Thursday, March 30, 2023
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समाज से सवाल करती फिल्में सेम्बी और वध

प्रशांत विप्लवी


2020 के अंतिम माह में बाल-शोषण पर दो फिल्में आईं– सेम्बी और वध। सेम्बी तमिल भाषा की फ़िल्म है और वध हिन्दी मुख्यधारा की फ़िल्म है। दोनों ही फिल्में हमारे समाज से कई सवाल करती हैं। आपको जानकार हैरानी होगी कि हमारे देश में पिछले तीन साल में बाल शोषण का अपराध बहुत बढ़ा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि भारत में पिछले तीन साल में बच्चों के खिलाफ 4,18,385 अपराध दर्ज किए गए. इनमें पॉक्सो एक्ट के तहत करीब 1,34,383 मामले दर्ज हुए। ऐसे मामलों में अधिकांश अपराध दर्ज़ ही नहीं होते हैं, खासकर ग्रामीण इलाके में या वैसी जगहों पर जहां समाज के दबे-कुचलों के परिवार के साथ ऐसी घटनाएं घटती हैं। पॉक्सो जैसे कठोर कानून के लागू हुए दस साल हो गए, इसके बावजूद ऐसी घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। समाज में पाशविक मानसिकता वाले रोगियों के खिलाफ़ ही यह दोनों फिल्में हैं। दोनों ही फिल्मों में  अपने-अपने तरीक़े से न्याय होते दिखाया गया है।

सेम्बी ! सेम्बी की कहानी में समाज और कानून के प्रति आस्था रखते हुए न्याय की बात की गई है। सेम्बी कोड़ई कनाल के सुदूर जंगली ग्रामीण अंचल की पृष्ठभूमि पर एक मेधावी आदिवासी बच्ची की कहानी है। सेम्बी अपनी दादी के साथ रहती है। उसके माता–पिता एक टूरिस्ट गाइड थे और एक दिन जंगल में लगी आग से पर्यटकों को बचाने के दौरान दोनों की जान चली जाती है। दादी अपनी पोती को लेकर बेहद आशान्वित है कि उसे पढ़ा–लिखा कर डॉक्टर बनाना है। सेम्बी भी उतनी ही होशियार है और वह डॉक्टर बनने का सपना लेकर जी रही है। दस साल की सेम्बी के साथ एक रोज़ एक हृदयविदारक दुर्घटना घटती है। सेम्बी को सिर्फ़ भेड़िये का डर लगता है इसलिए वह जब भी कहीं जाती है, यह तय करती है कि भेड़िये के इलाक़े से ना गुज़रे। लेकिन बहादुर दादी हमेशा सेम्बी को हिम्मत देती। एक रोज़ शहद बेचने शहर की तरफ़ जाते हुए सेम्बी को झाड़ियों में सरसराहट सुनाई दी और उसे अंदेशा हुआ कि शायद भेड़िया घात लगाया हुआ है। उसने ज़ोर–ज़ोर से शोर मचाकर भेड़िये को ललकारा और धमकाया लेकिन ये भेड़िये जंगल के नहीं थे कि भाग जाते। ये शहर के भेड़िये थे। ये बिगड़ैल नवाबज़ादे थे और नशे में धुत्त तीन भेड़ियों ने सेम्बी की मासूमियत को रौंद डाला। बच्ची की किसी तरह से जान बचाई जाती है। प्रदेश में चुनाव का माहौल है इसलिए उनके लिए यह मुद्दा बहुत अहम है। नेताओं से लेकर जनसंगठन तक उसे न्याय दिलाने सड़क पर उतर आए हैं लेकिन सेम्बी और उसकी दादी अपनी जान बचाने के लिए एक बस से भागे-भागे फिर रहे हैं। इसी बस के अंदर समाज के भिन्न चेहरों को देखा जा सकता है। कई घटनाक्रम दक्षिण भारतीय फिल्मों के पॉपुलर पैटर्न पर घटित होते हैं। दर्शकों से संवेदना बटोरने के क्रम में गंभीरता नष्ट करते हैं। इसी बस में सवार एक युवा वकील अपनी समझदारी और सूझबूझ से सेम्बी को न्याय दिलाने में सफल होता है। करप्ट सिस्टम और रसूखदारों से बचते बचाते उसे न्याय दिला पाना बड़ी कामयाबी है। पॉक्सो ऐक्ट की सख्ती और पीड़ितों के प्रति व्यवहारिक हमदर्दी बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। इससे ऐसे मनोरोगियों की पाशविकता नष्ट होनी चाहिए किन्तु कितना भयावह है कि इसके बावजूद किसी को ऐसे कठोर कानून का डर नहीं है।

वध ग्वालियर शहर के निम्न मध्यवर्गीय इलाके के जीवन पर आधारित है। मिश्रा जी अपनी पत्नी मंजू के साथ एक मुहल्ले में रहते हैं। उनका इकलौता बेटा अमेरिका में रहता है। मिश्रा जी ने अपने जीवन की तमाम पूंजी और कर्ज लेकर बेटे को अमेरिका भेज दिया। जो खुशी-खुशी अपनी बीबी और एक बेटी के साथ रह रहा है। मिश्रा जी यहाँ बैठकर उसका कर्ज़ चुका रहे हैं और बेटा बाप और माँ से ढंग से बात करना भी मुनासिब नहीं समझता है। मिश्रा जी के जीवन में कर्ज़ के अलावा कोई और कष्ट नहीं है। धर्मभीरु पत्नी पूजा – पाठ में व्यस्त रहती है और मिश्रा जी अपने अड़ोस-परोस के बच्चों को ट्यूशन देते हैं। बैंक के अलावा जो अतिरिक्त कर्ज़ उन्होंने पांडे जैसे माफ़िया से लिए थे, उसके लिए उन्हें खूब ज़लील होना पड़ता है। पांडे आए दिन लड़की और शराब लेकर मिश्रा के घर पहुंचता है और उनकी उपस्थिति में लड़की के साथ आपत्तिजनक व्यवहार करता है। मिश्रा जी और उनकी पत्नी खून का घूंट पीकर सब बर्दास्त करते हैं। एक रोज़ जब मिश्रा जी की पत्नी मंदिर पूजा के लिए गईं तब पांडे शराब लेकर मिश्रा जी के पास आया। मिश्रा जी पड़ोस की एक बच्ची को ट्यूशन देते थे जिसकी उम्र महज़ 12 साल की है , जिसे पांडे ने पहले भी देख रखा था। उस रोज़ हद तब हो गई जब पांडे शराब के नशे में मिश्रा से उस बच्ची को लेकर आने की बात कहने लगा। फ़िल्म यहाँ से अपनी असली कहानी वध की ओर रुख करती है। मिश्रा जी सबकुछ बर्दास्त करते रहे लेकिन यह असहनीय था। उन्होंने पांडे का खून कर दिया और फिर उन्होंने उसके लाश को टुकड़े-टुकड़े करके बोरी में भरकर जला दिया। उसकी अस्थियों को ले आए और उसे भी आटा चक्की में जाकर पीस दिया।

इस फ़िल्म की खासियत इसकी कास्टिंग थी। संजय मिश्रा और लीना गुप्ता जैसे दक्ष कलाकारों के अलावा पांडे (सौरभ सचदेवा) ने खलनायक की भूमिका में जान डाल दी। मानव विज भी पुलिस ऑफिसर के रूप में खूब जमे। संजय मिश्रा अपने संवादहीनता में भी वह कर जाते हैं जो अच्छे – अच्छे कलाकारों के वश में नहीं है। नीना गुप्ता उतनी ही सहजता से अपने किरदारों को जी लेती हैं। उनके हालिया पंचायत 1 और 2 वेब सीरीज़ ने उन्हें पुनः प्रतिस्थापित किया है। जसपाल संधु और राजीव बर्नवाल द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में भावनाओं के आधार पर दिए गए न्याय को जस्टीफ़ाई किया गया है। हालांकि फ़िल्म के वैसे रिव्यू जो दर्शकों द्वारा दिए गए हैं उन्होंने इस कत्ल को वध मानने में गर्व महसूस किया है। हालांकि एक फ़िल्मकार के लिए यह कतई तर्कसंगत नहीं है कि वे खून को वध साबित करें। आवेग में किए गए खून को वध कहा जा सकता था जब मिश्रा जी कानून में आस्था रखते और खून को कुबूल करते। उन्होंने उस लाश के टुकड़े किए, उसे जलाया, फिर पीस डाला। यह एक आम मनुष्य का मानवीय पहलू नहीं है। यह प्रवृत्ति एक अपराधी की श्रेणी में आती है। पांडे से घृणा होना स्वाभाविक है और समाज कभी-कभी ऐसे वहशी को सज़ा भी देता है। एक फ़िल्म से उम्मीद रहती है कि उससे हिंसक प्रवृति का बढ़ावा ना मिले।

सेम्बी में नाटकीयता होने के बावजूद संदेश अहिंसक हैं और एक उम्मीद दिखती है जबकि वध में हम अपने गुस्से और हिंसक मनोवृत्ति को पुष्ट कर सकते हैं। मनुष्य अपनी असंतुष्टि और क्षोभ में विचारहीन हो जाता है लेकिन फ़िल्म जब समाज को संदेश देने के लिए प्रतिबद्ध हो तब उसे संयत होना पड़ेगा। आवेग और रोष मानवीय त्रुटि है, कला में इसका कोई स्थान नहीं है।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि सेम्बी में सामूहिक बलात्कार हुआ और दोषियों को कानून ने आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। वध में उस बच्ची की मांग की गई और उस दुश्चरित्र खलनायक का कत्ल कर दिया गया।

 

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