों के लिए मेरा मानो दीन-धर्म ही बन गया था वह शो जो समय के साथ छूटता रहा। मैंने बहुत कोशिश की यह जानने की कि आख़िर क्या है इस इंसान में जो मुझे इतना प्रभावित करता है। अब सोचती हूँ तो कुछ धुंधलाये जवाब मिल पाते हैं- जैसे कि शायद उनका आत्मविश्वास, उनका चलते जाना बिना रुके, एक नृत्यांगना होने के समाज व पितृसत्ता के बनाये हुए ढांचे, बॉडी इमेज, सभी को ठेंगा दिखाती हुई उनकी आंखें, उनके हाथ जो हर दूसरे पल मानो एक नया जादू उकेर देते हों हवाई कैनवस पर, या उनकी ट्यूटोरियल्स के बीच अपने स्टूडेंट्स से किये गए सारे नोंक-झोंक। अब समझ पाती हूँ कि यही तो थीं, हमारी सरोज ख़ान।
बहुत छोटी उम्र में ही एक बार सरोज को मौका मिला कि वे एक आइटम नम्बर में मशहूर अदाकारा हेलेन के पीछे डांस करें। वे बार-बार अपने स्टेप छोड़ हेलेन के स्टेप्स करने लगतीं। यह देख मास्टरजी ने उन्हें एक चुनौती दी कि वे अकेले ही हेलेन के सारे स्टेप्स करें। उनकी अदाकारी देख मास्टरजी इतने प्रभावित हुए कि अगले ही दिन से उन्होंने सरोज ख़ान को हेलेन व अन्य बड़े कलाकारों को डांस सिखाने के लिए नियुक्त कर लिया। इसके बाद हुआ यह कि एक चौदह साल की लड़की ने ख़ुद से एक बेहद मशहूर क़व्वाली कोरियोग्राफ़ की, ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’। पिछले साल फ़िल्म ‘कलंक’ में उन्होंने माधुरी दीक्षित व आलिया भट्ट को उन्‍होंने आख़िरी बार कोरियोग्राफ़ किया। इतने लंबे उनके करियर में हम न जाने कितने रंग, कितने नए डांस स्टाइल्स और फॉर्म्स से रू-ब-रु हुए। सरोज ख़ान को जो चीज़ सबसे अलग और इतना क़ाबिल बनाती है वह है उनका रेंज। क्लासिकल, सेमी-क्लासिकल से ले कर डिस्को व आइटम नम्बर्स तक। हम जब ‘देवदास’ फ़िल्म का ‘डोला रे डोला’ देखते हैं, तब जो माहौल उस गाने और उसके कोरियोग्राफी को देख कर बनता है, वह उस माहौल से निहायत अलग होता है जब आप माधुरी का ‘एक दो तीन’ देख रहे होते हैं। इतना विस्तृत रेंज अगर कला का चरम नहीं तो और क्या है!

इस मक़ाम पर पहुंचना वैसे तो किसी के लिए आसान नहीं होता, पर सरोज के संघर्षों की फेहरिस्‍त इतनी लंबी है कि उस पर एक किताब लिखी जा सकती है। वे मात्र 3 वर्ष की उम्र से बॉलीवुड में काम करने लिए मजबूर थीं। घर चलाने का ज़्यादा आय-उपाय न था। डांस के प्रति आकर्षण माँ ने उनके जन्म के केवल दो-ढाई वर्ष के भीतर ही भांप लिया था। इसी उम्र से सरोज के अपने सपनों का जिम्मा अपने सिर लेने का भी दौर शुरू हो गया था। जिन मास्टरजी के साथ तीन वर्ष की उम्र से उन्होंने काम किया, उन्हीं से तेरह वर्ष की छोटी उम्र में उनकी शादी करवा दी गयी। चौदह साल में उन्हें एक बेटा हुआ, जिसके बाद उनके पति ने उसे अपना बच्चा स्वीकार करने से मना कर दिया। पर सरोज ने अपने जीवन में किसी भी तरह के पितृसत्तात्मक दखल को जगह नहीं दी और उन्होंने यह कह कर शादी से मुक्ति ली कि “मैं अपने जीवन को सिर्फ़ अपनी शर्तों पर जीना चाहती हूं, और मैं इसे सम्भव कर के रहूंगी।” ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण शादी से आज़ादी छीनना मात्र ही उनका संघर्ष नहीं था। संघर्ष के किस्से और कई हैं।

उन्होंने बेशक़ एक कोरियोग्राफर की तरह काम करना शुरू कर दिया था लेकिन जब समाज ही इतना पतनशील व पितृसत्तात्मक हो तो उसका असर समाज के हर क्षेत्र, हर कूचे पर पड़ता ही है। निजी ज़िन्दगी में इसकी मार झेलने के साथ ही सरोज को प्रोफ़ेशनल फ़ील्ड में इसकी वजह से जूझना पड़ा।

20वीं सदी में बॉलीवुड में सिर्फ पुरुषों को ही सम्माननीय कोरियोग्राफ़र का दर्ज़ा मिलता था। सरोज को स्त्री होने के नाते जितनी ज़िल्लत व अपमान सहना पड़ा वह बहुत भयावह था। प्रतिभा के बावजूद शरुआती दौर में उन्‍हें तिरस्कार मिला। उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो उनसे कमतर प्रतिभा वाले लोगों को सिर्फ़ पुरूष होने की वजह से मिल जाता। वे अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं कि “मैंने पुरुषों के लिए निर्धारित काम में अपने पैर जमाने की कोशिश की, सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैंने हार नहीं मानी।” (I was in a man’s job trying to get a foothold, and even after everything I didn’t give up. TEDx TALK)

मेरे लिए, मेरी जैसी हर लड़की के लिए जो जैसे को तैसा रहने देने में विश्वास नहीं रखतीं, हम जो अपनी जगह बनाने, अपने अस्तित्व की लड़ाई में निगल सकती हैं समूचा का समूचा पहाड़, हमारे लिए सरोज ख़ान हिम्मत हैं। वे एक ऐसी औरत हैं जिन्होंने बचपन में ही मुझे सिखा दिया कि अच्छी नर्तकी होने के लिये लंबी काया, छरहरा बदन (slim-trim), भव्य सुंदर मुखड़े की जरूरत नहीं होती। यह सब समाज द्वारा आरोपित एक ढकोसला मात्र है, एक मिथ है। जो चीज़ें ज़रूरी हैं, वे हैं नृत्य की बारीकियां, मुखाभिनय, समर्पण भाव व निरंतर अभिनय।
उनका गुज़र जाना, दुःखद तो है ही, क्योंकि कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनसे बिना सीधे परिचय के भी वे आपके जीवन के अहम क़िरदार बन जाते हैं। उनका जाना बहुत तकलीफदेह होता है। पर सरोज ख़ान मुझे जाने बिना ही बहुत कुछ सिखा गयीं। मैं उनके दिए हुए हर कुछ को अपने आप में समेट कर बस चलती जा सकती हूं, मुस्कुरा सकती हूँ।
उनकी तस्वीर भर देख कर कैफ़ी आज़मी की प्रसिद्ध कविता याद आ जाती है ‘औरत’-

तोड़ ये अज़्म-शिकन दग़दग़ा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी है ज़मुर्रद का गुलू-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे.

सरोज ख़ान ज़िंदा हैं।
अपनी आर्ट में, अपने हौसले में और मेरे हौसले में।

{ निधि तुली की फ़िल्म ‘द सरोज खान स्टोरी’ का लिंक}

 

(कनुप्रिया अंबेडकर विश्‍वविद्यालय दिल्‍ली में बीए की छात्रा हैं। सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव के साथ संगीत में गहरी रुचि है। संगीत के दरभंगा घराने से गायन सीख रही हैं।)

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